गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

वाह क्या खूब है साधू-साधू का खेल .......

अनिल अनूप
जिम्मेदारियों से भाग खड़े होने का सबसे अच्छा तरीका है साधु बन जाना। स्वर्ग सा गृहस्थ जीवन छोड़कर पहले साधु बनते हैं, फिर समाधि छोड़कर संभोग की तरफ आते हैं, और जन्म देते हैं सेक्स स्केंडल को।स्वामी नित्यानंद जी आजकल सेक्स स्केंडल के कारण ही तो चर्चाओं में हैं। आज तक तो उनके बारे में कभी सुना नहीं था, लेकिन वो सेक्स स्केंडल के कारण चर्चा में आए, और हमारे ज्ञान में बढ़ोतरी कर दी कि कोई नित्यानंद नामक स्वामी दक्षिण में भी हुए हैं। शायद आपको याद होगा कि सिरसा स्थित डेरा सच्चा सौदा के संत गुरमति राम रहीम सिंह भी इस कारण चर्चा में आए थे। उन पर भी छेड़छाड़, बलात्कार जैसे आरोप लगे हैं। जब भी सेक्स स्केंडल में किसी संत महात्मा को लिप्त देखता हूँ तो सोचता हूँ कि हमारी सोच पर पड़ा हुआ पर्दा कब हटेगा? हम बाहरी पहनावे पर कब तक यकीन करते रहेंगे? गिद्दड़ शेर की खाल पहनने से शहर तो नहीं हो जाता, और कोई भगवा पहन लेने से साधु तो नहीं हो जाता? कोई दो तीन अच्छे प्रवचन देने से भगवान तो नहीं हो जाता? लेकिन क्या करें, हम सब आसानी से चाहते हैं। जब नित्यानंद जैसे मामले सामने आते हैं तो हम आहत होते हैं। मुझे लगता है हम कभी आहत नहीं होंगे, अगर हम गुरू को भी मिट्टी के बने घड़े की तरह ठोक बजाकर देखें, लेकिन हम व्यक्ति को भगवान मानते वक्त कभी भी उसका निरीक्षण करना पसंद नहीं करते? अगर निरीक्षण करने का समय होता तो आत्मनिरीक्षण न कर लेते।लुधियाना के पास स्थित एक श्री गुरूद्वारा साहिब की घटना। वहाँ हर रोज सुबह चार बजे गुरुबाणी का उच्चारण होता है, सभी श्री गुरूद्वारा साहिबों की तरह। एक सुबह एक गाँव वाले की निगाह श्री गुरू ग्रंथ साहिब के बीचोबीच पड़े मोबाइल पर पड़ गई, और उस मोबाइल में अश्लील वीडियो चल रहा था। यह सिलसिला कब से चल रहा था, इसका तो पता नहीं, लेकिन जब पकड़ा गया तो गाँवों ने ग्रंथी की खूब धुनाई की। ऐसी घटनाएं मजिस्दों, मंदिरों, गुरूद्वारों, चर्चाओं एवं डेरों में आम मिल जाएंगी। फिर भी कोई नहीं सोचता आखिर ऐसा क्यों होता? ऐसा इसलिए होता है कि हम बाहरी तौर से कुछ भी अपना लेते हैं, लेकिन भीतर तक जा ही नहीं पाते। कपड़ों की तरह हम भगवान बदलते रहते हैं। जिस संत की हवा हुई, हम उसकी के द्वार पर खड़े होने लगते हैं, नफा मिले तो ठीक, नहीं तो नेक्सट।एक और घटना याद आ रही है, जो ओशो की किताब में पढ़ी थी, एक जगह ओशो ध्यान पर भाषण दे रहे थे, उनके पास एक व्यक्ति आया और बोला मैं सेक्स को त्यागना चाहता हूँ, तो ओशो ने कहा, जब आज से कुछ साल पहले मैं सेक्स पर बोल रहा था, तो तुम भाग खड़े हुए थे, और आज मैं ध्यान पर बोल रहा हूँ तो सेक्स से निजात पाने की विधि पूछने आए हो। इस वार्तालाप से मुझे तो एक बात ही समझ में आती है कि आप जितना जिस चीज से भागोगे, वो उतना ही तुम्हारे करीब आएगी। उतना ही ज्यादा तुम्हें बेचैन करेगी।जब भयानक भूख सेक्स स्केंडल के रूप में सामने आती है तो केस दर्ज होते हैं। उम्र भर की कमाई हुई इज्जत मिट्टी में मिल जाती हैं। दूध का दूध पानी का पानी हो जाता है। कितनी हैरानी की बात है कि जन्म मृत्यु के चक्कर मुक्त करने वाले खुद मौत से कितना डरते हैं। उनका कोर्ट में पेश न होना बताता है। अगर वो जन्म मृत्यु के चक्कर से मुक्त हैं तो कोर्ट में खड़े क्यों नहीं हो जाते, सच को हँसकर गले क्यों नहीं लगाते। इसलिए मैं कहता हूँ कि मखमली लिबास ओढ़कर भाषण देना बहुत आसान है। मंसूर की तरह अल्लाह का सच्चा आशिक होना बेहद मुश्किल है।असल में सृष्टि सेक्स की देन है, लेकिन केवल मनुष्य ने सेक्स को भूख बना लिया। वो इस भूख से निजात पाने के लिए सन्यास जैसे रास्ते तैयार करता है और एक दिन उस व्यक्ति की तरह उस भूख को मिटाने के लिए कुछ भी खा जाता है, जो घर छोड़कर रेगिस्तान में इसलिए चला गया कि वो भूख से निजात पा सके। जब उसे घर से गए हुए काफी दिन हो गए तो पत्नि ने कहा, हाल चाल तो पूछ लूँ कहाँ हैं? कैसे हैं? उसने एक चिट्ठी और कुछ फूल भेजे। कुछ दिनों बाद पति का जवाब आया, "मैं बढ़िया हूँ, और तुम्हारे भेजे हुए फूल बेहद स्वादिष्ट थे"। ज्यादातर साधु सन्यासी ऐसे ही हैं, जो सेक्स की भूख से निजात पाने के लिए औरत से दूर भागते हैं, लेकिन वो भूल जाते हैं कि वो भूख को भयानक रूप दे रहे हैं।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

सार समाचार

मामला सत्रह भारतीयों को सजाये मौत का
अब्दुल्ला
संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में जिन 17 भारतीयों को मौत की सजा दी गई है, उन्हें राहत देने के लिए भारत ने अपील की तैयारी पूरी कर ली है। शारजाह के उच्च न्यायालय में 12 अप्रैल से पहले इस संबंध में अपील दायर की जा सकती है। वहां के कानून के मुताबिक, निचली अदालत द्वारा सजा सुनाए जाने के 2 सप्ताह के भीतर उच्च न्यायालय में अपील दायर होनी चाहिए। शारजाह की एक शरिया अदालत ने 29 मार्च को भारतीयों को सजा दी थी। सूत्रों के मुताबिक, अपने नागरिकों को बचाने के लिए भारतीय विदेश मंत्रालय ने वहां के एक नामी वकील का चुनाव कर लिया है। इस बीच भारत में यूएई दूतावास ने सोमवार को एक बयान जारी किया। इसके मुताबिक वहां की सरकार ने इस मामले में मुकदमे के निष्पक्ष संचालन की गारंटी दी है। बयान में कहा गया कि मौत की सजा का मामला आगे की अपील पर निर्भर करेगा। यानी अपील के साथ साक्ष्यों और दलीलों की गुणवत्ता पर अब भारत के 17 नागरिकों का भविष्य तय होगा। दूतावास ने यह भी कहा है कि यूएई की न्यायिक प्रणाली के तहत मौत की सजा के मामले में अपील ही सब कुछ है और किसी भी पार्टी की ओर दखलंदाजी कतई स्वीकार्य नहीं की जाती है। दोषियों को निष्पक्ष ट्रायल की पूरी गारंटी है और वहां यह सुनिश्चित किया जाता है कि पूरा न्याय हो। इस बीच, भारत ने यूएई सरकार से भी संपर्क साधा है ताकि इस मामले को निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित हो। वैसे सूत्रों की मानें तो पाकिस्तानी नागरिक की हत्या के मामले में मौत की सजा पाए भारतीयों के खिलाफ वहां एक लाबी भी सक्रिय हो चुकी है। यही वजह है कि जेल में बंद भारतीयों से दिल्ली के नुमाइंदे लगातार संपर्क में हैं ताकि उनकी तरफ से सब कुछ स्पष्ट तरीके से मालूम होता रहे। विदेश मंत्रालय पहले ही साफ कर चुका है कि कानूनी लड़ाई का खर्चा वह ही वहन करेगा। यूएई में मुक्तिदूसरे मुल्कों के लिए मिसाल नई दिल्ली, जागरण ब्यूरो : यूएई में मौत की सजा पाए भारतीयों को अगर छुड़वा लिया गया तो यह उनके लिए राहत ही नहीं बल्कि दूसरे मुल्कों में फंसे भारतीयों के लिए मिसाल भी होगी। इससे चीन, स्पेन और खाड़ी देशों में कानून के हत्थे चढ़े भारतीयों को भी राहत देने का मार्ग प्रशस्त होगा। कुछ माह पहले चीन में तकरीबन 21 भारतीयों को हीरा तस्करी के मामले में पकड़ा गया था। यह सभी जेल में हैं। उनके खिलाफ बीजिंग की अदालत कभी भी कड़ी सजा सुना सकती है। स्पेन की जेल में भी 30 से ज्यादा भारतीय जेल में हैं। वहीं, अरब देशों में अवैध वीजा मामले में कई भारतीय तमाम जेलों में बंद हैं। इनमें कई मामले ऐसे हैं, जिनमें अगर ठोस अपील हो तो भारतीयों को बचाया जा सकता है। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। इसीलिए यूएई में मौत की सजा से भारतीयों को बचाने के लिए विदेश मंत्रालय जी-जान से जुट गया है ताकि अन्य मामलों के लिए रास्ता बने।
कागजों में नियुक्ति कर दी शिक्षकों की
अब्दुल्ला
हरियाणा के शिक्षा विभाग अधिकारियों और कर्मचारियों ने कागजों में अतिथि अध्यापकों (गेस्ट टीचर्स) की नियुक्ति कर डाली। जिले के जिन विद्यालयों में गेस्ट टीचर्स की नियुक्ति दर्शाई गयी है, हकीकत में वह शिक्षक जिले में तैनात ही नहीं है। शिक्षा विभाग के इस गोरखधंधे का खुलासा सूचना अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में हुआ है। हरियाणा जागरूक अध्यापक संघ ने 12 सदस्यों के माध्यम से गेस्ट टीचर्स की नियुक्तियों से संबंधित अलग-अलग सूचनाएं मांगी। विभाग से मिली जानकारी के अनुसार, धन्यौड़ा राजकीय उच्च विद्यालय में एक अध्यापक को 16 अक्टूबर, 2006 को गणित के गेस्ट टीचर्स के रूप में नियुक्त दर्शाया गया, जबकि वह एक निजी स्कूल में अध्यापक है। उसने स्वयं भी गेस्ट अध्यापक नियुक्त होने से इंकार किया है। इसी तरह ब्लाक एजुकेशन आफिसर (बीईओ-टू) द्वारा गेस्ट टीचर्स की नियुक्ति के बारे में दी जानकारियों में भी गोलमाल दिखता है। विभाग ने गेस्ट अध्यापक सूची में रौंला गांव में सामान्य वर्ग में अतिथि अध्यापक की नियुक्ति की है,जबकि सूचना अधिकार के तहत जुटाई गई जानकारी में पता चलता है कि एससी कोटे से गेस्ट अध्यापक की नियुक्ति हुई है, जो रौंला गांव का ही निवासी बताया गया है। गेस्ट फेकल्टी के तहत जो नियुक्तियां की जाती हैं, उसमें संबंधित स्कूल जिस गांव में पड़ता है वहां के निवासी को प्राथमिकता दी जाती है। इस गोलमाल में सब कुछ कागजों में हुआ और गांव की प्राथमिकता को भी दरकिनार किया गया।
शामलात जमीन पर अवैध कब्जा : अदालतों में लगभग 5035 केस विचाराधीन हैअब्दुल्ला
हरियाणा में लगभग 21,000 एकड़ शामलात जमीन पर अवैध कब्जा है और इन कब्जों को हटाने के लिए राज्य की अदालतों में लगभग 5035 केस विचाराधीन है। यह जानकारी हरियाणा सरकार ने हाईकोर्ट में एक मामले की सुनवाई दौरान दी। हरियाणा सरकार द्वारा हाईकोर्ट में दिए गए रिकार्ड के अनुसार राज्य में 8,27,015 एकड़ शामलात जमीन है और इसमें से 21,109 एकड़ पर अतिक्रमण है। हाईकोर्ट के आदेश पर हरियाणा के सभी जिला प्रमुखों ने अपने-अपने जिले के शामलात जमीन व उस पर अतिक्रमण से संबंधी जानकारी सोमवार को हाईकोर्ट में दी। इसे हाईकोर्ट ने रिकार्ड पर रख लिया। रिकार्ड के अनुसार कुरूक्षेत्र जिला अतिक्रमण के मामले में नंबर वन पर है जहां पर 4,256 एकड़ शामलात जमीन पर लोगों ने अतिक्रमण किया हुआ है। इसके बाद पानीपत व कैथल क्रमश: दूसरे व तीसरे स्थान पर आते हैं, जहां पर क्रमश: 4,203 व 3,417 एकड़ शामलात जमीन पर अतिक्रमण है। पंचकूला 1798 एकड़ जमीन के साथ चौथे स्थान पर है। यमुनानगर में 1319 एकड़ व गुड़गांव में 705 एकड़ शामलात जमीन पर अतिक्रमण है। रोहतक में सबसे कम 86 एकड़ जमीन पर अतिक्रमण है। हरियाणा सरकार ने यह जानकारी हाईकोर्ट के 21 जनवरी के आदेश पर कोर्ट रखी। कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए हरियाणा व पंजाब के मुख्य सचिव से दोनों राज्यों में शामलात जमीन और उन पर अतिक्रमण के बारे में हलफनामा देने के आदेश दिए थे। कोर्ट ने हलफनामे में यह जानकारी भी देने को कहा था हाईकोर्ट व जिला अदालतों में शामलात जमीन से जुडे़ कितने केस विचाराधीन हैं। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में दोनों राज्यों की मुख्य सचिवों को यह भी आदेश दिया कि अगर 5 अप्रैल तक मुख्य सचिवों की तरफ से कोई जवाब फाइल नहीं किया जाता तो मुख्य सचिव को सुनवाई के दौरान कोर्ट में में स्वयं पेश होकर जवाब देना पड़ेगा। हाईकोर्ट ने इस मामले में दोनों राज्यों के मुख्य सचिव को अगली सुनवाई से पहले हलफनामा देकर यह जानकारी देने को कहा था।
पशु तस्करी पंजाब के लिए एक बड़ी समस्या
अब्दुल्ला
बढ़ती पशु तस्करी पशु तस्करी पंजाब के लिए एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। पंजाब में बड़े जानवरों के मांस की बिक्री पर प्रतिबंध है। स्वाभाविक रूप से इससे यहां पशु अधिक उपलब्ध होते हैं और इसका लाभ पशु तस्कर उठाना चाहते हैं। इसे रोकने के लिए जब कुछ संगठनों द्वारा कोई प्रयास किया जाता है तो तस्कर उनके सदस्यों पर प्राणघातक हमले भी करते हैं। बठिंडा की मौड़ मंडी में जब बजरंग दल के लोगों ने तस्करों को पकड़ने का प्रयास किया तो उन्होंने फायरिंग कर दी। सौभाग्य से इस फायरिंग में बजरंग दल का कोई भी सदस्य घायल नहीं हुआ और एक तस्कर भी पकड़ लिया गया। तस्करों के कब्जे से 48 पशुओं को मुक्त कराया गया। पशु तस्करी का यह कोई पहला मामला नहीं है बल्कि आए दिन राज्य से पशुओं की तस्करी हो रही है। राज्य में एक ओर पशुओं की तस्करी हो रही है वहीं दूसरी ओर प्रदेश का दुग्ध उत्पादन भी घट रहा है। यह निस्संदेह गंभीर चिंता का विषय है। जब तक पशु दूध देता रहता है तब तक तो लोग जैसे-तैसे उसे रखते हैं और जैसे ही उसका दूध बंद हो जाता है या कम हो जाता है पशुपालक उसे बेचने की फिराक में लग जाता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पशु तस्कर अथवा उनके एजेंट राज्य में सक्रिय रहते हैं और वे पशुओं को सस्ते दामों पर खरीद कर पंजाब से बाहर ले जाते हैं। इन लोगों की हरकतों से जहां राज्य के लोगों की आस्था को चोट पहुंचती है वहीं प्रदेश को आर्थिक क्षति भी पहुंचती है। सरकार ने जल्द ही गऊ सेवा बोर्ड गठित करने का आश्वासन विधानसभा में दिया है जो तस्करी को हतोत्साहित करने की दिशा में काम करेगा किंतु अभी तक यह बोर्ड अस्तित्व में नहीं आया है। इसके अलावा सरकार तस्करी के आरोपियों की सजा तथा जुर्माना बढ़ाने के लिए भी कानूनी परामर्श ले रही है। अजब गजब है यह मामला अब्दुल्ला
रियायत कैसी जन समस्याओं का निपटारा मिल बैठक कर किया जाए तो सार्थक परिणाम निकलते हैं। यदि कोई व्यक्ति केवल अपने लाभ की ही चिंता करेगा तो समस्या सुलझने के बजाय और गंभीर हो जाएगी। हिसार के गांव ढंढूर में यही स्थिति उत्पन्न हो गई। गांव के कुछ परिवार जल संकट का सामना कर रहे थे और शेष उसका भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं। जब इसका कारण जानने का प्रयास किया गया तो दो गुटों में शुरू हुआ विवाद खूनी संघर्ष में बदल गया। जलापूर्ति विभाग ने ढंढूर में पानी देने के लिए दो पाइप लाइन बिछाई हुई हैं। इसके बावजूद गांव के कुछ परिवारों को पानी नहीं मिल रहा था। यदि एक लाइन के वाल्व को बंद करके उसे अपनी ओर मोड़ लिया जाएगा तो उससे जुड़े परिवार पानी के लिए मोहताज तो होंगे ही। परेशानी का कारण जानने के लिए पहले अपने स्तर पर जांच करने गए दो लोगों ने कोई अपराध तो किया नहीं था। उनके साथ दु‌र्व्यवहार, एक युवक पर मिट्टी का तेल डालकर जिंदा जलाने का प्रयास और मोटरसाइकिल भी फूंक देना कहां तक सही है। सरकारी सुविधा से छेड़छाड़ या उसमें बाधा उत्पन्न करना अपराध है। इस करतूत में संलिप्त लोगों ने कानून को अपने हाथ कैसे ले लिया। पाइप लाइन के साथ छेड़खानी क्यों की गई। विभाग द्वारा बिछाई लाइन से केवल उन्हें ही पानी लेने का अधिकार नहीं है। जाहिर है कि कुछ परिवारों के लिए यह संकट कृत्रिम रूप ये पैदा किया गया। यानी कुछ लोग नहीं चाहते थे कि सभी ग्रामीणों को पानी मिले। प्राय: बॉलीवुड की फिल्मों में दिखाया जाता है कि सब कुछ निपटने के बाद पुलिस मौके पर पहंुचती है। यह आश्चर्यजनक है कि ग्रामीणों द्वारा सूचना देने के बावजूद पुलिस समय पर मौके पर नहीं पहुंची। यही नहीं, हमलावर पुलिस की मौजूदगी में ग्रामीणों को पीटते रहे। हस्तक्षेप करके उन्हें रोका क्यों नहीं गया। पुलिस वालों की उदासीनता के कारण ही हमलावरों का दुस्साहस बढ़ा। पुलिस ने आठ लोगों पर हत्या प्रयास का मामला दर्ज कर लिया है। इनमें से किसी के साथ रियायत नहीं बरती जाए। जलापूर्ति विभाग को पाइप लाइन का वाल्व बंद करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करनी चाहिए। चाहे कोई किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ा क्यों न हो। राजनीतिक पार्टी के बल पर आम जन के साथ दु‌र्व्यवहार और जानलेवा हमला करना शक्ति का दुरुपयोग है।
बाँट दिया हिन्दू मुस्लिम खेमों में
अब्दुल्ला
दिल्ली से बहादुर शाह जफर, कानपुर से नाना राव पेशवा तथा तात्या टोपे, लखनऊ से बेगम हजरत महल, झाँसी से रानी लक्ष्मी बाई, इलाहाबाद से लियाकत अली, जगदीशपुर से कुवर सिंह, बरेली से खान बहादुर खाँ, फैजाबाद से मौलवी अहमद उल्ला तथा फतेहपुर से अजीमुल्ला। ये है भारत माँ के वे राष्ट्र भक्त जिन्होंने जाति-धर्म-लिंग से परे जाकर वर्ष 1857 के क्रान्तिकारी उद्घोष में फिरंगियों के छक्के छुड़ा दिये थे। उक्त स्वतन्त्रता समर को अंग्रेजों ने बहुत गम्भीरता से लेते हुए अपना चिन्तन प्रारम्भ किया। उन्हे समझते देर न लगी यदि हिन्दू-मुस्लिम एकता को न तोड़ा गया तो निश्चित ही आगे आने वाला समय उनके लिए मुश्किलों भरा होगा। फूट डालो और राज करो की नीति के तहत वायसराय लार्ड मेयो ने एक समिति बनायी जिसका कार्य उस समय के भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी सर विलियम विल्सन हंटर को सौंपा। जिसकी रिपोर्ट द इंडियन मुस्लिम के नाम से वर्ष 1871 में प्रकाशित हुई। बड़ी चालाकी से अंग्रेजो की पूर्व योजना के अनुरूप हंटर ने उनको बदतर हालात में पहुँचाने की जिम्मेदारी साम्राज्यवादी शासन तथा हिन्दुओं दोनों पर डाल दी तथा शैक्षिक रूप से मुसलमानों के पिछड़ने की जिम्मेदारी सीधे हिन्दुओं पर डाल वे भारतीय मुस्लिम तुष्टिकरण के जनक बन गये। इसके बाद सन् 1888 में सर सैय्यद अहमद खाँ ने एंग्लो-मुस्लिम डिफेंस एशोसिएशन की स्थापना की जो अंग्रेजों की योजना का हिस्सा था। जिसके द्वारा उन्हे हिन्दू-मुस्लिम एकता के स्पष्ट विभाजन की पहली राजनैतिक सफलता प्राप्त हुई। लार्ड एल्गिन द्वितीय (1894-99) ने भारत को तलवार के बल पर विजित किया गया है। और तलवार के बल पर ही इसकी रक्षा की जायेगी कहकर मुस्लिम समाज को भारत के शासक के रूप में इंगित कर उपरोक्त दरार को बढ़ाने का कार्य किया। धीरे-धीरे उक्त दरार 30 दिसम्बर, 1906 को एक चौड़ी खाई के रूप में नजर आई जब अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना तथा 22 मार्च, 1940 को अपने लाहौर अधिवेशन में मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की मॉग रखी।वर्तमान में 2005 में गठित सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी काफी कुछ हंटर कमेटी की ही तरह है। सच्चर कमेटी में भी हिन्दू तथा मुसलमानों को प्रतिस्पर्धी समाज के रूप में चित्रित किया गया। उक्त रिपोर्ट में न्यायपालिका सेना, संसद, बैंक व्यापार,रोटी तथा रोजगार के साधनों को भी हिन्दू तथा मुस्लिम खेमों में बाँट दिया। आज भले ही दिखाई न पड़ रहा हो पर निश्चित ही आगे आने वाला समय हंटर कमेटी की ही तरह यह हिन्दू तथा मुसलमानों की बीच की खाई को और चौड़ा करेगी तथा देश के उन सत्ता प्रतिष्ठानों को और अधिक सशक्त करेगी जो देश में मुसलमानों के शुभचिन्तक बताते है तथा झूठे ही धर्म निरपेक्षता के ठेकेदार बनते हैं, जिन्होने अपने स्वार्थों के चलते देश को कई नाम दिये तथा उन्होने राष्ट्र को खण्ड-खण्ड करने में किंचित मात्र भी हिचक का अनुभव नहीं किया, जिन्होने हिन्दू तथा मुस्लिम समाज को विभक्त कर अल्पसंख्यक तथा बहुसंख्यक की पहचान दी। इनके ही द्वारा मजहबी तुष्टीकरण का जन्म हुआ, इन्ही तथाकथित सेकुलरवादियों के चक्कर में देश तथा समाज में कुन्ठा, क्षोभ, भय, घुटन आदि का भयावह वातावरण तैयार हुआ।प्रश्न यह उठता है आज देश ऐसे मार्ग पर कैसे खड़ा हुआ जहाँ से उसके लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष स्वरूप पर प्रश्न चिन्ह लग गया। भारत की आजादी के बाद देश पर शासन की बागडोर आयी कांग्रेस पार्टी के पास जिन्होने बड़ी ईमानदारी से अंग्रेजो की परम्परा फूट डालो और राज करो की नीति को आगे बढ़ाया। उन्होने धर्म निरपेक्षता की आड़ में मुसलमानों के गम्भीर अपराधों पर पर्दा डाला, उनके मजहबी कानून अलग रखे, यहाँ तक कि उनसे परिवार नियोजन तक के लिए भी नहीं कहा गया, उनको आधुनिक शिक्षा व्यवस्था से जुड़ने के लिये नहीं कहा सिर्फ इस भय से कहीं उनका मुस्लिम वोट बैंक प्रभावित न हो जाये। उन्होने राष्ट्रवादी मुसलमानों की आवाज दबाकर कट्टर मजहबी मुसलमानों को बढ़ावा दिया।काँग्रेस पार्टी ने अपने स्वार्थ सिद्ध के कारण मुस्लिम समाज को धीर-धीरे इतने गहरे अंधेरे कुए में डाल दिया उन्हे लगने लगा इसी घुटन भरे अंधेरे में हमारा तथा हमारे समाज का भविष्य सुरक्षित है उन्हे सच्चाई की किरण से भय लगने लगा वे समझने लगे यह किरण हमें तथा हमारे समाज को जला कर राख कर देगी।उन्हें राष्ट्र तथा राष्ट्रवादी बातों से डर लगने लगा। उन्हें लगने लगा कि उनका हित बहुपत्नी विवाह, मजहबी तालीम तथा देश में जनसंख्या बढ़ोत्तरी में ही सुरक्षित है। यदि हम शैक्षिक स्तर पर इनका विश्लेषण करे तो पायेगी देश के प्रमुख कॉलेजों में अन्डर ग्रेजुएटस 4 प्रतिशत,पोस्ट ग्रेजुएट्स 2 प्रतिशत, आईआईटी में 3।3 प्रतिशत तथा आईआईएम में 1.3 प्रतिशत मुस्लिमों की मौजूदगी है, यदि सरकारी नौकरी में देखे वहाँ भी इनकी स्थिति संतोषजनक नहीं है, भारतीय विदेश सेवा में 1.8 प्रतिशत, भारतीय पुलिस सेवा में 4 प्रतिशत, भारतीय प्रशासनिक सेवा में 3 प्रतिशत सहित शिक्षा, गृह, स्वास्थ विभागों सहित कही भी इनकी स्थिति अनुपातिक दृष्टि से ठीक नहीं है उपरोक्त कुछ आँकड़े प्रदर्शित कर रहे है मुस्लिम समाज अन्य की अपेक्षा अधिक पिछड़ा है। यदि हम अपराध और जेलों में बंद मुस्लिमों के आँकड़े छोड़ दें तो हर स्थान पर उनकी उपस्थित काफी कम है। वे शैक्षिक स्तर पर अन्य की अपेक्षा काफी पीछे है। इसकी मुख्य वजह राजनीति क्षेत्र का वह वर्ग है जो बताता तो है वे उनके शुभचिन्तक है परन्तु वास्तव में वे सिर्फ उन्हे वोट बैंक के रूप मे ही देखते हैं। उसके अलावा उनके मजहबी धर्म गुरूओं ने भी उनका काफी नुकसान किया जिन्होने अपने समाज को आधुनिक विकास की सुनहरी किरण से वंचित रखा। अन्त में वे स्वयँ जिन्होने कभी अपने आप राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ने का प्रयास ही नहीं किया यदि वे उपरोक्त से जुडे़ होते तो उसके हर प्रकार के लाभ में भी उनकी प्राकृतिक हिस्सेदारी होती।राष्ट्र का सत्ता प्रतिष्ठान कभी भी मुस्लिम समस्याओं के प्रति ईमानदार नहीं रहा। हमेशा उनकी समस्याओं को वोटो के तराजू में रख तौला गया जहाँ वोटो का पलड़ा समस्याओं से भारी पड़ा अतः देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनेताओ ने उनकी वृक्ष रूपी समस्याओं के मूल में न जाना बेहतर समझा तथा शाखाओं तथा पत्तों को रंग रोगन लगा बनावटी हरा भरा बनाये रहे। हंटर समिति से हमें आशा भी नहीं थी कि वे मुसलमानों के उत्थान हेतु कोई प्रभावी कदम उठायेंगे परन्तु देश का एक प्रमुख राजनैतिक दल अपनी सत्ता को आगे सुनिश्चित करने करने के लिए ऐसा कुछ करेगा जिससे देश की राजव्यवस्था का भविष्य ही दाँव पर लग जायेगी तथा आगे आने वाले समय में लोकतान्त्रिक राजव्यवस्था का आधार सेकुलर न होकर मजहबी होने का तर्क पैदा हो।हंटर समिति तथा सच्चर समिति में तीन समानतायें दिखाई देती है। प्रथम् तो यह दोनो में भूट डालो और राज करो की दूरगामी योजना है, द्वितीय दोनों में धार्मिक विद्वेष बढ़ाने का प्रयास तथा तृतीय दोनों समितियों में मुस्लिमों के प्रति ईमानदार सोच का अभाव। देश की आबादी का लगभग 14 प्रतिशत मुस्लिम है। जिनको दरकिनार कर राष्ट्र के चहुमुखी विकास एवं भारत को परम वैभव प्राप्त कराना बेमानी है। अगर मुसलमान खुद अपनी समस्याओं के हल के लिए आगे नहीं आए तो सत्ता में बैठे लोग मुस्लिम नेताओं के क्षुद्र स्वार्थ सिध्द करके मुस्लिमों का राजनीतिक और धार्मिक शोषण करते रहेंगे

