शनिवार, 10 अप्रैल 2010

आज पुरानी यादों से.....झांके बिन नहीं रहा गया ---=अब्दुल्ला

फ़िर वही मकाम आया है आज, जिससे गुज़रना हमारे दिलों पर फ़िर खंजर चलने से कम नहीं.आज ही के दिन हमारे मूसीकी़ की हसीन दुनिया में चमकता हुआ आफ़ताब गुल हो गया और छा गयी ऐसी तारीकी, कि आज तक हम उस उजाले के तसव्वूर में खुदी को भुलाये , खुद को भुलाये बस जीये जा रहे हैं.बचपन से हमने जब भी होश सम्हाला, अपने को इस सुरमई शाहानः आवाज़ की मोहोब्बत की गिरफ़्त में पाया, जिसे मेलोडी या सुरीलेपन का पर्याय कहा जाता रहा है.हम मश्कूर हैं इस सुरों के पैगंबर के, जिसनें हमारे जवानी को , एहसासात की गहराई को , प्यार की भावनाओं को परवान चढाया, और हमें इस लायक बनाया कि हम उस खुदा के साथ साथ उसके अज़ीम शाहकार की भी इज़्ज़त और इबादत कर सके.तब से आज तक वह नूरानी आवाज़ की परस्तिश सिर्फ़ मैं ही नहीं , आप सभी सुरों के दुनिया के बाशिंदे भी कर रहें है.काश होता ये कि मालिक हम सभी तुच्छ लोगों की ज़िंदगी में से कुछ दिनों को भी उनकी उम्र में जोड देते तो आज हम उस फ़रीश्ते की आवाज़ से मरहूम ना होते, और रोज़ रोज़ उनकी मधुर स्वर लहरीयों की छांव तले उस कुदरती मो’अजिज़ः को सुनते और बौराते फ़िरते.अभी वैसे भी मूसीकी़ के इस जहां में फ़ाकाकशी के अय्याम चल रहे है, और ऐसे में रफ़ी साहब की यादों में और उनके गाये हुए कालातीत गानों के सहारे ही मस्त हुए जा रहे हैं, अवलिया की तरह झूमें जा रहे हैं.आपको पिछले साल रफ़ी साहब की पोस्ट पर बताया ही था कि मैने अपने गायन के शौक का आगाज़ किया था उम्र के सातवें साल में उस बेहतरीन गीत से जिसे नौशाद जी नें फ़िल्म कोहिनूर के लिये राग हमीर में निबद्ध किया था, और रफ़ी साहब में अपनी पुरनूर आवाज़ में चार चांद लगा दिये थे -मधुबन में राधिका नाचे रे....उस दिन से रफ़ी जी के गानों का जुनून दिल में तारी हो रहा है.दिल दिन ब दिन हर गीत की गहराई में गोते खा कर नये नये आयाम खोज कर ला रहा है, हीरे मोती के खज़ाने निकाल रहा है. जैसे गीता को जितनी भी बार पढो उनती बार नये अर्थ निकल कर आते है, रफ़ी जी के गाये हर गीत को बार बार सुनने पर हर बार नया आनंद प्राप्त होता है.आज सुबह साडे़ छः बजे जब विविध भारती पर भूले बिसरे गीत में एक गीत सुना तो लगा जैसे रफ़ी साहब के लिये आज कुदरत भी सुबह सुबह तैय्यार हो कर सलाम करने आ गयी है.नाचे मन मोरा मगन तिकता धीगी धीगी.....मैं रोज़ जहां सुबह घूमने जाता हूं (अमोघ का स्कूल - डेली कॊलेज , इंदौर...) ,उसके रास्ते में ये गीत सुना.और संयोग ये कि हल्की हल्की बूंदा बांदी हो चुकी थी, और फ़िज़ा में वही एम्बियेंस घुल रहा था .उस माहौल को मैने कॆमेरे में कैद कर लिया, जहां बदरा गिर आये थे भीगी भीगी रुत में . मोर भी अपनी प्रियतमा के लिये नहीं आज खास तौर पर स्वयं रफ़ी जी के लिये ही अपने मोरपंखों को फ़ैलाये नृत्य कर रहा था. यकीन मानिये, इस फ़िल्म में कोई स्टॊक सीन नहीं है, बस आज प्रकृती नें भी रफ़ी जी के लिये अपना इज़हारे अकीदत पेश किया है.मानो रफ़ी जी के ही लिये ये पूरा महौल खास आज के लिये निर्मित किया गया हो.आज से हम हर तीसरे दिन मुहम्मद रफ़ी जैसी शक्सि़यत पर कुछ ना कुछ लिखेंगे.कुछ दिल से दिल की बात करेंगे, और अपने अपने दिलों को सुरों के इस राह पर ले जायेंगे, जिसका रहनुमा भी रफ़ी जी हैं और मंज़िल भी रफ़ीजी . कि़यामत आती हो तो आने दो.आईये, हम सभी श़ख्सी़ तौर पर उस पाक रूह की तस्कीन के लिये मिल कर दुआ करें, क्योंकि अब हमारे हाथ में दुआ करने के अलावा और कुछ भी नहीं जो उस श़क्स़ को नज़र कर सकें....तेरे गीतों में बाकी़ अब तलक वो सोज़ है, लेकिन..वो पहले फ़ूल बरसाते थे, अब दामन भिगोते हैं.......
