शनिवार, 10 अप्रैल 2010

इनकी पुरी पहचान - अब्दुल्ला

नवाब साहब , उम्र 70 बरस, पता-कश्मीरी मोहल्ला, लखनऊ। लेकिन यह उनकी पूरी पहचान नहीं है। असल पहचान को जिंदा बनाए रखने के लिए इस बुजुर्ग को कितने पापड़ बेलने पड़ रहे हैं, जरा उस पर नजर डालिए। नवाब मियां सैयद नकी रजा अवध की बहू बेगम के वंशज है। उन्हें वसीका मिलता है। नवाब साहब लखनऊ के जिस मोहल्ले में रहते हैं, वहां से हुसैनाबाद वसीका दफ्तर तक पहुंचने का रिक्शे का किराया 25 रुपये है। यानि जिस दिन वह वसीका लेने को घर से निकलते हैं उन्हें रिक्शे से आने जाने के लिए पचास रुपये खर्च करने पड़ जाते हैं। इस उम्र में आने-जाने और दफ्तर में लगने वाला वक्त भी कितना तकलीफ देह होता होगा, उसे भी आसानी से समझा जा सकता है। लेकिन नवाब साहब को वसीका कितना मिलता है, यह सुनकर आप चौक जाएंगे। सिर्फ दो रुपये 98 पैसे महीने! दो रुपये 98 पैसे हासिल करने को आप पचास रुपये रिक्शे के किराए में ही खर्च कर देते हो, आने-जाने की जहमत अलग से, यह सवाल सुनकर नवाब साहब नाराज हो जाते हैं, कहते हैं-''तो क्या मैं अपनी पहचान को भी खत्म कर दूं? अपनी पहचान का यही तो एक दस्तावेजी सबूत है, वर्ना एक अरब की आबादी वाले इस मुल्क में कौन यकीन करेगा कि यह बूढ़ा बहू बेगम का वंशज है। मैं अपनी तकलीफ, आराम के लिए अपनी आने वाली नस्लों से भी ना इंसाफी नहीं कर सकता। आखिर उनकी पहचान भी तो खत्म हो जाएगी। अपने जीते जी, मैं ऐसे नहीं होने दूंगा।'' अपनी पहचान को जिंदा बनाए रखने के लिए जिद्दोजहद करने वाले नवाब मियां सैयद नकी रजा अकेले नहीं है। अवध के शासकों के यही कोई 1700 वशंज इस तरह की जिद्दोजहद में शामिल हैं। इन सभी को वसीका मिल रहा है लेकिन यह रकम एक रुपये, दो रुपये, पांच रुपये, दस रुपये बीस रुपये है। बस कुछ ही खुश किस्मत हैं, जिन्हें मिलने वाला वसीका चार सौ या पांच सौ रुपये है। अवध के शासकों के इन वंशजों के लिए रकम उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितना इसके जरिए अपनी पहचान को जिंदा रखना है। शायद यही वजह है कि जो रकम सुनने में बहुत मामूली लगती है, उसे हासिल करने के लिए होने वाली जहमत उनके लिए कोई मायने नहीं रखती है।

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