रविवार, 14 नवंबर 2010

ताजी तस्वीर

वह पल जो कभी कभी आता है और याद बना रह जाता है ............








शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

खास बात

ये कुछ पंक्तियाँ अमृता प्रीतम के मशहूर उपन्यास रसीदी टिकट से ली गयी हैं। मेरी पसंद के कुछ उपन्यासों में से एक है और इसे पढ़कर आप भी पूरा उपन्यास पढने की कोशिश करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है................

परछाइयां बहुत बड़ी हक़ीकत होती हैं। चेहरे भी हक़ीकत होते हैं। पर कितनी देर ? परछाइयां, जितनी देर तक आप चाहें.....चाहें तो सारी उम्र। बरस आते हैं, गुज़र जाते हैं, रुकते नहीं, पर कई परछाइयां, जहां कभी रुकती हैं, वहीं रुकी रहती हैं.......जब घर में तो नहीं, पर रसोई में नानी का राज होता था। सबसे पहला विद्रोह मैंने उसके राज में किया था। देखा करती थी कि रसोई की एक परछत्ती पर तीन गिलास, अन्य बरतनों से हटाए हुए, सदा एक कोने में पड़े रहते थे। ये गिलास सिर्फ़ तब परछत्ती से उतारे जाते थे जब पिताजी के मुसलमान दोस्त आते थे और उन्हें चाय या लस्सी पिलानी होती थी और उसके बाद मांज-धोकर फिर वहीं रख दिए जाते थे। सो, उन तीन गिलासों के साथ मैं भी एक चौथे गिलास की तरह रिल-मिल गई और हम चारों नानी से लड़ पड़े। वे गिलास भी बाकी बरतनों को नहीं छू सकते थे, मैंने भी ज़िद पकड़ ली और किसी बरतन में न पानी पीऊंगी, न दूध। नानी उन गिलासों को खाली रख सकती थी, लेकिन मुझे भूखा या प्यासा नहीं रख सकती थी, सो बात पिताजी तक पहुंच गई। पिताजी को इससे पहले पता नहीं था कि कुछ गिलास इस तरह अलग रखे जाते हैं। उन्हें मालूम हुआ, तो मेरा विद्रोह सफल हो गया। फिर न कोई बरतन हिन्दू रहा, न मुसलमान। उस पल न नानी जानती थी, न मैं कि बड़े होकर ज़िन्दगी के कई बरस जिससे मैं इश्क़ करूंगी वह उसी मज़हब का होगा, जिस मज़हब के लोगों के लिए घर के बरतन भी अलग रख दिए जाते थे। होनी का मुंह अभी देखा नहीं था, पर सोचती हूं, उस पल कौन जाने उसकी ही परछाई थी, जो बचपन में देखी थी.........

प्रस्तुति साभार

पति की फिल्म से ब़डे पर्दे पर उतरीं पाखी

यदि फिल्मोद्योग में अपनी जगह बनानी है तो किसी निर्देशक की पत्नी बनना कारगर हो सकता है।
नवोदित अभिनेत्री पाखी ने अपने निर्देशक पति अब्बास टायरवाला की फिल्म "झूठा ही सही" से अपने अभिनय की शुरूआत की है। फिल्म में पाखी का किरदार 30 मिनट से ज्यादा अर्से के बाद प्रवेश करता है। पाखी को लगा कि इस तरह वह लोगों को बहुत देर से पर्दे पर दिखेंगी। अब वह टायरवाला के इस सुझाव से सहमत हैं कि दर्शक उन्हें एक ऎसे गीत में देखें जो उनके किरदार के पर्दे पर आने से काफी पहले ही कहानी में शामिल होगा।
पाखी कहती हैं, ""ऎसा नहीं है कि नए गीत को केवल मुझे पर्दे पर उतारने के लिए कहानी में शामिल किया गया है। पहले से ही इस गीत की योजना थी। बस इतना हुआ है कि पहले फिल्म में किसी और स्थान पर यह गीत आना था और अब यह पहले ही आ जाएगा।""
पाखी ने कहा, ""मैं फिल्म में धीमी गति में नहीं दिखती न ही मैंने प्रत्येक दृश्य में बार-बार पोशाकें बदली हैं। मैंने एक सामान्य ल़डकी की भूमिका निभाई है। मैं "झूठा ही सही" में केंद्रीय किरदार नहीं हूं। इस कहानी में जॉन अब्राहम का किरदार केंद्रीय है। मुझे यह समझना चाहिए। पटकथा मैंने ही लिखी है।""
पाखी उनकी लिखी हर पटकथा में खुद को ही पेश करना नहीं चाहतीं। वह कहती हैं कि उनकी अगली पटकथा के लिए अभिनेत्री प्रियंका चोप़डा एकदम सही हैं। उन्होंने कहा कि वह सिर्फ अपने लिए ही पटकथाएं नहीं लिखेंगी। उन्हें लगता है कि "झूठा ही सही" में उनके काम पर ध्यान दिया जाएगा और अन्य पटकथा लेखक व निर्देशक भी उनकी फिल्मों में उन्हें लेने के लिए उनसे सम्पर्क करेंगे।
पाखी कहती हैं कि उन्होंने केवल जॉन के साथ अभिनय करने के लिए ही "झूठा ही सही" की पटकथा लिखी थी। जॉन कॉलेज में पाखी के साथी थे और वह उनके प्रति बहुत आकर्षित थीं।

22 अक्टूबर को रिलीज होगी झूठा ही सही

मुम्बई। बॉलीवुड अभिनेता जॉन अब्राहम की फिल्म झूठा ही सही शुक्रवार को सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो रही है। जॉन को निर्देशक अब्बास टायरवाला की फिल्म झूठा ही सही से काफी उम्मीदें हैं।
इस फिल्म में उन्होंने एक बुक स्टोर में काम करने वाले सामान्य से ल़डके की भूमिका निभाई है।
झूठा ही सही में टायलवाला की पत्नी व फिल्म की पटकथा लेखिका पाखी ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
जॉन का मानना है कि इस फिल्म को उनके प्रशंसक जरूर पसंद करेंगे। जॉन ने कहा, मेरी कद-काठी पर बहुत ध्यान दिया जाता है। इससे मेरा अभिनय छुप जाता है। जब मैं कोई रोमांस से भरी अच्छी भूमिका करता हूं तो लोग उसे किसी और तरह परिभाषित करते हैं। मैं जैसा दिखता हूं उसके लिए मुझे कोई अफसोस नहीं है लेकिन इसकी वजह से मेरा अभिनय छुप जाता है और लोग मेरी कद-काठी पर ही ध्यान देते हैं। उन्होंने कहा कि वह चाहते हैं कि उनके अभिनय पर भी ध्यान दिया जाए क्योंकि वह इसके लिए वास्तव में क़डी मेहनत करते हैं।> उन्होंने बताया कि जब टायरवाला ने उन्हें किरदार के विषय में बताया तो उन्हें इस बात का डर नहीं था कि वह कैसे दिखेंगे बल्कि इस बात की चिंता थी कि क्या वह इस भूमिका के साथ न्याय कर सकेंगे। उन्होंने कहा, जब मैंने फिल्म देखी तो मुझे अपने किरदार से प्यार हो गया क्योंकि सिर्फ यही फिल्म मेरी अपनी है जहां पहले तीन मिनट में तो पर्दे पर जॉन अब्राहम दिखता है और उसके बाद मैं भूल जाता हूं कि मैं जॉन हूं और मैं सिर्फ सिड (किरदार) पर ध्यान देता हूं और यही इस किरदार और निर्देशक की जीत है |

एक्शन सस्पेंस से भरपूर है आक्रोश

निर्माता: कुमार मंगल पाठक
निर्देशक: प्रियदर्शन


कलाकार: अजय देव

गन, बिपाशा बसु, अक्षय खन्ना, परेश रावल, रीमा सेन, अमिता पाठक

अगर आप एक्शन या सस्पेंस फिल्मों के दीवाने है तो आक्रोश आपको जरूर पसंद आएंगी। आक्रोश ऑनर किलिंग (जिसमें अपनी जाति से बाहर शादी करने वाले लडके या लडकी की हत्या कर दी जाती है) पर बनी फिल्म है, लेकिन फिल्म में सामाजिक समस्या कम और मारधाड वाले सीन ज्यादा प्रभावशाली तरीके से फिल्मित हुए है। फिल्म हॉलीवुड फिल्म मिसिसिपी बर्निग से प्रेरित है।

कहानी: आक्रोश की पृष्ठभूमि बिहार है। दिल्ली के मेडिकल कॉलेज में पढने वाले तीन लडके बिहार जाते है। इनमें एक दीनू नाम का लडका बिहार का ही है। वह दलित है लेकिन ऊंची जाति की लडकी से प्यार करता है। तीनों लडकों का बिहार में अपहरण हो जाता है और उसके बाद उनके गायब होने का मामला सीबीआई को सौंपा जाता है। सीबीआई के अफसर सिद्वांत चतुर्वेदी (अक्षय खन्ना) और फौज के अधिकारी प्रताप कुमार (अजय देवगन) जॉच करने के लिए झॉझर आते हैं, लेकिन उनके लिए यह कार्य आसान नही रहता। प्रताप बिहार का ही निवासी है और अच्छी तरह जानता है कि जातिवाद की ज़डे झांजर जैसे गांव में कितनी गहरी हैं। प्रताप अपनी चतुराई से मामले की जांच करता है जबकि सिद्धांत कॉपीबुक तरीके से सीधे काम करने में यकीन रखता है। इस कारण दोनों के बीच टकराहट भी होती है। (परेश रावल) एक भ्रष्ट पुलिस अधिकारी की भूमिका में है जो झांझर में अपनी एक शूल सेना का मुखिया भी हैं जो समाज के ठेकेदार होने के नाते ऑनर किलिंग कर मासूम लोगों को मौत के घाट उतार देते है। गॉव की पुलिस, नेता और प्रभावशाली लोग आपस में मिले हुए है और इस बारे में कोई बोलने को तैयार नहीं है। सिद्वांत और प्रताप पीछे नहीं हटते और तमाम मुश्किलों के बावजूद मामले की तह तक जाते हैं।
फिल्म में चुस्ती और तेजी है। अक्सर सामाजिक समस्या पर केंद्रित फिल्म ढीली और भाषणबाजी से भरी होती है। आक्रोश के साथ ऎसी बात नहीं है। ये एक हालात के उतार चढाव की उत्तेजना देने वाली फिल्म है। अजय देवगन एक अपराधी का पीछा करने वाला और फिर जंगल से गुजरने वाला दृश्य तो बहुत रोचक है। हालांकि अक्षय खन्ना भी जमें है, लेकिन अजय देवगन के एक्शन के लिए फिल्म में ज्यादा गुंजाइश रखी गई है।
भाषा का बिहारी लहजा भी खासा रोचक है। परेश रावल हंसोड खलनायक की भूमिका में है। अजय के बाद फिल्म में सबसे प्रभावशाली चरित्र परेश का ही है। फिल्म में गीता की भूमिका निभाने वाली बिपाशा बसु से अच्छा अभिनय रीमा सैन ने किया है। समीरा रेड्डी ने आइटम नंबर करके बाजी मार ली। लेकिन इन पक्षों को छोड दें तो आक्रोश कुछ मायनों में निराश भी करती है।
जांच के लिए किसी सीबीआई ऑफिसर का जाना तो समझ में आता है लेकिन उसके सहयोगी के रूप में फौजी अधिकारी का जाना समझ में नहीं आता है।



क्या क्या होता है भाई .....

बीते दो महीने से पूरे उत्तर प्रदेश के माध्यमिक शिक्षकों का वेतन नहीं मिला है। पता यह चला है माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने एक केस में शिक्षा निदेशक या प्रिंसिपल सेक्रेटरी के खिलाफ अवमानना का नोटिस इश्यु कर दिया। जिसमे पूरे उत्तर प्रदेश के सभी कालेजो में सिर्जित पदों का ब्यौरा माँगा गया था। साहब लोग ब्यौरा उपलब्ध कराने में तो नाकाम रहे। उलटे ये आदेश पारित कर दिया कि जब तक सभी जिलों के जिला विद्यालय निरीक्षक द्वारा , माँगा गया ब्यौरा उपलब्ध नहीं करा दिया जाता तब तक किसी भी शिक्षक और कर्मचारी का वेतन नहीं दिया जायेगा।चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर प्रिंसिपल और प्रिंसिपल से लेकर जिला विद्यालय निरीक्षक तक सभी इस ब्योरे को उपलब्ध कराने में लग गए। एक महीना निकल गया। जून के महीने में शिक्षक और कर्मचारी बच्चों को कहीं घुमाने ले जाने के बजाये दो जून की रोटी को तरस गए। अब दो महीने निकल गए और वेतन का कोई पुरसानेहाल नहीं है। विद्यालय खुलते ही पुराने बूढ़े हो चुके शेरो ने गर्जना की। पूरे ताम-झाम के साथ बरेली में संयुक्त शिक्षा निदेशक के दफ्तर पर हल्ला बोला गया। जिसमे शिक्षक विधायक ने भी हिस्सा लिया। कीचड- पानी में जिले भर ही नहीं बल्कि पूरे मंडल के शिक्षक- शिक्षिकाएं उपस्थित हुए, लेकिन उस धरने में अफ़सोस इस बात का रहा कि मीडिया ने कोई बहुत बेहतर रुख नहीं अपनाया। सुबह जब उठकर समाचार पत्र देखा तो बहुत मामूली सी खबर.........जैसे दो महीने का वेतन नहीं मिला तो कोई बात ही नहीं। गलतियां अधिकारी की भुगते कर्मचारी।अरे भाई! जुलाई में बच्चों के दाखिले कराना हैं, कॉपी- किताबें दिलाना हैं, ड्रेस दिलानी है, फीस जमा करनी है। लेकिन इन सबसे किसी को कोई मतलब ही नहीं। सेवानिवृत्त हो चुके शिक्षकों के पेंशन का काम अभी तक अधूरा पड़ा है। जब तक बाबुओं की जेब गरम नहीं होगी वोह कोई काम क्यूँ करने लगे।सभी के मुंह से सुन लो " अरे यार! ज़माना बहुत खराब है।" ख़राब खुद कर रखा है दोष दूसरों पर। 'रंग दे बसंती' फिल्म आई थी, देखकर ऐसा लगा शायद इसके बाद कोई क्रांति आएगी, फिर बाद में लगा भाई कोई क्रांति-व्रांति नहीं आने वाली। जो हो रहा है होने दो, लोग पिसते हैं तो पिसने दो, रिश्वत ली जा रही है लेने दो, देने वाले को देने दो। कोई रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाता है और रिश्वत देकर ही छूट जाता है। कहते हो तो कहते रहो, लिखते हो तो लिखते रहो, किसी पर कोई असर नहीं होने वाला। आखिर कब तक ऐसे जीते रहेंगे या ऐसे जीना ही नियति है।
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हंसी मजाक