नौशाद और रफ़ीनौशाद और रफ़ी जी के अद्वितीय जुगलबंदी का जलवा जो मेला फ़िल्म के गीत से दुनिया के नोटीस में आया वह दुलारी फ़िल्म के गाने - सुहानी रात ढ़ल गई , ना जाने तुम कब आओगे? के बाद और परवान चढा़ और मोहम्मद रफ़ी का नाम हर फ़िल्मी गीत सुनने वाले की ज़ुबान पर चढ़ गया. जब सहगल के साथ रफ़ी जी नें गाया तो हर गायक की तरह रफ़ी जी पर भी उनकी गायन शैली का प्रभाव पडा़. या यूं कहें, उस समय का गाने का तौर तरीका या स्टाईल ही सहगल की शैली पर आधारित था.मगर रफ़ी साहब के गले का मूल Timbre या स्वर स्वरूप मीठास लिये साफ़ सुथरा था.उन्हे सहगल के धीर गंभीर खरज की आवाज़ जैसा बनाने के लिये बडा़ प्रयत्न करना पडता था. ये नौशाद ही थे जिनने रफ़ी की रेंज और तार सप्तक में(याने ऊपर के ऒक्टेव में)पूरी एनर्जी लेवल से गा पाने की क्षमता का आकलन किया और उसका उपयोग एक अलग शैली विकसित कर हम जैसे संगीत प्रेमीयों पर अहसान किया. बाद में इसी तरह लता जी नें भी नूरजहां या सुरैया की शैली से बाहर निकल कर स्वयं की साफ़ और मीठास भरी गायक शैली की पहचान बनाई. मैं यहां ये नहीं कहना चाहूंगा कि सहगल या नूरजहां की शैली में कोई खराबी या गलती नहीं थी, मगर फ़िल्मों की पेस या चाल की तरह गानों में भी लय, स्पीड बढी़, और उस नये वातावरण में रफ़ी की आवाज़ नें उस गॆप को बखूबी भरा.इस बात पर नौशाद जी नें ये संस्मरण बताया था , कि रफ़ी जी भी खरज या लोवर ऒक्टेव में ही गीत गाते थे तो फ़िल्म दीदार के गानों की रिकोडिन्ग के दिनों में नौशाद नें रफ़ी से जब ये कहा की तुम्हारा आवाज़ खरज में यूं म्लान लगता है, जैसे की गला दबा रखा है. ज़रा खुल के गाओ, और गांभीर्य का पुट जरा हलका करो, ताकि जवां और अपरिपक्व नायक के नये चरित्र का प्रोजेक्शन हो सके.रफ़ीजी को बात जंच गई.मगर उन्होनें नौशाद साहब से ही कहा कि आप ही कोई ऐसी धुन बनायें तो मैं उसे गाने की कोशिश कर सकूंगा.तो उस कालजयी गाने की धुन नें जन्म लिया -मेरी कहानी भूलने वाले, तेरा जहां आबाद रहे..जब ये धुन नौशाद नें रफ़ी को सुनाई, तो पहली बार तो वे सुन कर एकदम अवाक ही रह गये, क्योंकि उससे पहले दिल्लगी, अनमोल घडी़ , मेला आदि फ़िल्मों की धुनों से ये तर्ज़ एकदम अफ़लातून ही थी.फ़िर भी रफ़ी ने ये चेलेंज सर आंखों पर लेकर रात दिन मेहनत की. कई बार नौशाद जी को फ़िर पूछा कि यहां समझ नही आ रहा है, कृपया फ़िर से बतायें. उस नई शैली के गीत को इस तरह कई बार मांजा गया, क्योंकि उस समय नौशाद नें वहां वहां थोडा़ मुरकी में या स्वरों के उतार चढाव में बदलाव किया जिससे रफ़ी जी के गले की तरलता की , लचीलेपन के अनोखे गुण से गीत के माधुर्य में मेलोडी़ में अद्भुत रसोत्पादन हो सके.