सोमवार, 5 अप्रैल 2010

पंथ आधारित आरक्षण

अब्दुल्ला

आंध्र प्रदेश में पंथ आधारित आरक्षण को कांग्रेस की तुच्छ राजनीतिक अवसरवादिता करार दे रहे हैं अब्दुल्लापिछड़े मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण देने के आंध्र प्रदेश सरकार के फैसले पर सम्मति जताकर सुप्रीम कोर्ट ने शायद अनजाने में ही सामाजिक विप्लव के बीज बो दिए हैं, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे और ये पूरी तरह भारत के हित में नहीं होंगे। सच है कि पंथ आधारित आरक्षण जिस पर 1950 में सर्वसम्मति नहीं बन पाई थी, सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण संवैधानिक पीठ को सौंप दिया गया है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने में समय लग सकता है, फिर भी आंध्र प्रदेश को मिली अनुमति निश्चित तौर पर आरक्षण की नई महामारी का आधार बनेगी। सामाजिक इंजीनियरिंग का नया अखाड़ा पहले ही तैयार हो चुका है। रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट में मुसलमानों को 10 प्रतिशत और दलित ईसाइयों को अतिरिक्त कोटे की अनुशंसा पर कांग्रेस का ध्यान है, जो महिला आरक्षण विधेयक को लेकर मुसलमानों की तीखी प्रतिक्रिया को ठंडा करने के उपाय तलाश रही है। पार्टी की दोषपूर्ण नीतियों में नए समीकरण तैयार किए जा रहे हैं। कांग्रेस पिछड़ी जातियों और मुसलमानों की उभरती एकता को पहले से जारी पिछड़े कोटे में मुसलमानों की हिस्सेदारी के आधार पर खंडित करना चाहती है, क्योंकि पिछड़ी जातियों में, खासतौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में, 1967 के बाद से कांग्रेस को समर्थन देने का रुझान नहीं रहा है, इसलिए सर्वश्रेष्ठ चुनावी रणनीति यही है कि आरक्षण के आधार पर मुसलमानों को लुभाया जाए। दक्षिण भारत में दलित ईसाई और मुस्लिम वोट कांग्रेस के लिए अतिरिक्त रूप से फायदेमंद होंगे। वस्तुत: जब महिला आरक्षण विधेयक से अनपेक्षित रूप में शक्तियों के नए समीकरण बन गए तो कांग्रेस ने इस मामले को ठंडे बस्ते में डालना उचित समझा। उसकी हिचक का कारण यह विश्वास है कि मुस्लिम कोटे से भाजपा में नई जान पड़ जाएगी और उच्च जातियां भाजपा की तरफ झुक जाएंगी। कांग्रेस मानती थी कि सामान्य परिस्थितियों में भाजपा के हाथ से उच्च जातियां और मध्यवर्ग फिसल जाएगा, विशेष तौर पर अगर कांग्रेस का पुनरुत्थान होता है। यह दिलचस्प है कि भाजपा के भय का अनेक मुस्लिम संगठनों को एहसास नहीं हुआ। उनका आकलन था कि आंतरिक तौर पर बंटी हुई भाजपा हिंदू वोटों को अपने पक्ष में नहीं रख पाएगी और इसलिए पंथ आधारित आरक्षण के लिए कांग्रेस पर दबाव बनाना चाहिए। महिला आरक्षण विधेयक और आंध्र प्रदेश फैसले के बाद मुस्लिम संगठन कांग्रेस की कमजोर नस पर हाथ रखकर उस पर दबाव बढ़ाना शुरू कर देंगे। जहां तक भाजपा का सवाल है, मुस्लिम गुट दीर्घकालीन Oास के अपने पुराने आकलन में संशोधन नहीं कर रहे हैं। घात-प्रतिघात के इस जटिल खेल से भारत की बदरंग तस्वीर उभर रही है। 2009 की चुनावी जीत को कांग्रेस जिस हक की राजनीति की उपज मान रही थी, अब वह पूरी तरह उन्माद में बदल गई। अगर महिला आरक्षण विधेयक असमान लैंगिक आधारित खामी के रूप में स्वीकारता है तो रंगनाथ रिपोर्ट देश को पंथिक खेमों में बांटती है। 1950 में संविधान लागू होने के बाद से सांप्रदायिक निर्वाचन और पंथ-आधारित आरक्षण का कोई दूसरा उदाहरण देखने को नहीं मिलता। संवैधानिक सभा का मानना था कि देश के बंटवारे के लिए पंथिक मतभेदों का संस्थानीकरण जिम्मेदार है और वह इस प्रक्रिया का दोहराव न होने देने के लिए प्रतिबद्ध थी। 28 अगस्त, 1947 को संविधान सभा में मुस्लिम लीग के बचे हुए सदस्यों को संबोधित करते हुए सरदार वल्लबभाई पटेल ने दोटूक कहा, अतीत को भूल जाओ। आप जो चाहते थे, आपने पा लिया। आपको एक अलग राष्ट्र मिल गया और याद रखें कि आप ही वे लोग हैं, जो इसके लिए जिम्मेदार हैं, वे नहीं जो पाकिस्तान में रह गए हैं..