बुरके के पीछे सिर्फ कट्टरपंथ नकाब, हिजाब या बुरके के पीछे सिर्फ मुस्सिम कट्टरपंथ की शिकार ही नहीं छिपी होती, बल्कि रेडिकल विचार भी पनप रहे होते हैं, यह सऊदी अरब की कवयित्री हिसा हिलाल ने साबित कर दिया है। सऊदी अरब वह मुल्क है, जिसने इस्लाम की सबसे प्रतिक्रियावादी व्याख्या अपने नागरिकों पर थोपी हुई है। इसकी सबसे ज्यादा कीमत वहां की औरतों को अदा करनी पड़ी है। सऊदी अरब में औरतों को पूर्ण मनुष्य का दरजा नहीं दिया जाता। वे घर से अकेले नहीं निकल सकतीं, अपरिचित आदमियों से मिल नहीं सकतीं, कार नहीं चला सकतीं और बड़े सरकारी पदों पर नियुक्त नहीं हो सकतीं। घर से बाहर निकलने पर उन्हें सिर से पैर तक काला बुरका पहनना पड़ता है, जिसमें उनका चेहरा तक पोशीदा रहता है – आंखें इसलिए दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि इसके बिना वे ‘हेडलेस चिकन’ हो जाएंगी। । पुरुषों की तुलना में उनके हक इतने सीमित हैं कि कहा जा सकता है कि उनके कोई हक ही नहीं हैं — सिर्फ उनके फर्ज हैं, जो इतने कठोर हैं कि दास स्त्रियों या बंधुवा मजदूरों से भी उनकी तुलना नहीं की जा सकती। ऐसे दमनकारी समाज में जीनेवाली हिसा हिलाल ने न केवल पत्रकारिता का पेशा अपनाया, बल्कि विद्रोही कविताएं भी लिखीं। इसी हफ्ते अबू धाबी में चल रही एक काव्य प्रतियोगिता में वे प्रथम स्थान के लिए सबसे मज़बूत दावेदार बन कर उभरी हैं।संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबू धाबी में कविता प्रतियोगिता का एक टीवी कार्यक्रम होता है — जनप्रिय शायर। इस कार्यक्रम में हर हफ्ते अरबी के कवि और कवयित्रियां अपनी रचनाएं पढ़ती हैं। विजेता को तेरह लाख डॉलर का पुरस्कार मिलता है। इसी कार्यक्रम में हिसा हिलाल ने अपनी बेहतरीन और ताकतवर नज्म पढ़ी – फतवों के खिलाफ। यह कविता उन मुस्लिम धर्मगुरुओं पर चाबुक के प्रहार की तरह है, ‘ जो सत्ता में बैठे हुए हैं और अपने फतवों और धार्मिक फैसलों से लोगों को डराते रहते हैं। वे शांतिप्रिय लोगों पर भेड़ियों की तरह टूट पड़ते हैं।’ अपनी इस कविता में इस साहसी कवयित्री ने कहा कि एक ऐसे वक्त में जब स्वीकार्य को विकृत कर निषिद्ध के रूप में पेश किया जा रहा है, मुझे इन फतवों में शैतान दिखाई देता है। ‘जब सत्य के चेहरे से परदा उठाया जाता है, तब ये फतवे किसी राक्षस की तरह अपने गुप्त स्थान से बाहर निकल आते हैं।’ हिसा ने फतवों की ही नहीं, बल्कि आतंकवाद की भी जबरदस्त आलोचना की। मजेदार बात यह हुई कि हर बंद पर टीवी कार्यक्रम में मौजूद श्रोताओं की तालियां बजने लगतीं। तीनों जजों ने हिसा को सर्वाधिक अंक दिए। उम्मीद की जाती है कि पहले नंबर पर वही आएंगी।मुस्लिम कट्टरपंथ और मुस्लिम औरतों के प्रति दरिंदगी दिखानेवाली विचारधारा का विरोध करने के मामले में हिसा हिलाल अकेली नहीं हैं। हर मुस्लिम देश में ऐसी आवाजें उठ रही हैं। बेशक इन विद्रोही आवाजों का दमन करने की कोशिश भी होती है। हर ऐसी घटना पर हंगामा खड़ा किया जाता है। हिसा को भी मौत की धमकियां मिल रही है। जाहिर है, मर्दवादी किले में की जानेवाली हर सुराख पाप के इस किले को कमजोर बनाती है। लंबे समय से स्त्री के मन और शरीर पर कब्जा बनाए रखने के आदी पुरुष समाज को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता है? लेकिन इनके दिन अब गिने-चुने हैं। विक्टर ह्यूगो ने कहा था कि जिस विचार का समय आ गया है, दुनिया की कोई भी ताकत उसे रोक नहीं सकती। अपने मन और तन की स्वाधीनता के लिए आज दुनिया भर के स्त्री समाज में जो तड़प जाग उठी है, वह अभी और फैलेगी। दरअसल, इसके माध्यम से सभ्यता अपने को फिर से परिभाषित कर रही है।