अब्दुल्ला
6 अप्रैल 2010... वो तारीख़ जो शायद कुछ लोग भूल जाएंगे... क्योंकि उन्होनें अपनों को सिर्फ नाम के लिए खोया है... उन्हें गिनती आती है... वो फिर से गिनती करेंगे... और कहेंगे 76 जवान शहीद हो गए... हमें दुख है, अफसोस है... और कुछ कभी नहीं भूल पाएंगे... इसलिए... क्योंकि एक बार फिर किसी का भाई... किसी का बेटा... किसी का सुहाग... और किसी के सर से साया छिन गया है... ‘छत्तीसगढ़’ में अब तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला हुआ है... जिसमें इतने जवान शहीद हुए हैं... कुछ ने हमले की निंदा कि... नक्सलियों की कायरता करार दिया... तो किसी ने इस मामले में राजनीति कि... कहा कि राज्य सरकार नैतिक ज़िम्मेदारी ले और कुर्सी छोड़ दे... सवाल ये है कि क्या कोई इस हमले कि नैतिक ज़िम्मेदारी लेगा...? जिनकी ज़िम्मेदारी है... वो सिर्फ बयान देंगे... आपात बैठक लेंगे... रणनीति पर चर्चा करेंगे... अफसोस ज़ाहिर करेंगे... बड़ी चूक हुई है... ये भी मानेंगे... कहां चूक हुई है... इस पर समीक्षा करेंगे... और फिर से ये सारी बैठक... महज़ चिंतन पर ख़त्म हो जाएगी... कब तक...? आख़िर कब तक...? आर-पार की लड़ाई की बात कही जाएगी... क्या सिर्फ बैठकें ही होती रहेंगी या फिर कभी वो भी होगा... जिसकी कि अक्सर बात कही जाती है... क्या बातें कभी अमल में लाई जाएंगी...? क्यों बार-बार हमारी ही रणनीति नाकाम होती है...? क्यों बार-बार नक्सली कामयाब होते हैं... क्यों नक्सलियों के जाल में हमारे ही जवान उलझते हैं...? एक ही रणनीति नक्सली बार-बार अपनाते हैं... और उसी राह पर जवान भेज दिए जाते हैं... सिर्फ शहीद होने के लिए... इससे पहले भी इसी तरह के हमले हो चुके हैं... जिसमें नक्सली घात लगाकर बैठे थे... और 06 अप्रैल को भी यही हुआ... अगर ये केंद्र और राज्य का ज्वाइंट ऑपरेशन है... तब सीआरपीएफ के जवानों के साथ क्यों स्थानीय पुलिस फोर्स के जवान नहीं थे... अगर बाहर से आने वाले जवान जो कि चिंतलनार के भौगोलिक हालात से वाकिफ नहीं थे... क्यों उनके साथ किसी स्थानीय को नहीं भेजा गया...? हमेशा तालमेल बैठाने को लेकर ही बैठकें होती हैं... लेकिन तालमेल कहीं दिखाई नहीं देता... नक्सलवाद हमेशा से एक मुद्दा रहा है... जो देश के लिए इस वक्त सबसे बड़ा ख़तरा है... लेकिन राज्य और केंद्र की सरकारें हमेशा ही इससे बचती रही हैं... या भागती रही हैं... गृहमंत्री पी चिंदबरम की तारीफ करनी होगी... जिन्होने इसे ना सिर्फ गंभीर माना है बल्कि एक साहसिक क़दम उठाया है... लेकिन अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता... और शायद हमें भी इंतज़ार करना होगा... इंतज़ार... की इस बार सुबह गोलियों की आवाज़ों से ना हो... बल्कि चिड़िया की चहचहाहट से हो मुर्गे की बांग से हो... सूरज सुबह लालिमा लेकर ही आए... लेकिन वो रंग लालगढ़ के आतंक का ना हो... बल्कि एक ख़ुशनुमा सुबह हो...
शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010
वो तारीख जो लोग शायद भूल जायेंगे
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aap kee rachna padhee hai