आपने देश का विभाजन कराया और मुझसे चाहते हैं कि अपने छोटे भाइयों का स्नेह प्राप्त करने के लिए मैं फिर से देश को विभाजित करूं। अगस्त 1947 में अलगाववादी शक्तियों के दबाव में न आने का कांग्रेस में जो सुस्पष्ट संकल्प दिखाई दे रहा था, अब वह मुर्झा गया है। इसका कारण अधिकारों की नई खोज नहीं है, बल्कि सीधा-सादा विचार है कि ठोस मुस्लिम वोट बैंक 75 से 120 लोकसभा सीटों के परिणाम पर असर डालता है किंतु कोई भी ऐसी सांगठनिक शक्ति नहीं है, जो इसका इस्तेमाल कर सके। जिस दिन ऐसी प्रतिरोधक शक्ति उभरकर सामने आएगी, उसी दिन कांग्रेस अलगाववादी दबाव के सामने और समर्पण कर देगी। 1947 में कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज पार्टी थी, जिसका अपना जनाधार था। 2010 में कांग्रेस अन्य पार्टियों के समान हो गई है, जिसका अपना पक्का वोट बैंक नहीं है। एक तरह से यह आज के भारत की वास्तविक त्रासदी है। देश के राजनीतिक विखंडन में एक प्रतिबद्ध, सुसंगठित अल्पसंख्यक समुदाय मौके की नजाकत का फायदा उठा लेने की ताक में है, चाहे इसके लिए उसे संविधान को उलटना ही क्यों न पड़े। अगर संप्रग सरकार रंगनाथ मिश्रा के बताए रास्ते पर चलती है तो यह पूरे देश के लिए खतरनाक संदेश होगा। 2009 में मध्य वर्ग के मतदाताओं ने उकसाऊ राजनीति को नकार दिया और एक संयत, उदार व आधुनिक रुख का समर्थन किया। अगर कांग्रेस दुर्भाग्यपूर्ण अतीत के भूत को फिर से जगाती है और पंथिक आग्रहों को उभारती है तो यह जनादेश का मखौल होगा। आधुनिक भारतीय पहचान की चिंता न करें, सत्तारूढ़ दल हमें हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई बनने की नसीहत दे रहा है।
आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा अपने यहां के मुस्लिम समुदाय को चार प्रतिशत आरक्षण देने के फैसले को उच्चतम न्यायालय ने अंतरिम मंजूरी देने के साथ मामले को जिस तरह संविधान पीठ के हवाले किया उससे एक नई बहस का माहौल तैयार हो गया है। आंध्र प्रदेश सरकार पिछले कई वर्षों से अपने यहां की मुस्लिम आबादी को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देने के लिए प्रयासरत थी, लेकिन उसके ऐसे हर प्रयास को आंध्र उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। वैसे तो देश के कुछ राज्यों में मुस्लिम समाज को अन्य पिछड़ा वर्ग घोषित करके आरक्षण की सुविधा दी गई है, लेकिन यह पहली बार है जब आंध्र प्रदेश सरकार ने पंथ के आधार पर इस समाज को आरक्षण प्रदान किया। यही कारण है कि उसे उच्च न्यायालय ने हर बार अमान्य किया। वैसे भी यह समझना मुश्किल है कि आंध्र प्रदेश का समस्त मुस्लिम समाज पिछड़ा कैसे हो सकता है? चूंकि भारतीय संविधान पंथ के आधार पर आरक्षण को अमान्य करता है इसलिए इस आधार पर आरक्षण देने की कोई भी कोशिश गंभीर परिणामों को जन्म दे सकती है। ऐसा आरक्षण भारतीय समाज के लिए अत्यन्त घातक भी साबित हो सकता है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में औसत मुस्लिम समाज शिक्षा के मामले में अन्य दूसरे समाजों से बहुत पीछे है। इसके चलते उसे गरीबी और अभावों से जूझना पड़ रहा है। आर्थिक रूप से पिछड़े होने के कारण मुस्लिम समाज देश की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो पा रहा है। देश में अनेक राजनीतिक दल ऐसे हैं जो मुस्लिम समाज के हितों के प्रति खास तौर पर सचेत नजर आते हैं, लेकिन उनकी यह सजगता सिर्फ इस समाज के वोट थोक रूप में प्राप्त करने के लिए ही अधिक है। इन राजनीतिक दलों के रवैये के चलते मुस्लिम समाज एक प्रकार की असुरक्षा की भावना से ग्रस्त दिखता है। समस्या यह है कि खुद को उसका हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं कि यह समाज असुरक्षा की भावना से मुक्त हो, क्योंकि ऐसा होने पर उनके लिए मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में एकजुट रखना और इसी आधार पर अपनी राजनीति चलाना मुश्किल हो जाएगा। देश में लगभग 16 प्रतिशत आबादी मुस्लिम समाज की है। भारत में इंडोनेशिया के बाद सबसे अधिक आबादी मुसलमानों की है। मुस्लिम आबादी के इतने प्रतिशत को देखते हुए उन्हें अल्पसंख्यक नहीं कहा जा सकता, लेकिन विडंबना यह है कि आज अल्पसंख्यक और मुस्लिम एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द बन गए हैं। मुस्लिम समाज की एक समस्या यह भी है कि उसमें