साथ साथ वे रफ़ी जी के आत्मविश्वास को भी बढा़वा देते रहे.आखिर एक दिन आया और रफ़ी जी नें कहा मैं तैयार हूं और आनन फ़ानन में दो तीन ट्रायल में ही गाना रेकोर्ड़ कर डाला!!संयोग से इस फ़िल्म के नायक युसुफ़ दिलीप कुमार , निर्देशक नितिन बोस भी इस ध्वनिमुद्रण के समय एच एम वी के फ़्लोरा फ़ाउंटन के स्टुडियो में हाज़िर थे. जब रफ़ी रिकोर्डिंग खत्म कर रूम से बाहर आये तो दोनों नें रफ़ी जी को कस के गले लगा लिया, और कहने लगे कि ये गाना हिट होने से कोई भी नहीं रोक सकेगा. उन दिनों गाना फ़िल्म के लिये ध्वनि मुद्रित तो होता ही था जो फ़िल्म के ओरिजिनल साउंड़ ट्रेक के हिसाब से बनाया जाता था, जिसमें तीन स्टॆन्झा होते थे .मगर साथ में 78 rpm की डिस्क जिसे हम रिकोर्ड कहते थे,के लिये भी अलग ट्रॆक रिकोर्ड होता था, क्योंकि सीमित जगह की वजह से अमूमन दो ही स्टॆंन्झा उसमें आ पाते थे. इसीलिये आप को मालूम ही होगा कि रेडियो पर या अधिक जगह पर वही संस्करण बाज़ार में सुना जाता था. बाद में जब लॊंन्ग प्लेयिंग रिकोर्ड का उद्भव हुआ तो वहां हम लोगों के लिये ओरिजिनल साउंड़ ट्रेक उपलब्ध होनें लगा.तो उस समय उर्जावान गानें की आपाधापी में रिकोर्डिस्ट जी एन जोशी बोले, कि अभी समय है, अगर रफ़ी जी थक नहीं गये हों तो दूसरा वर्शन भी आज ही कर लें? रफ़ी जी नें तपाक से हां भर ली, और दूसरा वर्शन भी आनन फ़ानन में मुद्रित हो गया. तो जोशी जी जिन्होने इससे पहले कई गायकों को रिकोर्ड किया था ,नौशाद साहब से बोले- नौशादसहाब, ये नौजवान गायक तो निराला ही है, कोहिनूर से भी ज़्यादा चमक पैदा करेगा, इंडस्ट्री में खूब कामयाबी हासिल करेगा. नौशाद बोले- इंशाल्लाह !!!चलो , सुनते है- मेरी कहानी ..आपने सुना और देखा- स्थाई में रफ़ी जी खरज में पंचम तक और अंतरे में तार सप्तक में भी पंचम तक चले जाते है !! क्या बात है, किस अजब , गज़ब रेंज का मुजहिरा किया है जनाब . मगर ये भी मानना पडेगा कि अभिनय के सम्राट दिलीप कुमार इस गाने के उत्तुंग स्वरों को अभिनय के साथ मिलान नहीं कर पाये...(क्या आप सहमत है?)