सोमवार, 5 अप्रैल 2010

औरत वेश्या या हम.

अब्दुल्ला
‘‘मेरी जैसी कई औरतों को अपना शरीर बार-बार बेचना पड़ता है।’’ एक औरत की जुबान से पहली बार ऐसा सुन कर मैं झिझक गया। सपना ने बेझिझक आगे कहा, ‘‘पेट के लिए करना पड़ता है। इज्जत के लिए घर में बैठ सकती हूं। लेकिन…’’ इसके बाद वह चुपचाप एक गली में गयी और गुम हो गयी।
देश के कोने-कोने से हजारों मज़दूर सपनों के शहर मुंबई आते हैं। लेकिन उनके संघर्ष का सफर जारी रहता है। इनमें से ज्यादात मज़दूर असंगठित क्षेत्र से होते हैं। सुबह-सुबह शहर के नाकों पर मज़दूर औरतें भी बड़ी संख्या दिखाई देती हैं। इनमें से कइयों को काम नहीं मिलता। इसलिए कइयों को ‘सपना’ बनना पड़ता है। तो क्या ‘‘पलायन’’ का यह रास्ता ‘‘बेकारी’’ से होते हुए ‘‘देह-व्यापार’’ को जाता है?
शहर के उत्तरी तरफ, संजय गांधी नेशनल पार्क के पास दिहाड़ी मज़दूरों की बस्ती है। यहां के परिवार स्थायी घर, भोजन, पीने लायक पानी और शिक्षा के लिए जूझ रहे हैं। लेकिन विकास योजनाओं की हवाएं यहां से होकर नहीं गुजरतीं। इन्होंने अपनी मेहनत से कई आकाश चूमती इमारतें बनायी हैं। ख़ास तौर से नवी मुंबई की तरक्की के लिए कम अवधि के ठेकों पर अंगूठा लगाया है। इन्होंने यहां की कई गिरती ईमारतों को दोबारा खड़ा किया है।
यहां आमतौर पर औरत को 1,00 रुपए और मर्द को 1,30 रूपए/दिन के हिसाब से मज़दूरी मिलती है। ठेकेदार और मज़दूरों के आपसी रिश्तों से भी मजदूरी तय होती है। एक मज़दूर को कम से कम 2,000 रुपए/महीने की ज़रूरत पड़ती है। मतलब उसका 1 दिन का खर्च 66 रुपए हुआ। इतनी आमदनी पाने के लिए परिवार की औरत भी मज़दूरी को जाती है। उसे महीने में कम से कम 20 दिन काम चाहिए। लेकिन 10 दिन ही काम मिलता है। इस तरह एक औरत के लिए 1,000 रुपए/महीना कमाना मुश्किल होता है।
यह मलाड नाके का दृश्य है। थोड़ी रात, थोड़ी सुबह का समय है। सड़क के कोने और मेडिकल के ठीक सामने मज़दूरों के दर्जनों समूह हैं। यहां औरत-मर्द एक-दूसरे के आजू-बाजू बैठ कर बतियाते हैं। यह काम पाने की सूचनाओं का अहम अड्डा है। यहां सुबह 11 बजे तक भीड़ रहती है। उसके बाद मज़दूर काम पर जाते हैं। जिन्हें काम नहीं मिलता वह घर लौट आते हैं।
लेकिन सेवंती खाली नहीं लौट सकती। इसलिए उसकी सुबह, रात में बदल जाती है। उसे नाके से जुड़ी दूसरी गलियों में पहुंच कर देह के ग्राहक ढूंढने होते हैं।
आज रविवार होने के बावजूद उसे 3 घंटे से कोई ख़रीदार नहीं मिल रहा है। इस व्यापार में दलाल कुल कमाई का बड़ा हिस्सा निगल जाते हैं। इसलिए सेवंती दलाल की मदद नहीं चाहती। सेवंती जैसी दूसरी औरतों को भी ग्राहक के एक इशारे का इंतजार है। इनकी उम्र 14 से 45 साल है। यह 80 से 1,50 रुपए में सौदा पक्का कर सकती हैं। अगले 24 घंटों में 4 ग्राहक भी मिल गये तो बहुत हैं। यह अपने ग्राहकों से दोहरे अर्थो वाली भाषा में बात करती हैं। ऐसा पुलिस और रहवासियों से बचने के लिए किया जाता है। यह अपने असली नाम छिपा लेती हैं। इन्हें यहां सुरक्षा का एहसास नहीं है। इन्हें शारारिक और मानसिक यातनाओं का डर भी सता रहा है। यहां से कोई गर्भवती तो कोई गंभीर बीमारी की शिकार बन सकती है।
देह-व्यापार से जुड़ी तारा ने बताया, ‘‘यहां 100 में से करीब 70 औरतों की उम्र 30 साल से कम ही है। इसमें से भी करीब 25 औरतें मुश्किल से 18 साल की हैं। अब कम उम्र की लड़कियों की संख्या बढ़ रही है। 35 साल तक आते-आते औरत की आमदनी कम होने लगती है। एक औरत अपने को 20 साल से ज्यादा नहीं बेच सकती। आधे से ज्यादा औरतें पैसों की कमी के कारण यह पेशा अपनाती हैं। कुछेक औरतों पर दबाव रहता है।’’ पीछे खड़ी कुसुम ने कहा, ‘‘मुझे तो बच्चे और घर-बार भी संभालना होता है। मेरे सिर पर तो दबाव के ऊपर दबाव है।’’ यहां ज्यादातर औरतों की यही परेशानी है।