यौन और मानसिक शोषण में पिसता बचपन
हमारे समाज का ताना बाना वयस्कों, खासकर मर्दों की सुख-सुविधाओं, जरुरतों, रुचियों और अधिकारों को ध्यान में रखकर बना है। इसी के इर्द गिर्द घूमती है, हमारी राजनीति, कानून, पढ़ाई, चिकित्सा और यहां तक कि आमदनी और स्रोतों के बंटवारे भी। स्वाभाविक तौर पर न तो हम बच्चों के अधिकारों के बारे में जानना चाहते हैं और न ही उनकी सुरक्षा और सम्मान के बारे में पर्याप्त उपक्रम करते हैं। हां उन्हें नासमझ, कमजोर, लाचार आदि मानकर करुणा या दया का भाव जरुर रखते हैं। आवागमन के साधनों, वाहनों, सार्वजनिक शौचालयों, रेस्टोरेन्टों, सभागृहों, सड़कों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों और यहां तक कि स्कूलों व अस्पतालों, का निर्माण बच्चों की सुविधा और सुरक्षाओं को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता क्योंकि हम बच्चों का अपना कोई वजूद नहीं समझते।फिर से हमारा सिर शर्म से झुका देने वाली गंभीर जानकारी, एक सरकारी रिपोर्ट के माध्यम से जग जाहिर हुई है। दुर्भाग्य से मीडिया के लिए यह कोई बड़ी खबर नहीं बनी, किंतु बच्चों के यौन उत्पीड़न के बारे में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट हमारे आर्थिक विकास तथा सभ्यता व संस्कृति की डींगों की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है। नारी रक्षा की महान परंपराओं की दुहाई देने वाले भारत में हर 155वें मिनट में किसी न किसी नाबालिग बच्ची के साथ दुष्कर्म होता है। सरकारी रिपोर्ट यह भी बता रही है कि दुनिया में सबसे ज्यादा यौन उत्पीड़न के शिकार बच्चे हमारे देश में ही बसते हैं।बचपन के प्रति उदासीनता भरी सामाजिक मानसिकता, गैर जिम्मेदाराना रवैया तथा चारों ओर पसरी संवेदनशून्यता इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति के बडे़ कारण हैं। इसलिए यह लाजमी है कि बच्चों के प्रति व्याप्त किसी भी प्रकार की हिंसा, असुरक्षा व उनकी जिन्दगी के जोखिमों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझा जाये साथ ही सर्वांगीण समाधान भी ढूंढा जाय।विगत 1 मई को लोकसभा में जब सरकार इस रिपोर्ट का जिक्र कर रही थी तब संसद भवन से चंद मील दूर चौथी कक्षा में पढ़ने वाली 9 साल की एक बच्ची के साथ उसी का योग प्रिशक्षक मुंह काला करने में जुटा था। इसी प्रकार के तीन मामले दिल्ली पुलिस ने दर्ज किये। राजधानी के स्वरुप नगर इलाके में पांच वर्षीय बालक के साथ उसके पड़ोसी ने जबर्दस्ती की, जब वह अपने घर के बाहर नगर निगम के पार्क में खेल रहा था। इसी क्षेत्र में एक चौदह साल की बच्ची के साथ उसी के 24 वर्षीय पड़ोसी ने बलात्कार किया। तीसरी घटना तो और भी ज्यादा घृणित है जब लोगों की जान माल और इज्जत की सुरक्षा में तैनात एक 40 वर्षीय पुलिसकर्मी ने प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्रियों, न्यायाधीशों आदि के घरों से चंद कदमों की दूरी पर तुगलक रोड पर एक बच्ची के साथ दिन दहाड़े मुंह काला किया। रोज ब रोज घटने वाले ऐसे शर्मनाक हादसों की कोई कमी नहीं है। जब यह स्थिति दिल्ली की है तो देश के दूर दराज इलाकों में तो हमारे बच्चे कितनी असुरक्षापूर्ण जिन्दगी जी रहे हैं, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।हर रोज कहीं न कहीं से स्कूल, पड़ोस, अस्पतालों, मनोरंजन केन्द्रों, धर्मस्थलों, पुलिस अथवा दूसरे सरकारी महकमों द्वारा, अपने कोमल शरीर, पवित्र आत्मा और निष्कलंक सम्मान को मिट्टी में मिलाकर, खून का घूंट पीकर या सिसकते सुबकते अनगिनत बच्चे घर लौटते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिनको यह भी नसीब नहीं है कि वे जीवित लौट सकें। फैक्ट्रियों, खदानों, ईंट के भट्ठों में कोमल अंग गलाते-गलाते कभी नि:शब्द, कभी करुण क्रंदन करते वहीं अपना दम तोड़ने के लिए अभिशप्त हैं। बहुत से कुपोषण, भूख और बीमारी की वजह से मौत के मुंह में पहुंच जाते हैं। कईयों को सड़कों पर ही ट्रक, बसें, कारें कुचल डालती हैं, तो दूसरे कई खटारा बसों या नशाखोर अथवा नौसिखिए ड्राइवरों की कृपा से दुर्घटनाओं में चल बसते हैं। स्पष्ट तौर पर हमारे समाज में बच्चों की हिफाजत करने के बोध, तैयारी और ईमानदार कोशिशों का घोर अभाव है।कथित किशोर सुधारगृहों की भी पूरी दुर्गति है। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे गृहों के शत प्रतिशत बच्चे उसे बच्चों की जेल ही मानते है। वहां भी आधे बच्चे वयस्कों द्वारा होने वाली किसी न किसी प्रकार की हिंसा के शिकार होकर दीवारें तक फांदकर भागने के लिए विवश हैं। वहां के 80 प्रतिशत कर्मचारियों और अधिकारियों को बाल अधिकारों की कभी कोई जानकारी ही नही दी गई। नतीजा साफ है कि दूर दराज की बात छोड़िये देश की राजधानी दिल्ली में ही पिछले 10 महीनों में सरकार द्वारा चलाये जा रहे इन कथित सुधारगृहों में कम से कम 12 बच्चों की मौत हो गई। इससे पहले दो वर्षों में क्रमश: 16 और 21 बच्चे मौत का शिकार हुए थे। बाल श्रम को रोकने के लिए नियुक्त किये गये श्रम निरीक्षकों और अफसरों की बच्चों के प्रति संवेदनशीलता व उनके अधिकारों और सम्मान को ध्यान में रखते हुए पूछताछ करने के तरीकों पर कोई प्रशिक्षण हमारे देश में नहीं होता। पुलिस की हालत तो इससे भी बुरी है, किसी भी जुल्म से पीड़ित बच्चों से पुलिसिया पूछताछ का तरीका निहायत ही भद्दा, अपमानजनक और अक्सर बचपन विरोधी होता है। सिपाहियों और थानेदारों को इस तरह बच्चों से दोस्ताना व्यवहार करना सिखाने के लिए कोई सरकारी प्रशिक्षण नहीं होता। दुर्भाग्य से न्यायालयों तक की भी यही स्थिति है।नाम सोनिया. उम्र 10 साल. लाल गाउन में लिपटी वह अपने मेकअप रूप में मेकअप कर रही है. होठों पर सुर्ख लाली. गालों पर सुर्खी और भी ऐसे ही न जाने कौन-कौन से रंग रोगन उसके चेहरे पर पुत रहे हैं. वह अपनी उम्र से काफी आगे धकेल दी गयी लगती है. ऐसा क्यों किया जा रहा है उसके साथ? वह मुंबई एक टैलैण्ट हण्ट शो में भाग लेने पहुंची है. शो में बेहतर प्रदर्शन के लिए वह केवल मेक-अप पर ही ध्यान नहीं देती. वह रोज घण्टो रियाज करती है. उसे हमेशा यह चिंता रहती है कि रियाज और लुक दोनों ही मामलों में उसे आगे रहना है. सोनिया का भाई भारत भूषण अपनी छोटी बहन की मेहनत से बहुत खुश है. भूषण को उम्मीद है कि एक बार उसकी बहन स्टार बन गयी तो सारी दुनिया उसके कदमों में होगी.सोनिया और भूषण अकेले बच्चे नहीं है जो इस तरह के ख्वाबों के साथ जी रहे हैं. देश का 30 करोड़ बच्चे और किशोर इस सपने में उसके साझीदार है जिनकी उम्र 15 साल से कम है. टीवी के रियलिटी और डांस शो ने बच्चों को सपनों से भर दिया है. छोटी उम्र में खोखली ख्वाहिंशों का अंतहीन सिलसिला. इसके लिए जरूरत से ज्यादा समय वे सिंगिंग, डांसिग और टैलैण्ट हण्ट शो के नाम पर जिन्दगी निछावर कर रहे हैं. टीवी कंपनियां इसे टैलेण्ट हण्ट शो या कला प्रदर्शन का जरिया इसलिए बनाने में लगी है क्योंकि यह 180 करोड़ का विज्ञापन बाजार है और सालाना 20 प्रतिशत की दर से बच्चों का यह बाजार बढ़ रहा है.पांच मिनट की एक परफार्मेंश के लिए बच्चों को हफ्तों दिन-रात कड़ी मेहनत करनी होती है. बच्चे पढ़ाई-लिखाई तो छोड़ते ही हैं बचपन से भी मरहूम हो जाते हैं. मनोविद कहते हैं कि अच्छी तैयारी के बाद जब बच्चा हारता है तो वह गहरे अवसाद में चला जाता है जिसे उस अवसाद से निकालना बहुत मुश्किल होता है. इसका असर उसके पूरे जीवन पर होता है. बाजार द्वारा शायद यह बच्चों का व्यवस्थित शोषण है. इसके खिलाफ आवाज उठाने की बात कौन करे मां-बाप और अध्यापक भी इस लालच में बच्चों पर दबाल डालते हैं कि अगर वह कहीं पहुंचता है इसी बहाने उनका भी थोड़ा नाम हो जाता है .ऐसे में बच्चों को नचाने से लेकर दौड़ाने तक का हर काम होगा ही. विज्ञापनों और बाजार का प्रभाव ऐसा भीषण है कि आज हर मां-बाप अपने बच्चे को टैलेण्ट हण्ट शो का हिस्सा बनाना चाहता है. बाजार के प्रभाव में जो मां-बाप हैं वे अपने बच्चे का एकेडिमक कैरियर वगैरह नहीं चाहते. वे यही चाहते हैं या तो बच्चा क्रिकेट खेले नहीं तो फिर नाचे-गाये. यह समझना भूल होगी कि बच्चे अपनी मर्जी से इन टैलेण्ट शो में हिस्सा ले रहे हैं. ज्यादातर केसों में मां-बाप के दबाव में बच्चे टैलैण्ट हण्ट शो का हिस्सा बनते हैं. बच्चों के जरिए मां-बाप भी सुपरस्टार के मां-बाप का सुख भोगना चाहते हैं.यौन शोषण के साथ ही इस मानसिक शोषण को क्योंकर नजरअंदाज कर दिया जाता है? शायद इसलिए कि अपने बच्चों के द्वारा हम अपने नामची होने का सुख भोग सकेंगें.हमारा समाज और सरकार जब तक बच्चों की कही-अनकही जरुरतों, उनके हकों तथा उनकी शारीरिक या मानसिक उम्र का ख्याल रखते हुए उनको विशेष सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराता, बच्चों से संबंधित कानूनों, न्यायालयों के निर्देशों, योजनाओं आदि के क्रियान्वयन के लिए नियुक्त किये गये व्यक्तियों को कानूनी तौर पर जवाबदेह नहीं ठहराता, जब तक हम बच्चों से दोस्ताना व्यवहार की एक संस्कृति विकसित नहीं कर लेते और जब तक हम उनकी हिफाजत के लिए एक व्यापक सामाजिक व मानसिक सुरक्षा कवच निर्मित नही करते, तब तक इस तरह के बचपन विरोधी गम्भीर अपराधों को महज हादसा या रोजमर्रा की घटनायें ही माना जाता रहेगा. कभी न्याय अथवा राहत में देरी तो कभी चन्द लोगों की दरिन्दगी के बहाने बनाकर आखिर कब तक, हम हमारे बच्चों को मरने, जलने, अपाहिज होने और बलात्कार व हिंसा का शिकार होने के लिए अभिशप्त रखेंगे?बचपन के प्रति उदासीनता भरी सामाजिक मानसिकता, गैर जिम्मेदाराना रवैया तथा चारों ओर पसरी संवेदनशून्यता इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति के बडे़ कारण हैं। इसलिए यह लाजमी है कि बच्चों के प्रति व्याप्त किसी भी प्रकार की हिंसा, असुरक्षा व उनकी जिन्दगी के जोखिमों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझा जाये साथ ही सर्वांगीण समाधान भी ढूंढा जाय।मनोविद कहते हैं कि इस तरह बच्चों का दबाव में रहना और कम उम्र में कैरियर की बातें सोचना उन्हें भावनात्मक रूप से कमजोर कर देता है. इतना दबाव तो शायद कोअब इस तरह के कानून बनाने की बात हो रही है कि बच्चों को खेत में काम करने से रोका जाए. घर में काम करने से रोका जाए. होटल और अन्य श्रमशोषण स्थानों के बारे में कानून बने और बच्चों का बचपन वापस लौटे यह तो समझ में आता है लेकिन इस तरह के पागलपन वाली परिभाषाओं का क्या मतलब है? क्या अब हमें क्या खाना चाहिए, कैसे सोना चाहिए, अपने बच्चों को कैसे पालना चाहिए, उन्हें क्या पढ़ना चाहिए और क्या सीखना चाहिए यह सब कानून से तय होगा? ऐसे तो वह बचपन ही मर जाएगा जिसकी नैसर्गिकता के कारण ही वह बचपन है।