दशहरा फिर आ गया, हर साल आता है, बरसों से आ रहा है, आता रहेगा। शुरू हो जाता है पांच दिन पहले से वही खटराग, मोहल्ले और घर के बच्चों की भागदौड़, लकड़ी लाओ, पेपर लाओ, पटाखे लाओ, रावण बनाओ। हर बार वही दस सिर लिए, उस पर एक गधा विराजे हुए, साथ में कुंभकरण मेघनाद, दस फुट, बीस फुट, पचास फुट, सौ फुट, जाने कितने फुट का रावण। पास जाकर देखो तो पूरा सिर आसमान की तरफ उठाकर देखना पड़ता है रावण के अट्टाहास करते सिर को। इसलिए दूर से देखना ही ठीक है। हर बार की तरह इस बार फिर दशहरे का कव्हरेज। खबर बनानी है भाई, क्या विशेषता रही इस बार के रावण की, सिर पर गधा बनाया कि नहीं, एकाध सिर कम तो नहीं हो गया। सुपुत्र ने इस बार जिद की रावण देखने की। मैंने कहा मुझे ही देख लो, वहां जाने की क्या जरूरत है। पड़ोस में लालू अंकल हैं उसे देखकर संतुष्टि कर लो। नहीं माना बालक, कलयुग में वैसे भी बच्चे लगातार जिद्दी प्रवृत्ति के होते जा रहे हैं। पीछे ही पड़ गया मुनवा। थक हार कर मैंने कहा चल पुत्तर । हाईस्कूल के मैदान में तमाम कारीगर रावण बंधुओं को बनाने में लगे हुए थे। किनारे में एक तरफ रावण के दस सिर वाला हिस्सा रखा हुआ था। मैंने सोचा कि चलो पहले से तैयार मुंडी को ही देख लिया जाए। उसके सामने पहुंचा। रावण के अगल-बगल के नौ सिर तो मुस्कुरा रहे थे, पर बीच वाला मुख्य चेहरा मायूस, दुखी दिखा। मुझसे रहा नहीं गया, रावण की उदासी, दुख मुझसे सहा नहीं गया, पूछ बैठा, हे भूतपूर्व लंकाधिपति, आप दुखी क्यों हैं। जबकि हर साल लोग आपको याद करते हैं। बल्कि साल भर में, देश भर में, किसी न किसी रूप में आपका पुतला जलाया ही जाता है। इतने बार तो आपको लंका से बेघर करने वाले प्रभुजी को भी लोग याद नहीं करते। दुख का क्या कारण है, फिर आपके अन्य सिर तो खुश हैं ?रावण बोला, क्या बताउं, नारद के बिगड़े वंशजों, तुम लोग भी मेरे दुख का कोई ख्याल नहीं करते, मेरे दुखी होने का कारण जानकर भी उसे नहीं छापते, क्योंकि कलयुग के महारावणों ने तुम्हारी बिरादरी की सोच पर कब्जा कर रखा है। मेरी तुलना कलयुग के ऐसे लोगों से की जा रही है, मैं सोच भी नहीं सकता। भाई, मैंने सीताजी का अपहरण किया, राज्य में अपनी सत्ता कायम रखने के लिए जो प्रपंच किए। मेरे राज्य में दुखी तो सिर्फ विभीषण ही था। पर कलयुग में झांको, कैसे-कैसे कुकर्म, बहुमत के बिना जबरिया मुख्यमंत्री बनाने वाले, विधानसभाओं में कुर्सी फंेकने और चप्पल चलाने वाले, जनता की जिंदगियों को प्रदूषण और खतरों के हवाले करने वाले, खरीद-फरोख्त कर सरकार बनाने वाले आदि-आदि क्या क्या गिनाउं। साल में एक बार जलता था तो लगता था कि मैंने जो किया, उसी को भोग रहा हूं, पर साल भर में सैकड़ों बार दूसरे कुन्यातियों के इल्जाम अपने सर लेकर जलना कैसे सहन करूं। एक कागज का टुकड़ा मेरी छाती पर चिपकाया और लिख दिया किसी का भी नाम, पर पुतला तो मेरा ही होता है ना, कुकर्म कोई और करे, भोगूं मैं। ये कहां का इंसाफ है ? तुम्ही बताओ, तुम भी तो पुतला दहन का तरह-तरह के एंगल बनाकर फोटो खींचते हो, अखबार में छापते हो, टीवी में दिखाते हो। इसे क्यों नहीं छापते। मैं ने रावण के दुख में सहमति जताते हुए सिर हिलाया, फिर पूछा, पर हे महापंडित, आपके अन्य सिर तो खुश हैं, मुस्कुरा रहे हैं, क्या लफड़ा है। अरे, लफड़ा कैसा, मैं अन्य कारण से दुखी हूं, और ये लोग खुश होते रहते हैं कि इन्हें साल में सिर्फ एक बार ही जलना पड़ता है और मुझे साल भर में सैकड़ों बार। फिर ये मेरा मजाक भी उड़ाते हैं कि तू चाहे कितने बार भी मर, कितने बार जल, लोग तुझे जिंदा रखेंगे, हर साल मारेंगे, साल भर में सैकड़ों बार जलाएंगे। मैं हर साल बढ़ रहा हूं आतंक और अत्याचार के रूप में, नारी शक्ति पर हो रहे अन्याय के रूप में। तेलगियों और हर्षद मेहताओं के रूप में, मुझे खत्म करके चैन से मरने देना भी लोग नहीं चाहते। दुखी न होउं तो क्या करूं। मैंने हाथ जोड़ लिए, कुछ नहीं कहा। लौट गया रावण का दुखी चेहरा जेहन में लेकर। सुपुत्र ने पूछा, पापा, रावण को हर साल क्यों जलाते हैं। मैंने सिर्फ इतना ही कहा बेटे, क्योंकि यह हर साल जिंदा हो जाता है, रावण तो सदियों से मरा ही नहीं, इसलिए जलाकर इसे मिटाने का प्रयास करते हैं। अगले साल रावण फिर अपने कुनबे के साथ देश भर के मैदानों में जलने के लिए खड़ा दिखेगा, मगर मरेगा नहीं, हर साल बढ़ेगा, हर साल जिंदा हो जाएगा। यह तो जलता-मरता रहेगा, पर मन के एक कोने में छिपे रावण को भी कोई मार सकेगा ?


दुल्हनें उजमन नहीं करेंगी इस बार करवा चौथ प़र


इस बार शरद पूणिर्मा की रात विशेष संयोग लिए हुए है। रामराज कौशिक के मुताबिक जिस व्यक्ति की चंद्रमा की महादशा चल रही है या जन्मकुंडली में चंद्रमा अशुभ है, उन्हे इस रात्रि को खीर का सेवन करने के साथ-साथ खीर का दान भी करना चाहिए।इस बार करवाचौथ पर व्रतधारी दुल्हनें उजमन नहीं कर सकेंगी। कारण इस बार करवा चौथ पर तारा अस्त रहेगा। हालांकि करवाचौथ का त्यौहार धूमधाम से ही मनेगा। व्रत भी रखा जाएगा, लेकिन उजमन नहीं हो सकेगा। करवाचौथ 26 अक्टूबर को मनाया जाएगा।
19अक्टूबर से तीन नवंबर तक शुक्र अस्त है अर्थात इन दिनों में तारा डूबा रहेगा। गायत्री ज्योति अनुसंधान केंद्र के संचालक पंडित रामराज कौशिक के मुताबिक जिन दुल्हनों का यह पहला करवा चौथ वह इस बार उजमन नहीं कर सकते। जबकि व्रत,पूजा आदि पूर्ववत ही रहेगा। इस दिन शिव परिवार की पूजा करनी चाहिए। गणोश जी की पूजा, वंदना करके अपने पति की लंबी आयु की काममना करें। इस दिन अपने बड़े बजुर्गो का आशीर्वाद
लेना चाहिए। शरदपूर्णिमा की रात्रि को विशेष रूप से रोगनाशक व शीतलता देने वाली कहा है। इसका आयुर्वेद में खासा महत्व है। आयुर्वेदाचार्य डा. मोहित गुप्ता के मुताबिक शरदपूर्णिमा की रात्रि को चावल, मिश्री, दूध की खीर सोमलता की बेल मिलाकर बनाने चाहिए। हालांकि सोमलता खुद में कई रोगों के दमन के जानी जाती है। इस खीर को शरदपूर्णिमा की चांदनी में रखकर सुबह चार बजे खाने से शरीर की दाह शांत होती है। ब्लड प्रेशर, घबराहट, दिमागी रोग दूर होते हैं। अश्विन शुक्ल पक्ष की पूणिर्मा तिथि शरदपूणिर्मा, को जागर व्रत, महर्षि वाल्मीकी जयंती के नाम से जानी जाती है। 22अकूबर को शरदपूणिर्मा है। शुक्रवार की पूरी रात पूणिर्मा तिथि होने के कारण यह रात्रि और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। पंडित रामराज के मुताबिक मान्यता है कि पूर्णिमा की रात को चंद्रमा की चांदनी में अमृत की बूंदें समाहित होती हैं।
इसलिए इस रात्रि को खीर बनाकर चांद की चांदनी में रखने से इसमें अमृत की वर्षा के कुछ कण आवश्य मिलते है। जो व्यक्ति यह खीर सुबह उठकर खाता है वह निरोग और बलशाली होता है। ज्योतिष के अनुसार चंद्रमा ग्रह हमारे मन, मस्तिस्क का कारक ग्रह है, जिन लोगों को दिल, दिमाग से संबंधित रोग हैं वह भी इस खीर के सेवन करने से ठीक हो जाते हैं।
- अनूप

जनगणना २०११

- अनिल अनूप
देश मे हर दशाब्दी मे एक बार जगणना की उपयोगी परम्परा है। इससे योजनाऎ बनाने मे आधारभूत आंकडे मिल जाते है, पर लम्बे चौडे कई राज्यो और केन्द्रित शासित प्रदेशो के इस देश मे जनगणना मे ज्यादा समय लगता है, तो रिपोर्ट बनने और प्रकाशित होने मे भी उतना ही समय लगता है। अब जब इस बार 2011 की जनगणना का सिलसिला शुरू हुआ, तो जातिगत जनगणना का मुद्दा इतना हावी हुआ, कि सरकार को लेने के देने पड गए।
हर छोटे बडे दल ने अपनी जबरदस्त मांग रख दी और फायदे नुकसान गिनाने शुरू कर दिये। सरकार ने भी इस बिना बुलाये आई आफत को मत्रिमंडल की बैठक कर, ऎसे टाला कि जातिगत जनगणना अलग से कराई जायेगी तब जाकर कही विपदा टली। एक तरफ विश्व कुटुम्ब का आदर्श दोहराया जाता है, इन्सान को भाई भाई कहा जाता है, और बसपा की मेडम मायावती एव उनके सभी समर्थक प्राचीन ब्राम्हण, क्षत्रिय, वेश्य, शूद्र की अवधारणा से ही सक्त नफरत करते है, और जातिवाद को जड से मिटाने का आव्हान किया जाता है तो दूसरी तरफ जातिगत जनगणना के क्या दुष्परणिम होगे। हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई ब्राम्हण राजपूत बनिया धोबी मोची कर्मकार चर्मकार जैन अग्रवाल खण्डेलवाल जाट सबको पता लग जायेगा कि हम देश मे कितने है, और हमारी ताकत कितनी है। फिर एक जाति वाला केवल अपनी जाति के ही लोगो परिवारो की मदद करेगे, तो वोट भी अपने जाति वालो को दी देगे।
न्याय पालिका कमजोर पडने लगेगी, और जातिपंचायत का फैसला अंतिम एव निर्णायक होने लगेगा। एक गांव ढाणी मे एक जाति का वर्चस्व होगा और दूसरी जाति वालो को वहां से पलायन भी करना पड सकता है। मुखिया बन जायेगे उन्ही का दबदबा चलेगा। पर आजादी के बाद और खासकर अब खूब अन्तर जातीय प्रेम विवाह हो रहे है, और आज के आधुनिक समाज ने इन्हे मौन स्वीकृति दे रखी है। तब ऎसे मामलो मे पति की जाति लिखी जायेगी या पत्नि की। मान लीजिए दोनो की अलग अगल जाति का ही उल्लेख कर दिया तो उनकी औलादो को किसी जाति के खाते मे डाला जायेगा। हालांकि चुनाव अभी भी जातिवाद के आधार पर ही लडे जाते है। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार मे। पर सरकार यदि जातिगत जनगणना कराती है, तो दुनिया मे क्या छवि उभरेगी, जहा भारतीयो से नस्ल भद कर, झगडा मारपीट हत्या के साथ गालीगलोच भी की जाती है। तब ऎसा लगता है जातिगत जनगणना का सरकारी फैसला टालने और टालते जाने के लिए ही लिया गया है। ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी

अमरीका पाकिस्तान का मोहर

-अनिल अनूप
दुनिया की महाशक्ति अमरीका की स्थिति आज पाकिस्तान जैसे पिद्दी-से देश के आगे मजबूर जैसी नजर आ रही है। कल तक पाकिस्तान को मोहरे के रूप में इस्तेमाल करता रहा अमरीका आज उसी का मोहर बनकर रह गया है। पाकिस्तान आज उसे नचा रहा है, अपने अनुसार चला रहा है, सच्चाइयों को झुठला अपनी हां-में-हां मिलाने को मजबूर कर रहा है। ...और अमरीका को यह सब करना प़ड रहा है। फिलहाल उसे इससे निजात पाने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा है। अमरीका ने सोवियत संघ के विघटन से पूर्व तक रूस-भारत गठजो़ड के खिलाफ पाकिस्तान का खुलकर इस्तेमाल किया। उसे खुलकर आर्थिक और सैन्य सहायता मुहैया कराई। यहां तक कि पाकिस्तान को परमाणु संपन्न देश बनाने में भी चोरी-छिपे मदद की। रूस और भारत के खिलाफ कई आतंकी संगठनों को पनपाया, लेकिन 9/11 के हमले ने उसकी आंखें खोल दी। वह छद्म रूप से अन्य देशों के खिलाफ जिस आतंकवाद के जरिए जंग छे़डे हुए था, अब उसे उसी से रू-ब-रू होना प़ड रहा है। करीब एक दशक से अमरीका और नाटो अफगानिस्तान फंसे हुए हैं। वो तालिबान और अल-कायदा से लोहा ले रहा है, लेकिन सफलता की किरण दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही है। अमरीका की इस मुहिम की नाकामयाबी पाकिस्तान, खास तौर पर उसकी कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई और सेना प्रमुख हैं। वे दो-तरफा रणनीति अपनाए हुए हैं।
दिखावे तौर पर वह अमरीका और नाटो का मददगार है, मगर अंदरूनी रूप से तालिबान और आतंकी संगठनों को पनाह दिए हुए है। उन्हें हथियार, धन और अन्य सुविधाएं मुहैया करा रहा है। अमरीका भी इस बात से अनभिज्ञ नहीं है। नाटो देशों की खुफिया एजेंसियां आईएसआई-सेना-तालिबान गठबंधन का बार-बार खुलासा करती रही हैं। अमरीका कई बार इन तथ्यों को क़डाई से पाकिस्तान के साथ उठा भी चुका है। मगर पाकिस्तान के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। अमरीका जैसी महाशक्ति की चेतावनियों और धमकियों को पाकिस्तान जैसा देश यों ही नजरअंदाज नहीं कर सकता, इसके उसकी पीछे मजबूत रणनीति है। पाकिस्तान जानता है कि अफगानिस्तान जंग उसके बिना नहीं जीता जा सकता। वह अमरीका और नाटो की जरूरत है। अफगानिस्तान में नाटो सैनिकों को लाइफ लाइन पाकिस्तान से जु़डी है। उसकी 80 फीसदी सप्लाई पाकिस्तान के रास्ते होती है। पाकिस्तान ने हाल ही अपनी हैसियत का अहसास अमरीका और नाटो करा भी दिया। उसके क्षेत्र में घुसकर नाटो हेलिकॉप्टरों के हमले के विरोध में पाकिस्तान ने नाटो की सप्लाई लाइन रोक दी। सप्ताहभर में ही अमरीका और नाटो ने घुटने टेक दिए और पाकिस्तान से माफी मांगनी प़ड गई। अमरीका, पाकिस्तान के ऎसे जाल में फंसा है कि उसे उसकी हर जायज-नाजायज मांगों के आगे घुटने टेकने प़ड़ रहे हैं। तालिबान और आतंकियों के सफाए के नाम पर पाकिस्तान ने अमरीका से जमकर धन और हथियार वसूले हैं। कई परियोजनाएं मंजूर कराई हैं। बाढ़ पीç़डतों के नाम पर अमरीका के जरिए अनाप-शनाप धन जमा किया है। सुरक्षा रणनीतिक करार के लिए दबाव बनाए हुए है। इस संबंध में पाक दल वाशिंगटन में जमा हुआ है। कश्मीर मामले पर भारत पर दबाव बनाने के लिए अमरीका को मजबूर कर रहा है। उसमें भी बहाना यही बनाया जा रहा है कि इस मसले का हल हुए बिना आतंकवाद समाप्त होना मुमकिन नहीं है। पाकिस्तान के इस भंवर-जाल से निकलने में अमरीका को एकमात्र ही रास्ता नजर आता है, और वह है भारत। अफगानिस्तान से निकलने में जितनी जरूरत अमरीका को पाकिस्तान की है, उससे कहीं अधिक जरूरत उसे पाकिस्तान के चंगुल से निकलने के लिए भारत की है। अब देखना है कि अमरीका पाकिस्तान के इस जाल से कैसे निकल पाता है।