माधुरी का पिता उसे मज़दूरी के लिए भेजता है। लेकिन वह मज़दूरी के साथ अपने शरीर से भी पैसे कमा लेती है। गिरिजा अपने भाई की बेकारी के दिनों का एकमात्र सहारा है। सुब्बा ने पति के एक्सीडेंट के बाद गृहस्थी का बोझ संभाल लिया है। जोया ने छोटी बहिन की शादी के लिए थोड़ा-थोड़ा पैसा बचाना शुरू कर दिया है। लेकिन उसकी बहिन पढ़ाई के लिए अब मुंबई आना चाहती है। जोया अपनी सच्चाई छिपाना चाहती है। उसे अपनी इज्जत के तार-तार होने की आशंका है। नगमा 45 पार की हो चुकी है। अब उसकी 14 साल की बेटी बड़की कमाती है। बड़की बाल यौन-शोषण का जीता जागता रूप है।
यहां कदम-कदम पर कई लड़कियां खड़ी हैं। यह चोरी-छिपे इस कारोबार में लगी हैं इसलिए कुल लड़कियों का असली आकड़ा कोई नहीं जानता। कोई बंगाल से है, कोई आंध्रप्रदेश से है तो कोई महाराष्ट्र से। लेकिन इनके दुख और दुविधाओं में ज्यादा फर्क नहीं है। इन्होंने अपनी चिंताओं को मेकअप की गहरी परतों से ढंक लिया है।
मोनी ने बताया, ‘‘इस पेशे से हमारा शरीर जुड़ता है, मन नहीं। हम पैसों के लिए अलग-अलग मर्दों को अपना शरीर बेचते हैं। लेकिन कई मर्द ऐसे भी हैं जो जिस्मफरोशी के लिए बार-बार ठिकाने बदलते हैं। अगर हमें ग़लत समझा जाता है तो उन्हें क्यों नही?’’ मोनी का सवाल देह-व्यापार के सभी पहलुओं पर शिनाख्त करने की मांग करता है।
यह एक अहम मुद्दा है। लेकिन इसे समाज की तरह सरकार ने भी अनदेखा किया हुआ है। इसे नैतिकता, अपराध या स्वास्थ्य के दायरों से बांध दिया गया है। देखा जाए तो देह-व्यापार का ताल्लुक ग़रीबी, बेकारी और पलायन जैसी उलझनों से है। लेकिन इन उलझनों के आपसी जुड़ावों की तरफ ध्यान नहीं जाता। जबकि ऐसे आपसी जुड़ावों को एक साथ ढूंढ़ने और सुलझाने की ज़रूरत है।
भारत में देह-व्यापार की रोकथाम के लिए ‘भारतीय दंडविधान, 1860’ से लेकर ‘वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक, 1956’ बनाये गये। फिलहाल कानून के फेरबदल पर भी विचार चल रहा है। लेकिन इस स्थिति की जड़ें तो समाज की भीतरी परतों में छिपी हैं। इसकी रोकथाम तो समाज के गतिरोधों को हटाने से होगी। इस व्यापार से जुड़ी औरतें दो जून की रोटी के लिए लड़ रही हैं। इसलिए विकास नीति में लोगों के जीवन-स्तर को उठाने की बजाय उन्हें जीने के मौके देने होंगे। देह-व्यापार के गणित को हल करने के लिए उन्हें अपनी जगहों पर ही काम देने का फार्मूला इजाद करना होगा।
सरकार ने पलायन को रोकने के लिए 2005 को ‘राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना’ चलायी। इसके जरिये साल में 100 दिनों के लिए ‘‘हर हाथ को काम और पूरा दाम’’ का नारा दिया गया। लेकिन इस योजना में फरवरी 2006 से मार्च 2007 के बीच औसतन 18 दिनों का ही काम मिला। साल 2006-07 में 8,823 करोड़, 2007-08 में 15,857 करोड़ और 2008-09 में 17,076 करोड़ रुपये खर्च हुए। मतलब एक जिले में औसतन 30 करोड़ रुपये। इसका भी एक बड़ा भाग भष्ट्राचार में स्वाहा हो गया। कुल मिलाकर मज़दूरों को 30-40 दिनों का ही काम मिल पाता है। इसलिए 365 दिनों के काम की तलाश में मजदूरों का पलायन जारी है। दूरदर्शन के प्रोग्राम के बीच ‘रुकावट के लिए खेद’ जैसा संदेश चर्चा का विषय रहा है। ‘‘हर हाथ को काम और पूरा दाम’’ के नारे के आगे अब यही संदेश लगा देना चाहिए।
पलायन की रफ़्तार के मुताबिक शहर का देह-व्यापार भी तेजी से फल-फूल रहा है। बात चाहे आजादी के पहले की हो या बाद की, अब यह किस्सा चाहे कलकत्ता का हो या मुंबई का, मुंबई में ही सड़क चाहे ग्रांट रोड की हो या मीरा रोड की, उस चौराहे पर मूर्ति चाहे अंबेडकर की लगी हो या मदर टेरेसा की, बस्ती चाहे कमाठीपुरा की हो या मदनपुरा की, यहां आपको रूकमणी (हिन्दू) भी मिलेगी और रूहाना (मुसलमान) भी। लेकिन जिन्हें अपने धर्म, क्षेत्र, जुबान या जाति पर नाज है, वह कहीं नहीं दिखते। यहां के रेड सिग्नलों पर रुकी औरतों की जिंदगी बदलाव चाहती है। तस्‍करी के तारों से जुड़ने के पहले, उन्हें एक ग्रीन सिग्नल का इंतज़ार है।

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