रविवार, 18 अप्रैल 2010




आज क्या हो रहा है



























शनिवार, 17 अप्रैल 2010

हाय रे जिन्दगी

अब्दुल्ला
खंडवा
-सड़कों, प्लेटफार्मों और ऐसे सार्वजनिक स्थानों पर विवशता से जीवन बसर करने वाले लाखों लोगों की जिंदगी की दास्तान आम व्यक्ति के लिए स्तब्ध करने वाली है। खंडवा जैसे छोटे से शहर में भी हजार से ज्यादा लोग अपनी बेघर जिंदगियां बिता रहे हैं. इसमें बड़े, बच्चे, बूढ़े , महिलाएं सभी शामिल हैं. एक तरफ रोजी रोटी का संघर्ष है तो दूसरी तरफ इससे भी बड़ी जंग है अपने सर छिपाने की. ठण्ड में ठिठुरकर मरना, लावारिस लाश बनना, परिचय के अभाव में चोर, डकैत और देशद्रोही करार दिया जाना या इनकी जिंदगी की रोजमर्रा कहानी है. महिलाओं और बच्चों की परेशानियाँ तो अनगिनित है. विविध प्रकार से शोषण सहते हुए ये जिन्दा लाश बन जाते हैं. सोनू (१६ वर्ष), रवि (१८ वर्ष), भोला (१२ वर्ष) और गोलू (१७ वर्ष) पिछले कई सालों से रेलवे दुर्घटनाओं में कटी लावारिस लाशों को ढोने का काम कर रहे हैं. एक लाश ढोने का दाम मिलता है महज सात सौ रूपये पर वह भी पुरे नहीं मिलते. लगभग २०० रूपये तो स्टेशन के कार्मिकों को फोटोकॉपी आदि के देने पड़ते हैं. बच्चे ही लावारिस लाशों का अंतिम क्रियाकरम करते हैं:लाश हिन्दू की हो तो अंत्येष्टि की व्यवस्था करते हैं और मुस्लिम की तो जनाजे की. कमाल की इंसानियत है इन बच्चों की पर कीमत है खो चुका बचपन. रेलवे में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि कोई विशेष नियुक्त व्यक्ति लावारिस लाश ढोये, जो तैयार हो जाए वो सही. स्टेशन पर गुजर बसर करने वाले बेघर बच्चे इस काम के लिए आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं. पिछले कई सालों से लाश ढोते -ढोते ये बच्चे बड़े हो गए हैं. उनमे बचपन की मासूमियत और किलकारी तो जाने कब खो गयी. सुबह से शाम खुद को जिन्दा रखने के लिए रोजी का संघर्ष शाम को सर छुपाने की जुगत ने इन्हें न जाने कब व्यस्क बना दिया है. बारह वर्षीय सलीम ट्रेन में पानी की बोतल और मूंगफल्ली बेचता हैवाईटनर सूंघकर नशा करता है, व्यस्क फिल्मे देखता है, बॉलीवुड की भाषा बोलता है और किसी दिन कुछ ज्यादा पैसे मिलते हैं तो पार्वतीबाई धर्मशाला में किराये के बिस्तर लेकर फाइव स्टार होटल की ख़ुशी पाता है. भले ही वो मूंगफल्ली व्यापारी का महीने में ४००० का माल बेच लेता है पर उसे मिलता है ५० से १०० रूपये महिना वो भी जब व्यापारी की इच्छा हो. सलीम का तो (उसके अनुसार) होटल में उधारी खाता चलता है. हर दिन नशे और खाने की जरूरत ने उसे शायद छोटा मोटा उठाईगिरा बना दिया और वो अब किसी सम्प्रेषण गृह में है. मुन्नी (परिवर्तित नाम) पांच साल पहले अपने पिता और पति से प्रताड़ित होकर भाग आयी थी. ३२ वर्षीय मुन्नी पिछले ५ साल से रहती है स्टेशन पर और पड़ोस की बस्तियों से भीख मांगकर गुजर बसर करती है. शायद पुरुषों द्वारा शोषण ने उसे इतना कटु बना दिया है कि वह कहती है कि "एक बार औरत स्टेशन पर आ पड़ी तो वो फिर औरत ही नहीं रह जाती....खुदा करे किसी औरत को ये न देखना पड़े.... " इसी कारण उसने अपनी एकमात्र बच्ची को स्टेशन से दूर ही रखा है... किसी परिचित के यहाँ... मुन्नी ने कई रातें भूखी गुजारी हैऐसे न जाने कितने जीवन खंडवा शहर में गुजर रहे हैं. सबके सामने एक ही समस्या मूह फाड़े खडी है और वो है सर छुपाने की. इस पुराने शहर में नगर पालिका निगम गठित होने के बाद भी किसी रैन बसेरा या आश्रय गृह की व्यवस्था नहीं हो सकी. रेलवे जंक्शन होने के कारण बेघरों की तादाद बढ़ना स्वाभाविक है. अपने चीथड़ों में अपनी जिन्दगी लपेटे, शोषित और उपेक्षित होते ये लोग क्या इस देश के नागरिक नहीं है? क्या इनको सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार इसलिए नहीं कि ये शाहर कि सुन्दरता पर दाग हैं?

