अनिल अनूप
ॐ और अल्लाह ....आस्था और अनुभव के सिंहासन पर आरूढ़
ॐ और अल्लाह ....आस्था और अनुभव के सिंहासन पर आरूढ़ हैं. जहाँ मैं है वहां वे नहीं जहाँ मैं नहीं वहां वे हैं. अष्टावक्र : जब तक मैं हूँ, तब तक सत्य नहीं ,जहाँ मैं न रहा , वहीँ सत्य उतर आता है.
ग़ालिब ने भी ऐसा ही कहा है: न था कुछ तो खुदा था , कुछ न होता तो खुदा होता ..
अल्लाह के नाम में अंगूर जैसी मिठास है. अल्लाह अल्लाह जोर जोर से कहना ..भीतर एक रसधार बहने लगेगी. ओंठ बंद कर जीभ से अल्लाह अल्लाह कहिये तो एक रूहानी संगीत का एहसास होगा. फिर बिना जीभ के अल्लाह अल्लाह कि पुकार से और गहराई में हजारों वींनाओं के स्पंदन का एहसास होने लगेगा. अल्लाह के निरंतर स्मरण से जो प्रतिध्वनि गूंजी , वह गूँज रह जाएगी .बजते बजते वीना बंद हो जाये , लेकिन ध्वनि गूंजती रहती है. सूफी गायकों को सुनिए -एक मस्ती तारी रहती और उनकी आँख मेंदेखें तो शराब सा नशा.
ऐसे ही ओंकार शब्द की गूज सर्वशक्तिमान के अस्तित्व का आभास करवाती है. आँखें बंद कर प्रात : काल सूर्यदेव की ओर ध्यान कर ॐ शब्द का उच्चारण ब्रह्माण्ड के महाशुन्य में उस अनंत शक्तिमान की अनुभूति करवाता है. ओमकार के पाठ में नशा नहीं मस्ती नहीं -केवल आनंद और ख़ामोशी की अनुगुन्ज़न है.
अल्लाह और ॐ को किसी धर्मग्रन्थ या वेद्शस्त्र में कैसे सम्माहित किया जा सकता है. ब्रह्माण्ड के रचयिता को शब्दों में और आयातों में कैसे बांधा जा सकता है. जिन अदीबों और ज्ञानिओं ने इनको धर्म और सम्प्रदाय की पोथिओं में बांधने के जतन किये हैं वे वास्तव में अज्ञानी ही थे. सुकरात ने ठीक ही कहा है:' जब मैं कुछ कुछ जानने लगा तब मुझे पता चला की मैं कुछ नहीं जानता '. और लाओत्सु ने भी कुछ ऐसा ही फरमाया है ' -ज्ञानी अज्ञानी जैसा होता है.
आस्थावान के लिए ॐ और अल्लाह व् ईश ही अंतिम ज्ञान है. सत्य ज्ञान की परिभाषा तो मानव अनुभूति की खोज के अनुरूप नित्य नए नए आयाम स्थापित कर रही है. और अल्लाह और ॐ को तो वो ही जान सकते हैं जो केवल आस्थावान ,निर्वेद और अमोमिन हैं. सम्प्रदाय विशेष से जिनका दूर का रिश्ता भी नहीं. जिनके मन पर कुछ भी नहीं लिखा गया . जो साक्षी हैं कोरे कागद की मानिंद और अपने विवेकपूर्ण जिज्ञासा से नित्य नए नए अनुभवों का सृजन कर महान्शून्य की सत्ता में अपनी खुदी को मिटाए चले जा रहे हैं. क्यों न हम अपने अपने अनुभवों से अपना ही एक अल्लाह, अपना ही एक ॐ, अपना ही एक ईश सृजित कर लें जिसमें जीसस के अनुसार ' जो बच्चों की भांति भोले हैं, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे .
घर से मस्जिद है बहुत दूर , चलो यूं कर लें ,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए...........
मीडिया क्लुब में L.R.Gandh जी के विचार
http://http://www.mediaclubofindia.com/profiles/blogs/4335940:BlogP...
