पुरुष को हमेशा यह भय सताता रहा है कि अगर औरत उसकी बराबरी करने लगी तो क्या होगा? औरत बराबरी में न आ जाए, इसलिए पुरुष मानसिकता को इसी बात में भलाई नजर आती है कि उसे सहेली के बजाय पहेली बनाकर रखो। हमारे साहित्य में ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे, जिनसे साफ हो जाता है कि स्त्री के दिमाग की कंडीशनिंग के लिए कैसी-कैसी कोशिशें की जाती रही हैं। सदियों पूर्व जब कहा गया कि स्त्रियश्च चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम, देवो न जानाति कुतो मनुष्य:, तो निश्चित ही वह किसी पुरुष द्वारा गढ़ी गई कहावत थी। उस पुरुष द्वारा जो स्त्री को एक रहस्य बताकर आधी आबादी को उसके समानता के अधिकार से वंचित करना चाहता था। हमारे अनेक ग्रंथों में स्त्री को कमतर साबित करने के उदाहरण मिल जाते हैं। राम चरित मानस में रावण भी मंदोदरी से कहता है- नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं, अवगुण आठ सदा उर रहहीं। संशय, अनृत, चपलता, माया, भय, अविवेक, अशौच, अदाया। ये आठ अवगुण हैं- संशय, झूठ, चपलता, माया, भय, अविवेक, अशौच और अदाया। जरा इन अवगुणों पर गौर कीजिए, तो स्पष्ट हो जाएगा कि पुरुष समाज स्त्री को किस दृष्टि से देखता रहा है, या देखना चाहता रहा है। इन अवगुणों को स्त्री पर आरोपित करके उसे किस तरह पुरुष सत्ता की गुलाम बनाने की कोशिश की जाती रही है। पहला अवगुण बताया गया है, संशय। इसके पीछे पुरुष सत्ता की बहुत बड़ी चाल है। पुरुष को पता है कि मैं जो कुछ भी अनुचित कर रहा हूं, उसके लिए स्त्री मुझ पर संदेह करेगी। इसलिए संदेह को ही नारी का एक अवगुण बता दिया, ताकि उसके संदेह का कोई महत्व ही न रह जाए। उसे सहजता से यह कहकर टाल दिया जाए कि संशय तो स्त्री के आठ अवगुणों में से एक अवगुण है ही। उसका दूसरा अवगुण बताया गया है अनृत यानी झूठ। ऐसा करके पुरुष इस सच को नकार देना चाहता है कि स्त्री अपने मन की बात कह नहीं सकती, इसलिए उसे झूठ का सहारा लेना पड़ता है। उसे उस स्थिति में नहीं रखा जाता कि सच बोल सके और फिर उस पर झूठ का अवगुण चस्पा कर दिया जाता है। चपलता को भी उसका एक अवगुण बताया गया है। जबकि वास्तव में बाल्यावस्था को छोड़कर सारी जिंदगी चपलता उसके लिए एक सपना ही रहती है। वह इस सपने को पाने की कोशिश न करे, इसलिए चपलता को उसका एक अवगुण बता दिया। माया को भी स्त्री का एक अवगुण कहा गया है। उसे मायावी बताकर एक पहेली बना दिया। पुरुष उसे जब चाहे तब दबोच सकता है और अंतत: उसे पहेली बनाकर पूछता है, नारी तू आखिर है क्या? भय को भी उसका एक अवगुण बताया गया है, ताकि वह उसे अपना सहज गुण मानकर भयभीत होती रहे। अविवेक को स्त्री का अवगुण बताना तो उसी पुरुषवादी मानसिकता का परिचायक है, जो स्त्री के धड़ के ऊपर एक अदद मस्तिष्क के होने को स्वीकार नहीं करती। माहवारी के दिनों के नाम पर उस पर अपवित्रता का आरोप लगाना तो सरासर उसकी अस्मिता पर आघात है। इसमें भी पुरुष की अपनी स्वार्थी मानसिकता झलकती है। अपवित्रता के नाम पर स्त्री को एक कोठरी में कैद कर देना दरअसल उसके मासिक चक्र की जासूसी करने का एक तरीका था, ताकि पता चलता रहे कि...। और आखिरी अवगुण यानी अदाया। कितना हास्यास्पद आरोपण है यह। दया की मूर्ति नारी को दयाहीन या निर्दयी बताना कितनी बड़ी साजिश है। वह पुरुष को निर्दयी न कह सके, इसलिए खुद ही उस पर निर्दयी होने का आरोप मढ़ दिया गया। इन सारे अवगुणों का बारीक विश्लेषण करें तो बात बहुत आसानी से समझ में आ जाती है कि इनका बार बार उल्लेख करना नारी के मन की कंडीशनिंग करने का एक जरिया है। पुरुष सत्ता सदैव स्त्री को भोग्या के रूप में देखती रही है। औरत के शरीर के धड़ के नीचे के हिस्से को ही औरत की पहचान बनाए रखना चाहता है पुरुष। धड़ के ऊपर कोई विचारवान मस्तिष्क भी है, यह मानने में उसे दिक्कत होती है। वह हर हाल में उस मस्तिष्क की अनदेखी करता है, और उसे अपने मुताबिक ढालने का प्रयास करता रहा है। वह चाहता है कि उसकी अधीनता की चट्टानों के नीचे स्त्री सदा-सदा दबी रहे। वह कठपुतली की तरह उसके इशारों पर नाचती रहे। उसे सहेली का दर्जा न देना पड़े इसलिए पहेली बनाकर रखा जाता है। क्योंकि जब उसे सहेली या मित्र के रूप में देखोगे तो उसे बराबरी का अधिकार भी देना पड़ेगा। यह अधिकार पुरुष को अपने अधिकारों में से ही बांटकर देना होगा। और पुरुषवादी सत्ता इसे कैसे स्वीकार कर सकती है? इस पुरुषवादी सत्ता को हमेशा यह भय सताता रहा है कि अगर औरत उसकी बराबरी करने लगी तो क्या होगा? औरत बराबरी में न आ जाए, इसलिए पुरुषवादी मानसिकता को इसी बात में भलाई नजर आती है कि उसे सहेली के बजाय पहेली बनाकर रखो। हमारे साहित्य में तमाम दोहों चौपाइयों में स्त्री की निंदा करने वाले या उसे उपदेश देने वाले ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे, जिन पर गौर करने से साफ हो जाता है कि स्त्री के दिमाग की कंडीशनिंग के लिए कैसी-कैसी कोशिशें की जाती रही हैं।
- चित्रा मुद्गल [साभार ]
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aap kee rachna padhee hai