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

यादों के झरोखे से

पूरन चंद्र जोशी की पुस्तक ‘यादों से रची यात्रा एक विकल्प की तलाश‘ किसी तपती गर्मी, उमस और बेचैनी के समय में ठंडी फुहार की तरह सचमुच एकबारगी मन को हरा कर गयी। विचारों और चिंताओं से भरी इस किताब को दो दिन में पूरी पढ़ गयी। बहुत दिनों बाद मुक्तिबोध की कविता की पंक्तियां फिर कानों में गूंज उठी–जड़ीभूत ढ़ांचों से जरूर लड़ेगें हमचाहे प्रतिनिधि तुमचाहे प्रतिनिधि हम।यह एक ईमानदार समाजशास्त्री और एक न्यायपूर्ण समाज को धरती पर देखने को आतुर संवेदनशील बुद्धिजीवी का अपने अतीत, वर्तमान और आनेवाले कल से वाद–विवाद और संवाद है। जनता के संघर्षों और उसकी जिजीविषा में अटूट आस्था रखने वाला व्यक्ति जिस तरह हमेशा एक नयी सुबह का सपना संजोए रखता है और यह विश्वास करता है–‘ऐसा जमाना हमेशा नहीं रहेगा। एक समय आयेगा, जब हम फिर अपनी जमीन से जुड़ेगें, और फिर से हमारे जीवन में वसंत आयेगा (इसी पुस्तक से) , जोशी जी न सिर्फ‍ अपने समय से ही साक्षात्कार करते हैं बल्कि उससे दो–दो हाथ करते हुए चरैवेति–चरैवेति के संकल्प के साथ , ‘वैंक्विश्ड टुडे बट नाट फारएवर, टुमारो वी शैल राइज विद ग्रेटर विजडम एडं डिसिप्लिन‘ (लेखक की पुस्तक से उद्धृत) के विश्वास के साथ यह कहते हैं कि आम आदमी के लिये कोई पैराडाइस लॉस्ट , स्वर्ग का लोप नहीं है और नहीं उसके लिये कोई ‘दॅ एण्ड ऑफ सिविलाइजेशन‘, सभ्यता का अंत है।जोशी जी की यह पुस्तक हमेशा बेहतर की तलाश की मनुष्य की सतत चेष्टा और इस चेष्टा के तहत उसकी निर्मितियों, उनकी कमियों, कमजोरियों और उनसे उबरकर एक नये विकल्प की खोज की यात्रा है।उनकी यह यात्रा वैकल्पिक सभ्यता की जन्मभूमि रूस से शुरू होती है। जोशी जी लिखते हैं–‘‘ रूसी क्रांति की सबसे महत भूमिका यही थी कि उसने व्यापक जनसाधारण को इतिहास के हाशिए से इतिहास की मुख्य प्रेरक शक्ति, मुख्यकर्ता के रूप में इतिहास के केंद्र में प्रतिष्ठित किया। रूसी क्रांति मुख्य रूप से हमेशा इसीलिये याद की जायेगी, अमर रहेगी कि उसने श्रमिक जनता में आत्मसम्मान जगाया और अदम्य आत्मविश्वास पैदा किया और उसकी सर्जनात्मक ऊर्जा, उसमें निहित रचनात्मक अंत:शक्ति को नये समाज, नए अर्थतंत्र, नई राजव्यवस्था, नई संस्कृति के निर्माण का माध्यम बनाया।’’ जोशी जी रूसी क्रांति की इस महान भूमिका के बारे में गांधी, रवींद्रनाथ और जवाहरलाल नेहरू की स्वीकारोक्तियों का स्मरण करते हैं और यह सवाल उठाते हैं कि आज अभिजात वर्गों द्वारा उस महान स्मृति को मिटाने का जो अभियान चलाया जा रहा है, उसके पीछे वाशिंगटन समझौते के तहत चलायी जा रही नवउदारवादी संस्कृति की तो भूमिका है ही, इसके साथ ही क्या स्वयं रूस के अंदर की सोवियत व्यवस्था के विघटन के बाद की घटनाएं इसका प्रमाण नहीं है कि श्रमिक और जनसाधारण आज फिर से अपनी मानवीय स्थिति और नियति के मूक निष्क्रिय दर्शक बना दिये गये हैं और आज रूस में भी ‘एक देश दो राष्ट्र‘ वाला अमीर गरीब का विभाजन और अलगाव पैदा हो गया है।
अपने लेख ‘स्तालिन के आखिरी मुलाकाती‘ में जोशीजी भारत के भूतपूर्व विदेश सचिव तथा बाद में मास्को में भारत सरकार के राजदूत श्री के.पी.एस. मेनन और भारतीय पुलिस के एक बड़े अधिकारी तथा रूस के इतिहास में विशेष दिलचस्पी रखने वाले श्री निगमेंद्र सेन के अध्ययन तथा जवाहरलाल नेहरू की यात्रा के हवाले से सोवियत संध के पूरे घटनाचक, स्तालिन की भूमिका को समझने की कोशिश करते हैं।
वे सोवियत संध, यानी विश्व का पहला समाजवादी देश जिसके सामने अभूतपूर्व चुनौतियां थी, जहां बाहर और भीतर समाजवाद के दुश्मन इस नवनिर्मित देश को मिटाने पर तुले हुए थे, उस समय मार्क्स की धारणा के विपरीत एक अंत्यंत पिछड़े हुए राष्ट्र में संपन्न हुई समाजवादी क्रांति को बचाने और देश को विकसित करने का गुरु दायित्व किस तरह संभाला गया, इस पर गंभीरता से विचार करते हैं। वे फ्रांसीसी इतिहासकार मार्क ब्लाक की इस बात को याद करते हैं कि ‘‘जहां तक महान ऐतिहासिक विभूतियों का सवाल है उनके बारे में तुरंत फैसला देना आसान है। लेकिन उन्हें समझना और उनके साथ न्याय करना अत्यंत कठिन।‘‘ जोशी जी का कहना है कि स्तालिन के व्यक्तित्व का मूल्यांकन भी एक इतिहासकार के लिये गंभीर चुनौती भरा काम है। वे स्तालिन के बारे में लेनिन की एक टिप्पणी का हवाला भी देते हैं जिसमें लेनिन यह कहते हैं कि जनरल सेक्रटरी बनने के बाद स्तालिन ने अपने हाथ में अपार शक्ति केंद्रित कर ली है और मुझे इस बात का विश्वास नहीं होता कि वे इस शक्ति का प्रयोग एहतियात के साथ करना जानते हैं। इसके साथ ही वे स्तालिन को सनकी और स्वेच्छाचारी भी बताते हैं।जोशी जी एक समाज वैज्ञानिक के नाते जहां पूरी निष्ठा के साथ उस पूरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझने की कोशिश करते हैं जिसने स्तालिन की इन सब कमजोरियों के बावजूद उन्हें देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचा दिया, वहीं वे गंभीरता के साथ यह भी संधान करते हैं कि क्या स्तालिनवाद के बीज रूस की विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज नहीं थे? जोशी जी इतिहासकार ई.एच. कार की पुस्तक, ‘द बोल्शेविक रिवोल्यूशन‘ तथा पत्रकार मौरिस हिंडस की चर्चित पुस्तक ‘मदर रशा‘ के हवाले से बताते हैं कि रूस के इतिहास में दो तरह की प्रवृतियां रही है, एक यूरोप के साथ जुड़ने और खुलेपन की प्रवृति थी जिसका प्रतिनिधित्व पीटर द ग्रेट ने किया था और लेनिन भी इसी परंपरा को जीवित रखने के लिये प्रयत्नशील थे और दूसरी परंपरा रूस के गैर यूरोपीय चरित्र को प्राथमिकता देने की और उसे यूरोप के मुकाबले एक महाशक्ति के रूप में सुदृढ़ करने की प्रवृति थी। ई.एच. कार के अनुसार रूस के बुद्धिजीवी भी दो खेमों में बंटे हुए थे। स्तालिन इसी दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व करते थे। जोशी जी का कहना है कि स्तालिन लेनिन की तरह मार्क्सवाद के मूल प्रेरणास्रोत, विवेकवाद और प्रबुद्धवाद के कठिन रास्ते से मार्क्सवाद तक नहीं पहुंचे थे। वे एक छलांग में धार्मिक ‘प्रीस्ट‘ से मार्क्सवादी ‘प्रीस्ट‘ में तब्दील हो गये थे और उन्होंने मार्क्सवाद को भी एक धार्मिक पंथ या संप्रदाय के रूप में ढ़ाल दिया। इसके चलते रूस अपने इतिहास की विवेकवाद और प्रबुद्धवाद की परंपरा से कट गया और रूस की आयरन कर्टेन से घेराबंदी कर स्तालिन का रूस पीटर द ग्रेट के रूस की मानसिक खिड़कियां और दरवाजे खोलने की परंपरा से भी कट गया। आश्चर्य होता है कि जब श्री मेनन स्तालिन को रूसी इतिहास में ‘इवान द टेरिबल‘ के समकक्ष रखते हैं तो जोशी जी ही उनकी बात का खंडन करते हुए यह कहते हैं कि रूस के आधुनिकीकरण में स्तालिन की महत भूमिका को देखते हुए उनका स्थान रूसी आधुनिकीकरण के प्रथम महानायक ‘पीटर द ग्रेट’ के समकक्ष क्यों नहीं ! मार्क्सवाद हमें बताता है कि ‘‘मानव–जन अपना इतिहास स्वयं बनाते हैं, पर अपने मनचाहे ढ़ग से नहीं। वे उसे अपनी मनचाही परिस्थितियों में नहीं, अपितु ऐसी परिस्थितियों में बनाते हैं, जो उन्हें अतीत से प्राप्त और अतीत द्वारा सम्प्रेषित होती है और जिनका उन्हें सीधे–सीधे सामना करना पड़ता है।‘‘ स्तालिन के गुण–दोष को भी हमें उस काल–विशेष के संदर्भ में ही देखना पड़ेगा। लेकिन फिर भी प्रश्न तो स्वाभाविक रूप में मनुष्य के विवेक के सामने खड़े होते ही हैं। रवीन्द्रनाथ ने कहा था–लेकिन सभ्यता का एक बुद्धिरूप भी होता है जो अन्न रूप से बड़ा है। जो सभ्यता जनता के मनरूपी खेत का कर्षण करके उसमें फल उत्पन्न कर पाती है वही महान होती है। इस कर्षण का अभाव जरूर कहीं तो रहा होगा।
अपने आलेख ‘महायुद्ध के बाद का रूस : भारतीय मूल्यांकन‘ में जोशी जी प्रोफेसर आशाराम, जो इलाहबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विभाग के प्रोफेसर थे और कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे तथा प्रसिद्ध समाजशास्त्री और बंगला साहित्यकार धूर्जटी प्रसाद मुखर्जी की रूस यात्राओं के जरिये यह बताने की कोशिश की है कि किस प्रकार क्रांति के बाद का रूस मेहनतकश जनता का ही नहीं प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का भी मक्का सा बन गया था। यानी जैसे ‘किगडम ऑफ गाड आन अर्थ‘ ईसाई धर्म के लोगों के लिये आस्था जागृत करता है, आलोचनात्मक विवेक नहीं उसी प्रकार रूस भी विश्वासी कम्युनिस्टों का आदर्श स्वप्न लोक बन गया था। जोशी जी के अनुसार आशाराम जी ने सोवियत समाज के अन्तर्विरोधों को देखा था और उसे अभिव्यक्त भी किया था लेकिन बंधे अंध–विश्वासी कम्युनिस्टों ने उसे स्वीकार नहीं किया, उल्टे आशाराम जी की प्रतिबद्धता पर ही सवाल उठा कर उनकी भर्त्सना की। धूर्जटी बाबू की रूस यात्रा के अनुभवों का जिक्र करते हुए जोशी जी कहते हैं कि उन्होंने रूस को खुली आंखों से देखा था और उसके सकारात्मक पक्षों की सराहना करते हुए जहां उसे बच्चों, युवाओं, महिलाओं, वृद्धों और शिक्षकों का स्वर्ग बताया, वहीं उन्होंने इस बात पर आशंका भी जाहिर की थी कि महायुद्ध के बाद रूस को एक नयी दिशा देने में रूसी नेतृत्व कितना सफल और सक्षम होगा यह नहीं कहा जा सकता। उनके अनुसार इसके लिये रूस को वैचारिक पूर्वाग्रहों से मुक्त, नई दिशा के चिंतन में समर्थ स्वतंत्र बुद्धिजीवी समुदाय की जरूरत थी जिसकी उपस्थिति लगातार क्षीण होती जा रही थी और स्तालिन के नेतृत्व काल में तो बुद्धिजीवियों पर शासक वर्ग का सर्वसत्तावादी वर्चस्व कायम हो गया और रूस का स्वतंत्र बुद्धिजीवी वर्ग एक कैप्टिव बुद्धिजीवी वर्ग में तब्दील हो गया, वह सिर्फ‍ शासक वर्ग का व्याख्याता और टीकाकार बन कर रह गया। इसके बाद ही जोशी जी धूर्जटी बाबू और कामरेड पी.सी. जोशी के बीच हुई एक दिलचस्प बातचीत का हवाला देते हैं जहां इन दोनों में इस बात पर बहस होती है कि एक बुद्धिजीवी की पार्टी में क्या कोई जगह होती है, क्या वह सिर्फ‍ मंच की शोभा बढ़ाने की चीज भर है। धूर्जटी बाबू कहते हैं कि कम्युनिस्ट आंदोलन में तो बुद्धिजीवी पार्टी का बंदी है या महज पार्टी लाइन का व्याख्याता, प्रवचनकार, टीकाकार या प्रचारक। इन सबमें बुद्धिजीवी की जगह कहां है? धूर्जटी बाबू की इस बात के जवाब में पी.सी. जोशी कहते हैं कि एंटी–इंटैलेक्चुएलिज्म का जवाब एंटी–पोलिटीकल होकर तो नहीं दिया जा सकता। सच तो यह है कि राजनैतिक आंदोलन, राजनैतिक पार्टी, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं से अलग होकर तो बुद्धिजीवी लोकतंत्र में कोई सक्रिय और सार्थक भूमिका नहीं निभा सकता।...राजनीतिक क्षेत्र में बुद्धिजीवियों का प्रवेश और हस्तक्षेप ही राजनीति के अंदर ‘एंटी–इंटैलेक्चुएलिज्म की कड़ी दीवार को तोड़ सकता है। धूर्जटी बाबू पलटकर सवाल करते हैं कि : क्या बुद्धिजीवी के राजनीति में प्रवेश और हस्तक्षेप की यह जरूरी शर्त है कि वह किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य बने और उसका अनुशासन स्वीकार करे। ...अनुभव बताता है कि पार्टीबद्ध, अनुशासनबद्ध बुद्धिजीवी अंत में एक स्वतंत्र बुद्धिजीवी नहीं पार्टी का प्रवचनकार और व्याख्याता बनकर बुद्धिजीवी के रूप में समाप्त हो जाता है।‘‘ जोशी जी भी धूर्जटी बाबू की इस बात को स्वीकारते हुए कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी जब सत्ता में आ जाती है तो उसका संगठन रेडिकल चेतना और चिंतन क्रिटिकल सोच का प्रतिरोधी बन जाता है। जोशी जी के अनुसार कम्युनिस्ट आंदोलन ने दुनिया भर में प्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों को जितना अपनी ओर आकर्षित किया उतना और किसी आंदोलन ने नहीं, लेकिन इसके साथ ही जितने बड़े पैमाने पर उनके बुद्धिजीवी चरित्र पर कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन और अनुशासन ने आघात कर उन्हें स्वायत्त चिंतन में असमर्थ बनाया, उसकी भी कोई मिसाल नहीं है। ‘‘हम सामान्यतया उस ‘स्वतंत्रता‘‘ को पसंद नहीं करते, जो केवल बहुवचन के लिये सार्थक है। इंग्लैंड हमें इस बात का बड़े ऐतिहासिक पैमाने पर प्रमाण प्रस्तुत करता है कि ‘‘ स्वतंत्रताओं‘‘ का संकुचित क्षितिज स्वतंत्रता के लिये कितना खतरनाक है।‘‘स्वतंत्रताओं की, विशेषाधिकारों की बात,‘‘ वोल्तेयर कहते हैं, ‘‘मातहती की पूर्वकल्पना करती है। स्वतंत्रताएं सामान्य दासता में अपवाद का द्योतक है।‘‘ ( मार्क्स : पत्र–पत्रिकाओ की स्वतंत्रता पर वाद–विवाद)
मार्क्स के उपरोक्त कथन के संदर्भ में हम बुद्धिजीवी की स्वतंत्रता को समझने की कोशिश करें तो नि:संदेह हमें यह समझते देर नहीं लगती कि बुद्धिजीवी की स्वतंत्रता और बुद्धिजीवी की स्वायत्तता भी अपने आप में एक मिथक ही है। वर्गों में विभाजित और शोषण पर टिके समाज में सिर्फ‍ पूंजी ही स्वायत्त होती है। लेकिन इसके बावजूद यह भी सच है कि पूंजी की स्वतंत्रता और मनुष्य की गुलामी का यह द्वंद्व ही मनुष्य की स्वतंत्रता का वह मूल्य भी पैदा करता है, जो अंतत: मनुष्य की गुलामी को खत्म करने में एक सहायक की भूमिका अदा करता है। जहां तक कम्युनिस्ट पार्टी में बुद्धिजीवी की परजीवी भूमिका का प्रश्न है यह सिर्फ‍ कम्युनिस्ट पार्टी का ही दोष नहीं है। कोई भी संगठन, समाज और दर्शन यदि अपने भीतरी लोकतांत्रिक स्वरूप को खो देता है, तो वह न सिर्फ‍ सत्य के संधान के अपने रास्ते को ही अवरुद्ध कर देता है बल्कि अपने मूल उद्देश्य से ही भटक कर कितनी ही विकृतियों और अंतत: अपने विनाश का भी कारक बन जाता है। इसलिये सवाल सिर्फ‍ बुद्धिजीवी की स्वतंत्रता का नहीं है बल्कि जैसा कि मार्क्स ने कहा, बहुवचन की स्वतंत्रता का है। बहुवचन की इस स्वतंत्रता का प्रश्न हमारे मन को सालता रहे और हम मुक्तिबोध की तरह खुद से यह पूछते रहें तो एक बुद्धिजीवी की भूमिका का शायद कुछ हद तक निर्वहन कर सकेंगे :
अब तक क्या किया जीवन क्या जियाअपने ही कीचड़ में धंस गयेविवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल मेंआदर्श खा गयेबहुत बहुत ज्यादा लिया और दिया बहुत बहुत कममर गया देश अरे जीवित रह गये तुम।
अपने आलेख ‘‘स्तालिन के बाद का रूस : साहित्य की भूमिका‘‘ में जोशी जी ने चुप्पी के उस काल का जीवंत चि़त्रण रूसी कवियों की जानदार कविताओं से किया है। इसके साथ ही उन्होंने अपने कुछ जीवंत अनुभवों का भी जिक्र करते हुए यह बताया है कि किस तरह वैचारिक सेमिनारों में भी रूसी प्रतिनिधि मंडल हमेशा एक ही स्वर में बोलते थे, जबकि निजी बातचीत में उनके विचार अलग होते थे। जोशी जी की पुस्तक में ही उद्धरित त्वारद्वास्की की पंक्तिया बहुत कुछ कह देती है, जो इस प्रकार हैं:
‘‘जो कुछ रह गया था अनकहाफर्ज कहता है कि हम आज वह सब कहें ‘‘
और अपने फर्ज के मानवीय बोध की यह चेतना ही है जो हर अंधेरे को तोड़ कर उजाले का रास्ता प्रशस्त कर देती है। इसीलिये खुद जोशी जी भी इस बात को स्वीकारते हैं कि पूरा परिदृश्य अंधकारमय नहीं है। वे लिखते हैं–बाद की सोवियत यूनियन की अन्य यात्राओं के उपरांत सोवियत व्यवस्था की गहराती समस्याओं का अहसास और बोध मन में गहरा संशय पैदा करता था कि यह व्यवस्था अपने अंतर्विरोधों से मुक्त होने और संकटग्रस्त होने की तरफ जाने से क्या बचने में समर्थ हो पायेगी? दूसरी ओर संशय से जूझता हुआ अंतर्मन का एक विश्वास भी बना रहा जो तर्क और बुद्धि से परे था, लेकिन मन में आशा जगाए हुए था – समाजवाद निश्चय ही अपनी समस्याओं से जूझने में उसी प्रकार सफल होगा जैसे बीते दौर के संकटों पर विजयी हुआ है। ‘‘सलाम लेनिनग्राद‘‘ में उन्होंने फासीवाद पर सोवियत संघ की लाल फौज और उस देश की जनता की वीरता और कुर्बानियों का बेहद सजीव चित्रण किया है। रूसी कवियत्री अन्ना अख्मातोवा की कविताएं अत्यंत मार्मिक है, एक बानगी देखिये ‘‘हिम्मत‘‘ कविता की–
‘‘मालूम हमें कि क्या गुजरती हम पर इस पल/मालूम नहीं क्या होगा कल सब कुछ तो अनिश्चित इस पल/मगर निश्चित है यह कि न छोड़ेगी हिम्मत हमारा साथ/घड़ी बताती है कि है यही हिम्मत की घड़ी आज/डर नहीं अगर ऊपर से बरसता सीसे का लावा/कोई साया न सिर पर मगर न कोई गिला न पछतावा/हर हालत में रखेगें महफूज तुझे, ओ हमारी शान/हमीं से पहुंचेगी हमारी जुबान हमारे बच्चों के बच्चों तक/आजाद और पाक, इंसानियत के लिये हिम्मत का यह सबक।‘‘ और इस अपराजेय हिम्मत पर मुस्कुराता हुआ लेनिनग्राड मौत को पराजित कर फिर उठ खड़ा होता है। लेखिका लिखती है– ‘‘और यह बिना तारों की/जनवरी की रात/इसकी अनोखी किस्मत से आश्चर्यचकित/मौत की अगाध गहराइयों से वापस लौटा/लेनिनग्राड स्वयं को करता है सलाम।अन्ना अखमातोव की ये कविताएं और उनसे प्रभावित, बल्कि अभिभूत होकर लिखी गई शिशिर दास की मूल बांग्ला कविता, ‘कोथाय छिलाम आमी, कोथाय‘ का अंग्रेजी, रूसी और हिंदी में रूपांतरण और फिर इसका रूसी प्रतिनिधियों के बीच पाठ–आसुंओं की कोई भाषा नहीं होती, विश्व मानवता जैसे एक ही स्वर में बोल रही थी।
‘‘नई राह की खोज‘‘ में लेखक नवउदारवादी चिंतक फ्रांसिस फुकुयामा के चिंतन की आलोचना करता है और यह बताता है कि किस तरह येल्तसिन ने तथाकथित आर्थिक सुधारों को लागू करके प्रगति के जो सपने दिखाये थे, वे सपने पूरा होना तो दूर उसने तो रूसी जनता को उपलब्ध सारी सुविधाओं को ही छीन लिया। अर्थतंत्र से राज्य का वर्चस्व हटाकर सबकुछ बाजार के हाथों सौंप देने के परिणाम सब उल्टे ही साबित हुए। लेखक का कहना है कि सोवियत समाजवादी व्यवस्था की असफलता और नवउदारवाद की असफलता ने एक न्यायसम्मत समाज की मनुष्य की आकांक्षा को पराजित नहीं किया है। उसकी विकल्प की तलाश अभी जारी है। विकल्प की इसी तलाश में लेखक यह सवाल करता है कि क्या जनसाधारण की व्यापक गरीबी और अभाव के बीच अमीरी के ये द्वीप नई सभ्यता के स्थायी प्रतीक हैं या समाज के प्रबुद्ध तत्वों के लिये एक चेतावनी है और विकास के नाम पर हो रहे इस अपविकास को रोकने और विकास का नया मॉडल खोजने के लिए एक चुनौती। लेखक इसी द्वंद्वात्मक सामाजिक संदर्भ में नए वैचारिक क्षितिज, नई राहें खोजने के लिए खुद को प्रतिबद्ध करता है। जोशी जी के विचारों, उनके निष्कर्षों से आप सहमत हों या न हों, लेकिन आप उनकी चिंताओं से खुद को अलग नहीं कर सकते। इस बेहद रोचक विमर्श के लिये जोशी जी को अकूत धन्यवाद।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

विचार - अब्दुल्ला

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।। कवि रहीम के इस दोहे का सार शायद यही हो सकता है कि अगर समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सुधार ले तो समाज में अवश्य सुधारात्मक परिवर्तन आएगा। हजरत मुहम्मद ने जिस इस्लाम धर्म का प्रवर्तन किया, उसका मूल उद्देश्य यही है कि मानव अपने मन और स्वभाव को एक ऐसा रूप दे, जिससे चारों ओर केवल प्रेम और अमन का संदेश फैले। किसी भी मनुष्य का जीवन जैसा होगा, किसी भी संप्रदाय का या समाज का जीवन जैसा होगा, उसके धर्म की व्याख्या भी वैसी ही होगी। मिलादुल नबी यानी नबी के जन्म का दिन और ईद यानी खुशी। ईद मिलादुलनबी हजरत मुहम्मद (स।) के जन्म की खुशी में मनाया जाने वाला त्योहार है। इसे त्योहार के रूप में मनाने का मकसद यह है कि हम हजरत की जिंदगी से प्रेरणा लें और उससे जीने का सलीका सीखें। अपने 23 साल के पैगंबरी जीवन में हजरत मुहम्मद (स.) ने अपनी कथनी एवं करनी से वही सब कुछ कर दिखाया, जिसकी अपेक्षा अल्लाह अपने बंदों से करता है। पैगंबरी की शुभ सूचना से पहले की उनकी जिंदगी के बारे में जो जानकारी मिलती है उससे साफ पता चलता है कि वे अनेक गुणों से संपन्न थे। लोग उन्हें मुहम्मद सादिक एवं मुहम्मद अमीन की उपाधि से पुकारते थे। उन्होंने वह सब कुछ कर दिखाया जो एक मनुष्य का आदर्श जीवन माना जा सकता है। हजरत मुहम्मद (स.) पैगंबर और महान शासक थे। मगर उनकी जीवन शैली आश्चर्यजनक रूप से साधारण थी। उन्होंने समानता का केवल सैद्धांतिक उपदेश नहीं दिया, बल्कि उसे व्यावहारिक रूप में भी प्रदर्शित किया।