सोमवार, 20 सितंबर 2010

ॐ और अल्लाह

अनिल अनूप
और अल्लाह ....आस्था और अनुभव के सिंहासन पर आरूढ़
और अल्लाह ....आस्था और अनुभव के सिंहासन पर आरूढ़ हैं. जहाँ मैं है वहां वे नहीं जहाँ मैं नहीं वहां वे हैं. अष्टावक्र : जब तक मैं हूँ, तब तक सत्य नहीं ,जहाँ मैं रहा , वहीँ सत्य उतर आता है.
ग़ालिब ने भी ऐसा ही कहा है: था कुछ तो खुदा था , कुछ होता तो खुदा होता ..
अल्लाह के नाम में अंगूर जैसी मिठास है. अल्लाह अल्लाह जोर जोर से कहना ..भीतर एक रसधार बहने लगेगी. ओंठ बंद कर जीभ से अल्लाह अल्लाह कहिये तो एक रूहानी संगीत का एहसास होगा. फिर बिना जीभ के अल्लाह अल्लाह कि पुकार से और गहराई में हजारों वींनाओं के स्पंदन का एहसास होने लगेगा. अल्लाह के निरंतर स्मरण से जो प्रतिध्वनि गूंजी , वह गूँज रह जाएगी .बजते बजते वीना बंद हो जाये , लेकिन ध्वनि गूंजती रहती है. सूफी गायकों को सुनिए -एक मस्ती तारी रहती और उनकी आँख मेंदेखें तो शराब सा नशा.
ऐसे ही ओंकार शब्द की गूज सर्वशक्तिमान के अस्तित्व का आभास करवाती है. आँखें बंद कर प्रात : काल सूर्यदेव की ओर ध्यान कर शब्द का उच्चारण ब्रह्माण्ड के महाशुन्य में उस अनंत शक्तिमान की अनुभूति करवाता है. ओमकार के पाठ में नशा नहीं मस्ती नहीं -केवल आनंद और ख़ामोशी की अनुगुन्ज़न है.
अल्लाह और को किसी धर्मग्रन्थ या वेद्शस्त्र में कैसे सम्माहित किया जा सकता है. ब्रह्माण्ड के रचयिता को शब्दों में और आयातों में कैसे बांधा जा सकता है. जिन अदीबों और ज्ञानिओं ने इनको धर्म और सम्प्रदाय की पोथिओं में बांधने के जतन किये हैं वे वास्तव में अज्ञानी ही थे. सुकरात ने ठीक ही कहा है:' जब मैं कुछ कुछ जानने लगा तब मुझे पता चला की मैं कुछ नहीं जानता '. और लाओत्सु ने भी कुछ ऐसा ही फरमाया है ' -ज्ञानी अज्ञानी जैसा होता है.
आस्थावान के लिए और अल्लाह व् ईश ही अंतिम ज्ञान है. सत्य ज्ञान की परिभाषा तो मानव अनुभूति की खोज के अनुरूप नित्य नए नए आयाम स्थापित कर रही है. और अल्लाह और को तो वो ही जान सकते हैं जो केवल आस्थावान ,निर्वेद और अमोमिन हैं. सम्प्रदाय विशेष से जिनका दूर का रिश्ता भी नहीं. जिनके मन पर कुछ भी नहीं लिखा गया . जो साक्षी हैं कोरे कागद की मानिंद और अपने विवेकपूर्ण जिज्ञासा से नित्य नए नए अनुभवों का सृजन कर महान्शून्य की सत्ता में अपनी खुदी को मिटाए चले जा रहे हैं. क्यों हम अपने अपने अनुभवों से अपना ही एक अल्लाह, अपना ही एक , अपना ही एक ईश सृजित कर लें जिसमें जीसस के अनुसार ' जो बच्चों की भांति भोले हैं, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे .
घर से मस्जिद है बहुत दूर , चलो यूं कर लें ,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए...........
मीडिया क्लुब में L.R.Gandh जी के विचार
http://http://www.mediaclubofindia.com/profiles/blogs/4335940:BlogP...