और फ़िर क्या था, ऐसे खुली आवाज़ वाले गानों का चलन बढने लगा और उस शैली का विकास हुआ जिसमें खुले स्वर के साथ True Notes का उपयोग कलात्मक मुरकियों और संवेदनशील भावना से भीगे स्वरों का अभिर्भाव हिंदी फ़िल्मों के हुआ , जो अब तक चलता आ रहा है. (बाद में किशोर कुमार नें True notes के साथ साथ False notes की सुरमई संमिश्रण की शैली विकसित की जिसका वृहद रूप आज के गायकों की गायन शैली में दिखता है- इसका जिक्र बाद में जब हम किशोर और रफ़ी के स्वरों का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे, अगले किसी पोस्ट में)रफ़ी जी नौशाद साहब नें की हौसला अफ़ज़ाई को कभी भूल नही पाये, और उनके स्वभाव में भी ये बर्ताव रच बस गया, जो बाद में कई स्थान पर हमें देखने को मिला. नौ्शाद साहब हमेशा उनके गॊड फ़ादर रहे.जब रफ़ी जी की बिटिया की शादी का न्योता देनें रफ़ी नौशाद जी के यहां पहुंचे तो कहा आपको आना है, निकाह का इंतेज़ाम और पार्टी ताजमहल होटल पर रखी है, तो नौशाद जी नें उन्हे कहा - कि अपनी बिटिया नें अपना बचपन अपने घर में गुज़ारा है, जहां लाखों यादें और भावनांयें उस वास्तु के साथ बाबस्ता हैं , तो मेरा सुझाव है कि आप शादी तो अपने घर से ही करिये, भले ही वह छोटी जगह है.वही हुआ , शादी उनके घर में (रफ़ी विला) ही हुई.बकौल नौशाद के - एक साल बाद, जब रफ़ी नाम का ये सूरज अर्श पर स्थापित हो गया था, तो बैजु बावरा फ़िल्म के एक गानें के बारे में एक विशेष प्रभावित करने वाला संस्मरण सुनिये.इस फ़िल्म में छोटा बैजु और उसके पिताजी रास्ते पर से साचो तेरो नाम नाम गाते गाते तानसेन की हवेली के सामने से जाने का प्रसंग था.इस गीत के लिये बैजु बावरा के पिता की आवाज़ के लिये मैने रफ़ी का चयन किया, और बैजु की बालक आवाज़ के लिये एक गुणी और तैयार बच्चे का चयन किया, जिसका इस तरह का प्ले बॆक देने का पहला ही अवसर था.ज़ाहिर है, वह रफ़ी जी के सामने कभी बिचकने या डरने लगा तो कभी घबराकर अटकने लगा. तो रफ़ी जी नें उस प्रतिभावान बालक को प्रेम से पुचकार कर गले से लयाया और उसका आत्मविश्वास जागृत किया.ये भी कहा कि बेटा घबराने की कोई बात नहीं है, तुम जब तक बोलोगे या संतुष्ट होगे , हम लोग गाते रहेंगे. बडी मेहनत के बाद वह गीत तैय्यार हुआ और बेहद अच्छा बना.पता है वह बालक कौन था- आज का प्रसिद्ध गायक, और संगीतकर हृदयनाथ मंगेशकर...!!!रफ़ी जी पर कडी़ और आगे भी- सी रामचन्द्र, महेंद्र कपूर , चित्रगुप्त , ओ पी नय्यर , जिन्हे हम इस जनवरी में याद कर रहे हैं जन्म दिन या बरसी पर, उनके साथ रफ़ी के गीतों को और उनके साथ यादों की जुगाली करेंगे - हम लोग...