आस्था और विश्वास आस्था और विश्वास का आपसी संबंध बड़ा गहरा है। दोनों के बीच एक सूक्ष्म दीवार होती है जो इनमें अंतर को चिह्नित करता है जिसे आमतौर पर परखा नहीं जा सकता, लेकिन इनकी प्रकृति पर ध्यान देने से अंतर स्पष्ट हो जाता है कि विश्वास आस्था की पहली सीढ़ी है और आस्था विश्वा की ठोस पायदान। विश्वास संबंधों और नफा-नुकसान के आधार पर बनते-बिगड़ते रहते हैं, लेकिन आस्था अटूट रहती है। आपसी परिचय के उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होने से परस्पर विश्वास जमता है और जब संबंधों में किंतु-परंतु की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती तो विश्वास की वह स्थिति आस्था कहलाती है। आस्था के टिके रहने की शर्त ही यही है कि आस्थाजन्य प्रतीक, व्यक्ति, वाद या सत्ता सर्वशक्तिमान भले न हो, सर्वगुणसंपन्न जरूर हो। प्रत्येक धर्म, संस्कृति और समाज के अपने मानदंडों के हिसाब से विश्वास और आस्था का निर्माण होता है। इसलिए प्रत्येक धर्म, संस्कृति और समाज के अपने विश्वास होते हैं और उसके मानने वाले या उसमें रहने वाले लोगों की उसमें आस्था होती है।आस्था रखने वाले की जिस प्रतीक, व्यक्ति, वाद या सत्ता में आस्था होती है, उस प्रतीक, व्यक्ति, वाद या सत्ता की स्थिति निश्चित रूप से आस्था रखने वाले उस व्यक्ति से और उसके आस-पास के लोगों और संसाधनों से ज्यादा शक्तिशाली और चमत्कारी होती है। विश्वास चूंकि दैनंदिनी की घटनाओं में समाहित रहता है, इसलिए आस्था की तुलना में इसकी व्यापकता ज्यादा होती है। दुनिया विश्वास के सहारे चलती है, क्योंकि इसमें तर्क की गुंजाइश रहती है। लोग बिना तर्क के किसी से सहमत नहीं होते, इसलिए कर्ता अपने कर्म का औचित्य प्रमाणित करने के लिए सामने वाले को अपने तर्कों से प्रभावित करने का प्रयास करता है। तर्क-वितर्क के आधार पर व्यवस्था कायम करने की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। साथ-साथ काम करने से आपसी विश्वास कायम होता है और उसके आधार पर कार्य-व्यापार संपन्न किए जाते हैं। विश्वास के लिए किसी महान या अतिमानवीय सत्ता की जरूरत नहीं होती। विश्वास के दायरे में सामान्य लोग ही आते हैं। लेकिन आस्था के लिए सत्ता का महान या अतिमानवीय होना जरूरी होता है। वह सत्ता सामान्य लोगों की पहुंच से बाहर होती है और उसकी कार्यशैली सबकी जानकारी में नहीं होती, इसलिए उस पर तर्क-वितर्क नहीं होता। आस्था रखने वाले लोगों में उस सत्ता द्वारा किए गए कर्म के प्रति औचित्य-अनौचित्य का भाव उत्पन्न नहीं होता। ऐसी सत्ता संख्या में बहुत कम होती है, इसलिए आस्था विश्वास की तुलना में कम व्यापक होती है।प्रत्येक धर्म, संस्कृति और समाज के अपने मानदंडों के हिसाब से विश्वास और आस्था का निर्माण होता है। इसलिए प्रत्येक धर्म, संस्कृति और समाज के अपने विश्वास होते हैं और उसके मानने वाले या उसमें रहने वाले लोगों की उसमें आस्था होती है। बुद्धि और विवेक के प्रयोग से लोग अपना विश्वास कायम करते हैं और विश्वास जब पुख्ता हो जाता है तो वह आस्था का रूप ले लेता है। फिर उसके टूटने या बिखरने की संभावना जाती रहती है। इस तरह खंडित होने की संभावना वाला विश्वास जब अखंडित हो जाता है तो आस्था बन जाता है। फिर वह सत्ता लौकिक हो या अलौकिक, हर तरह के तर्क से परे हो जाता है। बुद्धि-विवेक के हिसाब से यह स्थिति प्रशंसनीय नहीं होती है, लेकिन फिर भी आस्था वह भाव है जिसमें तर्क अपना समस्त अहमियत खो देता है।
ईश्वर तो आपके भीतर ही है। बस, आपको अपने अंतस पर ध्यान केंद्रित करना है। भगवान के करीब पहुंचना-यही आपके जीवन का अंतिम ध्येय होना चाहिए। आप विलय में जो पढ़ते हैं, निश्चित रूप से उससे आपके व्यक्तित्व का विकास होता है। लेकिन क्या यही सब कुछ है जिसे आप जीवन में पाना चाहते थे मसलन कारोबार, व्यवसाय, खेल आदि नही! तो आपको अपने आध्यात्मिक जीवन पर ध्यान केंद्रित करना होगा। आध्यात्मिकता ही अंतिम सत्य जानने में आपकी मदद करेगा। ईश्वरीयअनुभव के निकट जाकर ही आप अपना ध्येय पा सकते हैं। इसके लिए द्विदेह सिद्धांत को समझना होगा। इसके अनुसार पुरुष के शरीर में स्त्री का और स्त्री के शरीर में पुरुष का भी अंश होता है। ध्यान दीजिए आत्मा न तो स्त्री है, न पुरुष। पुरुष की आत्मा स्त्री की आत्मा जैसी ही होती है। एक-दूसरे से जुड़कर ये विराट सत्ता का निर्माण करती हैं अर्थात आत्मा अपने आप में संपूर्ण ब्रह्मïांड की ऊर्जा का एक अंश मात्र है। इसीलिए हर आत्मा स्वयं में ईश्वरीय संभावनाएं लिए रहती है। वह प्रेम, शांति, सुरक्षा और एकता में साकार होती है। अध्यात्म कोई व्यापार नहीं है। आत्म साक्षात्कार तभी हो सकता है जब आप अपने अंतर से जुड़ जाएं। हर आदमी स्वार्थ में लगा है। स्वार्थ में दुनियावी सफलताओं को मापने का पैमाना धन और संपत्ति है। लेकिन आत्म साक्षात्कार इतना अलौकिक और पवित्र अनुभव है कि पुराने समय में लोग अपना पूरा जीवन ही उसकी तलाश में लगा देते थे। अगर आप दुनियावी सफलताओं और चीजों में उलझे रहे तो आध्यात्मिक जिज्ञासा के लिए आपके पास समय नहीं रहता। आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए दुनियादारी तो भूलनी ही पड़ेगी। जो व्यक्ति अपने अंतस में अपना विकास करता है, वह ईश्वर के अनुकूल हो जाता है। वह शांत रहता है जबकि बाकी लोग बेचैन रहते हैं। जब लोग फिजूल की बातों में उलझे रहते हैं तब अपने अंतस में जीने वाला व्यक्ति मौन हो जाता है। वह अपने भीतर उतरता है जबकि दूसरे लोग बाहर झगड़ रहे होते हैं। ऐसा व्यक्ति आत्मिक संसार के उन दुर्लभ क्षेत्रों से जुड़ जाता है जो आत्मसाक्षात्कार के बाद संभव होते हैं। वहां आप खुद ही अपने सहायक और परामर्शदाता होते हैं।
उपासना

प्रार्थना प्रभु से जुडऩे का एक कारगर तरीका है। लोग विभिन्न प्रकार की प्रार्थनाएं करते हैं। कुछ लोग इस संसार की वस्तुओं के लिए प्रार्थना करते हैं। उदाहरण के लिए, आप एक बेहतर नौकरी की तलाश में हो सकते हैं। आप एक नया घर या नई कार की इच्छा कर सकते हैं। कुछ लोग स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते हैं, ताकि वे या उनका परिवार स्वस्थ हो जाए। कुछ ऐसे हैं जो प्रार्थना करते हैं कि उनके व्यक्तिगत संबंध बेहतर हो जाएं। फिर भी, अधिकतर लोग सांसारिक वस्तुओं के लिए ही प्रार्थना करते हैं। आमतौर से, जब हम प्रार्थना करते हैं तो हम प्रभु से अपने लिए कुछ मांगते हैं। हम हमेशा उन वस्तुओं के लिए प्रार्थना करते हैं, जिनके बारे में हम सोचते हैं कि वे फायदेमंद होंगी। उस समय, अपने जीवन के बारे में हमारी जानकारी सीमित होती है। कई बार, हम ऐसी चीज के लिए प्रार्थना कर सकते हैं जो हमारे अनुसार फायदेमंद हो पर अंत में वह चीज हमारे लिए फायदेमंद साबित नहीं होती। हम प्रार्थना करके कोई चीज प्राप्त कर सकते हैं, पर लंबे समय बाद देखते हैं कि वह हमारे लिए उचित नहीं है। इसलिए मैं समझता हूं, प्रार्थना का सही तरीका यह है कि हम प्रभु की इच्छा को अपनी जीवन में घटित होने दें। इसलिए, कई धर्मों में यह कहावत है, मेरी इच्छा नहीं, बल्कि आपकी इच्छा पूर्ण हो। क्यों? क्योंकि प्रभु हमारे जीवन में घटने वाली हर एक चीज से अवगत है। वह जानता है कि सचमुच हमारे लिए सर्वोत्तम क्या है। उदाहरण के लिए, हम सोच सकते हैं कि एक करोड़ रुपये की लॉटरी जीतना बहुत अच्छा होगा। पर हम यह नहीं समझते कि इतना पैसा मिलने के बाद, दो चीजें हो सकती हैं। हम बड़ी-बड़ी चीजों की खरीदारी में इतना ज्यादा व्यस्त हो सकते हैं कि हमारा ध्यान प्रभु से दूर हो जाए। या फिर हो सकता है कि हमारे सभी दोस्त इस धन में से कुछ हिस्सा लेना चाहें और अगर हम वह उन्हें न दें तो हमारी दोस्ती खत्म हो सकती है और हम अकेले पड़ सकते हैं। इसलिए, हम वास्तव में यह नहीं जानते कि हमारे लिए अच्छा क्या है। अपने सीमित दृष्टिकोण से, हम वह कुछ माँगते हैं जो हमारे विचार में अच्छा हो। पर अगर हम यह प्रभु पर छोड़ दें कि जो कुछ हमारे लिए सर्वोत्तम हो, वही वह दें, तब हम सच्ची प्रार्थना करते हैं।

औरत

अनिल अनूप

पुरुष को हमेशा यह भय सताता रहा है कि अगर औरत उसकी बराबरी करने लगी तो क्या होगा? औरत बराबरी में न आ जाए, इसलिए पुरुष मानसिकता को इसी बात में भलाई नजर आती है कि उसे सहेली के बजाय पहेली बनाकर रखो। हमारे साहित्य में ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे, जिनसे साफ हो जाता है कि स्त्री के दिमाग की कंडीशनिंग के लिए कैसी-कैसी कोशिशें की जाती रही हैं। सदियों पूर्व जब कहा गया कि स्त्रियश्च चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम, देवो जानाति कुतो मनुष्य:, तो निश्चित ही वह किसी पुरुष द्वारा गढ़ी गई कहावत थी। उस पुरुष द्वारा जो स्त्री को एक रहस्य बताकर आधी आबादी को उसके समानता के अधिकार से वंचित करना चाहता था। हमारे अनेक ग्रंथों में स्त्री को कमतर साबित करने के उदाहरण मिल जाते हैं। राम चरित मानस में रावण भी मंदोदरी से कहता है- नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं, अवगुण आठ सदा उर रहहीं। संशय, अनृत, चपलता, माया, भय, अविवेक, अशौच, अदाया। ये आठ अवगुण हैं- संशय, झूठ, चपलता, माया, भय, अविवेक, अशौच और अदाया। जरा इन अवगुणों पर गौर कीजिए, तो स्पष्ट हो जाएगा कि पुरुष समाज स्त्री को किस दृष्टि से देखता रहा है, या देखना चाहता रहा है। इन अवगुणों को स्त्री पर आरोपित करके उसे किस तरह पुरुष सत्ता की गुलाम बनाने की कोशिश की जाती रही है। पहला अवगुण बताया गया है, संशय। इसके पीछे पुरुष सत्ता की बहुत बड़ी चाल है। पुरुष को पता है कि मैं जो कुछ भी अनुचित कर रहा हूं, उसके लिए स्त्री मुझ पर संदेह करेगी। इसलिए संदेह को ही नारी का एक अवगुण बता दिया, ताकि उसके संदेह का कोई महत्व ही न रह जाए। उसे सहजता से यह कहकर टाल दिया जाए कि संशय तो स्त्री के आठ अवगुणों में से एक अवगुण है ही। उसका दूसरा अवगुण बताया गया है अनृत यानी झूठ। ऐसा करके पुरुष इस सच को नकार देना चाहता है कि स्त्री अपने मन की बात कह नहीं सकती, इसलिए उसे झूठ का सहारा लेना पड़ता है। उसे उस स्थिति में नहीं रखा जाता कि सच बोल सके और फिर उस पर झूठ का अवगुण चस्पा कर दिया जाता है। चपलता को भी उसका एक अवगुण बताया गया है। जबकि वास्तव में बाल्यावस्था को छोड़कर सारी जिंदगी चपलता उसके लिए एक सपना ही रहती है। वह इस सपने को पाने की कोशिश न करे, इसलिए चपलता को उसका एक अवगुण बता दिया। माया को भी स्त्री का एक अवगुण कहा गया है। उसे मायावी बताकर एक पहेली बना दिया। पुरुष उसे जब चाहे तब दबोच सकता है और अंतत: उसे पहेली बनाकर पूछता है, नारी तू आखिर है क्या? भय को भी उसका एक अवगुण बताया गया है, ताकि वह उसे अपना सहज गुण मानकर भयभीत होती रहे। अविवेक को स्त्री का अवगुण बताना तो उसी पुरुषवादी मानसिकता का परिचायक है, जो स्त्री के धड़ के ऊपर एक अदद मस्तिष्क के होने को स्वीकार नहीं करती। माहवारी के दिनों के नाम पर उस पर अपवित्रता का आरोप लगाना तो सरासर उसकी अस्मिता पर आघात है। इसमें भी पुरुष की अपनी स्वार्थी मानसिकता झलकती है। अपवित्रता के नाम पर स्त्री को एक कोठरी में कैद कर देना दरअसल उसके मासिक चक्र की जासूसी करने का एक तरीका था, ताकि पता चलता रहे कि...। और आखिरी अवगुण यानी अदाया। कितना हास्यास्पद आरोपण है यह। दया की मूर्ति नारी को दयाहीन या निर्दयी बताना कितनी बड़ी साजिश है। वह पुरुष को निर्दयी न कह सके, इसलिए खुद ही उस पर निर्दयी होने का आरोप मढ़ दिया गया। इन सारे अवगुणों का बारीक विश्लेषण करें तो बात बहुत आसानी से समझ में आ जाती है कि इनका बार बार उल्लेख करना नारी के मन की कंडीशनिंग करने का एक जरिया है। पुरुष सत्ता सदैव स्त्री को भोग्या के रूप में देखती रही है। औरत के शरीर के धड़ के नीचे के हिस्से को ही औरत की पहचान बनाए रखना चाहता है पुरुष। धड़ के ऊपर कोई विचारवान मस्तिष्क भी है, यह मानने में उसे दिक्कत होती है। वह हर हाल में उस मस्तिष्क की अनदेखी करता है, और उसे अपने मुताबिक ढालने का प्रयास करता रहा है। वह चाहता है कि उसकी अधीनता की चट्टानों के नीचे स्त्री सदा-सदा दबी रहे। वह कठपुतली की तरह उसके इशारों पर नाचती रहे। उसे सहेली का दर्जा न देना पड़े इसलिए पहेली बनाकर रखा जाता है। क्योंकि जब उसे सहेली या मित्र के रूप में देखोगे तो उसे बराबरी का अधिकार भी देना पड़ेगा। यह अधिकार पुरुष को अपने अधिकारों में से ही बांटकर देना होगा। और पुरुषवादी सत्ता इसे कैसे स्वीकार कर सकती है? इस पुरुषवादी सत्ता को हमेशा यह भय सताता रहा है कि अगर औरत उसकी बराबरी करने लगी तो क्या होगा? औरत बराबरी में न आ जाए, इसलिए पुरुषवादी मानसिकता को इसी बात में भलाई नजर आती है कि उसे सहेली के बजाय पहेली बनाकर रखो। हमारे साहित्य में तमाम दोहों चौपाइयों में स्त्री की निंदा करने वाले या उसे उपदेश देने वाले ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे, जिन पर गौर करने से साफ हो जाता है कि स्त्री के दिमाग की कंडीशनिंग के लिए कैसी-कैसी कोशिशें की जाती रही हैं।


- चित्रा मुद्गल [साभार ]