शनिवार, 4 सितंबर 2010

हिजाब या बुरके के पीछे सिर्फ मुस्सिम कट्टरपंथ की शिकार ही नहीं छिपी होती, बल्कि रेडिकल विचार भी पनप रहे होते हैं, यह सऊदी अरब की कवयित्री हिसा हिलाल ने साबित कर दिया है। सऊदी अरब वह मुल्क है, जिसने इस्लाम की सबसे प्रतिक्रियावादी व्याख्या अपने नागरिकों पर थोपी हुई है। इसकी सबसे ज्यादा कीमत वहां की औरतों को अदा करनी पड़ी है। सऊदी अरब में औरतों को पूर्ण मनुष्य का दरजा नहीं दिया जाता। वे घर से अकेले नहीं निकल सकतीं, अपरिचित आदमियों से मिल नहीं सकतीं, कार नहीं चला सकतीं और बड़े सरकारी पदों पर नियुक्त नहीं हो सकतीं। घर से बाहर निकलने पर उन्हें सिर से पैर तक काला बुरका पहनना पड़ता है, जिसमें उनका चेहरा तक पोशीदा रहता है – आंखें इसलिए दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि इसके बिना वे ‘हेडलेस चिकन’ हो जाएंगी। । पुरुषों की तुलना में उनके हक इतने सीमित हैं कि कहा जा सकता है कि उनके कोई हक ही नहीं हैं — सिर्फ उनके फर्ज हैं, जो इतने कठोर हैं कि दास स्त्रियों या बंधुवा मजदूरों से भी उनकी तुलना नहीं की जा सकती। ऐसे दमनकारी समाज में जीनेवाली हिसा हिलाल ने न केवल पत्रकारिता का पेशा अपनाया, बल्कि विद्रोही कविताएं भी लिखीं। इसी हफ्ते अबू धाबी में चल रही एक काव्य प्रतियोगिता में वे प्रथम स्थान के लिए सबसे मज़बूत दावेदार बन कर उभरी हैं।संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबू धाबी में कविता प्रतियोगिता का एक टीवी कार्यक्रम होता है — जनप्रिय शायर। इस कार्यक्रम में हर हफ्ते अरबी के कवि और कवयित्रियां अपनी रचनाएं पढ़ती हैं। विजेता को तेरह लाख डॉलर का पुरस्कार मिलता है। इसी कार्यक्रम में हिसा हिलाल ने अपनी बेहतरीन और ताकतवर नज्म पढ़ी – फतवों के खिलाफ। यह कविता उन मुस्लिम धर्मगुरुओं पर चाबुक के प्रहार की तरह है, ‘ जो सत्ता में बैठे हुए हैं और अपने फतवों और धार्मिक फैसलों से लोगों को डराते रहते हैं। वे शांतिप्रिय लोगों पर भेड़ियों की तरह टूट पड़ते हैं।’ अपनी इस कविता में इस साहसी कवयित्री ने कहा कि एक ऐसे वक्त में जब स्वीकार्य को विकृत कर निषिद्ध के रूप में पेश किया जा रहा है, मुझे इन फतवों में शैतान दिखाई देता है। ‘जब सत्य के चेहरे से परदा उठाया जाता है, तब ये फतवे किसी राक्षस की तरह अपने गुप्त स्थान से बाहर निकल आते हैं।’ हिसा ने फतवों की ही नहीं, बल्कि आतंकवाद की भी जबरदस्त आलोचना की। मजेदार बात यह हुई कि हर बंद पर टीवी कार्यक्रम में मौजूद श्रोताओं की तालियां बजने लगतीं। तीनों जजों ने हिसा को सर्वाधिक अंक दिए। उम्मीद की जाती है कि पहले नंबर पर वही आएंगी।मुस्लिम कट्टरपंथ और मुस्लिम औरतों के प्रति दरिंदगी दिखानेवाली विचारधारा का विरोध करने के मामले में हिसा हिलाल अकेली नहीं हैं। हर मुस्लिम देश में ऐसी आवाजें उठ रही हैं। बेशक इन विद्रोही आवाजों का दमन करने की कोशिश भी होती है। हर ऐसी घटना पर हंगामा खड़ा किया जाता है। हिसा को भी मौत की धमकियां मिल रही है। जाहिर है, मर्दवादी किले में की जानेवाली हर सुराख पाप के इस किले को कमजोर बनाती है। लंबे समय से स्त्री के मन और शरीर पर कब्जा बनाए रखने के आदी पुरुष समाज को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता है? लेकिन इनके दिन अब गिने-चुने हैं। विक्टर ह्यूगो ने कहा था कि जिस विचार का समय आ गया है, दुनिया की कोई भी ताकत उसे रोक नहीं सकती। अपने मन और तन की स्वाधीनता के लिए आज दुनिया भर के स्त्री समाज में जो तड़प जाग उठी है, वह अभी और फैलेगी। दरअसल, इसके माध्यम से सभ्यता अपने को फिर से परिभाषित कर रही है।वाइरस की तरह दमन के कीड़े की भी एक निश्चित उम्र होती है। फर्क यह है कि वाइरस एक निश्चित उम्र जी लेने के बाद अपने आप मर जाता है, जब कि दमन के खिलाफ उठ खड़ा होना पड़ता है और संघर्ष करना होता है। मुस्लिम औरतें अपनी जड़ता और मानसिक पराधीनता का त्याग कर इस विश्वव्यापी संघर्ष में शामिल हो गई हैं, यह इतिहास की धारा में आ रहे रेडिकल मोड़ का एक निश्चित चिह्न है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस तरह के प्रयत्नों से यह मिथक टूटता है कि मुस्लिम समाज कोई एकरूप समुदाय है जिसमें सभी लोग एक जैसा सोचते हैं और एक जैसा करते हैं। व्यापक अज्ञान से उपजा यह पूर्वाग्रह जितनी जल्द टूट जाए, उतना अच्छा है। सच तो यह है कि इस तरह की एकरूपता किसी भी समाज में नहीं पाई जाती। यह मानव स्वभाव के विरुद्ध है। धरती पर जब से अन्याय है, तभी से उसका विरोध भी है। रूढ़िग्रस्त और कट्टर माने जानेवाले मुस्लिम समाज में भी अन्याय और विषमता के खिलाफ प्रतिवाद के स्वर शुरू से ही उठते रहे हैं। हिसा हिलाल इसी गौरवशाली परंपरा की ताजा कड़ी हैं। वे ठीक कहती हैं कि यह अपने को अभिव्यक्त करने और अरब स्त्रियों को आवाज देने का एक तरीका है, जिन्हें उनके द्वारा बेआवाज कर दिया गया है ‘जिन्होंने हमारी संस्कृति और हमारे धर्म को हाइजैक कर लिया है।’तब फिर अबू धाबी में होनेवाली इस काव्य प्रतियोगिता में जब हिसा हलाल अपनी नज्म पढ़ रही थीं, तब उनका पूरा शरीर, नख से शिख तक, काले परदे से ढका हुआ क्यों था? क्या वे परदे को उतार कर फेंक नहीं सकती थीं? इतने क्रांतिकारी विचार और परदानशीनी एक साथ कैसे चल सकते हैं? इसके जवाब में हिसा ने कहा कि ‘मुझे किसी का डर नहीं है। मैंने पूरा परदा इसलिए किया ताकि मेरे घरवालों को मुश्किल न हो। हम एक कबायली समाज में रहते हैं और वहां के लोगों की मानसिकता में परिवर्तन नहीं आया है।’ आएगा हिसा, परिवर्तन आएगा। आनेवाले वर्षों में तुम जैसी लड़कियां घर-घर में पैदा होंगी और अपने साथ-साथ दुनिया को भी आजाद कराएंगी।यह भी नारीवाद का एक चेहरा है। इसमें भी विद्रोह है, लेकिन अपने धर्म की चौहद्दी में। यह जाल-बट्टे को एक तरफ रख कर हजरत साहब की मूल शिक्षाओं तक पहुंचने की एक साहसी कार्रवाई है। इससे संकेत मिलता है कि परंपरा के भीतर रहते हुए भी कैसे तर्क और मानवीयता का पक्ष लिया जा सकता है। अगला कदम शायद यह हो कि धर्म का स्थान वैज्ञानिकता ले ले। नारीवाद को मानववाद की तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए यह आवश्यक होगा। अभी तो हमें इसी से संतोष करना होगा कि धर्म की डाली पर आधुनिकता का फूल खिल रहा है। परंपराओं के अजीबोगरीब घालमेलनसीब खान ने हाल ही में अपने बेटे प्रकाश सिंह की शादी राम सिंह की बेटी गीता से की. तीन महीने पहले हेमंत सिंह की बेटी देवी का निकाह एक मौलवी की मौजूदगी में लक्ष्मण सिंह से हुआ. माधो सिंह को जब से याद है वो गांव की ईदगाह में नमाज पढ़ते आ रहे हैं मगर जब होली या दीवाली का त्यौहार आता है तो भी उनका जोश देखने लायक होता है.नामों और परंपराओं के इस अजीबोगरीब घालमेल पर आप हैरान हो रहे होंगे. मगर राजस्थान के अजमेर और ब्यावर से सटे करीब 160 गांवों में रहने वाले करीब चार लाख लोगों की जिंदगी का ये अभिन्न हिस्सा है. चीता और मेरात समुदाय के इन लोगों को आप हिंदू भी कह सकते हैं और मुसलमान भी. ये दोनों समुदाय छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों से मिलकर बने हैं और इनमें आपसी विवाह संबंधों की परंपरा बहुत लंबे समय से चली आ रही है. खुद को चौहान राजपूत बताने वाले ये लोग अपना धर्म हिंदू-मुस्लिम बताते हैं. उनका रहन-सहन, खानपान और भाषा काफी-कुछ दूसरी राजस्थानी समुदायों की तरह ही है मगर जो बात उन्हें अनूठा बनाती है वो है दो अलग-अलग धर्मों के मेल से बनी उनकी मजहबी पहचान.ये समुदाय कैसे बने इस बारे में कई किस्से प्रचलित हैं. एक के मुताबिक एक मुसलमान सुल्तान ने उनके इलाके पर फतह कर ली और चीता-मेरात के एक पूर्वज हर राज के सामने तीन विकल्प रखे. फैसला हुआ कि वो इस्लाम, मौत या फिर समुदाय की महिलाओं के साथ बलात्कार में से एक विकल्प को चुन ले. कहा जाता है कि हर राज ने पहला विकल्प चुना मगर पूरी तरह से इस्लाम अपनाने के बजाय उसने इस धर्म की केवल तीन बातें अपनाईं—बच्चों को खतना करना, हलाल का मांस खाना और मुर्दों को दफनाना. यही वजह है कि चीता-मेरात अब भी इन्हीं तीन इस्लामी रिवाजों का पालन करते हैं जबकि उनकी बाकी परंपराएं दूसरे स्थानीय हिंदुओं की तरह ही हैं. हर राज ने पहला विकल्प चुना मगर पूरी तरह से इस्लाम अपनाने के बजाय उसने इस धर्म की केवल तीन बातें अपनाईं—बच्चों को खतना करना, हलाल का मांस खाना और मुर्दों को दफनाना. यही वजह है कि चीता-मेरात अब भी इन्हीं तीन इस्लामी रिवाजों का पालन करते हैं।मगर चीता-मेरात की इस अनूठी पहचान पर खतरा मंडरा रहा है. इसकी शुरुआत 1920 में तब से हुई जब आर्य समाजियों ने इन समुदायों को फिर पूरी तरह से हिंदू बनाने के लिए अभियान छेड़ दिया. आर्यसमाज से जुड़ी ताकतवर राजपूत सभा ने समुदाय के लोगों से कहा कि वो इस्लामी परंपराओं को छोड़कर हिंदू बन जाएं. कहा जाता है कि कुछ लोगों ने इसके चलते खुद को हिंदू घोषित किया भी मगर समुदाय के अधिकांश लोग इसके खिलाफ ही रहे. उनका तर्क था कि उनके पूर्वज ने मुस्लिम सुल्तान को वचन दिया था और इस्लामी रिवाजों को छोड़ने का मतलब होगा उस वचन को तोड़ना. अस्सी के दशक के मध्य में चीता-मेरात समुदाय के इलाकों में हिंदू और मुस्लिम संगठनों की सक्रियता बढ़ी जिनका मकसद इन लोगों को अपनी-अपनी तरफ खींचना था. अजमेर के आसपास विश्व हिंदू परिषद ने भारी संख्या में इस समुदाय के लोगों को हिंदू बनाया. उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए इस संगठन ने गरीबी से ग्रस्त इस समुदाय के इलाकों में कई मंदिर, स्कूल और क्लीनिक बनाए. विहिप का दावा है कि चीता-मेरात पृथ्वीराज चौहान के वंशज हैं और उनके पूर्वजों को धर्मपरिवर्तन के लिए मजबूर किया गया था.मगर समुदाय का एक बड़ा हिस्सा अब भी इस तरह के धर्मांतरण के खिलाफ है. इसकी एक वजह ये भी है कि हिंदू बन जाने के बाद भी दूसरे हिंदू उनके साथ वैवाहिक संबंध बनाने से ये कहते हुए इनकार कर देते हैं कि मुस्लिमों के साथ संबंधों से चीता-मेरात अपवित्र हो गए हैं.इस इलाके में इस्लामिक संगठन भी सक्रिय हैं. इनमें जमैतुल उलेमा-ए-हिंद, तबलीगी जमात और हैदराबाद स्थित तामीरेमिल्लत भी शामिल हैं जिन्होंने यहां मदरसे खोले हैं और मस्जिदें स्थापित की हैं. जिन गांवों में ऐसा हुआ है वहां इस समुदाय के लोग अब खुद को पूरी तरह से मुसलमान बताने लगे हैं. हिंदू संगठनों के साथ टकराव और प्रशासन की सख्ती के बावजूद पिछले दो दशक के दौरान इस्लाम अपनाने वाले इस समुदाय के लोगों की संख्या उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है.मगर इस सब के बावजूद चीता-मेरात काफी कुछ पहले जैसे ही हैं. हों भी क्यों नहीं, आखिर पीढियों पुरानी परंपराओं से पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता. समुदाय के एक बुजुर्ग बुलंद खान कहते हैं, हमारा दर्शन है जियो और जीने दो. लोगों को ये आजादी होनी जाहिए कि वो जिस तरह से चाहें भगवान की पूजा करें. खान मानते हैं कि उनमें से कुछ अपनी पहचान को लेकर शर्म महसूस करते हैं. वो कहते हैं, लोग हमें ये कहकर चिढ़ाते हैं कि हम एक ही वक्त में दो नावों पर सवार हैं. मगर मुझे लगता है कि हम सही हैं. हम मिलजुलकर साथ-साथ रहते हैं. हम साथ-साथ खाते हैं और आपस में शादियां करते हैं. धर्म एक निजी मामला है और इससे हमारे संबंधों पर असर नहीं पड़ता. (लेखक इस्लामिक विषयों के शोधकर्ता हैं )
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चश्मा बड़ी गजब चीज़ है। आंखों में काला चश्मा लगाकर आप दुनिया को छुपी नजरों से देख लेते हैं और दुनिया की नजरें आपको नहीं देख पाती। लोग पता नहीं लगा पाते की आप असल में क्या और किधर देख रहे थे? आप छुपा क्या रहे है ? क्या आपको डर है आंखे कहीं सच न बोल दें? क्या नाक पर काला चश्मा चढ़ा कर हम आंखों को सच बयां करने से रोकते हैं ?चश्मा चढ़ा कर आप समाज में सीना तानकर चल सकते हैं और पूरा मुंह छुपाने की जरूरत नहीं पड़ती। बस आंखे में दृश्य या अदृश्य चश्मा चढ़ा रहे। और जब धर्म का चश्मा चढ़ जाए तो फिर बात ही क्या है? धर्म के चश्मे पर बात करने से पहले क्यों न धर्म को थोड़ा बहुत समझ लिया जाए?धर्म किसी एक या अधिक परलौकिक शक्ति में विश्वास और इसके साथ-साथ उसके साथ जुड़ी रिति, रिवाज़, परम्परा, पूजा-पद्धति और दर्शन का समूह है। य: धारति सह धर्म:, अर्थात जिंदगी में जो धारण किया जाए वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है।किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कर्म-कौशल, व्यवस्था-परिवर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से सम्भव है। आज के मनुष्य की रुचि अपने वर्तमान जीवन को सँवारने में अधिक है। उसका ध्यान 'भविष्योन्मुखी' न होकर वर्तमान में है। वह दिव्यताओं को अपनी ही धरती पर उतार लाने के प्रयास में लगा हुआ है।मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो , दसकं धर्म लक्षणम ॥ (मनु स्मृति)अर्थात धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच ( स्वच्छता ), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।शास्त्रों में कहा गया है कि जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये, यही धर्म की कसौटी है।श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रूत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषाम् न समाचरेत् ॥अर्थात धर्म का सर्वस्व है, सुनों और सुनकर उस पर चलो! स्वयं को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये।हिन्दू धर्म विश्व के सभी धर्मों में सबसे पुराना धर्म है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय, और दर्शन समेटे हुए है। हिन्दू एक फ़ारसी शब्द है। हिन्दू लोग अपने धर्म को सनातन धर्म या वैदिक धर्म भी कहते हैं।ऋग्वेद में कई बार सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है, संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र मे मिलती है, दूसरा, कोई समुद्र या जलराशि।ऋग्वेद की नदी स्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ हैं सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया।हिन्दू धर्म के अनुसार संसार के सभी प्राणियों में आत्मा होती है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस लोक में पाप और पुण्य, दोनों कर्म भोग सकता है, और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।हिन्दू धर्म में चार मुख्य सम्प्रदाय हैं।1- वैष्णव (जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं)2- शैव (जो शिव को परमेश्वर मानते हैं)3- शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं)4- स्मार्त (जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं)।हिंदू धर्म में ॐ (ओम्) ब्रह्मवाक्य माना गया है, जिसे सभी हिन्दू परम पवित्र शब्द मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि ओम की ध्वनि पूरे ब्रह्मान्ड में गून्ज रही है। ध्यान में गहरे उतरने पर यह सुनाई देती है। ब्रह्म की परिकल्पना वेदान्त दर्शन का केन्द्रीय स्तम्भ है, और हिन्दू धर्म की विश्व को अनुपम देन है।श्रीमद भगवतगीता के अनुसार विश्व में नैतिक पतन होने पर भगवान समय-समय पर धरती पर अवतार लेते हैं। ईश्वर के अन्य नाम हैं : परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान। इसी ईश्वर को मुस्लिम अरबी में अल्लाह, फ़ारसी में ख़ुदा, ईसाई अंग्रेज़ी में गॉड, और यहूदी इब्रानी में याह्वेह कहते हैं।अद्वैत वेदान्त, भगवत गीता, वेद, उपनिषद्, आदि के मुताबिक सभी देवी-देवता एक ही परमेश्वर के विभिन्न रूप हैं। ईश्वर स्वयं ही ब्रह्म का रूप है। निराकार परमेश्वर की भक्ति करने के लिये भक्त अपने मन में भगवान को किसी प्रिय रूप में देखता है।“एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति” (ऋग्वेद)अर्थात एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं।योग, न्याय, वैशेषिक, अधिकांश शैव और वैष्णव मतों के अनुसार देवगण वो परालौकिक शक्तियां हैं जो ईश्वर के अधीन हैं मगर मानवों के भीतर मन पर शासन करती हैं।योग दर्शन के अनुसार-ईश्वर ही प्रजापति और इन्द्र जैसे देवताओं और अंगीरा जैसे ऋषियों के पिता और गुरु हैं।मीमांसा के अनुसार-सभी देवी-देवता स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं, और उनके उपर कोई एक ईश्वर नहीं है। इच्छित कर्म करने के लिये इनमें से एक या कई देवताओं को कर्मकाण्ड और पूजा द्वारा प्रसन्न करना ज़रूरी है। इस प्रकार का मत शुद्ध रूप से बहु-ईश्वरवादी कहा जा सकता है।ज़्यादातर वैष्णव और शैव दर्शन पहले दो विचारों को सम्मिलित रूप से मानते हैं। जैसे, कृष्ण को परमेश्वर माना जाता है जिनके अधीन बाकी सभी देवी-देवता हैं, और साथ ही साथ, सभी देवी-देवताओं को कृष्ण का ही रूप माना जाता है। ये देवता रंग-बिरंगी हिन्दू संस्कृति के अभिन्न अंग हैं।वैदिक काल-वैदिक काल के मुख्य देव थे इन्द्र, अग्नि, सोम, वरुण, रूद्र, विष्णु, प्रजापति, सविता (पुरुष देव), और देवियाँ थीं सरस्वती, ऊषा, पृथ्वी, इत्यादि।बाद के हिन्दू धर्म में और देवी देवता आये इनमें से कई अवतार के रूप में आए जैसे राम, कृष्ण, हनुमान, गणेश, कार्तिकेय, सूर्य-चन्द्र और ग्रह, और देवियाँ जिनको माता की उपाधि दी जाती है जैसे दुर्गा, पार्वती, लक्ष्मी, शीतला, सीता, राधा, सन्तोषी, काली, इत्यादि। ये सभी देवता पुराणों मे उल्लिखित हैं, और उनकी कुल संख्या 33 करोड़ बतायी जाती है।महादेव-पुराणों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव साधारण देव नहीं, बल्कि महादेव हैंगाय-हिन्दु धर्म में गाय को भी माता के रूप में पूजा जाता है। यह माना जाता है कि गाय में सम्पूर्ण 33 करोड़ देवी-देवता वास करते हैं।आत्मा-हिन्दू धर्म के अनुसार हर मनुष्य में एक अभौतिक आत्मा होती है, जो सनातन और अमर है। हिन्दू धर्म के मुताबिक मनुष्य में ही नहीं, बल्कि हर पशु और पेड़-पौधे, यानि कि हर जीव में आत्मा होती है। मानव जन्म में अपनी आज़ादी से किये गये कर्मों के मुताबिक आत्मा अगला शरीर धारण करती है। अच्छे कर्म करने पर आत्मा कुछ समय के लिये स्वर्ग जा सकती है, या कोई गन्धर्व बन सकती है, अथवा नव योनि में अच्छे कुलीन घर में जन्म ले सकती है। बुरे कर्म करने पर आत्मा को कुछ समय के लिये नरक जाना पड़ता है, जिसके बाद आत्मा निकृष्ट पशु-पक्षी योनि में जन्म लेती है। जन्म मरण का सांसारिक चक्र तभी ख़त्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है। उसके बाद आत्मा अपने वास्तविक सत्-चित्-आनन्द स्वभाव को सदा के लिये पा लेती है। मानव योनि ही अकेला ऐसा जन्म है जिसमें मानव के पाप और पुण्य दोनों कर्म अपने फल देते हैं और जिसमें मोक्ष की प्राप्ति संभव है।आज धर्म पर बाजार हावी है। सीधे कहा जाए तो धर्म का बाजारीकरण हो गया है आपको भगवान के दर्शन के लिए पैसे चुकाने पड़ेंगे। ये आपकों तय करना है कि कितने रुपये वाला दर्शन करना है। अर्थात प्रसिद्ध मंदिरों अगर आप पास से भगवान का दर्शन करना चाहते हैं तो उसके अलग रेट हैं और अगर दूर से गेट के पास से ही दर्शन कर लेना चाहते हैं तो उसके लिए कम पैसे में काम बन सकता है। आज ईश्वर का दर्शन रुपये-पैसों में तौला जाने लगा है।हमारे देश में धर्मगुरुओं की लंबी फौज खड़ी हो गई है। सबका अपना अलग तुर्रा है। शंकराचार्य ने 4 पीठों की स्थापना की थी और हर पीठ में एक प्रमुख आचार्य अर्थात शंकराचार्य की नियुक्ति की थी। वर्षो से ये परम्परा चली आ रही थी लेकिन आज आपकों एक दर्जन शंकराचार्य मिल जाएंगे, उनके हाव-भाव देख कर आप हैरान रह जाएंगे। हर शंकराचार्य खुद को असली और दूसर शंकराचार्य को नकली बताता है।धर्म के नाम पर सतसंग करने वाले बाबाओं का बोलबाला है। इनकी अरबों की संपत्ति है। करोड़ों की गाड़ियों का काफिला है। संयोग से एक ऐसे बाबा के दर्शन हुए जिनकी चरण पादुका(चप्पल) में हीरे लगे हुए थे। एक भक्त ने बड़े उत्साह से बताया की ये महाराज जी की चरण पादुका में 50 लाख के हीरे लगे है। उन्ही महाराज जी ने भक्तों को प्रवचन में ज्ञान दिया कि ‘माया-मोह से दूर रहकर साधु-संतों की संगत करने से ही इस संसार सागर मुक्ति मिल सकती है’। भक्त बेचारा माया-मोह से दूर रहे और दुनिया भर की सारी माया इन बाबाओं के आश्रम में लाकर दान कर दे ताकि ये धर्म का चश्मा पहले पाखंडी लोग ऐश कर सकें।आज आपको किसी तीर्थ स्थल तक जाने की जरूरत नहीं है हर शहर, हर गली में आपको को धर्म का चश्मा पहले लुटेरे बाबा बैठे मिल जाएंगे। उनकी वेश-भूषा देखकर समाज का साधारण जनमानस ईश्वर के करीब जाने की लालसा में खिंचा चला आता है। और फिर बाबा उसे अपना चेला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।आजकल धर्म के साथ योग जोड़कर कुछ बाबाओं ने योग की मल्टीनेशनल कंपनी खड़ी कर ली है। प्रचीन काल से योग भारत की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है स्वंय श्रीकृष्ण को बहुत बड़ा योगी कहा जाता है। हमारे देश में महान योगी संत हुए है लेकिन योग का जैसा बाजारीकरण आज हो रहा है पहले कभी नहीं हुआ। योग से बीमारी का लाइलाज बीमारी तक का दावा करने में भी लोग नहीं हिचक रहे हैं। बाबा लोग योग को धंधा बनाकर एक-एक आसन को ऐसे बेच रहे हैं जैसे पीजा हट वाले तरह-तरह का पीजा बेचते हैं।धर्म का चश्मा पहने इन बाबाओं से मिला भी कोई आसन काम नहीं इसके लिए आपको बकायदे पहले से बुकिंग करनी होगी। कुछ बाबाओं की मिलने की फीस 25 हजार रुपये है। पहले फीस जमा कराएं फीर समय लें बाबा मिलते हैं।धन कुबेर बने बैठे इन बाबाओं के समाज के उत्थान में क्या योगदान है?, समाज के समस्याओं के दूर करने के लिए इन बाबाओं ने क्या प्रयास किए हैं?, धर्म ने नाम पर लोगों को बहकाने के अलावा देश में शांति सद्भाव बढ़ाने के लिए इन बाबाओं ने क्या किया? आज भारत की आबादी में 65% हिस्सा युवा वर्ग का है उनकों सही दिशा देने की इन बाबाओं की क्या योजना है। जिस भारत देश में ये बाबा पैदा हुए उसकी माठी के लिए इन्होंने आज तक क्या किया? ऐसे न जाने कितने सवाल है जिनके जवाब इन धर्म का चश्मा पहने बैठे इन बाबाओं के देना पड़ेगा?धर्म का चश्मा पहले राजनीति में घुसने की जुगते में बैठे कुछ ढोंगी संतों को आम जनता सही वक्त पर आईन दिखा देगी और जिस दिन युवा पीड़ी इन बाबाओं के असली धंधे को समझ गई उस दिन इनके धर्म के चश्म को उतर कर फेंक देगी। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है सभी संत ऐसे नहीं है पर आज ढोंगी बाबाओं का बाजार ज्यादा गरम है हमारा उद्देश्य उन ढोंगी बाबाओं की तरफ इशारा करना था जिन्होंने धर्म का चश्मा पहन कर समाज के संसाधनों का दुरुपयोग किया है और आम जनमानस को ईश्वर प्राप्ति के सही मार्ग से भटकाया।

