मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

विचार - अब्दुल्ला

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।। कवि रहीम के इस दोहे का सार शायद यही हो सकता है कि अगर समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सुधार ले तो समाज में अवश्य सुधारात्मक परिवर्तन आएगा। हजरत मुहम्मद ने जिस इस्लाम धर्म का प्रवर्तन किया, उसका मूल उद्देश्य यही है कि मानव अपने मन और स्वभाव को एक ऐसा रूप दे, जिससे चारों ओर केवल प्रेम और अमन का संदेश फैले। किसी भी मनुष्य का जीवन जैसा होगा, किसी भी संप्रदाय का या समाज का जीवन जैसा होगा, उसके धर्म की व्याख्या भी वैसी ही होगी। मिलादुल नबी यानी नबी के जन्म का दिन और ईद यानी खुशी। ईद मिलादुलनबी हजरत मुहम्मद (स।) के जन्म की खुशी में मनाया जाने वाला त्योहार है। इसे त्योहार के रूप में मनाने का मकसद यह है कि हम हजरत की जिंदगी से प्रेरणा लें और उससे जीने का सलीका सीखें। अपने 23 साल के पैगंबरी जीवन में हजरत मुहम्मद (स.) ने अपनी कथनी एवं करनी से वही सब कुछ कर दिखाया, जिसकी अपेक्षा अल्लाह अपने बंदों से करता है। पैगंबरी की शुभ सूचना से पहले की उनकी जिंदगी के बारे में जो जानकारी मिलती है उससे साफ पता चलता है कि वे अनेक गुणों से संपन्न थे। लोग उन्हें मुहम्मद सादिक एवं मुहम्मद अमीन की उपाधि से पुकारते थे। उन्होंने वह सब कुछ कर दिखाया जो एक मनुष्य का आदर्श जीवन माना जा सकता है। हजरत मुहम्मद (स.) पैगंबर और महान शासक थे। मगर उनकी जीवन शैली आश्चर्यजनक रूप से साधारण थी। उन्होंने समानता का केवल सैद्धांतिक उपदेश नहीं दिया, बल्कि उसे व्यावहारिक रूप में भी प्रदर्शित किया।