ॐ और अल्लाह ....आस्था और अनुभव के सिंहासन पर आरूढ़
ॐ और अल्लाह ....आस्था और अनुभव के सिंहासन पर आरूढ़ हैं. जहाँ मैं है वहां वे नहीं जहाँ मैं नहीं वहां वे हैं. अष्टावक्र : जब तक मैं हूँ, तब तक सत्य नहीं ,जहाँ मैं न रहा , वहीँ सत्य उतर आता है.
ग़ालिब ने भी ऐसा ही कहा है: न था कुछ तो खुदा था , कुछ न होता तो खुदा होता ..
अल्लाह के नाम में अंगूर जैसी मिठास है. अल्लाह अल्लाह जोर जोर से कहना ..भीतर एक रसधार बहने लगेगी. ओंठ बंद कर जीभ से अल्लाह अल्लाह कहिये तो एक रूहानी संगीत का एहसास होगा. फिर बिना जीभ के अल्लाह अल्लाह कि पुकार से और गहराई में हजारों वींनाओं के स्पंदन का एहसास होने लगेगा. अल्लाह के निरंतर स्मरण से जो प्रतिध्वनि गूंजी , वह गूँज रह जाएगी .बजते बजते वीना बंद हो जाये , लेकिन ध्वनि गूंजती रहती है. सूफी गायकों को सुनिए -एक मस्ती तारी रहती और उनकी आँख मेंदेखें तो शराब सा नशा.
ऐसे ही ओंकार शब्द की गूज सर्वशक्तिमान के अस्तित्व का आभास करवाती है. आँखें बंद कर प्रात : काल सूर्यदेव की ओर ध्यान कर ॐ शब्द का उच्चारण ब्रह्माण्ड के महाशुन्य में उस अनंत शक्तिमान की अनुभूति करवाता है. ओमकार के पाठ में नशा नहीं मस्ती नहीं -केवल आनंद और ख़ामोशी की अनुगुन्ज़न है.
अल्लाह और ॐ को किसी धर्मग्रन्थ या वेद्शस्त्र में कैसे सम्माहित किया जा सकता है. ब्रह्माण्ड के रचयिता को शब्दों में और आयातों में कैसे बांधा जा सकता है. जिन अदीबों और ज्ञानिओं ने इनको धर्म और सम्प्रदाय की पोथिओं में बांधने के जतन किये हैं वे वास्तव में अज्ञानी ही थे. सुकरात ने ठीक ही कहा है:' जब मैं कुछ कुछ जानने लगा तब मुझे पता चला की मैं कुछ नहीं जानता '. और लाओत्सु ने भी कुछ ऐसा ही फरमाया है ' -ज्ञानी अज्ञानी जैसा होता है.
आस्थावान के लिए ॐ और अल्लाह व् ईश ही अंतिम ज्ञान है. सत्य ज्ञान की परिभाषा तो मानव अनुभूति की खोज के अनुरूप नित्य नए नए आयाम स्थापित कर रही है. और अल्लाह और ॐ को तो वो ही जान सकते हैं जो केवल आस्थावान ,निर्वेद और अमोमिन हैं. सम्प्रदाय विशेष से जिनका दूर का रिश्ता भी नहीं. जिनके मन पर कुछ भी नहीं लिखा गया . जो साक्षी हैं कोरे कागद की मानिंद और अपने विवेकपूर्ण जिज्ञासा से नित्य नए नए अनुभवों का सृजन कर महान्शून्य की सत्ता में अपनी खुदी को मिटाए चले जा रहे हैं. क्यों न हम अपने अपने अनुभवों से अपना ही एक अल्लाह, अपना ही एक ॐ, अपना ही एक ईश सृजित कर लें जिसमें जीसस के अनुसार ' जो बच्चों की भांति भोले हैं, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे .
घर से मस्जिद है बहुत दूर , चलो यूं कर लें ,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए...........
मीडिया क्लुब में L.R.Gandh जी के विचार
http://http://www.mediaclubofindia.com/profiles/blogs/4335940:BlogP...
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aap kee rachna padhee hai