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

उर्दू बेहाल..................

अनिल अनूप

उर्दू गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक उर्दू को हम सभी एक मीठी जुबान के नाम से भी जानते हैं। उर्दू भाषा में जितनी अदब और तहजीब है, उतनी ही ये बोलने और समझने में भी आसान है। उर्दू मूल रूप से एक भारतीय भाषा है। उर्दू ज़ुबान मुगलकाल में आर्मी कैम्प में वजूद में आई। भाषाई तौर पर उर्दू कई देशी-विदेशी भाषाओं का संगम है। उर्दू में हिन्दी, अंग्रेजी, लातीनी, तुर्की, संस्कृत, अरबी और फारसी जैसी भाषाओं के अल्फाज़ शामिल हैं।
उर्दू भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग हर जगह समझी जाने वाली जुबान है। उर्दू ने अपनी इस खासीयत की वजह से न सिर्फ क्षेत्रिय व्यापार को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है, बल्कि देश को एकता के सूत्र में पिरोने में भी अहम योगदान दिया है। दक्षिण के राज्यों में जहां एक तरफ हिन्दी की मुख़ाल्फत खुलेआम होती है। वहीं इन राज्यों में रहने वाले मुसलमानों का उर्दू प्रेम देखते ही बनता है। उर्दू और हिन्दी लिखने और पढऩे में भले ही अलग-अलग हो, लेकिन इन दोनों जुबानों को बोलने वाले एक दूसरे को बआसानी समझ लेते हैं। लिहाजा उर्दू के सहारे हिन्दी भी दक्षिण के राज्यों में आसानी से समझी जाती है।
इतना ही नहीं अगर बात हिन्दी फिल्मों की जाए तो उर्दू के बगैर हिन्दी फिल्मों का सपना भी डरावना लगता है। बोलचाल की भाषा में भी हम जाने अनजाने ज्यादातर उर्दू अल्फाज का ही इस्तेमाल करते हंै। एक बार मैंने अपने कुछ दोस्तों से पूछा की आप कौन सी भाषा बोलते हैं। जवाब में सभी ने कहा हिन्दी। मैंने कहा कि अगर मैं ये साबित कर दूं कि आप उर्दू बोल रहे हैं तो... इसपर सबने कहा तुम साबित ही नहीं कर सकते हो। इस पर मैंने कहा चलों तुम अपने शरीर के दस अंगों के नाम बताओ... तो उन्होंने गिनाना शुरू कर दिया। सिर, बाल, नाक, कान, आंख, दांत, जबान, होठ, गला, हाथ और पैर । फिर मैंने पूछा कि बताओ इनमें से कितनी हिन्दी है? सबने कहा, सभी हिन्दी है। मैंने कहा ये सभी उर्दू है। इस पर सभी बोले कैसे? मैने कहा ज़बान की हिन्दी है जीभा। कान को हिन्दी में कहते हैं कर्ण और आंख को नेत्र । इतना कहना था कि बाकी बचे शब्दों की हिन्दी वे ख़ुद बताने लगे और बोले यार तू तो सही कह रहा है। हम तो बस लिखते हिन्दी हैं लेकिन जब बोलने की बारी आती है तो बेधड़क उर्दू अल्फाज का इस्तेमाल करते हैं। यानी जाने अनजाने में ही सही हम इस हिन्दुस्तानी ज़ुबान उर्दू को अपने गले से लगाकर रखे हुए हैं। हालात ये है कि जीवित रहने के लिए जिन तीन बुनियादी चीज़ों- रोटी, कपड़ा और मकान का जो नारा आय दिन लगाते है, वे भी उर्दू के अल्फाज हैं। इतना ही नहीं इस दुनिया से रुखसती के वक्त जो एक चीज़ हम अपने साथ लेकर जाते है। वो कफन भी उर्दू लफ्ज है।
अकबर इलाहाबादी ने सफल संवाद की विशेषता बताते हुए लिखा था कि..
जुबां ऐसी कि सब समझे,
बयां ऐसी कि दिल मानें।
उर्दू इस शेर के अर्थ पर पूरी तरह खरी उतरती है। उर्दू जुबान की मीडिया जगत में अपनी अलग ही पहचान है। भारतीय मीडिया के लिए सफल संवाद स्थापित करने में उर्दू ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हिन्दी अख़बार, रेडियो और टीवी चैनलों में तो उर्दू के बिना सब कुछ अधा-अधूरा लगता है। हेडलाइन बनाने की बात हो या मामला स्क्रिप्ट को दिलकश अंदाज में पेश करने की। उर्दू के बिना कही भी निखार नहीं आता है। रेडियो और टीवी चैनलों में इस्तेमाल होने वाली भाषा तो निहायत ही सरल, सहज और आम बोल-चाल की उर्दू प्रधान भाषा होती है। न तो ये पूरी तरह से हिन्दी होती है और न ही उर्दू। इसलिए रेडियो और टीवी की भाषा को हिन्दी या उर्दू न कह कर हिंदुस्तानी जुबान कहा जाता है।
उर्दू की इस उपयोगिता के बावजूद भी आज उर्दू को वो सम्मान नहीं मिला जो उसे मिलना चाहिए। दरअसल देश के विभाजन के बाद उर्दू को पाकिस्तान में राष्ट्र भाषा के तौर पर पहचान मिली। बस क्या था। सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहे लोगों ने पाकिस्तान के साथ ही उर्दू को भी सांप्रादायिक रंग दे दिया। इसके बाद देखते ही देखते भारतीय सरजमीन पर वजूद में आई ये जुबान भारतीयों के लिए ही पराई हो गई। पाकिस्तान में उर्दू को भले ही राष्ट्र भाषा का दर्जा मिल गया हो लेकिन आज भी वहां की बहुसंख्यक आबादी पंजाबी बोलती है। इतना जरूर है कि भारत ही तरह पाकिस्तान में भी लगभग सभी जगह उर्दू समझी जाती है।

देश की आजादी में अहम भूमिका निभाने वाली इस जुबान को अलग थलग करने ने में सरकारी पॉलिसी भी एक हद तक जिम्मेदार है। देश की आजादी के साथ ही उर्दू, रोजगार परक और सरकारी दफ्तरों में इस्तेमाल में आने वाली जुबीन न रहकर देश के अल्पसंख्यकों की जुबान बन कर रह गई। ग़ुलामी की प्रतीक अंग्रेजी को जहां सरकारी काम काज की भाषा के तौर पर स्वीकार किया गया। वहीं उर्दू को मदरसों और उर्दू अखबारों के भरोसे छोड़ दिया गया। आम बोल चाल और देश की दूसरी बहुसंख्यक की मादरी जुबान होने की वजह से स्कूलों और कालेजों में इसे मादरी दुबान के तौर पर पढ़ाने का फैसला हुआ। वहीं सरकारी दफ्तरों में उर्दू ट्रांस्लेटर रखने का प्रावधान भी किया गया। लेकिन देश के ज्यादातर राज्यों में ये नियम कानून सिर्फ कागज का गठ्ठा बन कर ही रह गया है। इस पर न तो सरकारें अमल करती हंै और न ही उर्दू के ठेकेदारों को इसकी चिंता है। देश के ज्यादातर प्राइमरी, हाई स्कूल और इण्टर कालेज में उर्दू के पठन-पाठन का कोई इंतजाम नहीं है। सरकारों ने उर्दू अकादमी खोल कर कुछ लोगों को उर्दू के नाम पर पेट पालने का जरिया जरूर दे दिया है। जो साल में एक बार उर्दू दिवस के मौके पर कोई मुशाइरा कराना ही अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। इनका इस ओर बिल्कुल ही ध्यान नहीं है कि उर्दू को कैसे ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल की भाषा बनाई जाए। इन्हें इस बात की भी फिक्र नहीं है कि उर्दू का फरोग़ कैसे हो । इसके साथ ही उर्दू अकादमियों के तरफ से उर्दू को जदीद टेक्नोलॉजी और रोजगार से जोडऩे के प्रयास भी नदारद है। उर्दू में शोध कार्य तो बहुत ही दूर की बात है। इस ओर तो शायद उर्दू अकादमी के लोग सोच भी नहीं पाते हैं।

उर्दू के नाम पर राजनीति तो खूब होती है, लेकिन अगर कुछ नहीं बदलती है तो वह है उर्दू की हालत। पिछले दिनों ससंसद में एक बार फिर उर्दू की बदहाली पर लग-भग सभी राजनीतिक दलों के नेता घरियाली आसूं बहाते नजऱ आए। लेकिन उर्दू के विकास के नाम पर जो कुछ करने की बात कही गई, वह थी उर्दू अखबारों को प्रोत्साहन पैकेज की बात। किसी नहीं ये सुझाव नहीं दिया कि उर्दू को किस तरह रोजग़ार परक ज़बान बनाई जाए। यूं तो सरकार ने पहले से ही उर्दू के वकिास के लिए एक उर्दू चैनल भी खोल रखा है। देश में एक उर्दू यूनिर्वसिटी भी खोल दी है, ताकि उर्दू प्रेमी अपनी आला तालीम यहां से हासिल कर सकें, लेकिन सवाल पैदा ये होता है कि उर्दू पढऩे के बाद जब रोजगार ही नहीं मिलेगा तो कोई उर्दू पढऩे क्यों जाएगा? लिहाज़ा उर्दू को जीवित रखने के लिए ये निहायत ही जरूरी है कि उर्दू पढऩे वाले को रोजगार दिया जाए। दूसरी बात ये कि जब प्राइमरी और मिडिल लेवल पर ही उर्दू नदारद है तो आला तालीम के लिए उर्दू के छात्र कहां से आएंगे। अगर सरकारें वाकई उर्दू के प्रती संजीदा है तो सबसे पहले प्राइमरी और मिडिल लेवल पर शिक्षकों की भर्ती की जानी चाहिए। इस से एक ओर हज़ारों उर्दूदां को रोजगार मिलेगा। वहीं दूसरी ओर छात्र-छात्राओं के लिए उर्दू पढऩा आसान हो जाएगा । जो लोग शिक्षक की कमी की वजह से चाह कर भी उर्दू नहीं पढ़ पाते हैं। उनके अधिकारों की रक्षा भी होगी

आज देशभर में उर्दू की हालत निहायत ही बदतरीन है। हालात ये है कि सरकारी दफ्तरों के बाहर लगे बोर्डो को भी अब उर्दू में लिखने की ज़रूरत नहीं समझी जा रही है। जहां कही उर्दू में लिखा भी होता है तो वह भी ग़लत लिखा होता है। यही वजह है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इस पर अपनी चिंता जताने के साथ ही उर्दू दाम से इन बोर्डों को दुरुस्त करने में सहयोग की अपील कर चुकी है।

विविधताओं से भरे भारत में एक कहावत आम है कि कोस-कोस पर पानी बदले तीन कोस पर बोली लेकिन इस विविधतचा में एक बात खास है कि ये सभी बोलियां एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं। लिहाजा देश की एकता और अखण्डता को बरकरार रखने के लिए विविधता का सम्मान जरूरी है।

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

कैसी है ये आजादी..?