वाइरस की तरह दमन के कीड़े की भी एक निश्चित उम्र होती है। फर्क यह है कि वाइरस एक निश्चित उम्र जी लेने के बाद अपने आप मर जाता है, जब कि दमन के खिलाफ उठ खड़ा होना पड़ता है और संघर्ष करना होता है। मुस्लिम औरतें अपनी जड़ता और मानसिक पराधीनता का त्याग कर इस विश्वव्यापी संघर्ष में शामिल हो गई हैं, यह इतिहास की धारा में आ रहे रेडिकल मोड़ का एक निश्चित चिह्न है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस तरह के प्रयत्नों से यह मिथक टूटता है कि मुस्लिम समाज कोई एकरूप समुदाय है जिसमें सभी लोग एक जैसा सोचते हैं और एक जैसा करते हैं। व्यापक अज्ञान से उपजा यह पूर्वाग्रह जितनी जल्द टूट जाए, उतना अच्छा है। सच तो यह है कि इस तरह की एकरूपता किसी भी समाज में नहीं पाई जाती। यह मानव स्वभाव के विरुद्ध है। धरती पर जब से अन्याय है, तभी से उसका विरोध भी है। रूढ़िग्रस्त और कट्टर माने जानेवाले मुस्लिम समाज में भी अन्याय और विषमता के खिलाफ प्रतिवाद के स्वर शुरू से ही उठते रहे हैं। हिसा हिलाल इसी गौरवशाली परंपरा की ताजा कड़ी हैं। वे ठीक कहती हैं कि यह अपने को अभिव्यक्त करने और अरब स्त्रियों को आवाज देने का एक तरीका है, जिन्हें उनके द्वारा बेआवाज कर दिया गया है ‘जिन्होंने हमारी संस्कृति और हमारे धर्म को हाइजैक कर लिया है।’तब फिर अबू धाबी में होनेवाली इस काव्य प्रतियोगिता में जब हिसा हलाल अपनी नज्म पढ़ रही थीं, तब उनका पूरा शरीर, नख से शिख तक, काले परदे से ढका हुआ क्यों था? क्या वे परदे को उतार कर फेंक नहीं सकती थीं? इतने क्रांतिकारी विचार और परदानशीनी एक साथ कैसे चल सकते हैं? इसके जवाब में हिसा ने कहा कि ‘मुझे किसी का डर नहीं है। मैंने पूरा परदा इसलिए किया ताकि मेरे घरवालों को मुश्किल न हो। हम एक कबायली समाज में रहते हैं और वहां के लोगों की मानसिकता में परिवर्तन नहीं आया है।’ आएगा हिसा, परिवर्तन आएगा। आनेवाले वर्षों में तुम जैसी लड़कियां घर-घर में पैदा होंगी और अपने साथ-साथ दुनिया को भी आजाद कराएंगी।यह भी नारीवाद का एक चेहरा है। इसमें भी विद्रोह है, लेकिन अपने धर्म की चौहद्दी में। यह जाल-बट्टे को एक तरफ रख कर हजरत साहब की मूल शिक्षाओं तक पहुंचने की एक साहसी कार्रवाई है। इससे संकेत मिलता है कि परंपरा के भीतर रहते हुए भी कैसे तर्क और मानवीयता का पक्ष लिया जा सकता है। अगला कदम शायद यह हो कि धर्म का स्थान वैज्ञानिकता ले ले। नारीवाद को मानववाद की तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए यह आवश्यक होगा। अभी तो हमें इसी से संतोष करना होगा कि धर्म की डाली पर आधुनिकता का फूल खिल रहा है।
परंपराओं के अजीबोगरीब घालमेल
नसीब खान ने हाल ही में अपने बेटे प्रकाश सिंह की शादी राम सिंह की बेटी गीता से की. तीन महीने पहले हेमंत सिंह की बेटी देवी का निकाह एक मौलवी की मौजूदगी में लक्ष्मण सिंह से हुआ. माधो सिंह को जब से याद है वो गांव की ईदगाह में नमाज पढ़ते आ रहे हैं मगर जब होली या दीवाली का त्यौहार आता है तो भी उनका जोश देखने लायक होता है.