राष्ट्रीय नेतृत्व का अभाव है। इस अभाव के कारण यह समाज इस या उस राजनीतिक दल को अपना हितैषी मानने के लिए विवश होता रहता है। मुस्लिम समाज का शैक्षिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ा होना कोई शुभ संकेत नहीं, क्योंकि यह पिछड़ापन एक तो उन्हें तमाम रूढि़यों से जकड़ रहा है और दूसरे खुद उसे तथा देश को आर्थिक तौर पर पीछे ढकेल रहा है। मुस्लिम समाज की यह स्थिति सामाजिक विषमता को बढ़ाने वाली भी है। मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाने आवश्यक हैं, लेकिन इसमंें संदेह है कि पंथ के आधार पर शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देने से इस समाज की समस्याओं का समाधान हो जाएगा। मुस्लिम समाज आजादी के बाद से ही कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक रहा है। बावजूद इसके कांग्रेस इस समाज की दशा सुधारने में सहायक नहीं हो सकी। ऐसा तब हुआ जब आजादी के 40 वर्षो तक देश में कांग्रेस का ही शासन रहा। समय के साथ मुस्लिम समाज का कांग्रेस से कुछ मोह भंग हुआ और वे अन्य राजनीतिक दलों के निकट चले गए, लेकिन उनके लिए भी वे एक वोट बैंक ही रहे। वर्तमान में भाजपा और शिवसेना को छोड़कर जो भी राजनीतिक दल खुद को मुस्लिम समाज का हितैषी बताते हैं वे इस समाज को एक वोट बैंक ही अधिक मानते हैं। समाज के किसी वर्ग, समुदाय का आरक्षण के आधार पर उत्थान करने की किसी कोशिश के पहले इस प्रश्न पर गौर किया जाना चाहिए कि क्या आरक्षण से अनुसूचित जातियों-जनजातियों का वास्तव में उद्धार हुआ है? इस प्रश्न पर इसलिए भी विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि एक ओर जहां उच्चतम न्यायालय ने मुस्लिम समाज को चार प्रतिशत आरक्षण देने की आंध्रप्रदेश सरकार की मांग स्वीकार कर ली वहीं दूसरी ओर रंगनाथ मिश्र आयोग की उस रपट को लागू करने की मुहिम तेज होती दिख रही है जिसमें धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की सिफारिश की गई है। पश्चिम बंगाल सरकार ने तो चुनावी लाभ लेने के लिए इस सिफारिश पर अमल की घोषण भी कर दी है। यह माना जा रहा है कि उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद केंद्र सरकार रंगनाथ मिश्र आयोग की रपट पर अमल की संभावनाएं तलाशेगी। इसके आसार इसलिए भी अधिक हैं, क्योंकि महिला आरक्षण विधेयक में मुस्लिम महिलाओं को अलग से आरक्षण देने की व्यवस्था नहीं है और इसी कारण सपा, बसपा, राजद और कुछ अन्य दल कांग्रेस को मुस्लिम विरोधी बताने में लगे हुए हैं। यदि उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के बाद रंगनाथ मिश्र आयोग की रपट पर अमल होता है तो आरक्षण की राजनीति एक नया रूप ग्रहण करेगी। यह समय ही बताएगा कि आरक्षण की मौजूदा राजनीति से कांग्रेस को कितना राजनीतिक लाभ मिलेगा, लेकिन यह तय है कि देश को आरक्षण की अन्य अनेक मांगों का सामना करना पड़ेगा। यह मांग तो अभी से उठनी शुरू हो गई है कि ईसाई और मुस्लिम दलितों को भी आरक्षण दिया जाए। नि:संदेह ईसाई और मुस्लिम दलित आर्थिक रूप से कमजोर हैं, लेकिन इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि इन लोगों ने मुख्यत: आर्थिक पिछड़ेपन से छुटकारा पाने के लिए ही धर्मातरण किया था। यदि एक बार पंथ के आधार पर किसी समाज को आरक्षण दिया गया तो अन्य समाज भी इसी आधार पर आरक्षण अवश्य मांगेंगे। क्या यह सही समय नहीं जब राजनीतिक दल इस पर विचार करें कि आखिर आरक्षण की यह राजनीति कहां खत्म होगी और क्या सामाजिक समरसता के नाम पर की जा रही यह राजनीति भारतीय समाज को विभाजित नहीं कर रही? इस आवश्यकता से कोई इनकार नहीं कर सकता कि समाज के वंचित, विपन्न एवं पिछड़े तबकों का उत्थान प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए, लेकिन क्या इसके लिए कोई ऐसा तरीका नहीं हो सकता जिससे वोट बैंक की राजनीति को और बढ़ावा न मिले तथा आरक्षण की राजनीति भारतीय समाज को बांटने का काम न करे? समाज का समग्र विकास करने का यह कोई आदर्श तरीका नहीं कि जाति, पंथ, क्षेत्र, भाषा के आधार पर आरक्षण का सिलसिला तेज होता जाए।

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