- अनिल अनूप
हजारों लाखों बलिदानी शहीदों की कुरबानियों ने हमें परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कर स्वच्छंद वातावरण में सांस लेने की आजादी दी। बरसों की गुलामी के बाद हमने आजादी पायी। हमारी वाणी आजाद हुई, हमारे विचारों पर से संगीनों के पहरे हट गये। वंदे मातरम् कहने पर हम गर्व महसूस करने लगे और फिरंगी जुल्म का साया हमारी जिंदगी से हट गया। हम आजाद हुए तो देश भी बौद्धिक और आर्थिक विकास की दिशा में आगे बढ़ा। शुरू-शुरू में देश के कर्णधारों ने परतंत्रता की बेड़ियों से बरसों जकड़े रहे जनमानस में सुरक्षा और आत्मविश्वास के भाव जगाये। देश को अपने ढंग से संवारने और विकसित करने में उन्होंने पूरा ध्यान लगाया लेकिन आजादी अपने साथ एक बुराई भी लेती आयी। धीरे-धीरे शासक वर्ग और दूसरे लोगों ने आजादी का अर्थ कुछ और ही लगा लिया। सत्ता से जुड़े कुछ लोग निरंकुश हो गये और स्वजन पोषण और भ्रष्टाचार में लिप्त हो गये। इससे दूसरे वर्ग को भी भ्रष्टाचार में लिप्त होने का प्रोत्साहन मिला। आज कुछ अपवादों को छोड़ दें तो सत्ता में हो या दूसरे क्षेत्र में निचले स्तर से लेकर शीर्ष तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। सच कहें तो भ्रष्टाचार शीर्ष से ही निचले स्तर तक आता है। निचले स्तर के कर्मचारी तभी भ्रष्टाचार में लिप्त होने का साहस जुटा पाते हैं जब वे अपने से बड़ो को ऐसा करते देखते हैं। आज आप का कहीं भी किसी मुहकमे में काम पड़े, आप पायेंगे कि आपकी फाइल इतनी भारी हो गयी है कि वह बिना पत्रम्-पुष्पम् डाले आगे बढ़ ही नहीं पाती। हम यह नहीं कहते कि सारे अधिकारी या शासक भ्रष्ट हैं लेकिन कुछ तो हैं जो भ्रष्टाचार के पंक में आकंठ डूबे हैं। जो भ्रष्ट नहीं हैं उनका इन लोगों के बीच रहना मुश्किल हो जाता है। उन्हें या तो उनके रंग में रंगना पड़ता है या फिर खामोशी से अनीति को पनपते देखना पड़ता है। हमें इस भ्रष्टाचार अनाचार की आजादी जरूर मिल गयी है। स्थिति यहां तक पहुंची कि सरकारी स्तर के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए लोकायुक्त तक की नियुक्ति करनी पड़ी। वक्त गवाह है कि लोकायुक्त ने सरकार के कई भ्रष्ट अधिकारियों की कलई खोली और उनका सच उजागर हो गया। ये वे मामले हैं जो सामने आये ऐसा न जाने भ्रष्टाचार के और कितने मामले हैं जो दब गये या इरादतन दबा दिये गये। आजादी के बाद हमने यह प्रगति जरूर की है कि राष्ट्रीय संपत्ति और आम आदमी की संपत्ति की जम कर लूट हो रही है। अंग्रेजों के शासन काल में ऐसे भ्रष्टार की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। उन दिनों इतना कड़ा शासन था कि कोई भ्र्ष्टाचार करने की सोच भी नहीं सकता था। आज तो प्रशासन के ऊंचे स्तर को साध लो फिर जो चाहे करो। हम यह लिखते वक्त यह अवश्य जोड़ेंगे कि आज भी ईमानदार अधिकारियों की कमी नहीं लेकिन वे कितने हैं और उनकी कितनी चलती है यह किसी से छिपा नहीं। ऐसे में आम आदमी और उस आदमी का भगवान ही मालिक है जिसकी पहुंच किसी असरदार व्यक्ति नहीं है।
ऐसा नहीं कि भारत में भ्रष्टाचार नया है इसकी फसल तो आजादी मिलने के कुछ अरसे बाद ही उग आयी थी। 1937 में कांग्रेस के कुछ भ्रष्ट मंत्रियों को देख महात्मा गांधी इतना दुखी हुए थे कि 1939 के एक बयान में उन्होंने यहां तक कह डाला था कि-‘मैं कांग्रेस में भ्रष्टाचार को सहने के बजाय इस दल को सम्मान के सहित दफना देना ज्यादा पसंद करूगा।’ उन दिनों गांधी जी की पूरी तरह से उपेक्षा की गयी और उन दिनों भ्रष्टाचार का जो बीज बोया गया आज वह विशाल वटवृक्ष का रूप ले चुका है और उसकी शाखा-प्रशाखाएं दिन पर दिन पूरे देश को अपनी गिरफ्त में लेती जा रही हैं। करोड़ो अरबों के घोटाले के मामले जब इस देश में सुनने में आते हैं तो लगता है जैसे किसी ने देश की गरीब जनता के मुंह पर तमाचा जड़ दिया है, उसकी अस्मिता पर चोट की है, उसके हिस्से की रोटी छीन ली है। यह है हमारे देश में आजादी के मायने।
कई सर्वेक्षणों तक से यह बात सामने आयी है कि भारत में राजनीतिक भ्रष्टाचार सीमाएं लांघ चुका है। कई राज्यों में सत्ता के शीर्ष तक में रहे नेताओं पर सीबीआई के मामले चल रहे हैं। यहां घोटाला, वहां हवाला देश की आज यही तसवीर बन कर रह गयी है। ऐसे में यह सवाल तो वाजिब है कि –आजादी यह कैसी आजादी!
हमें आजाद हुए बरसों हो गये लेकिन देश में आज भी किसान गरीबी और कर्ज के मार से आत्महत्या कर रहे हैं। कई जगह भुखमरी से बेहाल माताएं दिल पर पत्थर रख अपनी संतानों को बेचने को मजबूर हो रही हैं। जाहिर है कि यह किसी भी देश के लिए गर्व की बात तो नहीं हो सकती। हमारे यहां गरीबी का यह हाल है कि हमारे बिहार, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल और झारखंड को लेकर 8 राज्यों में इतनी गरीबी है जितनी अफ्रीकी देशों में भी नहीं है। आक्सफोर्ड पावर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इंशिएटिव के मल्टीडाइमेन्शनल पावर्टी इंडेक्स (एमपीआई) से किये सर्वे से यह साफ हुआ है कि बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, ओड़ीशा, राजस्थान , उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की अधिकांश जनता गरीब है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। हम गर्व कर सकते हैं कि हमारे यहां रईसों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है (अगर यह गर्व करने लायक बात हो एक गरीब देश में तो) और गरीब और भी गरीब होते जा रहे हैं। सरकारी बैंकों और निजी बैंकों से ऋण दिये जाने की चाहे जितनी भी बात की जाती हो लेकिन किसान और गरीब आज भी महाजनों से दुगने-तिगुने ब्याज दर पर कर्ज लेने को मजबूर हैं और कर्ज न चुका पाने पर उन्हें आत्महत्या तक करनी पड़ती है। इन लोगों को आजादी ने क्या दिया। हमें गर्व है कि दुनिया के रईसों में हमारे देश के भी लोगों के नाम फोर्ब्स पत्रिका में आते हैं लेकिन आजादी के सच्चे मायने और गर्व तो तब करना उचित होगा जब यह खबर आये कि भारत से गरीबी मिट गयी, समता आ गयी। जो आज के इस भ्रष्ट तंत्र (कोई भी दल सत्ता में हो किसी एक दल की बात नहीं) में दिवास्वप्न के समान है। आजादी के इतने बरसों बाद देश का हासिल यही है कि गरीब आज भी रोटी-रोटी को मुंहताज है और अमीरों की आबादी बढ़ती जाती है। आज जो लखपति है उसे अरबपति बनने में देर नहीं लगती लेकिन विकास के सारे नारे, सभी दावे गरीब की दहलीज तक जाकर ठहर जाते हैं। उसकी तकदीर नहीं बदलती।
हमने प्रगति की है। कहते हैं पहले हम सुई तक विदेश से मंगाते थे आज विमान भी बनाने लगे हैं। आणविक शक्ति बन गये हैं लेकिन जो प्रगति, जो विकास सीमांत किसानों या देश के गरीब का हित न करता हो वह बेमानी है। आप गांवों में जाइए वहां आज भी सामान्य स्वास्थ्य सुविधाएं, पीने का पानी तक नहीं है। बिजली भले ही शहरों में बाबुओं के घरों को ठंडा रखती हों लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश व ऐसे ही अन्य कई राज्यों के लोगों से पूछिए कि बिजली का कितना सुख वे भोग पाते हैं। वहां दिन में मुश्किल से तीन-चार घंटे को बिजली आती है ऐसे में न तो कृषि कार्य में इसका उपयोग हो पाता है और न ही कल-कारखाने ही सुचारू रूप से चल पाते हैं। गरमी के दिनों में इन प्रदेशों के लोगों की बेचैनी वही जान सकता है जिसने वह दुख उनके साथ भोगा हो दिल्ली में बैठे वे शासक या अधिकारी नहीं जिन्हें 24 घंटे एयरकंडीशंड माहौल में रहने की आदत पड़ गयी है। वाकई व्यवस्था यह होनी चाहिए कि ये लोग भी जनता का दुख जानने के लिए कभी उनकी स स्थितियों को जीयें ताकि इन्हें पता चल सके कि देश की कितने प्रतिशत जनता खुशहाल है। अक्सर होता यह है कि गरीबों का हाल या तो सत्ता तक पहुंचता नहीं या फिर अधिकारी अपने आकाओं को खुश करने के लिए गलत आंकड़े देकर विकास का ऐसा नक्शा खींच देते हैं कि देश खुशहाल और तरक्की करता नजर आता है।हम फिर यह कहेंगे कि सभी अधिकारी और शासक ऐसे नहीं लेकिन क्या करें यह हमारा दुर्भाग्य है कि देश में कहीं तो कुछ गड़बड़ है वरना आज महंगाई सिर चढ़ कर नहीं बोल रही होती। जो चीजें आयात होती हैं उनकी कीमतें बढ़ना तो लाजिमी है लेकिन देश में उत्पादित या पैदा होने वाली वस्तुओं की कीमतों का आकाश छूना अजीब ही नहीं बेमानी लगता है।
स्वाधीनता दिवस के पावन पर्व में हम अपनी वीर शहीदों को नमन करते हैं और उनकी शहादत के उस जज्बे को सलाम करते हैं जिसके चलते आजादी के लिए उन्होंने अपनी कुरबानी दी। हमें दुख है कि जिस भारत का सपना उन्होंने देखा था वह पूरा नहीं हो सका और देश न जाने किस राह में भटक गया। हम यह नहीं कहते कि सब कुछ अशुभ ही अशुभ है शुभता देश में झलक रही है। हम प्रगति कर रहे हैं लेकिन सच यह भी है कि हमें देश और देश के बाहर भी न जाने कितने-कितने दुश्मनों से लोहा लेना पड़ रहा है। हम चाहते हैं कि देश में आजादी को सच्चे अर्थों में लिया जाये जिसका अर्थ हो देश के गरीब से गरीब तबके तक विकास का लाभ पहुंचाना। उस तक सत्ता की सीधी पहुंच और सही तौर से उसकी उन्नति के प्रयास। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक स्थिति बड़ी दयनीय होगी और जाने-माने मशहूर संवाद लेखक स्वर्गीय ब्रजेद्र गौड़ की कविता की ये पंक्तियां हमें और हमारे शासकों को धिक्कारती रहेंगी-‘साम्यवाद के जीवित शव पर मानवता रोती है, किसी देश में क्या ऐसी ही आजादी होती है।’उम्मीद पर दुनिया कायम है और हमें भी इंतजार है जब देश का हर नागरिक खुशहाल होगा, किसान आत्महत्या को मजबूर नहीं होंगे, आतंकवाद से तेश मुक्त होगा, सबमें भाईचारा होगा और देश सभी को प्यारा होगा। हमें इंतजार है-वह सुबह कभी तो आयेगी। आप भी यही कामना कीजिए। जय जवान, जय किसान, जय हिंदुस्तान।
धर्म इस्लाम
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अनिल अनूप
खबर है कि फ्लोरिडा के एक चर्च में ११ सितंबर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुरान को जलाने (इंटरनेशनल बर्न ए कुरान डे) के दिवस के तौर पर मनाया जाएगा।न्यूयॉर्क के समाचार पत्रों के अनुसार ११ सिंतबर २००१ को हुए आतंकी हमले की घटना की नौवीं बरसी पर चर्च ने यह कदम उठाने का फै सला लिया है। फ्लोरिडा के 'द डोव वल्र्ड आउटरीच सेंटरÓ में ९/११ की बरसी पर एक शोक सभा आयोजित की जाएगी। जिसके तहत इस्लाम को कपटी और बुरे लोगों का धर्म बताकर कुरान को जलाया जाएगा।संसद में उछला मुद्दाचर्च द्वारा कुरान की प्रतियां जलाने के बारे में अमरीकी चर्च की घोषणा के मुद्दे को ९ अगस्त सोमवार को लोकसभा में उठाते हुए इस पर चर्चा कराए जाने की मांग की गई। बसपा डॉ. शफीकुर रहमान बर्क ने इस मुद्दे को उठाया।उन्होंने कहा कि भारत सरकार को अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के समक्ष इस मसले को रखना चाहिए। भारत और दुनिया के मुसलमान अपने पवित्र धर्मग्रंथ के किसी भी तरह के अपमान को बर्दाश्त नहीं कर सकते। नोट:- इस महाशय ने कभी-भी उस वक्त आपत्ति दर्ज नहीं कराई, जब मुस्लिमों द्वारा कई बार बीच सड़क पर भारत के राष्ट्रीय ध्वज जलाए। लगता है ये देश का अपमान बर्दाश्त कर सकते हैं... साथ ही इन्हें दूर देश में क्या हो रहा है इस बात की तो चिंता रहती है, लेकिन अपने देश में सांप्रदायिक ताकतें क्या गुल खिला रही हैं यह नहीं दिखता।कुरान-इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब थे। इनका जन्म अरब देश के मक्का शहर में सऩ ५७० ई में हुआ था। अपनी कट्टर सोच के कारण इन्हें अपनी जान बचाने के लिए मक्का से भागना पड़ा। इस्लाम के मूल हैं-कुरान, सुन्नत और हदीस। कुरान वह ग्रंथ है जिसमें मुहम्मद साहब के पास ईश्वर के द्वारा भेजे गए संदेश संकलित हैं। कुरान का अर्थ उच्चरित अथवा पठित वस्तु है। कहते हैं कुरान में संकलित पद (आयतें) उस वक्त मुहम्मद साहब के मुख से निकले, जब वे सीधी भगवत्प्रेरणा की अवस्था में थे।मुहम्मद साहब २३ वर्षों तक इन आयतों को तालपत्रों, चमड़े के टुकड़ों अथवा लकडिय़ों पर लिखकर रखते गए। उनके मरने के बाद जब अबूबक्र पहले खलीफा हुए तब उन्होंने इन सारी लिखावटों का सम्पादन करके कुरान की पोथी तैयार की, जो सबसे अधिक प्रामाणिक मानी जाती है।ईसाइयों से विरोधकुरान सबसे अधिक जोर इस बात पर देती है कि ईश्वर एक है। उसके सिवा किसी और की पूजा नहीं की जानी चाहिए। हिन्दुओं से तो इस्लाम का सदियों से सीधा विरोधहै। हिन्दू गौ-पालक और गौ-भक्त हैं तो मुस्लिम गौ-भक्षक, हिन्दू मूर्ति पूजा में विश्वास करते हैं तो इस्लाम इसका कट्टर विरोधी है। ईसाइयों से भी उसका इस बात को लेकर कड़ा मतभेद है कि ईसाई ईसा मसीह को ईश्वर का पुत्र कहते हैं। कुरान का कहना है कि ईसा मसीह ईश्वर के पुत्र कतई नहीं हो सकते,क्योंकि ईश्वर में पुत्र उत्पन्न करने वाले गुण को जोडऩा उसे मनुष्य की कोटि में लाना है। दोनों से भला हिन्दुत्वकुछ लोगों को हिन्दुत्व से बड़ी आपत्ति है, लेकिन मैं भगवान का शुक्रिया अदा करता हूं कि मैं हिन्दू जन्मा। हिंदू होने के नाते मुझे सभी धर्मों का आदर करने की शिक्षा मिली है। मैं मंदिर जा सकता हूं, मस्जिद और दरगाह पर श्रद्धा से शीश झुका सकता हूं और चर्च में प्रार्थना भी कर सकता हूं। जिस तरह से एक आतंककारी घटना से ईसाइयों में इस्लाम के प्रति इतना क्रोध है कि कुरान को चर्च में जलाने का निर्णय ले लिया। इससे तो हिन्दू भले हैं। हिन्दुओं ने तो मुगलों के अनगिनत आक्रमण और आंतकी हमले झेले हैं, लेकिन कभीभी कुरान जैसे ग्रंथ को जलाने का निर्णय नहीं लिया। भले ही इस देश के मुसलमान सड़कों पर यदाकदा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को जलाते रहे हों या फिर राष्ट्रगीत वन्देमातरम् के गाने पर एतराज जताते हों। असल में इस्लाम और ईसाई दोनों ही धर्म अति कट्टर हैं। वे अपने से इतर किसी अन्य धर्म की शिक्षाओं को न तो ठीक मानते हैं और न उनकाआदर करते हैं। एक ने अपने धर्म का विस्तार तलवार की नोक पर किया तो दूसरे ने लालच, धोखे और षडय़ंत्र से भोले-मानुषों को ठगा। खैर चर्च में कुरानजलाने का मसला तूल पकड़ेगा। इसके विरोध में पहली प्रतिक्रिया भारतीय संसद में हो चुकी है।


