शनिवार, 10 अप्रैल 2010

समूचा देश मंगलवार को अब तक के सबसे बड़े नक्सली हमले का गवाह बन गया। नक्सलियों द्वारा धोखे से की गई इस कायरतापूर्ण वारदात ने साबित कर दिया कि बर्बरता का जवाब बातों से कभी नहीं दिया जा सकता। साँप का फन कुचलने के लिए आपको उसके सिर पर लाठी ही जमाना पड़ेगी। वह पुचकारने से फूफकारना नहीं छोड़ेगा।सही अर्थों में इसे महज नक्सली हमला करार देना बड़ी भूल होगी। असल में यह सरकार और समाज के लिए ऐसी चेतावनी है, जो नक्सलियों से निपटने में नए तौर-तरीकों की खोज का आभास कराती है। जो बताती है कि नक्सली अब केवल क्षेत्र विशेष में फैले निरंकुश एवं असंतुष्ट 'अपने' नहीं रह गए। वे एक ऐसा अनुत्तरित सवाल हो गए हैं, जिसका जवाब ढूँढना न केवल जरूरी है, बल्कि हमारी मजबूरी भी।इस हमले के बाद संप्रग सरकार यह सोचने पर शायद विवश हो कि कहीं उसने इस समस्या की भयावहता को समझने में कोई गलती तो नहीं की। कहीं 'ऑपरेशन ग्रीन हंट' में सेना को शामिल न करने का उसका फैसला गलत तो नहीं था? इसके बाद तो गृहमंत्री चिदंबरम भी अपने उस बयान को लेकर मलाल कर रहे होंगे कि क्यों उन्होंने सोमवार को नक्सलियों को देश का सबसे बड़ा दुश्मन बताकर उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने की बात कही।यह हमला न तो चिदंबरम के बयानों का जवाब है, न ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के भाषणों का प्रत्युत्तर जो समय-समय पर देश के नाम दिए जाने वाले अपने संदेशों में नक्सलवाद को सबसे बड़ी चुनौती बताकर इसके खिलाफ राज्य सरकारों से सहयोग का आह्वान करते रहते हैं।यह हमला आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और निःसंदेह छत्तीसगढ़ में जारी ऑपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ है, जिसका शिकार पिछले दिनों नक्सलियों के कई बड़े नेता हो गए। कत्ल का यह खूनी खेल सरकार को यह समझाने की कोशिश है कि वह उग्रवादियों से बातचीत की उम्मीद न रखे। उन्होंने न कभी हिंसा छोड़ी है और न भविष्य में ऐसा करने का वे कोई इरादा रखते हैं। हालाँकि व्यवस्था को अपना दुश्मन मान समानांतर सरकार चलाने में यकीन रखने वाले नक्सलियों की हिंसा में अपने नेता कोबाड़ गाँधी की गिरफ्तारी के बाद से बढ़ोतरी हुई है। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में किशनजी के घायल होने से भी ये बुरी तरह बौखलाए हुए हैं।...लेकिन उनका पलटवार इतने बड़े पैमाने पर होगा, इसकी कल्पना न तो सुरक्षा बलों को थी और न ही खुफिया एजेंसियों को। यह भी तय है कि राज्य पुलिस में ऐसा कोई तंतू जरूर है, जिसने सुरक्षा बलों के इस ऑपरेशन के खिलाफ नक्सलियों को इत्तला की। वरना एक हजार लड़ाकों के साथ एंटी लैंड माइन टैंक को निशाना बनाने का दुस्साहस अचानक नहीं किया जा सकता। हालाँकि आज नहीं तो कल यह साफ हो जाएगा। जब कभी भी पता चले, उस 'भेदिये' को भी नक्सलियों के बराबर ही गुनहगार माना जाना चाहिए।वैसे इस हमले के बाद से खुद को नक्सली और माओवादियों का खैरख्वाह बताने वाले बुद्धिजीवी बड़े पसोपेश में होंगे कि करीब सौ जवानों की मौत को लेकर नक्सलियों की निंदा करें या इस बार भी नक्सलियों के खिलाफ सरकार को ही दोषी ठहराकर हमेशा की तरह कोसें।मानवाधिकार संगठनों के झंडाबरदार यह भी कह सकते हैं कि इस घटना में जरूर सीआरपीएफ की ही कोई गलती रही होगी, नक्सलियों का इसमें हाथ नहीं है। अगर ऐसा होता है तो इसमें किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। ज्ञात हो कि फरवरी में कोबाड़ गाँधी के गिरफ्तारी का विरोध करने दिल्ली आए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने ऑपरेशन ग्रीन हंट को खत्म करने की माँग की थी। तब दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल), पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स या पीयूडीआर जैसे संगठनों और गौतम नवलखा, रोना विल्सन, जीएन साईबाबा जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर ये आरोप लगाया था कि वे माओवादियों के नजदीकी हैं। तब ही से यह संगठन इस ऑपरेशन को बंद करवाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने में लगे थे।बहरहाल, नक्सलियों द्वारा इस हमले को सरअंजाम देने के बाद सरकार की तरफ से सुलह-सफाई और हिंसा छोड़ने कीअपील अपने आप ही खत्म मानी जानी चाहिए। (अगर सरकार इसे समझे तो) नक्सलियों को भी आतंकवाद का पर्याय मानते हुए उनके साथ बरती जाने वाली हर रियायत बंद होना चाहिए। अब वक्त आ गया है कि बातों की भाषा न समझने वाले नक्सलियों को उन्हीं की जुबान में नसीहत दी जाए।वैसे भी ऑपरेशन ग्रीन हंट में सुरक्षा बलों की तरफ से अभी तक ऐसी कोई उल्लेखनीय कार्रवाई नहीं सामने आई, जिसमें उन्होंने आगे रहकर उन पर हमला किया हो। ऐसे में देश के जवानों को विदेशों से आयातित गोलियों का शिकार बनाकर शहीद करवाना कोई बहादुरी नहीं है।

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