ना जाने तुम कब आओगे- रफ़ी और नौशाद - Musical Legends पिछली बार मैंने आप से वादा किया था कि रफ़ी साहब के साथ भारतीय फ़िल्म जगत के एक महानतम संगीतकार जनाब नौशाद अली के बारे में कुछ लिखूंगा.वैसे आप लोग तो मेरे वादों से तंग आ गये होंगे. मुझे याद है, मैने ’दिलीप के दिल से ’ की संगीत ब्लॊग यात्रा शुरु की थी तो बाकायदा रफ़ी साहब के लिये एक Structured , योजनाबद्ध लेखमाला शुरु की थी. आपमें से कई लोगों के लिये अब भी शायद उसे पढना अच्छा लगे.मगर , भावुकता और प्रेमवश और साथ ही में तिथियों के लिहाज से अलग अलग विषयों पर लिखना शुरु किया.कभी समय अभाव रहा तो अधिकांश ब्लॊग समय से लेट ही लिख पाया.वैसे मैंने सोचा था कि समय पर सभी लिखेंगे, अगर मैंने बाद में भी लिखा तो क्या, ठीक तो लिखना ही पडेगा.तो देखा आपने, मैने पहले भी रफ़ी जी पर ७ पोस्ट लिख डा़ले है, और एक पोस्ट थी रफ़ी और नौशाद का अज़ीम शाहकार - मधुबन में राधिका नाचे रे...अभी पिछले हफ़्ते २४ दिसेंबर को रफ़ी साहब का और २५ दिसेंबर को नौशाद जी का जन्म दिन था. तो ये पोस्ट उन दोनों के नाम समर्पित है.आगे भी वही पुरानी प्लानिंग के हिसाब से चल देंगे, सिर्फ़ एक उस पोस्ट को लिख कर जिसका वादा किया था - एस.डी.बर्मन,गुरुदत्त, प्यासा,हेमंत कुमार ,साहिर, रफ़ी सबसे जुडा एक संस्मरण.( फ़िर वादा..वादा तेरा वादा..)रफ़ी और नौशाद ये दोनो नाम एक दूसरे के पूरक रहे हैं इसमें कोई शक नही. रफ़ी साहब नें तो इतने सारे संगीतकारों के साथ काम किया, मगर नौशाद नें रफ़ी के अलावा बाकी गायकों के साथ अनुपात से कम ही काम किया.इसके बारे में नौशाद नें हमेशा कबूल किया था कि उनकी धुनों को सबसे बेहतर सिर्फ़ रफ़ी ही गा सकते थे.अब देखिये ना. सन १९४४ में किसीने रफ़ी जी को नौशाद जी के वालिद से मिलवाया और उन्होने नौशाद जी के लिये एक शिफ़ारशी खत लिख कर दिया. नौशाद नें उसका मान रखते हुए रफ़ीजी को एक कोरस गीत में सबसे पहले चांस दिया -पहले आप (१९४४)जिसमें उनके सह गायक थे दुर्रानी, श्याम कुमार, अल्लाउद्दिन, मोतीराम आदि.गाने के बोल थे -" हिन्दोस्तां के हम है, हिन्दोस्तां हमारा, हिंदु मुस्लिम दोनों की आंखों का तारा " .चूंकि उन दिनों माईक एक ही हुआ करता था, सभी गायक उसे घेर के खडे हुए. सैनिकों पर फ़िल्माये इस गीत के मार्चिंग रिदम के लिये सभी गायकों को आर्मी के बूट पहनाये गये और ओरिजिनल ध्वनी रिकोर्ड की गयी.१९ वर्ष के रफ़ी के पैरों में छाले पड गये थे. मगर वो था उनके करियर का आगाज़, और वे थे एक उदियमान कलाकार,क्या बोल पाते?मगर यहां एक बात जो कम लोगों को मालूम होगी बताना चाहूंगा, जिससे, रफ़ी जी के निर्मल और गर्व रहित चरित्र का दर्शन होता है.वह उस समय की बात है, जब वे फ़िल्मी संगीत के सर्वश्रेष्ठ और मशहूर पार्श्वगायक हो गये थे, और लगभग ६०% से ज़्यादा के अनुपात में उन्हे गीत गाने को कहा जाता था.लगभग सन १९६४-६५ की बात थी, जब संगीतकार मदन मोहन फ़िल्म हकीकत के लिये एक भावुक प्रसंग का समर गीत रिकॊर्ड कर रहे थे जिसमें रफ़ी जी के साथ मन्ना डे,तलत महमूद और भूपेन्द्र भी सह गायक थे.होके मजबूर मुझे , उसने भुलाया होगा...उस समय तो निस्संदेह रफ़ी साहब का नाम ऊंचाईयों पर था.