मंगलवार, 20 जुलाई 2010

कौमियत में बाँट दिया धर्म को

अनील अनूप
ढोंग और ढकोंसला को धर्म का नाम दे कर उनको क़ौमियत में तकसीम कर दिया गया है। हिदू धर्म, इस्लाम, धर्म, ईसाई धर्म वगैरह , जब कि धर्म सिर्फ़ एक होता है किसी वस्तु, जीव या व्यक्ति का सद गुण -जैसे काँटे (तराजू) का धर्म (सदगुण) उस की सच्ची तोल, फूल का धर्म खुशबू, साबुन का धर्म साफ़ करना और इंसान का धर्म इंसानियत। इसी धर्म का अरबी पर्याय ईमान है जिस पर इस्लाम ने कब्ज़ा कर लिया है। इस्लाम अभी चौदह सौ साल पहले आया, ईमान और धर्म इंसान की पैदाइश के साथ साथ हजारों सालों से काएम हैं। इंसान इर्तेक़ाइ मरहलों में है,ये रचना-काल समाप्त हो, ढोंग और ढ्कोंसलों का कूड़ा इसकी राह से दूर हो जाए तो ये मानव से महा मानव बन जाएगा। खास कर मुस्लिम समाज जो पाताल में जा रहा है, इस को जगाना ज़रूरी है क्यूँ कि इसी में से मैं वाबिस्ता हूँ और यह ख़ुद अपना दुश्मन है। कोई इसका दोस्त नही । इस को तअस्सुब या जानिब दारी न समझा जाए, बल्कि कमज़ोर की मदद है ये।
हम बहैसियत मुसलमान इस वक्त अपने मुखालिफों के नरगे में हैं, ख्वाह वह रूए ज़मीन का कोई भी टुकडा क्यों न हो, मुस्लिम एक्तेदार में हो, या गैर मुस्लिम एक्तेदार में हो, छोटा सा गाँव हो, कस्बा हो, छोटा या बड़ा शहर हो, हर जगह मुसलमान अपने आप को गैर महफूज़ समझता है, खास कर वह मुसलमान जो वक्त के मुताबक बेहतर और बेदार समाजी ज़िन्दगी जीने का हौसला रखता है. उस के लिए दूर दूर तक खारजी और दाखली दोनों तौर पर रोड़े बिखरे हुए हैं. खारजी तौर पर देखें तो दुन्या इन मुसलमानों के लिए कोई नर्म गोशा इस लिए नहीं रखती की इन का माजी का अईना इन्तेहाई दागदार है,और दाखली सूरते हल ऐसी है कि ख़ुद इनकी ही माहोल्याती तारीकी इन्हें आठवीं सदी में ले जाना चाहती है.हर हस्सास मुसलमान अपने ऊपर मंडराते खतरे को अच्छी तरह महसूस कर रहा है.वह अपने अन्दर छिपी हुई इस की वज़ह को भी अच्छी तरह जानता बूझता है. बहुत से सवाल वह ख़ुद से करता है, अपने को लाजवाब पाता है. ख़ुद से नज़र नहीं मिला पाता, जब कि वह जानता है हल उसके सामने अपनी उंगली थमाने को तय्यार खड़ा है क्यूंकि उसके समाज के बंधन उसके पैर में बेडियाँ डाले हुए हैं. वह शुतुर मुर्ग कि तरह सर छिपाने के हल को क्यूं अपनाए हूए है? वह अपनी बका और फ़ना को किस के हवाले किए हुए है?

हमें चाहिए हम आँखें खोलें, सच्चाइयों का सामना करते हुए उनको तस्लीम कर लें. याद रखें सच्चाई को तस्लीम करना ही सब से बड़ी अन्दर कि बहादुरी है. दीन के नाम पर क़दामातों पर डटे रहना जहालत है. कल की माफौकुल-फितरत बातें और दरोग बाफियाँ आज के साइंस्तिफिक हल २+२=४ कि तरह सच नहीं हैं जदीद तरीन सदाक़तें अपने साथ नई क़द्रें लाई हैं. इन में शहादतें और पाकीज़गी है. वह माजी के मुजरिमों का बदला इनकी नस्लों से नहीं लेतें. वह काफिर की औरतों और बच्चो को मिन जुमला काफिर करार नहीं गरदान्तीं . वह तो काफिर और मोमिन का इम्तियाज़ भी नहीं करतीं. इन में इन्तेक़ाम का कोई खुदाई हुक्म भी नहीं है, न इन का कोई मुन्तक़िम खुदा है. हमें इन जदीद सदाकतों और पाकीज़ा क़दरों को तस्लीम कर लेने की ज़रूरत है. हमें तौबा इन के एहसासात के सामने आकर करना चाहिए और और हम तौबा जाने कहाँ कहाँ करते फिर रहे हैं यह नई सदाकतें, यह यह पाक क़द्रें किसी पैगम्बर की ईजाद नहीं, किसी तबके की नहीं, किसी फिरके की नहीं, किसी खित्ते की नहीं, हजारों सालों से इंसानियत के शजर के फूल की खुशबू से यह वजूद में आई है. बिला शको शुबहा इन को हर्फे-आखीर और आखिरी निज़ाम कहा जा सकता है. ये रोज़ बरोज़ और ख़ुद बखुद सजती और संवारती चली जाएंगी. इन का कोई अल्लाह नहीं होगा, कोई पैगम्बर नहीं होगा, कोई जिब्रील नहीं होगा, न कोई शैतान ये मज़हबे-इंसानियत दुन्या का आखरी मज़हब होगा, आखरी निजाम होगा. अगर सब से पहले मुसलमान इसे कुबूल करें तो इन के लिए सब से बेहतर रास्ता
होगा.

सोमवार, 19 जुलाई 2010

पर्दा या कट्टरता

आप बताइये क्या है ये .....?
बताईये कौन सी शांति दीख रही है आपको इन तस्वीरों में ...?