कट्टरपंथ नकाब- साभार

बुरके के पीछे सिर्फ कट्टरपंथ नकाब, हिजाब या बुरके के पीछे सिर्फ मुस्सिम कट्टरपंथ की शिकार ही नहीं छिपी होती, बल्कि रेडिकल विचार भी पनप रहे होते हैं, यह सऊदी अरब की कवयित्री हिसा हिलाल ने साबित कर दिया है। सऊदी अरब वह मुल्क है, जिसने इस्लाम की सबसे प्रतिक्रियावादी व्याख्या अपने नागरिकों पर थोपी हुई है। इसकी सबसे ज्यादा कीमत वहां की औरतों को अदा करनी पड़ी है। सऊदी अरब में औरतों को पूर्ण मनुष्य का दरजा नहीं दिया जाता। वे घर से अकेले नहीं निकल सकतीं, अपरिचित आदमियों से मिल नहीं सकतीं, कार नहीं चला सकतीं और बड़े सरकारी पदों पर नियुक्त नहीं हो सकतीं। घर से बाहर निकलने पर उन्हें सिर से पैर तक काला बुरका पहनना पड़ता है, जिसमें उनका चेहरा तक पोशीदा रहता है – आंखें इसलिए दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि इसके बिना वे ‘हेडलेस चिकन’ हो जाएंगी। । पुरुषों की तुलना में उनके हक इतने सीमित हैं कि कहा जा सकता है कि उनके कोई हक ही नहीं हैं — सिर्फ उनके फर्ज हैं, जो इतने कठोर हैं कि दास स्त्रियों या बंधुवा मजदूरों से भी उनकी तुलना नहीं की जा सकती। ऐसे दमनकारी समाज में जीनेवाली हिसा हिलाल ने न केवल पत्रकारिता का पेशा अपनाया, बल्कि विद्रोही कविताएं भी लिखीं। इसी हफ्ते अबू धाबी में चल रही एक काव्य प्रतियोगिता में वे प्रथम स्थान के लिए सबसे मज़बूत दावेदार बन कर उभरी हैं।संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबू धाबी में कविता प्रतियोगिता का एक टीवी कार्यक्रम होता है — जनप्रिय शायर। इस कार्यक्रम में हर हफ्ते अरबी के कवि और कवयित्रियां अपनी रचनाएं पढ़ती हैं। विजेता को तेरह लाख डॉलर का पुरस्कार मिलता है। इसी कार्यक्रम में हिसा हिलाल ने अपनी बेहतरीन और ताकतवर नज्म पढ़ी – फतवों के खिलाफ। यह कविता उन मुस्लिम धर्मगुरुओं पर चाबुक के प्रहार की तरह है, ‘ जो सत्ता में बैठे हुए हैं और अपने फतवों और धार्मिक फैसलों से लोगों को डराते रहते हैं। वे शांतिप्रिय लोगों पर भेड़ियों की तरह टूट पड़ते हैं।’ अपनी इस कविता में इस साहसी कवयित्री ने कहा कि एक ऐसे वक्त में जब स्वीकार्य को विकृत कर निषिद्ध के रूप में पेश किया जा रहा है, मुझे इन फतवों में शैतान दिखाई देता है। ‘जब सत्य के चेहरे से परदा उठाया जाता है, तब ये फतवे किसी राक्षस की तरह अपने गुप्त स्थान से बाहर निकल आते हैं।’ हिसा ने फतवों की ही नहीं, बल्कि आतंकवाद की भी जबरदस्त आलोचना की। मजेदार बात यह हुई कि हर बंद पर टीवी कार्यक्रम में मौजूद श्रोताओं की तालियां बजने लगतीं। तीनों जजों ने हिसा को सर्वाधिक अंक दिए। उम्मीद की जाती है कि पहले नंबर पर वही आएंगी।मुस्लिम कट्टरपंथ और मुस्लिम औरतों के प्रति दरिंदगी दिखानेवाली विचारधारा का विरोध करने के मामले में हिसा हिलाल अकेली नहीं हैं। हर मुस्लिम देश में ऐसी आवाजें उठ रही हैं। बेशक इन विद्रोही आवाजों का दमन करने की कोशिश भी होती है। हर ऐसी घटना पर हंगामा खड़ा किया जाता है। हिसा को भी मौत की धमकियां मिल रही है। जाहिर है, मर्दवादी किले में की जानेवाली हर सुराख पाप के इस किले को कमजोर बनाती है। लंबे समय से स्त्री के मन और शरीर पर कब्जा बनाए रखने के आदी पुरुष समाज को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता है? लेकिन इनके दिन अब गिने-चुने हैं। विक्टर ह्यूगो ने कहा था कि जिस विचार का समय आ गया है, दुनिया की कोई भी ताकत उसे रोक नहीं सकती। अपने मन और तन की स्वाधीनता के लिए आज दुनिया भर के स्त्री समाज में जो तड़प जाग उठी है, वह अभी और फैलेगी। दरअसल, इसके माध्यम से सभ्यता अपने को फिर से परिभाषित कर रही है।वाइरस की तरह दमन के कीड़े की भी एक निश्चित उम्र होती है। फर्क यह है कि वाइरस एक निश्चित उम्र जी लेने के बाद अपने आप मर जाता है, जब कि दमन के खिलाफ उठ खड़ा होना पड़ता है और संघर्ष करना होता है। मुस्लिम औरतें अपनी जड़ता और मानसिक पराधीनता का त्याग कर इस विश्वव्यापी संघर्ष में शामिल हो गई हैं, यह इतिहास की धारा में आ रहे रेडिकल मोड़ का एक निश्चित चिह्न है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस तरह के प्रयत्नों से यह मिथक टूटता है कि मुस्लिम समाज कोई एकरूप समुदाय है जिसमें सभी लोग एक जैसा सोचते हैं और एक जैसा करते हैं। व्यापक अज्ञान से उपजा यह पूर्वाग्रह जितनी जल्द टूट जाए, उतना अच्छा है। सच तो यह है कि इस तरह की एकरूपता किसी भी समाज में नहीं पाई जाती। यह मानव स्वभाव के विरुद्ध है। धरती पर जब से अन्याय है, तभी से उसका विरोध भी है। रूढ़िग्रस्त और कट्टर माने जानेवाले मुस्लिम समाज में भी अन्याय और विषमता के खिलाफ प्रतिवाद के स्वर शुरू से ही उठते रहे हैं। हिसा हिलाल इसी गौरवशाली परंपरा की ताजा कड़ी हैं। वे ठीक कहती हैं कि यह अपने को अभिव्यक्त करने और अरब स्त्रियों को आवाज देने का एक तरीका है, जिन्हें उनके द्वारा बेआवाज कर दिया गया है ‘जिन्होंने हमारी संस्कृति और हमारे धर्म को हाइजैक कर लिया है।’तब फिर अबू धाबी में होनेवाली इस काव्य प्रतियोगिता में जब हिसा हलाल अपनी नज्म पढ़ रही थीं, तब उनका पूरा शरीर, नख से शिख तक, काले परदे से ढका हुआ क्यों था? क्या वे परदे को उतार कर फेंक नहीं सकती थीं? इतने क्रांतिकारी विचार और परदानशीनी एक साथ कैसे चल सकते हैं? इसके जवाब में हिसा ने कहा कि ‘मुझे किसी का डर नहीं है। मैंने पूरा परदा इसलिए किया ताकि मेरे घरवालों को मुश्किल न हो। हम एक कबायली समाज में रहते हैं और वहां के लोगों की मानसिकता में परिवर्तन नहीं आया है।’ आएगा हिसा, परिवर्तन आएगा। आनेवाले वर्षों में तुम जैसी लड़कियां घर-घर में पैदा होंगी और अपने साथ-साथ दुनिया को भी आजाद कराएंगी।यह भी नारीवाद का एक चेहरा है। इसमें भी विद्रोह है, लेकिन अपने धर्म की चौहद्दी में। यह जाल-बट्टे को एक तरफ रख कर हजरत साहब की मूल शिक्षाओं तक पहुंचने की एक साहसी कार्रवाई है। इससे संकेत मिलता है कि परंपरा के भीतर रहते हुए भी कैसे तर्क और मानवीयता का पक्ष लिया जा सकता है। अगला कदम शायद यह हो कि धर्म का स्थान वैज्ञानिकता ले ले। नारीवाद को मानववाद की तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए यह आवश्यक होगा। अभी तो हमें इसी से संतोष करना होगा कि धर्म की डाली पर आधुनिकता का फूल खिल रहा है।
परंपराओं के अजीबोगरीब घालमेल
नसीब खान ने हाल ही में अपने बेटे प्रकाश सिंह की शादी राम सिंह की बेटी गीता से की. तीन महीने पहले हेमंत सिंह की बेटी देवी का निकाह एक मौलवी की मौजूदगी में लक्ष्मण सिंह से हुआ. माधो सिंह को जब से याद है वो गांव की ईदगाह में नमाज पढ़ते आ रहे हैं मगर जब होली या दीवाली का त्यौहार आता है तो भी उनका जोश देखने लायक होता है.
नामों और परंपराओं के इस अजीबोगरीब घालमेल पर आप हैरान हो रहे होंगे. मगर राजस्थान के अजमेर और ब्यावर से सटे करीब 160 गांवों में रहने वाले करीब चार लाख लोगों की जिंदगी का ये अभिन्न हिस्सा है. चीता और मेरात समुदाय के इन लोगों को आप हिंदू भी कह सकते हैं और मुसलमान भी. ये दोनों समुदाय छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों से मिलकर बने हैं और इनमें आपसी विवाह संबंधों की परंपरा बहुत लंबे समय से चली आ रही है. खुद को चौहान राजपूत बताने वाले ये लोग अपना धर्म हिंदू-मुस्लिम बताते हैं. उनका रहन-सहन, खानपान और भाषा काफी-कुछ दूसरी राजस्थानी समुदायों की तरह ही है मगर जो बात उन्हें अनूठा बनाती है वो है दो अलग-अलग धर्मों के मेल से बनी उनकी मजहबी पहचान.
ये समुदाय कैसे बने इस बारे में कई किस्से प्रचलित हैं. एक के मुताबिक एक मुसलमान सुल्तान ने उनके इलाके पर फतह कर ली और चीता-मेरात के एक पूर्वज हर राज के सामने तीन विकल्प रखे. फैसला हुआ कि वो इस्लाम, मौत या फिर समुदाय की महिलाओं के साथ बलात्कार में से एक विकल्प को चुन ले. कहा जाता है कि हर राज ने पहला विकल्प चुना मगर पूरी तरह से इस्लाम अपनाने के बजाय उसने इस धर्म की केवल तीन बातें अपनाईं—बच्चों को खतना करना, हलाल का मांस खाना और मुर्दों को दफनाना. यही वजह है कि चीता-मेरात अब भी इन्हीं तीन इस्लामी रिवाजों का पालन करते हैं जबकि उनकी बाकी परंपराएं दूसरे स्थानीय हिंदुओं की तरह ही हैं. हर राज ने पहला विकल्प चुना मगर पूरी तरह से इस्लाम अपनाने के बजाय उसने इस धर्म की केवल तीन बातें अपनाईं—बच्चों को खतना करना, हलाल का मांस खाना और मुर्दों को दफनाना. यही वजह है कि चीता-मेरात अब भी इन्हीं तीन इस्लामी रिवाजों का पालन करते हैं।
मगर चीता-मेरात की इस अनूठी पहचान पर खतरा मंडरा रहा है. इसकी शुरुआत 1920 में तब से हुई जब आर्य समाजियों ने इन समुदायों को फिर पूरी तरह से हिंदू बनाने के लिए अभियान छेड़ दिया. आर्यसमाज से जुड़ी ताकतवर राजपूत सभा ने समुदाय के लोगों से कहा कि वो इस्लामी परंपराओं को छोड़कर हिंदू बन जाएं. कहा जाता है कि कुछ लोगों ने इसके चलते खुद को हिंदू घोषित किया भी मगर समुदाय के अधिकांश लोग इसके खिलाफ ही रहे. उनका तर्क था कि उनके पूर्वज ने मुस्लिम सुल्तान को वचन दिया था और इस्लामी रिवाजों को छोड़ने का मतलब होगा उस वचन को तोड़ना.
अस्सी के दशक के मध्य में चीता-मेरात समुदाय के इलाकों में हिंदू और मुस्लिम संगठनों की सक्रियता बढ़ी जिनका मकसद इन लोगों को अपनी-अपनी तरफ खींचना था. अजमेर के आसपास विश्व हिंदू परिषद ने भारी संख्या में इस समुदाय के लोगों को हिंदू बनाया. उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए इस संगठन ने गरीबी से ग्रस्त इस समुदाय के इलाकों में कई मंदिर, स्कूल और क्लीनिक बनाए. विहिप का दावा है कि चीता-मेरात पृथ्वीराज चौहान के वंशज हैं और उनके पूर्वजों को धर्मपरिवर्तन के लिए मजबूर किया गया था.
मगर समुदाय का एक बड़ा हिस्सा अब भी इस तरह के धर्मांतरण के खिलाफ है. इसकी एक वजह ये भी है कि हिंदू बन जाने के बाद भी दूसरे हिंदू उनके साथ वैवाहिक संबंध बनाने से ये कहते हुए इनकार कर देते हैं कि मुस्लिमों के साथ संबंधों से चीता-मेरात अपवित्र हो गए हैं.
इस इलाके में इस्लामिक संगठन भी सक्रिय हैं. इनमें जमैतुल उलेमा-ए-हिंद, तबलीगी जमात और हैदराबाद स्थित तामीरेमिल्लत भी शामिल हैं जिन्होंने यहां मदरसे खोले हैं और मस्जिदें स्थापित की हैं. जिन गांवों में ऐसा हुआ है वहां इस समुदाय के लोग अब खुद को पूरी तरह से मुसलमान बताने लगे हैं. हिंदू संगठनों के साथ टकराव और प्रशासन की सख्ती के बावजूद पिछले दो दशक के दौरान इस्लाम अपनाने वाले इस समुदाय के लोगों की संख्या उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है.
मगर इस सब के बावजूद चीता-मेरात काफी कुछ पहले जैसे ही हैं. हों भी क्यों नहीं, आखिर पीढियों पुरानी परंपराओं से पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता. समुदाय के एक बुजुर्ग बुलंद खान कहते हैं, हमारा दर्शन है जियो और जीने दो. लोगों को ये आजादी होनी जाहिए कि वो जिस तरह से चाहें भगवान की पूजा करें. खान मानते हैं कि उनमें से कुछ अपनी पहचान को लेकर शर्म महसूस करते हैं. वो कहते हैं, लोग हमें ये कहकर चिढ़ाते हैं कि हम एक ही वक्त में दो नावों पर सवार हैं. मगर मुझे लगता है कि हम सही हैं. हम मिलजुलकर साथ-साथ रहते हैं. हम साथ-साथ खाते हैं और आपस में शादियां करते हैं. धर्म एक निजी मामला है और इससे हमारे संबंधों पर असर नहीं पड़ता.

सिनेमा में भारतीय नारी

अब्दुल्ला
रंगमंच और सिनेमा में नारी´´सिनेमा के पहले रंगमंच के ज़रिए ही मानवीय भावनाओं का प्रदशZन किया जाता था। शुरूआती दौर में नाटकों में भी सिनेमा की तरह पुरूष ही स्त्री पात्रों के रूप में भावाभिव्यक्ति करते थे। इसे देखकर कलाकार के कला की सराहना तो की जाती थी परन्तु अन्तत: एक अधूरापन और असन्तोष सा मन में घर किए रहता था। समय बाद जब स्त्रियां भी रंगमंच पर उतरीं तो मानो नाटकों या नृत्यनाटकों में प्राण का संचार हो गया। यह तो होना ही था पुरूष की जिजीविषा जो अब उसके साथ थी। बंगाल का `न्यू थियेटर्स ¥ उन दिनों नाट्य कला के क्षेत्र में सर्वाधिक सम्मानित स्थान पर था और गिरीशचन्द्र घोष जैसे नाटककार ने पहली बार अपने नाटकों में स्त्री का समावेश किया। ठाकुर गिरीशचन्द्र के नाटक देखने के लिए दक्षिणेश्वर से कोलकाता जाया करते थे और उन्होंने रंगमंच की प्रख्यात नायिका नोटी विनोदिनी के अभिनय की बड़े उदार मन से सराहना भी की थी। ठाकुर का मानना था कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्री का एक महत्वपूर्ण स्थान एवं पृष्ठभूमि होती है जिसे उन्होंने अपने जीवन में मां शारदा के साथ निभाया।...मुश्किल ये थी कि फिल्मों में नारी प्रवेश एक लम्बे समय तक विवादित समझा जाता रहा। वो कर भी क्या सकती थीर्षोर्षो उन दिनों उसकी सीमाएं निश्चित हुआ करती थीं। घर से बाहर निकलना भले ही अब कोई मुश्किल कार्य नही था पर पर्दा तोड़ना अब भी बड़ा दबंग निर्णय समझा जाता था। ऐसे में नारी ने कभी पुरुष समाज के अहं को चोट नही पहुंचाई पर भला कब तकर्षोर्षो उसे तो ईश्वर ने उत्पन्न ही इस कार्य विशेष के लिए किया था कि एक दिन वो इस पूर्वाभास से ग्रस्त पुरुष समाज के झूठे अहं और एकाधिकार को अपने एक निभीZक क़दम से चकनाचूर कर दे और उसने किया भी वही, यह कार्य नारी ने किसी प्रतिशोध की भावना से नही किया उसकी नीयति में तो इतिहास रचना लिखा था।बॉम्बे टॉकीज़ की बढ़ने वाली रौनक का केवल एक ही कारण था और वह थी औरत। उसका फिल्मी दुनिया में प्रवेश बिल्कुल ऐसा था जैसे सूखे की धरती पर सहसा वषाZ जल का प्लावन हो। फिल्मों के संवाद, पटकथा, निर्देशन यहां तक कि फिल्मों का गीत संगीत भी नारी आगमन से अपना चोला बदलने की सोचने लगा। एक नए युग का आगमन ही कहेंगे इसे...वो पहली बार कैमरे के समक्ष आई और दावे के साथ कहती हूं कि कैमरे की आंखो ने उसके रुप का अनुभव करते ही अपनी भूल को स्वीकारा। स्त्री का सत्य स्वरुप तो ईश्वर की वह अनुपम कृति है जिसका स्थान कोई भी अनुचित छद्म अनुकृति नही ले सकती थी। उसका अप्राकृतिक रुप अब सिनेमा के पर्दे से बाहर जा चुका था। नारी का जो रुप सिनेमा से दृष्टिओझल हो गया उसका विवरण दिए बिना आगे बढ़ी तो अनुचित समझा जाएगा।पुरुष को नारी के रुप में देखना आज जितना अनुचित मालूम देता है पहले यह उतना ही रोचक हुआ करता था। दादा साहब फालके की अमर कृति ``सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र´´ मेें पुरुषों का नारी रुप कहीं जाकर इतना असफल नही रहा कारण था उस चलचित्र का स्वर विहीन होना। केवल आकृतियों मात्र से स्त्री का आभास कराने वाले इस चलचित्र में स्त्री का होना ना होना कहीं जाकर इतना मायने नही रखता था, उस समय की तकनीक, चेहरे की भावनाओं को पढ़ने में इतनी सक्षम भी नही हुआ करती थीं। यदि ऐसा होता तो उनकी इस कृति को सदा मात्र एक अच्छे प्रयास के रुप में ही जाना जाता, ना कि एक अमर कृति के रुप में...यह कोई अतिश्योक्ति नही वरन् एक कड़वा सच है। यद्यपि यह वक्तव्य कई पुरुषों को नागवार गुज़रेगा परन्तु सच तो सच ही होता है। यह विचार योग्य तथ्य है कि यदि नारी की अनुपस्थिति इतनी सार्थक होती तो उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न उठ जाता।स्त्री तो हर जगह है, हर पुरुष की सार्थकता को सिद्ध करने के लिए उसके रुप विभिन्न हो सकते हैं परन्तु उसका कार्य सदा से यही रहा है ``पुरुष को सार्थक करना´´। उस समय से लेकर काफी समय बाद तक पुरुष उसकी भूमिका निभाते रहे। उनका चाल चलन हास्यास्पद तो था ही साथ ही देखने में बड़ा ही अटपटा सा लगता था, यद्यपि उन फिल्मों में पात्रों की बारीक़ी का कोई मतलब ही नही था साथ ही वह चलचित्र इतने पिछड़ी तकनीक का हिस्सा होते थे कि कोई साधारण समझ का व्यक्ति सरलता से फिल्म की कमियां नही पकड़ सकता था। इसी का एक लम्बे समय तक लाभ उठाया जाता रहा। युग परिवर्तन के साथ फिल्मी तकनीक और श्रेष्ठ हुई तो अब बहुत कठिन था कि नारी विकल्प से काम चल सकता। यूं भी अब उसे रोकना कठिन था। देविका रानी ने फिल्मों में ऐसी पहल कर दी थी जो इतिहास लिख रहा था। फिल्मों में उनका बिन्दास स्वरूप नारी को चर्चा में ला रहा था और फिल्मकारों की सोच में भी परिवर्तन आने लगा था। देखा जाए तो नारी की उपस्थिती सोच से कहीं अधिक की भीड़ को सिनेमाघर की तरफ खींच रही थी भला हमारे बुद्धिजीवी फिल्मकार इस जादू को कैसे अस्वीकार कर सकते थे। उन्हे मानना ही पड़ा कि स्त्री छुपी थी तब भी पुरूषों के लिए जिज्ञासा की वस्तु थी और जब प्रदर्शित हुई तब भी जिज्ञासा का विषय है कि किस प्रकार वो अपने संकोच और लज्जा को त्याग कर सिनेमा के पर्दे पर वह सब कुछ कर सकेगी जो घर की देहलीज़ के पीछे करती थी। एक साधारण व्यक्ति की कल्पना से परे था कि औरत घर के बाहर भी कोई जीवन जी सकती है। फिल्मकारों में मनुष्य के भीतर की जिज्ञासाओं केा शान्त करने की होड़ सी लग गई। स्त्री के कितने रूप हो सकते हैं, कितने रूप दर्शाए जा सकते हैं, छुपे हुए रूपों में ऐसे कौन-कौन से रूप हैं जिन्हें खुलकर फिल्म में इस्तेमाल किया जा सकता है। नारी चरित्र पर शोध होने लगे और फिर सामने आए मन मोहने वाले अतिरोचक चलचित्र जिन्हें देखकर पुरूष प्रधान समाज के भीतर तरह-तरह की चर्चाएं होने लगीं। कुछ ने इन बदलावों को स्वीकारा और कुछ अपने घरों की लड़कियों को और अधिक नज़रबन्द कर दिया कि कहीं उन्हें इस फिल्मी रोग की हवा न लगे। बचपन से ही इस उद्योग को समाज की दृष्टि में नीच और घृणित दशाZकर स्त्री को इस उिन्नत से दूर रखने का भरपूर प्रयास किया गया पर कब तकर्षोर्षो फिल्मकारों के घर में तो कन्याजन्म का होना बाधित नही था। लिहाजा अच्छे और समृद्ध घरों से स्त्रियां इस उद्योग में आने लगीं, और नतीजा आज सामने है। टैगोर परिवार की सुन्दर कन्या का फिल्मी दुनिया में आना एक एतिहासिक घटना रही, इसी प्रकार दक्षिण भारत और पिश्चम बंगाल के समृद्ध एवं सम्मानित परिवारों से इस उद्योग में प्रवेश कर रहीं नारियों का दबदबा पूरे भारतीय फिल्म उद्योग पर हो गया। सन् 1940 से 1980 तक लगभग 40 वषोZं के भीतर एक से एक खूबसूरत चेहरों ने फिल्मी दुनिया में प्रवेश ही नही किया बल्कि करोड़ों जनता को अपने अभिनय, सुन्दरता, नृत्य और अदाओं का दीवाना बना दिया। कहानी यहीं खत्म नही हुई केवल घरेलू स्वरूप में दिखने वाली स्त्री अब पर्दे पर सभी प्रकार के जीवन जी रही थी। उसने अच्छे-बुरे सभी कार्याें में पुरूष को बराबरी का सहयोग देना आरम्भ कर दिया था कभी-कभी तो कहानी की मांग के हिसाब से पर्दे पर जो काम पुरूष नही कर पाते थे उनमें यह कह कर नारी से सहायता लेने लगे कि ßये काम सिर्फ तुम कर सकती हो!Þ अब ये काम नायिका के रूप में अच्छा या खलनायिका के रूप में बुरा कुछ भी हो सकता था। नारी का केवल एक परिचय जो सफल न हुआ वो था उसे सुनहरे पर्दे पर मार-पीट करते देखना। कोमलता, सुन्दरता, चतुराई से जो भी वो करे अच्छा ही लगता है पर शारीरिक बल प्रदशZन बुद्धिविहीन व्यवहार या क्रोध में पागलपन का चरम उसके प्राकृतिक छवि को ठेस पहुंचाता था अत: इस भाग को छोड़ शेष सबकुछ समाज ने अन्तत: स्वीकार कर ही लिया और आज उसका स्वरूप फिल्मों में कैसा है यह तो सर्वविदित है। भारतीय समाज में केवल ऐसी स्त्रियों के लिए स्थान है जो जीवन के आधारभूत नियमों के अनुसार ही अपना जीवन जीए। समय और अनुभव ने यह सिखाया कि स्त्री की उपस्थिति कितनी महत्वपूर्ण और आवश्यक है। स्त्री-पुरूष के समान अधिकार एवं उचित विभाजन पर ही यह समस्त प्रकृति आधारित हैं,दोनों एक दूसरे के पूरक और जीवन का आधार हैं।