मगर परेशानी फ़िर भी वही थी, एक ही माईक. उस पर संयोग ये कि बाकी सभी गायक उनसे कद में थोडे लंबे ही थे. तो परेशानी ये दर पेश आयी कि माइक को किसके हिसाब से एड्जस्ट किया जाये? अब रफ़ी साहब के हिसाब से एड्जस्ट करते हैं तो बाकीयों को परेशानी, और रफ़ी जी से कहने का सवाल ही नही पैदा होता था ऐसा उनका स्टेटस था उन दिनों.मगर सरल और निश्छल मन के रफ़ी साहब ने खुद ही ये सुझाव दिया कि वे बाकी सभी के हिसाब से हाईट फ़िक्स कर दें, और वे किसी तरह से किसी स्टूल पर चढ कर गा लेंगे. तो साहब, आनन फ़ानन में स्टूल ढूंढा गया, मगर एक मिला भी तो थोडा छोटा पडा, जिससे रफ़ी साहब माईक से फिर भी नीचे ही रह गये. फ़िर भी रफ़ी साहब नें पूरे रिहल्सल में और फ़ाईनल टेक तक उस स्टूल पर चढ कर गाना रिकॊर्ड करवाया. और कमाल देखिये उनकी आवाज़ के थ्रो या एनर्जी लेवल का कि उनके स्वरों में और गले की जादुगरी की गहराई में कोई कमी नहीं आयी.(उन दिनों इतनी सारी तकनीकी मदत नही मिला करती थी)अभी कुछ सालों पहले, जब भूपेन्द्र नें लता मंगेशकर पुरस्कार समारोह मे बतौर कलाकार एक कार्यक्रम देनें इन्दौर आये थे, तब इस बात की पुष्टि स्वयम उन्होने की और कहा कि उनमें बडे़ कलाकार होने का कोई भी दंभ नहीं था. निसंदेह , उस समय के उपस्थित सभी गायकों में वे सबसे शीर्ष पर थे, मगर मन्ना दा,और तलत मेहमूद को पूरी श्रद्धा और इज़्ज़त देते थे और यही ज़ज़बा इन मूर्धन्य कलाकारों के व्यवहार में झलकता था.उस दिन ये दोनों भी काफ़ी असहज से थे ये देख कर कि इतना बडा कलाकार उनकी वजह से स्टूल पर खडा हो कर गाने में नहीं हिचकिचा रहा है.आप सभी ये बात तो जानते ही होंगे कि रफ़ी, किशोर दा, हेमंत दा, मुकेश, लता सभी सेहगल साहब के दिवाने थे, और दिल के अंदर एक सपना पाल के रखा था सहगल के साथ गानें का, मगर संयोग ये रहा कि सिर्फ़ रफ़ी जी का ही ये सपना पूरा हो पाया ,जब नौशाद जी नें ही दुबारा रफ़ी को मौका दिया सहगल के साथ गानें में फ़िल्म शहाजहान में ( १९४६) जब मजरूह द्वारा लिखे गये गीत " रूही रूही रूही, मेरे सपनों की रानी " में उन्हे दो लाईन गाने का मौका मिला.मगर असल में रफ़ीजी को वास्तव में एक असली पार्श्वगायक बनने का जब उन्हे नौशाद साहब नें ही फ़िर मौका दिया फ़िल्म अनमोल घडी में (१९४६)- तेरा खिलौना टूटा बालक जिसमें रफ़ी जी नें गायकी के साथ अदायगी का भी एक नया रंग भरा पार्श्वगायन की विधा में, और फिर शुरु हुआ एक नया युग.आप मेरी बात से सहमत होंगे कि इसके पहले के सुपर गायक सहगल जब गाते थे तो वे केवल अपने ही गाने पर पार्श्व गायन करते थे जो फ़िल्म के उनके चरित्र पर सूट करती ही थी. मगर जब बाद में पार्श्व गायन का ज़माना आगे आने लगा तो ज़रूरत पडनें लगी ऐसे गायकों की जो अलग अलग अभिनेताओं के अलग अलग चरित्र से ना केवल मेल खाये, गीत सुनते हुए श्रोता के मन में गायक और अभिनेता एकरूप हो जायें. रफ़ी साहब नें अपने अलग अंदाज़ से फ़िल्म इंडस्ट्री का चलन और फ़िल्मी गीतों का स्वरूप ही बदल गया, जिसे बाद में अन्य मूर्धन्य गायकों नें भी अपनाया और हमें इतनी अच्छी अच्छी कालजयी संगीत रचनाओं से धन्य धन्य कर दिया.