आस्था और विश्वास आस्था और विश्वास का आपसी संबंध बड़ा गहरा है। दोनों के बीच एक सूक्ष्म दीवार होती है जो इनमें अंतर को चिह्नित करता है जिसे आमतौर पर परखा नहीं जा सकता, लेकिन इनकी प्रकृति पर ध्यान देने से अंतर स्पष्ट हो जाता है कि विश्वास आस्था की पहली सीढ़ी है और आस्था विश्वा की ठोस पायदान। विश्वास संबंधों और नफा-नुकसान के आधार पर बनते-बिगड़ते रहते हैं, लेकिन आस्था अटूट रहती है। आपसी परिचय के उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होने से परस्पर विश्वास जमता है और जब संबंधों में किंतु-परंतु की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती तो विश्वास की वह स्थिति आस्था कहलाती है। आस्था के टिके रहने की शर्त ही यही है कि आस्थाजन्य प्रतीक, व्यक्ति, वाद या सत्ता सर्वशक्तिमान भले न हो, सर्वगुणसंपन्न जरूर हो। प्रत्येक धर्म, संस्कृति और समाज के अपने मानदंडों के हिसाब से विश्वास और आस्था का निर्माण होता है। इसलिए प्रत्येक धर्म, संस्कृति और समाज के अपने विश्वास होते हैं और उसके मानने वाले या उसमें रहने वाले लोगों की उसमें आस्था होती है।आस्था रखने वाले की जिस प्रतीक, व्यक्ति, वाद या सत्ता में आस्था होती है, उस प्रतीक, व्यक्ति, वाद या सत्ता की स्थिति निश्चित रूप से आस्था रखने वाले उस व्यक्ति से और उसके आस-पास के लोगों और संसाधनों से ज्यादा शक्तिशाली और चमत्कारी होती है। विश्वास चूंकि दैनंदिनी की घटनाओं में समाहित रहता है, इसलिए आस्था की तुलना में इसकी व्यापकता ज्यादा होती है। दुनिया विश्वास के सहारे चलती है, क्योंकि इसमें तर्क की गुंजाइश रहती है। लोग बिना तर्क के किसी से सहमत नहीं होते, इसलिए कर्ता अपने कर्म का औचित्य प्रमाणित करने के लिए सामने वाले को अपने तर्कों से प्रभावित करने का प्रयास करता है। तर्क-वितर्क के आधार पर व्यवस्था कायम करने की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। साथ-साथ काम करने से आपसी विश्वास कायम होता है और उसके आधार पर कार्य-व्यापार संपन्न किए जाते हैं। विश्वास के लिए किसी महान या अतिमानवीय सत्ता की जरूरत नहीं होती। विश्वास के दायरे में सामान्य लोग ही आते हैं। लेकिन आस्था के लिए सत्ता का महान या अतिमानवीय होना जरूरी होता है। वह सत्ता सामान्य लोगों की पहुंच से बाहर होती है और उसकी कार्यशैली सबकी जानकारी में नहीं होती, इसलिए उस पर तर्क-वितर्क नहीं होता। आस्था रखने वाले लोगों में उस सत्ता द्वारा किए गए कर्म के प्रति औचित्य-अनौचित्य का भाव उत्पन्न नहीं होता। ऐसी सत्ता संख्या में बहुत कम होती है, इसलिए आस्था विश्वास की तुलना में कम व्यापक होती है।प्रत्येक धर्म, संस्कृति और समाज के अपने मानदंडों के हिसाब से विश्वास और आस्था का निर्माण होता है। इसलिए प्रत्येक धर्म, संस्कृति और समाज के अपने विश्वास होते हैं और उसके मानने वाले या उसमें रहने वाले लोगों की उसमें आस्था होती है। बुद्धि और विवेक के प्रयोग से लोग अपना विश्वास कायम करते हैं और विश्वास जब पुख्ता हो जाता है तो वह आस्था का रूप ले लेता है। फिर उसके टूटने या बिखरने की संभावना जाती रहती है। इस तरह खंडित होने की संभावना वाला विश्वास जब अखंडित हो जाता है तो आस्था बन जाता है। फिर वह सत्ता लौकिक हो या अलौकिक, हर तरह के तर्क से परे हो जाता है। बुद्धि-विवेक के हिसाब से यह स्थिति प्रशंसनीय नहीं होती है, लेकिन फिर भी आस्था वह भाव है जिसमें तर्क अपना समस्त अहमियत खो देता है।
ईश्वर तो आपके भीतर ही है। बस, आपको अपने अंतस पर ध्यान केंद्रित करना है। भगवान के करीब पहुंचना-यही आपके जीवन का अंतिम ध्येय होना चाहिए। आप विलय में जो पढ़ते हैं, निश्चित रूप से उससे आपके व्यक्तित्व का विकास होता है। लेकिन क्या यही सब कुछ है जिसे आप जीवन में पाना चाहते थे मसलन कारोबार, व्यवसाय, खेल आदि नही! तो आपको अपने आध्यात्मिक जीवन पर ध्यान केंद्रित करना होगा। आध्यात्मिकता ही अंतिम सत्य जानने में आपकी मदद करेगा। ईश्वरीयअनुभव के निकट जाकर ही आप अपना ध्येय पा सकते हैं। इसके लिए द्विदेह सिद्धांत को समझना होगा। इसके अनुसार पुरुष के शरीर में स्त्री का और स्त्री के शरीर में पुरुष का भी अंश होता है। ध्यान दीजिए आत्मा न तो स्त्री है, न पुरुष। पुरुष की आत्मा स्त्री की आत्मा जैसी ही होती है। एक-दूसरे से जुड़कर ये विराट सत्ता का निर्माण करती हैं अर्थात आत्मा अपने आप में संपूर्ण ब्रह्मïांड की ऊर्जा का एक अंश मात्र है। इसीलिए हर आत्मा स्वयं में ईश्वरीय संभावनाएं लिए रहती है। वह प्रेम, शांति, सुरक्षा और एकता में साकार होती है। अध्यात्म कोई व्यापार नहीं है। आत्म साक्षात्कार तभी हो सकता है जब आप अपने अंतर से जुड़ जाएं। हर आदमी स्वार्थ में लगा है। स्वार्थ में दुनियावी सफलताओं को मापने का पैमाना धन और संपत्ति है। लेकिन आत्म साक्षात्कार इतना अलौकिक और पवित्र अनुभव है कि पुराने समय में लोग अपना पूरा जीवन ही उसकी तलाश में लगा देते थे। अगर आप दुनियावी सफलताओं और चीजों में उलझे रहे तो आध्यात्मिक जिज्ञासा के लिए आपके पास समय नहीं रहता। आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए दुनियादारी तो भूलनी ही पड़ेगी। जो व्यक्ति अपने अंतस में अपना विकास करता है, वह ईश्वर के अनुकूल हो जाता है। वह शांत रहता है जबकि बाकी लोग बेचैन रहते हैं। जब लोग फिजूल की बातों में उलझे रहते हैं तब अपने अंतस में जीने वाला व्यक्ति मौन हो जाता है। वह अपने भीतर उतरता है जबकि दूसरे लोग बाहर झगड़ रहे होते हैं। ऐसा व्यक्ति आत्मिक संसार के उन दुर्लभ क्षेत्रों से जुड़ जाता है जो आत्मसाक्षात्कार के बाद संभव होते हैं। वहां आप खुद ही अपने सहायक और परामर्शदाता होते हैं।
उपासना