रविवार, 11 अप्रैल 2010

साभार राजीव साहेब का


एक हजार नक्सली... पुरानी रणनीति... और 76 जवान बने शिकार। हमले की निंदा हुई... बैठक हुई... बयानबाजी हुई.. बयान आया चूक हो गई। इन सबके बीच सबने कुछ न कुछ जरूर कहा... लेकिन बयानों से क्या हमारे वीर वापस लौट आएंगे। केंद्र और राज्य सरकार क्या जबाव देगी उन मांओं को जिनके घर का चिराग बुझ गया... क्या जवाब देगी उन बहनों को जिनकी राखियां कलाइयों को तरसेगी... विधवाओं की सूनी मां चीख-चीख कर सवाल करेगी... बच्चों की मायूस निगाहें कई खामोश सवालात करेगी? सवाल सिर्फ सरकार से नहीं उन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से भी किया जाएगा जो नक्सलियों के पैरवीकार हैं। महज एक दिन पहले ही देश के गृहमंत्री ने दावा किया था कि 2-3 साल में नक्सलियों का नामोंनिशां तक मिटा देंगे... और बस एक दिन बाद ही ये बयान देना पड़ा कि “सॉरी, कहीं न कहीं चूक हुई है।” चूक किसी की भी हो लेकिन कब तक चलेगा ये सब ? सरकार बैठक, समीक्षा और महज बयानबाजी कर अपनी जिम्मेवारियों से नहीं बच सकती। आखिर क्या वजह है कि नक्सली इतनी बड़ी संख्या में योजनाबद्ध तरिके से चक्रव्यूह रचते हैं और जवान उसमें आसानी से फंस जाते हैं। सरकार की खूफियां एंजेसियों और सुरक्षा व्यवस्था में जुटे लोगों को आईपीएल और सानिया-शोएब की शादी से शायद फुर्सत न मिल रही हो, तभी तो एक हजार नक्सली नाक के नीचे देश की सबसे बड़ी वारदात को अंजाम देकर बच जाते हैं और नेताओं को शहीदों के शव पर सियासत का एक और सुनहरा मौका मिल जाता है। कई दशक बीत गए, नक्सली लगातार वारदात करते रहे और संसद के गलियारों तक पहुंचने वाले लोग अपनी-अपनी रोटियां सेकते रहे। चीन और पाकिस्तान से लोहा लेने का दावा करने वाली सरकार मुट्ठी भर नक्सलियों के आगे घुटने टेक देती है... ऐसे में हम अपनी सुरक्षा को लेकर कितनी उम्मीद रख सकते हैं। तमाम संसाधनों के होते हुए भी नक्सलियों के फन को नहीं कुचलना सरकार की लाचारी को बता रही है... या तो सरकार इस मुद्दे पर संजीदा नहीं है या फिर वो इस मुद्दे को खत्म नहीं होने देना चाहती ताकि इसी बहाने वो सियासत करते रहें। लेकिन सवाल उन जिंदगियों का है जो ‘लाल जंग’ की भेंट चढ़ गए... सवाल उन परिवारों का है जो शहीदों के भरोसे थे और सवाल आपकी-हमारी हिफाजत का है... कई सुलगते सवाल मन को सुलगा रहे हैं... लेकिन जवाब कुछ नहीं मिल रहा? दिल अब भी ये मानने को तैयार नहीं है कि हमने 76 जवानों को खो दिया है... छत्तीसगढ़ लहूलुहान हो गया है और हमारा मन भी।


(इस पर हमारे करीबतर ने बेहद सख्त टिप्पणी की उनके वास्ते फिर से यह सुधार कर प्रकाशित कर रहा हूँ कल ही इसे प्रकाशित किया था कुछ सजग लोगों और बंधुओं ने सिर्फ साभार शब्द नहीं देने की वजह से मुझे चीटर - झूठा तक कह डाला भाई शुक्रिया जो आपने गलती की सजा तुरत फुरत दे दी आईये और अब मान जाईये कि मेरी मंशा कतई इस लेख के लेखक के रूप में जाहिर करना नहीं बल्कि इसे तो अपने पास सुरक्षित और संग्रह में रखना मकसद है मेरा भाई अनाम साहेब आइये और माफ़ फरमा दें आइन्दा ऐसी भूल नहीं करूँगा जी शुक्रिया.... जल्दबाजी में जनाब राजीव जी का साभार दर्शाना रह गया कृपा करके छमा सहित इस सुधार को स्वीकार करें)