क्या सन्देश दे रही ये ये तस्वीरें........?(सभी तस्वीर मीडिया क्लब से साभार)
अब आईये एक काबिल ए गौर मजमून पढ़िए
अनिल अनूप
हिजाब या बुरके के पीछे सिर्फ मुस्सिम कट्टरपंथ की शिकार ही नहीं छिपी होती, बल्कि रेडिकल विचार भी पनप रहे होते हैं, यह सऊदी अरब की कवयित्री हिसा हिलाल ने साबित कर दिया है। सऊदी अरब वह मुल्क है, जिसने इस्लाम की सबसे प्रतिक्रियावादी व्याख्या अपने नागरिकों पर थोपी हुई है। इसकी सबसे ज्यादा कीमत वहां की औरतों को अदा करनी पड़ी है। सऊदी अरब में औरतों को पूर्ण मनुष्य का दरजा नहीं दिया जाता। वे घर से अकेले नहीं निकल सकतीं, अपरिचित आदमियों से मिल नहीं सकतीं, कार नहीं चला सकतीं और बड़े सरकारी पदों पर नियुक्त नहीं हो सकतीं। घर से बाहर निकलने पर उन्हें सिर से पैर तक काला बुरका पहनना पड़ता है, जिसमें उनका चेहरा तक पोशीदा रहता है – आंखें इसलिए दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि इसके बिना वे ‘हेडलेस चिकन’ हो जाएंगी। । पुरुषों की तुलना में उनके हक इतने सीमित हैं कि कहा जा सकता है कि उनके कोई हक ही नहीं हैं — सिर्फ उनके फर्ज हैं, जो इतने कठोर हैं कि दास स्त्रियों या बंधुवा मजदूरों से भी उनकी तुलना नहीं की जा सकती। ऐसे दमनकारी समाज में जीनेवाली हिसा हिलाल ने न केवल पत्रकारिता का पेशा अपनाया, बल्कि विद्रोही कविताएं भी लिखीं। इसी हफ्ते अबू धाबी में चल रही एक काव्य प्रतियोगिता में वे प्रथम स्थान के लिए सबसे मज़बूत दावेदार बन कर उभरी हैं।संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबू धाबी में कविता प्रतियोगिता का एक टीवी कार्यक्रम होता है — जनप्रिय शायर। इस कार्यक्रम में हर हफ्ते अरबी के कवि और कवयित्रियां अपनी रचनाएं पढ़ती हैं। विजेता को तेरह लाख डॉलर का पुरस्कार मिलता है। इसी कार्यक्रम में हिसा हिलाल ने अपनी बेहतरीन और ताकतवर नज्म पढ़ी – फतवों के खिलाफ। यह कविता उन मुस्लिम धर्मगुरुओं पर चाबुक के प्रहार की तरह है, ‘ जो सत्ता में बैठे हुए हैं और अपने फतवों और धार्मिक फैसलों से लोगों को डराते रहते हैं। वे शांतिप्रिय लोगों पर भेड़ियों की तरह टूट पड़ते हैं।’ अपनी इस कविता में इस साहसी कवयित्री ने कहा कि एक ऐसे वक्त में जब स्वीकार्य को विकृत कर निषिद्ध के रूप में पेश किया जा रहा है, मुझे इन फतवों में शैतान दिखाई देता है। ‘जब सत्य के चेहरे से परदा उठाया जाता है, तब ये फतवे किसी राक्षस की तरह अपने गुप्त स्थान से बाहर निकल आते हैं।’ हिसा ने फतवों की ही नहीं, बल्कि आतंकवाद की भी जबरदस्त आलोचना की। मजेदार बात यह हुई कि हर बंद पर टीवी कार्यक्रम में मौजूद श्रोताओं की तालियां बजने लगतीं। तीनों जजों ने हिसा को सर्वाधिक अंक दिए। उम्मीद की जाती है कि पहले नंबर पर वही आएंगी।मुस्लिम कट्टरपंथ और मुस्लिम औरतों के प्रति दरिंदगी दिखानेवाली विचारधारा का विरोध करने के मामले में हिसा हिलाल अकेली नहीं हैं। हर मुस्लिम देश में ऐसी आवाजें उठ रही हैं। बेशक इन विद्रोही आवाजों का दमन करने की कोशिश भी होती है। हर ऐसी घटना पर हंगामा खड़ा किया जाता है। हिसा को भी मौत की धमकियां मिल रही है। जाहिर है, मर्दवादी किले में की जानेवाली हर सुराख पाप के इस किले को कमजोर बनाती है। लंबे समय से स्त्री के मन और शरीर पर कब्जा बनाए रखने के आदी पुरुष समाज को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता है? लेकिन इनके दिन अब गिने-चुने हैं। विक्टर ह्यूगो ने कहा था कि जिस विचार का समय आ गया है, दुनिया की कोई भी ताकत उसे रोक नहीं सकती। अपने मन और तन की स्वाधीनता के लिए आज दुनिया भर के स्त्री समाज में जो तड़प जाग उठी है, वह अभी और फैलेगी। दरअसल, इसके माध्यम से सभ्यता अपने को फिर से परिभाषित कर रही है।वाइरस की तरह दमन के कीड़े की भी एक निश्चित उम्र होती है। फर्क यह है कि वाइरस एक निश्चित उम्र जी लेने के बाद अपने आप मर जाता है, जब कि दमन के खिलाफ उठ खड़ा होना पड़ता है और संघर्ष करना होता है। मुस्लिम औरतें अपनी जड़ता और मानसिक पराधीनता का त्याग कर इस विश्वव्यापी संघर्ष में शामिल हो गई हैं, यह इतिहास की धारा में आ रहे रेडिकल मोड़ का एक निश्चित चिह्न है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस तरह के प्रयत्नों से यह मिथक टूटता है कि मुस्लिम समाज कोई एकरूप समुदाय है जिसमें सभी लोग एक जैसा सोचते हैं और एक जैसा करते हैं। व्यापक अज्ञान से उपजा यह पूर्वाग्रह जितनी जल्द टूट जाए, उतना अच्छा है। सच तो यह है कि इस तरह की एकरूपता किसी भी समाज में नहीं पाई जाती। यह मानव स्वभाव के विरुद्ध है। धरती पर जब से अन्याय है, तभी से उसका विरोध भी है। रूढ़िग्रस्त और कट्टर माने जानेवाले मुस्लिम समाज में भी अन्याय और विषमता के खिलाफ प्रतिवाद के स्वर शुरू से ही उठते रहे हैं। हिसा हिलाल इसी गौरवशाली परंपरा की ताजा कड़ी हैं। वे ठीक कहती हैं कि यह अपने को अभिव्यक्त करने और अरब स्त्रियों को आवाज देने का एक तरीका है, जिन्हें उनके द्वारा बेआवाज कर दिया गया है ‘जिन्होंने हमारी संस्कृति और हमारे धर्म को हाइजैक कर लिया है।’तब फिर अबू धाबी में होनेवाली इस काव्य प्रतियोगिता में जब हिसा हलाल अपनी नज्म पढ़ रही थीं, तब उनका पूरा शरीर, नख से शिख तक, काले परदे से ढका हुआ क्यों था? क्या वे परदे को उतार कर फेंक नहीं सकती थीं? इतने क्रांतिकारी विचार और परदानशीनी एक साथ कैसे चल सकते हैं? इसके जवाब में हिसा ने कहा कि ‘मुझे किसी का डर नहीं है। मैंने पूरा परदा इसलिए किया ताकि मेरे घरवालों को मुश्किल न हो। हम एक कबायली समाज में रहते हैं और वहां के लोगों की मानसिकता में परिवर्तन नहीं आया है।’ आएगा हिसा, परिवर्तन आएगा। आनेवाले वर्षों में तुम जैसी लड़कियां घर-घर में पैदा होंगी और अपने साथ-साथ दुनिया को भी आजाद कराएंगी।यह भी नारीवाद का एक चेहरा है। इसमें भी विद्रोह है, लेकिन अपने धर्म की चौहद्दी में। यह जाल-बट्टे को एक तरफ रख कर हजरत साहब की मूल शिक्षाओं तक पहुंचने की एक साहसी कार्रवाई है। इससे संकेत मिलता है कि परंपरा के भीतर रहते हुए भी कैसे तर्क और मानवीयता का पक्ष लिया जा सकता है। अगला कदम शायद यह हो कि धर्म का स्थान वैज्ञानिकता ले ले। नारीवाद को मानववाद की तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए यह आवश्यक होगा। अभी तो हमें इसी से संतोष करना होगा कि धर्म की डाली पर आधुनिकता का फूल खिल रहा है।
परंपराओं के अजीबोगरीब घालमेलनसीब खान ने हाल ही में अपने बेटे प्रकाश सिंह की शादी राम सिंह की बेटी गीता से की. तीन महीने पहले हेमंत सिंह की बेटी देवी का निकाह एक मौलवी की मौजूदगी में लक्ष्मण सिंह से हुआ. माधो सिंह को जब से याद है वो गांव की ईदगाह में नमाज पढ़ते आ रहे हैं मगर जब होली या दीवाली का त्यौहार आता है तो भी उनका जोश देखने लायक होता है.नामों और परंपराओं के इस अजीबोगरीब घालमेल पर आप हैरान हो रहे होंगे. मगर राजस्थान के अजमेर और ब्यावर से सटे करीब 160 गांवों में रहने वाले करीब चार लाख लोगों की जिंदगी का ये अभिन्न हिस्सा है. चीता और मेरात समुदाय के इन लोगों को आप हिंदू भी कह सकते हैं और मुसलमान भी. ये दोनों समुदाय छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों से मिलकर बने हैं और इनमें आपसी विवाह संबंधों की परंपरा बहुत लंबे समय से चली आ रही है. खुद को चौहान राजपूत बताने वाले ये लोग अपना धर्म हिंदू-मुस्लिम बताते हैं. उनका रहन-सहन, खानपान और भाषा काफी-कुछ दूसरी राजस्थानी समुदायों की तरह ही है मगर जो बात उन्हें अनूठा बनाती है वो है दो अलग-अलग धर्मों के मेल से बनी उनकी मजहबी पहचान.ये समुदाय कैसे बने इस बारे में कई किस्से प्रचलित हैं. एक के मुताबिक एक मुसलमान सुल्तान ने उनके इलाके पर फतह कर ली और चीता-मेरात के एक पूर्वज हर राज के सामने तीन विकल्प रखे. फैसला हुआ कि वो इस्लाम, मौत या फिर समुदाय की महिलाओं के साथ बलात्कार में से एक विकल्प को चुन ले. कहा जाता है कि हर राज ने पहला विकल्प चुना मगर पूरी तरह से इस्लाम अपनाने के बजाय उसने इस धर्म की केवल तीन बातें अपनाईं—बच्चों को खतना करना, हलाल का मांस खाना और मुर्दों को दफनाना. यही वजह है कि चीता-मेरात अब भी इन्हीं तीन इस्लामी रिवाजों का पालन करते हैं जबकि उनकी बाकी परंपराएं दूसरे स्थानीय हिंदुओं की तरह ही हैं. हर राज ने पहला विकल्प चुना मगर पूरी तरह से इस्लाम अपनाने के बजाय उसने इस धर्म की केवल तीन बातें अपनाईं—बच्चों को खतना करना, हलाल का मांस खाना और मुर्दों को दफनाना. यही वजह है कि चीता-मेरात अब भी इन्हीं तीन इस्लामी रिवाजों का पालन करते हैं।मगर चीता-मेरात की इस अनूठी पहचान पर खतरा मंडरा रहा है. इसकी शुरुआत 1920 में तब से हुई जब आर्य समाजियों ने इन समुदायों को फिर पूरी तरह से हिंदू बनाने के लिए अभियान छेड़ दिया. आर्यसमाज से जुड़ी ताकतवर राजपूत सभा ने समुदाय के लोगों से कहा कि वो इस्लामी परंपराओं को छोड़कर हिंदू बन जाएं. कहा जाता है कि कुछ लोगों ने इसके चलते खुद को हिंदू घोषित किया भी मगर समुदाय के अधिकांश लोग इसके खिलाफ ही रहे. उनका तर्क था कि उनके पूर्वज ने मुस्लिम सुल्तान को वचन दिया था और इस्लामी रिवाजों को छोड़ने का मतलब होगा उस वचन को तोड़ना.
अस्सी के दशक के मध्य में चीता-मेरात समुदाय के इलाकों में हिंदू और मुस्लिम संगठनों की सक्रियता बढ़ी जिनका मकसद इन लोगों को अपनी-अपनी तरफ खींचना था। अजमेर के आसपास विश्व हिंदू परिषद ने भारी संख्या में इस समुदाय के लोगों को हिंदू बनाया। उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए इस संगठन ने गरीबी से ग्रस्त इस समुदाय के इलाकों में कई मंदिर, स्कूल और क्लीनिक बनाए। विहिप का दावा है कि चीता-मेरात पृथ्वीराज चौहान के वंशज हैं और उनके पूर्वजों को धर्मपरिवर्तन के लिए मजबूर किया गया था।मगर समुदाय का एक बड़ा हिस्सा अब भी इस तरह के धर्मांतरण के खिलाफ है. इसकी एक वजह ये भी है कि हिंदू बन जाने के बाद भी दूसरे हिंदू उनके साथ वैवाहिक संबंध बनाने से ये कहते हुए इनकार कर देते हैं कि मुस्लिमों के साथ संबंधों से चीता-मेरात अपवित्र हो गए हैं.इस इलाके में इस्लामिक संगठन भी सक्रिय हैं. इनमें जमैतुल उलेमा-ए-हिंद, तबलीगी जमात और हैदराबाद स्थित तामीरेमिल्लत भी शामिल हैं जिन्होंने यहां मदरसे खोले हैं और मस्जिदें स्थापित की हैं. जिन गांवों में ऐसा हुआ है वहां इस समुदाय के लोग अब खुद को पूरी तरह से मुसलमान बताने लगे हैं. हिंदू संगठनों के साथ टकराव और प्रशासन की सख्ती के बावजूद पिछले दो दशक के दौरान इस्लाम अपनाने वाले इस समुदाय के लोगों की संख्या उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है.मगर इस सब के बावजूद चीता-मेरात काफी कुछ पहले जैसे ही हैं. हों भी क्यों नहीं, आखिर पीढियों पुरानी परंपराओं से पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता. समुदाय के एक बुजुर्ग बुलंद खान कहते हैं, हमारा दर्शन है जियो और जीने दो. लोगों को ये आजादी होनी जाहिए कि वो जिस तरह से चाहें भगवान की पूजा करें. खान मानते हैं कि उनमें से कुछ अपनी पहचान को लेकर शर्म महसूस करते हैं. वो कहते हैं, लोग हमें ये कहकर चिढ़ाते हैं कि हम एक ही वक्त में दो नावों पर सवार हैं. मगर मुझे लगता है कि हम सही हैं. हम मिलजुलकर साथ-साथ रहते हैं. हम साथ-साथ खाते हैं और आपस में शादियां करते हैं. धर्म एक निजी मामला है और इससे हमारे संबंधों पर असर नहीं पड़ता.
(लेखक इस्लामिक विषयों के शोधकर्ता हैं )
contact no. of the writter 09592013977

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

आनर कीलिंग

अनिल अनूप
देश में धडाधड हो रही ऑनर किलिग से पूरा देश सदमे में है। जिन परिवारों ने इस अपराध में अपनी प्रिय संतानों को खोया है वे भी इस वेदना को बरदाश्‍त नहीं कर पा रहे थे। वे अपने सूखे हलक से इस अपराध को स्‍वीकार कर रहे थे।मेरी मुलाकात एक ऐसे परिवार से हुयी जो इस पीडा से गुजरा था। यह परिवार इस घटना के लिये किसी की सांत्‍वना नहीं चाह रहा था,उनका सोचना था कि लोग आयेंगें और केवल उनकी हॅसी उडायेगें। गॉंव-समाज के अधिकांश स्‍त्री-पुरूष ऐसी घटनाओं के पीछे नाजायज यौन सम्‍बधों को कारण मान रहे थे।जिन परिवारों पर ऑनर किलिंग का दोष लगा था,समाज में उनकी सामाजिक प्रतिष्‍ठा ज्‍यादा उचीं नहीं थी।उनकी आथिर्क स्थिती भी ज्‍यादा अच्‍छी नहीं थी।कानूनन अपराधी परिवारों का कहना था कि पूरे गॉंव में इस बात की बदनामी थी कि हमारी लडकी के अपनों से नाजायज रिश्‍ते हैं।इससे उनके दूसरे बच्‍चों के वैवाहिक रिश्‍ते बनाने में परेशानी आती।उस गॉंव में काफी पढे-लिखे लोग भी थे।मैंने ऐसे लोगों के बीच नाजायज यौन सम्‍बधों व इसके लिये की जाने वाली हत्‍याओं पर खुल कर बातचीत करने की कोशिश की,और लोगों ने इस बहस में बेबाकी ढंग से भागीदारी की।लोगों ने अपने ढंग से यह स्‍वीकार किया कि प्रेम सम्‍बधों में कोइ बुराई नहीं है,लेकिन यह काम खुलेआम करना सही नहीं है।एक ही गौत्र में यह करना सबसे बडीगलती है।सबका मानना था कि अब हमारे समाज को उचित मार्गदर्शन की जरूरत है।कोई भी कानून इस काम को नहीं कर सकता।अगर ऑनर किलिंग के लिये कोई जिम्‍मेदार है तो वह हम और हमारा समाज है।देश के विद्धानों के अनुसार संस्‍क्रति नामक कचरा एक ऐसी जड है,जो ऑनर किलिंग के लिये काफी हद तक जिम्‍मेदार है।बुद्धिजीवी मानते हैं कि जाति तोडकर प्रेम विवाहों को अनुमति प्रदान करने से ऑनर किलिंग जैसे अपराध नहीं होंगें।मुझे इस पर काफी हद तक विरोधाभास दिखाई पडता है।मैं डंके की चोट पर कह सकता हूं कि सांस्‍क्रतिक दायरे के बाहर यदि ऑनर किलिंग जैसे अपराधों का इलाज सोचा गया तो यह अपराध किसी दूसरे भंयकर रूप में हमारे सामने खडा होगा।
समाज शास्‍त्र में सांस्‍क्रतिक निरपेक्षता एक ऐसा सिद्धांत है,जिसमें किसी दूसरे समाज के लोक व्‍यवहारों को निक्रष्‍ट मानने की मनाही है। लेकिन हमारे यहॉं की पूरी मीडिया,व बौद्धिक वर्ग मौका मिलते ही भारतीय संस्‍क्रति पर हमला बोल देते है।हम सब जानते हैं कि हर समाज में विवाहों के दो रूप हैं।एक प्रतिबंद्धित विवाह,जिसमें कुछ रिश्‍तों में विवाह एवं यौन सम्‍बधों की पूर्ण मनाही होती है। दूसरे विवाह का रूप अनुमन्‍य विवाह होता है,इसमें प्रतिब‍द्धिंत विवाह के बाहर विवाह की अनुमति दी जाती है।काफी लोगों का मानना है कि भारतीय समाज में दबे-छुपके इन सब के विरूद्ध भी यौन सम्‍बध स्‍‍थापित किये जाते हैं।यानि ऐसे लोग नकारात्‍मक सोच एवं पूर्वाग्रह के आधार पर भारतीय समाज की संरचना पर अविश्‍वास व्‍यक्‍त कर रहे हैं। किसी भी समाज की सामाजिक संरचना ऐसा ताना-बाना होता है,जो हमारे जीने के दायरे र्निधारित करता है।वास्‍तविकता में यह लोकमानस से निधार्रित होता है। इसी के अनुसार हमें अपनी सामाजिक भूमिकाओं का निर्वहन करना होता है।यानि कि यहॉ व्‍यक्ति कम,उसकी भूमिका ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है।मेरा विचार है कि भारतीय समाज में प्रेम सम्‍बधों की पूर्ण मान्‍यता है,लेकिन अवैध सम्‍बधों की मनाही है।आखिर ऑनर किलिंग के लिये गरीब परिवारों को किसने उकसाया,यह सोचने का विषय है। समाज के लम्‍बरदार व मठाधीश ही ऐसे लोग हैं,जिन्‍हौंने स्‍वंयभू बनकर झूठी शान बनायी है।और भूमिका की जगह व्‍यक्ति ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण कर दिया गया है।और समाज के गरीब लोग इनका मजबूरी में अनुकरण करते हैं। अब इन लोगो को कौन समझाये कि ऑनर किलिंग में अपने प्रियजनों की हत्‍या से सम्‍मान कैसे बचा रह सकता है।हॉं अगर सगोत्रीय विवाह का यदि मामला हो तो पारवारिक नियंत्रण इसमें कारगर हो सकता है। लेकिन अंधे-बहरे समाज में पीरवार व समाज के नियंत्रण को कोइ जगह नहीं है।सब कुछ समाज के ठेकेदारों के हाथ में रहना चाहिये,ताकि इससे उनका धंधा चल सके। जैसे ही किसी मामले की जानकारी मीडिया को लगती है,पूरा मीडिया चीख-चीखकर वो र्चचेआम कर देती है,कि गरीब आदमी की सहायता कम ,बदनामी ज्‍यादा हो जाती है।इसी के बचाव के लिये दुखी आदमी अपनों की जान ले लेता है।ऑनर किलिंग के दोषी परिवार के साथ जो रात मैने बितायी,उसका अनुभव इतना दर्दनाक था कि परिवार के छोटे बच्‍चों के मुंह पर आंसुओं की सूखी लकीरें सब कुछ व्‍यक्‍त करने के लिये पर्याप्‍त थीं।म्रत लडकी की मॉ रोते-रोते बेहोश हो जा रही थी।उसे बेटी खोने का गम था व पति को सजा का डर।उन सबका मानना था कि इस वेदना को देखने से पूर्व वो मर जाते तो अच्‍छा था।
लेकिन इस सबसे हमें क्‍या। हमें उधार का पाश्‍चात्‍यीकरण चाहिये ,चाहे,इसके एबज में कितनी भी जान जांये।क्‍योंकि परसंस्‍क्रतिकरण में विश्‍वास करना हमारी तौहीन है,जौकि स्‍वतंत्र व दूरर्वर्ती प्रक्रिया है।