प्रार्थना प्रभु से जुडऩे का एक कारगर तरीका है। लोग विभिन्न प्रकार की प्रार्थनाएं करते हैं। कुछ लोग इस संसार की वस्तुओं के लिए प्रार्थना करते हैं। उदाहरण के लिए, आप एक बेहतर नौकरी की तलाश में हो सकते हैं। आप एक नया घर या नई कार की इच्छा कर सकते हैं। कुछ लोग स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते हैं, ताकि वे या उनका परिवार स्वस्थ हो जाए। कुछ ऐसे हैं जो प्रार्थना करते हैं कि उनके व्यक्तिगत संबंध बेहतर हो जाएं। फिर भी, अधिकतर लोग सांसारिक वस्तुओं के लिए ही प्रार्थना करते हैं। आमतौर से, जब हम प्रार्थना करते हैं तो हम प्रभु से अपने लिए कुछ मांगते हैं। हम हमेशा उन वस्तुओं के लिए प्रार्थना करते हैं, जिनके बारे में हम सोचते हैं कि वे फायदेमंद होंगी। उस समय, अपने जीवन के बारे में हमारी जानकारी सीमित होती है। कई बार, हम ऐसी चीज के लिए प्रार्थना कर सकते हैं जो हमारे अनुसार फायदेमंद हो पर अंत में वह चीज हमारे लिए फायदेमंद साबित नहीं होती। हम प्रार्थना करके कोई चीज प्राप्त कर सकते हैं, पर लंबे समय बाद देखते हैं कि वह हमारे लिए उचित नहीं है। इसलिए मैं समझता हूं, प्रार्थना का सही तरीका यह है कि हम प्रभु की इच्छा को अपनी जीवन में घटित होने दें। इसलिए, कई धर्मों में यह कहावत है, मेरी इच्छा नहीं, बल्कि आपकी इच्छा पूर्ण हो। क्यों? क्योंकि प्रभु हमारे जीवन में घटने वाली हर एक चीज से अवगत है। वह जानता है कि सचमुच हमारे लिए सर्वोत्तम क्या है। उदाहरण के लिए, हम सोच सकते हैं कि एक करोड़ रुपये की लॉटरी जीतना बहुत अच्छा होगा। पर हम यह नहीं समझते कि इतना पैसा मिलने के बाद, दो चीजें हो सकती हैं। हम बड़ी-बड़ी चीजों की खरीदारी में इतना ज्यादा व्यस्त हो सकते हैं कि हमारा ध्यान प्रभु से दूर हो जाए। या फिर हो सकता है कि हमारे सभी दोस्त इस धन में से कुछ हिस्सा लेना चाहें और अगर हम वह उन्हें न दें तो हमारी दोस्ती खत्म हो सकती है और हम अकेले पड़ सकते हैं। इसलिए, हम वास्तव में यह नहीं जानते कि हमारे लिए अच्छा क्या है। अपने सीमित दृष्टिकोण से, हम वह कुछ माँगते हैं जो हमारे विचार में अच्छा हो। पर अगर हम यह प्रभु पर छोड़ दें कि जो कुछ हमारे लिए सर्वोत्तम हो, वही वह दें, तब हम सच्ची प्रार्थना करते हैं।

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