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

आज पुरानी यादों से.....झांके बिन नहीं रहा गया ---=अब्दुल्ला

फ़िर वही मकाम आया है आज, जिससे गुज़रना हमारे दिलों पर फ़िर खंजर चलने से कम नहीं.आज ही के दिन हमारे मूसीकी़ की हसीन दुनिया में चमकता हुआ आफ़ताब गुल हो गया और छा गयी ऐसी तारीकी, कि आज तक हम उस उजाले के तसव्वूर में खुदी को भुलाये , खुद को भुलाये बस जीये जा रहे हैं.बचपन से हमने जब भी होश सम्हाला, अपने को इस सुरमई शाहानः आवाज़ की मोहोब्बत की गिरफ़्त में पाया, जिसे मेलोडी या सुरीलेपन का पर्याय कहा जाता रहा है.हम मश्कूर हैं इस सुरों के पैगंबर के, जिसनें हमारे जवानी को , एहसासात की गहराई को , प्यार की भावनाओं को परवान चढाया, और हमें इस लायक बनाया कि हम उस खुदा के साथ साथ उसके अज़ीम शाहकार की भी इज़्ज़त और इबादत कर सके.तब से आज तक वह नूरानी आवाज़ की परस्तिश सिर्फ़ मैं ही नहीं , आप सभी सुरों के दुनिया के बाशिंदे भी कर रहें है.काश होता ये कि मालिक हम सभी तुच्छ लोगों की ज़िंदगी में से कुछ दिनों को भी उनकी उम्र में जोड देते तो आज हम उस फ़रीश्ते की आवाज़ से मरहूम ना होते, और रोज़ रोज़ उनकी मधुर स्वर लहरीयों की छांव तले उस कुदरती मो’अजिज़ः को सुनते और बौराते फ़िरते.अभी वैसे भी मूसीकी़ के इस जहां में फ़ाकाकशी के अय्याम चल रहे है, और ऐसे में रफ़ी साहब की यादों में और उनके गाये हुए कालातीत गानों के सहारे ही मस्त हुए जा रहे हैं, अवलिया की तरह झूमें जा रहे हैं.आपको पिछले साल रफ़ी साहब की पोस्ट पर बताया ही था कि मैने अपने गायन के शौक का आगाज़ किया था उम्र के सातवें साल में उस बेहतरीन गीत से जिसे नौशाद जी नें फ़िल्म कोहिनूर के लिये राग हमीर में निबद्ध किया था, और रफ़ी साहब में अपनी पुरनूर आवाज़ में चार चांद लगा दिये थे -मधुबन में राधिका नाचे रे....उस दिन से रफ़ी जी के गानों का जुनून दिल में तारी हो रहा है.दिल दिन ब दिन हर गीत की गहराई में गोते खा कर नये नये आयाम खोज कर ला रहा है, हीरे मोती के खज़ाने निकाल रहा है. जैसे गीता को जितनी भी बार पढो उनती बार नये अर्थ निकल कर आते है, रफ़ी जी के गाये हर गीत को बार बार सुनने पर हर बार नया आनंद प्राप्त होता है.आज सुबह साडे़ छः बजे जब विविध भारती पर भूले बिसरे गीत में एक गीत सुना तो लगा जैसे रफ़ी साहब के लिये आज कुदरत भी सुबह सुबह तैय्यार हो कर सलाम करने आ गयी है.नाचे मन मोरा मगन तिकता धीगी धीगी.....मैं रोज़ जहां सुबह घूमने जाता हूं (अमोघ का स्कूल - डेली कॊलेज , इंदौर...) ,उसके रास्ते में ये गीत सुना.और संयोग ये कि हल्की हल्की बूंदा बांदी हो चुकी थी, और फ़िज़ा में वही एम्बियेंस घुल रहा था .उस माहौल को मैने कॆमेरे में कैद कर लिया, जहां बदरा गिर आये थे भीगी भीगी रुत में . मोर भी अपनी प्रियतमा के लिये नहीं आज खास तौर पर स्वयं रफ़ी जी के लिये ही अपने मोरपंखों को फ़ैलाये नृत्य कर रहा था. यकीन मानिये, इस फ़िल्म में कोई स्टॊक सीन नहीं है, बस आज प्रकृती नें भी रफ़ी जी के लिये अपना इज़हारे अकीदत पेश किया है.मानो रफ़ी जी के ही लिये ये पूरा महौल खास आज के लिये निर्मित किया गया हो.आज से हम हर तीसरे दिन मुहम्मद रफ़ी जैसी शक्सि़यत पर कुछ ना कुछ लिखेंगे.कुछ दिल से दिल की बात करेंगे, और अपने अपने दिलों को सुरों के इस राह पर ले जायेंगे, जिसका रहनुमा भी रफ़ी जी हैं और मंज़िल भी रफ़ीजी . कि़यामत आती हो तो आने दो.आईये, हम सभी श़ख्सी़ तौर पर उस पाक रूह की तस्कीन के लिये मिल कर दुआ करें, क्योंकि अब हमारे हाथ में दुआ करने के अलावा और कुछ भी नहीं जो उस श़क्स़ को नज़र कर सकें....तेरे गीतों में बाकी़ अब तलक वो सोज़ है, लेकिन..वो पहले फ़ूल बरसाते थे, अब दामन भिगोते हैं.......
नौशाद और रफ़ीनौशाद और रफ़ी जी के अद्वितीय जुगलबंदी का जलवा जो मेला फ़िल्म के गीत से दुनिया के नोटीस में आया वह दुलारी फ़िल्म के गाने - सुहानी रात ढ़ल गई , ना जाने तुम कब आओगे? के बाद और परवान चढा़ और मोहम्मद रफ़ी का नाम हर फ़िल्मी गीत सुनने वाले की ज़ुबान पर चढ़ गया. जब सहगल के साथ रफ़ी जी नें गाया तो हर गायक की तरह रफ़ी जी पर भी उनकी गायन शैली का प्रभाव पडा़. या यूं कहें, उस समय का गाने का तौर तरीका या स्टाईल ही सहगल की शैली पर आधारित था.मगर रफ़ी साहब के गले का मूल Timbre या स्वर स्वरूप मीठास लिये साफ़ सुथरा था.उन्हे सहगल के धीर गंभीर खरज की आवाज़ जैसा बनाने के लिये बडा़ प्रयत्न करना पडता था. ये नौशाद ही थे जिनने रफ़ी की रेंज और तार सप्तक में(याने ऊपर के ऒक्टेव में)पूरी एनर्जी लेवल से गा पाने की क्षमता का आकलन किया और उसका उपयोग एक अलग शैली विकसित कर हम जैसे संगीत प्रेमीयों पर अहसान किया. बाद में इसी तरह लता जी नें भी नूरजहां या सुरैया की शैली से बाहर निकल कर स्वयं की साफ़ और मीठास भरी गायक शैली की पहचान बनाई. मैं यहां ये नहीं कहना चाहूंगा कि सहगल या नूरजहां की शैली में कोई खराबी या गलती नहीं थी, मगर फ़िल्मों की पेस या चाल की तरह गानों में भी लय, स्पीड बढी़, और उस नये वातावरण में रफ़ी की आवाज़ नें उस गॆप को बखूबी भरा.इस बात पर नौशाद जी नें ये संस्मरण बताया था , कि रफ़ी जी भी खरज या लोवर ऒक्टेव में ही गीत गाते थे तो फ़िल्म दीदार के गानों की रिकोडिन्ग के दिनों में नौशाद नें रफ़ी से जब ये कहा की तुम्हारा आवाज़ खरज में यूं म्लान लगता है, जैसे की गला दबा रखा है. ज़रा खुल के गाओ, और गांभीर्य का पुट जरा हलका करो, ताकि जवां और अपरिपक्व नायक के नये चरित्र का प्रोजेक्शन हो सके.रफ़ीजी को बात जंच गई.मगर उन्होनें नौशाद साहब से ही कहा कि आप ही कोई ऐसी धुन बनायें तो मैं उसे गाने की कोशिश कर सकूंगा.तो उस कालजयी गाने की धुन नें जन्म लिया -मेरी कहानी भूलने वाले, तेरा जहां आबाद रहे..जब ये धुन नौशाद नें रफ़ी को सुनाई, तो पहली बार तो वे सुन कर एकदम अवाक ही रह गये, क्योंकि उससे पहले दिल्लगी, अनमोल घडी़ , मेला आदि फ़िल्मों की धुनों से ये तर्ज़ एकदम अफ़लातून ही थी.फ़िर भी रफ़ी ने ये चेलेंज सर आंखों पर लेकर रात दिन मेहनत की. कई बार नौशाद जी को फ़िर पूछा कि यहां समझ नही आ रहा है, कृपया फ़िर से बतायें. उस नई शैली के गीत को इस तरह कई बार मांजा गया, क्योंकि उस समय नौशाद नें वहां वहां थोडा़ मुरकी में या स्वरों के उतार चढाव में बदलाव किया जिससे रफ़ी जी के गले की तरलता की , लचीलेपन के अनोखे गुण से गीत के माधुर्य में मेलोडी़ में अद्भुत रसोत्पादन हो सके.साथ साथ वे रफ़ी जी के आत्मविश्वास को भी बढा़वा देते रहे.आखिर एक दिन आया और रफ़ी जी नें कहा मैं तैयार हूं और आनन फ़ानन में दो तीन ट्रायल में ही गाना रेकोर्ड़ कर डाला!!संयोग से इस फ़िल्म के नायक युसुफ़ दिलीप कुमार , निर्देशक नितिन बोस भी इस ध्वनिमुद्रण के समय एच एम वी के फ़्लोरा फ़ाउंटन के स्टुडियो में हाज़िर थे. जब रफ़ी रिकोर्डिंग खत्म कर रूम से बाहर आये तो दोनों नें रफ़ी जी को कस के गले लगा लिया, और कहने लगे कि ये गाना हिट होने से कोई भी नहीं रोक सकेगा. उन दिनों गाना फ़िल्म के लिये ध्वनि मुद्रित तो होता ही था जो फ़िल्म के ओरिजिनल साउंड़ ट्रेक के हिसाब से बनाया जाता था, जिसमें तीन स्टॆन्झा होते थे .मगर साथ में 78 rpm की डिस्क जिसे हम रिकोर्ड कहते थे,के लिये भी अलग ट्रॆक रिकोर्ड होता था, क्योंकि सीमित जगह की वजह से अमूमन दो ही स्टॆंन्झा उसमें आ पाते थे. इसीलिये आप को मालूम ही होगा कि रेडियो पर या अधिक जगह पर वही संस्करण बाज़ार में सुना जाता था. बाद में जब लॊंन्ग प्लेयिंग रिकोर्ड का उद्भव हुआ तो वहां हम लोगों के लिये ओरिजिनल साउंड़ ट्रेक उपलब्ध होनें लगा.तो उस समय उर्जावान गानें की आपाधापी में रिकोर्डिस्ट जी एन जोशी बोले, कि अभी समय है, अगर रफ़ी जी थक नहीं गये हों तो दूसरा वर्शन भी आज ही कर लें? रफ़ी जी नें तपाक से हां भर ली, और दूसरा वर्शन भी आनन फ़ानन में मुद्रित हो गया. तो जोशी जी जिन्होने इससे पहले कई गायकों को रिकोर्ड किया था ,नौशाद साहब से बोले- नौशादसहाब, ये नौजवान गायक तो निराला ही है, कोहिनूर से भी ज़्यादा चमक पैदा करेगा, इंडस्ट्री में खूब कामयाबी हासिल करेगा. नौशाद बोले- इंशाल्लाह !!!चलो , सुनते है- मेरी कहानी ..आपने सुना और देखा- स्थाई में रफ़ी जी खरज में पंचम तक और अंतरे में तार सप्तक में भी पंचम तक चले जाते है !! क्या बात है, किस अजब , गज़ब रेंज का मुजहिरा किया है जनाब . मगर ये भी मानना पडेगा कि अभिनय के सम्राट दिलीप कुमार इस गाने के उत्तुंग स्वरों को अभिनय के साथ मिलान नहीं कर पाये...(क्या आप सहमत है?)और फ़िर क्या था, ऐसे खुली आवाज़ वाले गानों का चलन बढने लगा और उस शैली का विकास हुआ जिसमें खुले स्वर के साथ True Notes का उपयोग कलात्मक मुरकियों और संवेदनशील भावना से भीगे स्वरों का अभिर्भाव हिंदी फ़िल्मों के हुआ , जो अब तक चलता आ रहा है. (बाद में किशोर कुमार नें True notes के साथ साथ False notes की सुरमई संमिश्रण की शैली विकसित की जिसका वृहद रूप आज के गायकों की गायन शैली में दिखता है- इसका जिक्र बाद में जब हम किशोर और रफ़ी के स्वरों का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे, अगले किसी पोस्ट में)रफ़ी जी नौशाद साहब नें की हौसला अफ़ज़ाई को कभी भूल नही पाये, और उनके स्वभाव में भी ये बर्ताव रच बस गया, जो बाद में कई स्थान पर हमें देखने को मिला. नौ्शाद साहब हमेशा उनके गॊड फ़ादर रहे.जब रफ़ी जी की बिटिया की शादी का न्योता देनें रफ़ी नौशाद जी के यहां पहुंचे तो कहा आपको आना है, निकाह का इंतेज़ाम और पार्टी ताजमहल होटल पर रखी है, तो नौशाद जी नें उन्हे कहा - कि अपनी बिटिया नें अपना बचपन अपने घर में गुज़ारा है, जहां लाखों यादें और भावनांयें उस वास्तु के साथ बाबस्ता हैं , तो मेरा सुझाव है कि आप शादी तो अपने घर से ही करिये, भले ही वह छोटी जगह है.वही हुआ , शादी उनके घर में (रफ़ी विला) ही हुई.बकौल नौशाद के - एक साल बाद, जब रफ़ी नाम का ये सूरज अर्श पर स्थापित हो गया था, तो बैजु बावरा फ़िल्म के एक गानें के बारे में एक विशेष प्रभावित करने वाला संस्मरण सुनिये.इस फ़िल्म में छोटा बैजु और उसके पिताजी रास्ते पर से साचो तेरो नाम नाम गाते गाते तानसेन की हवेली के सामने से जाने का प्रसंग था.इस गीत के लिये बैजु बावरा के पिता की आवाज़ के लिये मैने रफ़ी का चयन किया, और बैजु की बालक आवाज़ के लिये एक गुणी और तैयार बच्चे का चयन किया, जिसका इस तरह का प्ले बॆक देने का पहला ही अवसर था.ज़ाहिर है, वह रफ़ी जी के सामने कभी बिचकने या डरने लगा तो कभी घबराकर अटकने लगा. तो रफ़ी जी नें उस प्रतिभावान बालक को प्रेम से पुचकार कर गले से लयाया और उसका आत्मविश्वास जागृत किया.ये भी कहा कि बेटा घबराने की कोई बात नहीं है, तुम जब तक बोलोगे या संतुष्ट होगे , हम लोग गाते रहेंगे. बडी मेहनत के बाद वह गीत तैय्यार हुआ और बेहद अच्छा बना.पता है वह बालक कौन था- आज का प्रसिद्ध गायक, और संगीतकर हृदयनाथ मंगेशकर...!!!रफ़ी जी पर कडी़ और आगे भी- सी रामचन्द्र, महेंद्र कपूर , चित्रगुप्त , ओ पी नय्यर , जिन्हे हम इस जनवरी में याद कर रहे हैं जन्म दिन या बरसी पर, उनके साथ रफ़ी के गीतों को और उनके साथ यादों की जुगाली करेंगे - हम लोग...
ना जाने तुम कब आओगे- रफ़ी और नौशाद - Musical Legends पिछली बार मैंने आप से वादा किया था कि रफ़ी साहब के साथ भारतीय फ़िल्म जगत के एक महानतम संगीतकार जनाब नौशाद अली के बारे में कुछ लिखूंगा.वैसे आप लोग तो मेरे वादों से तंग आ गये होंगे. मुझे याद है, मैने ’दिलीप के दिल से ’ की संगीत ब्लॊग यात्रा शुरु की थी तो बाकायदा रफ़ी साहब के लिये एक Structured , योजनाबद्ध लेखमाला शुरु की थी. आपमें से कई लोगों के लिये अब भी शायद उसे पढना अच्छा लगे.मगर , भावुकता और प्रेमवश और साथ ही में तिथियों के लिहाज से अलग अलग विषयों पर लिखना शुरु किया.कभी समय अभाव रहा तो अधिकांश ब्लॊग समय से लेट ही लिख पाया.वैसे मैंने सोचा था कि समय पर सभी लिखेंगे, अगर मैंने बाद में भी लिखा तो क्या, ठीक तो लिखना ही पडेगा.तो देखा आपने, मैने पहले भी रफ़ी जी पर ७ पोस्ट लिख डा़ले है, और एक पोस्ट थी रफ़ी और नौशाद का अज़ीम शाहकार - मधुबन में राधिका नाचे रे...अभी पिछले हफ़्ते २४ दिसेंबर को रफ़ी साहब का और २५ दिसेंबर को नौशाद जी का जन्म दिन था. तो ये पोस्ट उन दोनों के नाम समर्पित है.आगे भी वही पुरानी प्लानिंग के हिसाब से चल देंगे, सिर्फ़ एक उस पोस्ट को लिख कर जिसका वादा किया था - एस.डी.बर्मन,गुरुदत्त, प्यासा,हेमंत कुमार ,साहिर, रफ़ी सबसे जुडा एक संस्मरण.( फ़िर वादा..वादा तेरा वादा..)रफ़ी और नौशाद ये दोनो नाम एक दूसरे के पूरक रहे हैं इसमें कोई शक नही. रफ़ी साहब नें तो इतने सारे संगीतकारों के साथ काम किया, मगर नौशाद नें रफ़ी के अलावा बाकी गायकों के साथ अनुपात से कम ही काम किया.इसके बारे में नौशाद नें हमेशा कबूल किया था कि उनकी धुनों को सबसे बेहतर सिर्फ़ रफ़ी ही गा सकते थे.अब देखिये ना. सन १९४४ में किसीने रफ़ी जी को नौशाद जी के वालिद से मिलवाया और उन्होने नौशाद जी के लिये एक शिफ़ारशी खत लिख कर दिया. नौशाद नें उसका मान रखते हुए रफ़ीजी को एक कोरस गीत में सबसे पहले चांस दिया -पहले आप (१९४४)जिसमें उनके सह गायक थे दुर्रानी, श्याम कुमार, अल्लाउद्दिन, मोतीराम आदि.गाने के बोल थे -" हिन्दोस्तां के हम है, हिन्दोस्तां हमारा, हिंदु मुस्लिम दोनों की आंखों का तारा " .चूंकि उन दिनों माईक एक ही हुआ करता था, सभी गायक उसे घेर के खडे हुए. सैनिकों पर फ़िल्माये इस गीत के मार्चिंग रिदम के लिये सभी गायकों को आर्मी के बूट पहनाये गये और ओरिजिनल ध्वनी रिकोर्ड की गयी.१९ वर्ष के रफ़ी के पैरों में छाले पड गये थे. मगर वो था उनके करियर का आगाज़, और वे थे एक उदियमान कलाकार,क्या बोल पाते?मगर यहां एक बात जो कम लोगों को मालूम होगी बताना चाहूंगा, जिससे, रफ़ी जी के निर्मल और गर्व रहित चरित्र का दर्शन होता है.वह उस समय की बात है, जब वे फ़िल्मी संगीत के सर्वश्रेष्ठ और मशहूर पार्श्वगायक हो गये थे, और लगभग ६०% से ज़्यादा के अनुपात में उन्हे गीत गाने को कहा जाता था.लगभग सन १९६४-६५ की बात थी, जब संगीतकार मदन मोहन फ़िल्म हकीकत के लिये एक भावुक प्रसंग का समर गीत रिकॊर्ड कर रहे थे जिसमें रफ़ी जी के साथ मन्ना डे,तलत महमूद और भूपेन्द्र भी सह गायक थे.होके मजबूर मुझे , उसने भुलाया होगा...उस समय तो निस्संदेह रफ़ी साहब का नाम ऊंचाईयों पर था.मगर परेशानी फ़िर भी वही थी, एक ही माईक. उस पर संयोग ये कि बाकी सभी गायक उनसे कद में थोडे लंबे ही थे. तो परेशानी ये दर पेश आयी कि माइक को किसके हिसाब से एड्जस्ट किया जाये? अब रफ़ी साहब के हिसाब से एड्जस्ट करते हैं तो बाकीयों को परेशानी, और रफ़ी जी से कहने का सवाल ही नही पैदा होता था ऐसा उनका स्टेटस था उन दिनों.मगर सरल और निश्छल मन के रफ़ी साहब ने खुद ही ये सुझाव दिया कि वे बाकी सभी के हिसाब से हाईट फ़िक्स कर दें, और वे किसी तरह से किसी स्टूल पर चढ कर गा लेंगे. तो साहब, आनन फ़ानन में स्टूल ढूंढा गया, मगर एक मिला भी तो थोडा छोटा पडा, जिससे रफ़ी साहब माईक से फिर भी नीचे ही रह गये. फ़िर भी रफ़ी साहब नें पूरे रिहल्सल में और फ़ाईनल टेक तक उस स्टूल पर चढ कर गाना रिकॊर्ड करवाया. और कमाल देखिये उनकी आवाज़ के थ्रो या एनर्जी लेवल का कि उनके स्वरों में और गले की जादुगरी की गहराई में कोई कमी नहीं आयी.(उन दिनों इतनी सारी तकनीकी मदत नही मिला करती थी)अभी कुछ सालों पहले, जब भूपेन्द्र नें लता मंगेशकर पुरस्कार समारोह मे बतौर कलाकार एक कार्यक्रम देनें इन्दौर आये थे, तब इस बात की पुष्टि स्वयम उन्होने की और कहा कि उनमें बडे़ कलाकार होने का कोई भी दंभ नहीं था. निसंदेह , उस समय के उपस्थित सभी गायकों में वे सबसे शीर्ष पर थे, मगर मन्ना दा,और तलत मेहमूद को पूरी श्रद्धा और इज़्ज़त देते थे और यही ज़ज़बा इन मूर्धन्य कलाकारों के व्यवहार में झलकता था.उस दिन ये दोनों भी काफ़ी असहज से थे ये देख कर कि इतना बडा कलाकार उनकी वजह से स्टूल पर खडा हो कर गाने में नहीं हिचकिचा रहा है.आप सभी ये बात तो जानते ही होंगे कि रफ़ी, किशोर दा, हेमंत दा, मुकेश, लता सभी सेहगल साहब के दिवाने थे, और दिल के अंदर एक सपना पाल के रखा था सहगल के साथ गानें का, मगर संयोग ये रहा कि सिर्फ़ रफ़ी जी का ही ये सपना पूरा हो पाया ,जब नौशाद जी नें ही दुबारा रफ़ी को मौका दिया सहगल के साथ गानें में फ़िल्म शहाजहान में ( १९४६) जब मजरूह द्वारा लिखे गये गीत " रूही रूही रूही, मेरे सपनों की रानी " में उन्हे दो लाईन गाने का मौका मिला.मगर असल में रफ़ीजी को वास्तव में एक असली पार्श्वगायक बनने का जब उन्हे नौशाद साहब नें ही फ़िर मौका दिया फ़िल्म अनमोल घडी में (१९४६)- तेरा खिलौना टूटा बालक जिसमें रफ़ी जी नें गायकी के साथ अदायगी का भी एक नया रंग भरा पार्श्वगायन की विधा में, और फिर शुरु हुआ एक नया युग.आप मेरी बात से सहमत होंगे कि इसके पहले के सुपर गायक सहगल जब गाते थे तो वे केवल अपने ही गाने पर पार्श्व गायन करते थे जो फ़िल्म के उनके चरित्र पर सूट करती ही थी. मगर जब बाद में पार्श्व गायन का ज़माना आगे आने लगा तो ज़रूरत पडनें लगी ऐसे गायकों की जो अलग अलग अभिनेताओं के अलग अलग चरित्र से ना केवल मेल खाये, गीत सुनते हुए श्रोता के मन में गायक और अभिनेता एकरूप हो जायें. रफ़ी साहब नें अपने अलग अंदाज़ से फ़िल्म इंडस्ट्री का चलन और फ़िल्मी गीतों का स्वरूप ही बदल गया, जिसे बाद में अन्य मूर्धन्य गायकों नें भी अपनाया और हमें इतनी अच्छी अच्छी कालजयी संगीत रचनाओं से धन्य धन्य कर दिया.मगर नौशाद साहब को रफ़ी जी को खोजने और बनाने का श्रेय ज़रूर जाता है, और ये वे ही तो थे जिन्होने ये पाया कि रफ़ी साहब की आवाज़ में ना केवल मधुरता थी, या दमदार थ्रो था, मगर उनकी आवाज़ में गज़ब की रेंज थी, ऊंचाई थी. उनकी आवाज़ की कशिश और दर्द की रवानी तो थी ही ,मगर उनके गले में जो जादुई हरकतें थी,जो तानें और आलाप का नियंत्रित मेनिफ़ेस्टेशन था, वो तो कुछ और ही बंदिश या धुन मांगता था. नौशाद जी नें ये चेलेंज स्वीकार किया और हमें ऐसी धुनें दीं, जो उनके उन दिनों की कम्पोझिशन से अलग थी- फ़िल्म मेला (१९४८) - ये ज़िन्दगी के मेले .फ़िर क्या था , सन १९४९ से एक से एक मधुर गीतों की झडी लग गयी- दुलारी, अंदाज़, चांदनी रात, दिल्लगी & So On....नौशाद ही वे संगीतकार थे, जिन्होने भारतीय संगीत की मेलोडी को गीतों में ढा़ला, शास्त्रीय रागों और लोकगीतों के अनमोल खज़ानों को आम आदमी के दिलों के भीतर उंडेल कर रख दिया, जिसके लिये हम उनके बडे ही शुक्रगुज़ार है.उनकी एक एक धुन मानों स्वरोंकी कशीदाकारी किये हुए पैरहन है.आज ही विविध भारती पर नश्र किये गये एक कार्यक्रम में खुद लता जी ने क्या खूब कहा - कि पहले हमारे संगीतकार जो गीत रचते थे उनमें गायक या गायिका का गाना प्रधान होता था, और रिलीफ़ देने, या स्वरों के अम्बियेन्स को और खुलाने के लिये ऒर्केस्ट्रा हुआ करता था. आजकल तो ऒर्केस्ट्रा प्रधान और सर्वोपरी हो गया है, और गायक को रिलीफ़ के लिये डाला जाता है. नौशाद साहब उस स्कूल के संगीतकार थे.एक और दिलचस्प बात.फ़िल्म अंदाज़ में नौशाद जी नें पहली बार लताजी के साथ एक ड्युएट गवाया रफ़ी जी के साथ- यूं तो आसपास में .. .क्या आपने नोट किया? इसे राज कपूर पर फ़िल्माया गया और दिलीप कुमार के लिये मुकेश जी नें गाया.( मैने ये फ़िल्म नही देखी है, मगर सुना है.आप कंफ़र्म करें तो बेहतर होगा)बाद में यही कॊंबिनेशन उलटा ही मशहूर हुआ ये आप सभी जानते है.चलो , ये कडी़ यहीं विराम चाहती है, अगले अंक में नौशाद और रफ़ी जी के अनेक खुशनुमा और हृदयस्पर्शी संस्मरण ले आऊंगा, अगर इज़ाज़त हुई तो.यहां उस गीत का एक अंश सुनवा रहा हूं , जो रफ़ी साहब का प्रथम गीत था.करीब ८ साल पहले इंदौर में रफ़ी साहब पर दिये गये एक कार्यक्रम- रफ़ी के अनेक भाव रंग मे प्रस्तुत करने के लिये मेरे आग्रह पर श्री संजय पटेल नें ये गीत मेरे लिये लाने की ज़ेहमत उठाई थी - श्री सुमन भाई चौरसिया के रिकॊर्ड भंडार में से - तो उस की विडिओ से निकाल कर यहां पेश कर रहा हूं.जीवन की सबसे बडी़ दुखद बात ये रही कि मेरे गायकी का इतना बडा लंबा सफ़र मैने वैसे तो मधुबन में राधिका नाचे गीत से सात साल की उम्र में किया, मगर बाद में संयोग से या दुर्भाग्य से, रफ़ी और नौशाद का एक भी गीत चाहते हुए भी स्टेज पर नही गा सका. ( सुहानी रात ढल चुकी- शायद एक बार गाया था)
बहुत पुरानी फाईलों में से आज एक नायब चीज मिल गई जनाब नौशाद साहेब से मुलाकात के तेईस दिन क्या यादें हैं उन दिनों की अपने आप को आज भी उन खास पलों के चलते बहुत भाग्यशाली मन्ना परता है मुझे एक पल नौशाद साहेब के पास तो दूसरे ही पल हसरत जयपुरी के पास वाह धन्य था मैं उन दिनों काश आज वो पल एक सेकेण्ड के लिए ही सही आ जाता आइये उन पलों के दौरान कलम से उगली कुछ दास्ताँ आपके लिए पेशे नजर है - जानकारी - साभार स्वयं नौशाद