मगर नौशाद साहब को रफ़ी जी को खोजने और बनाने का श्रेय ज़रूर जाता है, और ये वे ही तो थे जिन्होने ये पाया कि रफ़ी साहब की आवाज़ में ना केवल मधुरता थी, या दमदार थ्रो था, मगर उनकी आवाज़ में गज़ब की रेंज थी, ऊंचाई थी. उनकी आवाज़ की कशिश और दर्द की रवानी तो थी ही ,मगर उनके गले में जो जादुई हरकतें थी,जो तानें और आलाप का नियंत्रित मेनिफ़ेस्टेशन था, वो तो कुछ और ही बंदिश या धुन मांगता था. नौशाद जी नें ये चेलेंज स्वीकार किया और हमें ऐसी धुनें दीं, जो उनके उन दिनों की कम्पोझिशन से अलग थी- फ़िल्म मेला (१९४८) - ये ज़िन्दगी के मेले .फ़िर क्या था , सन १९४९ से एक से एक मधुर गीतों की झडी लग गयी- दुलारी, अंदाज़, चांदनी रात, दिल्लगी & So On....नौशाद ही वे संगीतकार थे, जिन्होने भारतीय संगीत की मेलोडी को गीतों में ढा़ला, शास्त्रीय रागों और लोकगीतों के अनमोल खज़ानों को आम आदमी के दिलों के भीतर उंडेल कर रख दिया, जिसके लिये हम उनके बडे ही शुक्रगुज़ार है.उनकी एक एक धुन मानों स्वरोंकी कशीदाकारी किये हुए पैरहन है.आज ही विविध भारती पर नश्र किये गये एक कार्यक्रम में खुद लता जी ने क्या खूब कहा - कि पहले हमारे संगीतकार जो गीत रचते थे उनमें गायक या गायिका का गाना प्रधान होता था, और रिलीफ़ देने, या स्वरों के अम्बियेन्स को और खुलाने के लिये ऒर्केस्ट्रा हुआ करता था. आजकल तो ऒर्केस्ट्रा प्रधान और सर्वोपरी हो गया है, और गायक को रिलीफ़ के लिये डाला जाता है. नौशाद साहब उस स्कूल के संगीतकार थे.एक और दिलचस्प बात.फ़िल्म अंदाज़ में नौशाद जी नें पहली बार लताजी के साथ एक ड्युएट गवाया रफ़ी जी के साथ- यूं तो आसपास में .. .क्या आपने नोट किया? इसे राज कपूर पर फ़िल्माया गया और दिलीप कुमार के लिये मुकेश जी नें गाया.( मैने ये फ़िल्म नही देखी है, मगर सुना है.आप कंफ़र्म करें तो बेहतर होगा)बाद में यही कॊंबिनेशन उलटा ही मशहूर हुआ ये आप सभी जानते है.चलो , ये कडी़ यहीं विराम चाहती है, अगले अंक में नौशाद और रफ़ी जी के अनेक खुशनुमा और हृदयस्पर्शी संस्मरण ले आऊंगा, अगर इज़ाज़त हुई तो.यहां उस गीत का एक अंश सुनवा रहा हूं , जो रफ़ी साहब का प्रथम गीत था.करीब ८ साल पहले इंदौर में रफ़ी साहब पर दिये गये एक कार्यक्रम- रफ़ी के अनेक भाव रंग मे प्रस्तुत करने के लिये मेरे आग्रह पर श्री संजय पटेल नें ये गीत मेरे लिये लाने की ज़ेहमत उठाई थी - श्री सुमन भाई चौरसिया के रिकॊर्ड भंडार में से - तो उस की विडिओ से निकाल कर यहां पेश कर रहा हूं.जीवन की सबसे बडी़ दुखद बात ये रही कि मेरे गायकी का इतना बडा लंबा सफ़र मैने वैसे तो मधुबन में राधिका नाचे गीत से सात साल की उम्र में किया, मगर बाद में संयोग से या दुर्भाग्य से, रफ़ी और नौशाद का एक भी गीत चाहते हुए भी स्टेज पर नही गा सका. ( सुहानी रात ढल चुकी- शायद एक बार गाया था)
बहुत पुरानी फाईलों में से आज एक नायब चीज मिल गई जनाब नौशाद साहेब से मुलाकात के तेईस दिन क्या यादें हैं उन दिनों की अपने आप को आज भी उन खास पलों के चलते बहुत भाग्यशाली मन्ना परता है मुझे एक पल नौशाद साहेब के पास तो दूसरे ही पल हसरत जयपुरी के पास वाह धन्य था मैं उन दिनों काश आज वो पल एक सेकेण्ड के लिए ही सही आ जाता आइये उन पलों के दौरान कलम से उगली कुछ दास्ताँ आपके लिए पेशे नजर है - जानकारी - साभार स्वयं नौशाद

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