अब्दुल्ला
खंडवा -सड़कों, प्लेटफार्मों और ऐसे सार्वजनिक स्थानों पर विवशता से जीवन बसर करने वाले लाखों लोगों की जिंदगी की दास्तान आम व्यक्ति के लिए स्तब्ध करने वाली है। खंडवा जैसे छोटे से शहर में भी हजार से ज्यादा लोग अपनी बेघर जिंदगियां बिता रहे हैं. इसमें बड़े, बच्चे, बूढ़े , महिलाएं सभी शामिल हैं. एक तरफ रोजी रोटी का संघर्ष है तो दूसरी तरफ इससे भी बड़ी जंग है अपने सर छिपाने की. ठण्ड में ठिठुरकर मरना, लावारिस लाश बनना, परिचय के अभाव में चोर, डकैत और देशद्रोही करार दिया जाना या इनकी जिंदगी की रोजमर्रा कहानी है. महिलाओं और बच्चों की परेशानियाँ तो अनगिनित है. विविध प्रकार से शोषण सहते हुए ये जिन्दा लाश बन जाते हैं. सोनू (१६ वर्ष), रवि (१८ वर्ष), भोला (१२ वर्ष) और गोलू (१७ वर्ष) पिछले कई सालों से रेलवे दुर्घटनाओं में कटी लावारिस लाशों को ढोने का काम कर रहे हैं. एक लाश ढोने का दाम मिलता है महज सात सौ रूपये पर वह भी पुरे नहीं मिलते. लगभग
२०० रूपये तो स्टेशन के कार्मिकों को फोटोकॉपी आदि के देने पड़ते हैं. बच्चे ही लावारिस लाशों का अंतिम क्रियाकरम करते हैं:लाश हिन्दू की हो तो अंत्येष्टि की व्यवस्था करते हैं और मुस्लिम की तो जनाजे की. कमाल की इंसानियत है इन बच्चों की पर कीमत है खो चुका बचपन. रेलवे में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि कोई विशेष नियुक्त व्यक्ति लावारिस लाश ढोये, जो तैयार हो जाए वो सही. स्टेशन पर गुजर बसर करने वाले बेघर बच्चे इस काम के लिए आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं. पिछले कई सालों से लाश ढोते -ढोते ये बच्चे बड़े हो गए हैं. उनमे बचपन की मासूमियत और किलकारी तो जाने कब खो गयी. सुबह से शाम खुद को जिन्दा रखने के लिए रोजी का संघर्ष शाम को सर छुपाने की जुगत ने इन्हें न जाने कब व्यस्क बना दिया है. बारह वर्षीय सलीम ट्रेन में पानी की बोतल और मूंगफल्ली बेचता हैवाईटनर सूंघकर नशा करता है, व्यस्क फिल्मे देखता है, बॉलीवुड की भाषा बोलता है और किसी दिन कुछ ज्यादा पैसे मिलते हैं तो पार्वतीबाई धर्मशाला में किराये के बिस्तर लेकर फाइव स्टार होटल की ख़ुशी पाता है. भले ही वो मूंगफल्ली व्यापारी का महीने में ४००० का माल बेच लेता है पर उसे मिलता है ५० से १०० रूपये महिना वो भी जब व्यापारी की इच्छा हो. सलीम का तो (उसके अनुसार) होटल में उधारी खाता चलता है. हर दिन नशे और खाने की जरूरत ने उसे शायद छोटा मोटा उठाईगिरा बना दिया और वो अब किसी सम्प्रेषण गृह में है. मुन्नी (परिवर्तित नाम) पांच साल पहले अपने पिता और पति से प्रताड़ित होकर भाग आयी थी. ३२ वर्षीय मुन्नी पिछले ५ साल से रहती है स्टेशन पर और पड़ोस की बस्तियों से भीख मांगकर गुजर बसर करती है. शायद पुरुषों द्वारा शोषण ने उसे इतना कटु बना दिया है कि वह कहती है कि "एक बार औरत स्टेशन पर आ पड़ी तो वो फिर औरत ही नहीं रह जाती....खुदा करे किसी औरत को ये न देखना पड़े.... " इसी कारण उसने अपनी एकमात्र बच्ची को स्टेशन से दूर ही रखा है... किसी परिचित के यहाँ... मुन्नी ने कई रातें भूखी गुजारी हैऐसे न जाने कितने जीवन खंडवा शहर में गुजर रहे हैं. सबके सामने एक ही समस्या मूह फाड़े खडी है और वो है सर छुपाने की. इस पुराने शहर में नगर पालिका निगम गठित होने के बाद भी किसी रैन बसेरा या आश्रय गृह की व्यवस्था नहीं हो सकी. रेलवे जंक्शन होने के कारण बेघरों की तादाद बढ़ना स्वाभाविक है. अपने चीथड़ों में अपनी जिन्दगी लपेटे, शोषित और उपेक्षित होते ये लोग क्या इस देश के नागरिक नहीं है? क्या इनको सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार इसलिए नहीं कि ये शाहर कि सुन्दरता पर दाग हैं?
खंडवा -सड़कों, प्लेटफार्मों और ऐसे सार्वजनिक स्थानों पर विवशता से जीवन बसर करने वाले लाखों लोगों की जिंदगी की दास्तान आम व्यक्ति के लिए स्तब्ध करने वाली है। खंडवा जैसे छोटे से शहर में भी हजार से ज्यादा लोग अपनी बेघर जिंदगियां बिता रहे हैं. इसमें बड़े, बच्चे, बूढ़े , महिलाएं सभी शामिल हैं. एक तरफ रोजी रोटी का संघर्ष है तो दूसरी तरफ इससे भी बड़ी जंग है अपने सर छिपाने की. ठण्ड में ठिठुरकर मरना, लावारिस लाश बनना, परिचय के अभाव में चोर, डकैत और देशद्रोही करार दिया जाना या इनकी जिंदगी की रोजमर्रा कहानी है. महिलाओं और बच्चों की परेशानियाँ तो अनगिनित है. विविध प्रकार से शोषण सहते हुए ये जिन्दा लाश बन जाते हैं. सोनू (१६ वर्ष), रवि (१८ वर्ष), भोला (१२ वर्ष) और गोलू (१७ वर्ष) पिछले कई सालों से रेलवे दुर्घटनाओं में कटी लावारिस लाशों को ढोने का काम कर रहे हैं. एक लाश ढोने का दाम मिलता है महज सात सौ रूपये पर वह भी पुरे नहीं मिलते. लगभग

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aap kee rachna padhee hai