नामों और परंपराओं के इस अजीबोगरीब घालमेल पर आप हैरान हो रहे होंगे. मगर राजस्थान के अजमेर और ब्यावर से सटे करीब 160 गांवों में रहने वाले करीब चार लाख लोगों की जिंदगी का ये अभिन्न हिस्सा है. चीता और मेरात समुदाय के इन लोगों को आप हिंदू भी कह सकते हैं और मुसलमान भी. ये दोनों समुदाय छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों से मिलकर बने हैं और इनमें आपसी विवाह संबंधों की परंपरा बहुत लंबे समय से चली आ रही है. खुद को चौहान राजपूत बताने वाले ये लोग अपना धर्म हिंदू-मुस्लिम बताते हैं. उनका रहन-सहन, खानपान और भाषा काफी-कुछ दूसरी राजस्थानी समुदायों की तरह ही है मगर जो बात उन्हें अनूठा बनाती है वो है दो अलग-अलग धर्मों के मेल से बनी उनकी मजहबी पहचान.
ये समुदाय कैसे बने इस बारे में कई किस्से प्रचलित हैं. एक के मुताबिक एक मुसलमान सुल्तान ने उनके इलाके पर फतह कर ली और चीता-मेरात के एक पूर्वज हर राज के सामने तीन विकल्प रखे. फैसला हुआ कि वो इस्लाम, मौत या फिर समुदाय की महिलाओं के साथ बलात्कार में से एक विकल्प को चुन ले. कहा जाता है कि हर राज ने पहला विकल्प चुना मगर पूरी तरह से इस्लाम अपनाने के बजाय उसने इस धर्म की केवल तीन बातें अपनाईं—बच्चों को खतना करना, हलाल का मांस खाना और मुर्दों को दफनाना. यही वजह है कि चीता-मेरात अब भी इन्हीं तीन इस्लामी रिवाजों का पालन करते हैं जबकि उनकी बाकी परंपराएं दूसरे स्थानीय हिंदुओं की तरह ही हैं. हर राज ने पहला विकल्प चुना मगर पूरी तरह से इस्लाम अपनाने के बजाय उसने इस धर्म की केवल तीन बातें अपनाईं—बच्चों को खतना करना, हलाल का मांस खाना और मुर्दों को दफनाना. यही वजह है कि चीता-मेरात अब भी इन्हीं तीन इस्लामी रिवाजों का पालन करते हैं।
मगर चीता-मेरात की इस अनूठी पहचान पर खतरा मंडरा रहा है. इसकी शुरुआत 1920 में तब से हुई जब आर्य समाजियों ने इन समुदायों को फिर पूरी तरह से हिंदू बनाने के लिए अभियान छेड़ दिया. आर्यसमाज से जुड़ी ताकतवर राजपूत सभा ने समुदाय के लोगों से कहा कि वो इस्लामी परंपराओं को छोड़कर हिंदू बन जाएं. कहा जाता है कि कुछ लोगों ने इसके चलते खुद को हिंदू घोषित किया भी मगर समुदाय के अधिकांश लोग इसके खिलाफ ही रहे. उनका तर्क था कि उनके पूर्वज ने मुस्लिम सुल्तान को वचन दिया था और इस्लामी रिवाजों को छोड़ने का मतलब होगा उस वचन को तोड़ना.
अस्सी के दशक के मध्य में चीता-मेरात समुदाय के इलाकों में हिंदू और मुस्लिम संगठनों की सक्रियता बढ़ी जिनका मकसद इन लोगों को अपनी-अपनी तरफ खींचना था. अजमेर के आसपास विश्व हिंदू परिषद ने भारी संख्या में इस समुदाय के लोगों को हिंदू बनाया. उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए इस संगठन ने गरीबी से ग्रस्त इस समुदाय के इलाकों में कई मंदिर, स्कूल और क्लीनिक बनाए. विहिप का दावा है कि चीता-मेरात पृथ्वीराज चौहान के वंशज हैं और उनके पूर्वजों को धर्मपरिवर्तन के लिए मजबूर किया गया था.
मगर समुदाय का एक बड़ा हिस्सा अब भी इस तरह के धर्मांतरण के खिलाफ है. इसकी एक वजह ये भी है कि हिंदू बन जाने के बाद भी दूसरे हिंदू उनके साथ वैवाहिक संबंध बनाने से ये कहते हुए इनकार कर देते हैं कि मुस्लिमों के साथ संबंधों से चीता-मेरात अपवित्र हो गए हैं.
इस इलाके में इस्लामिक संगठन भी सक्रिय हैं. इनमें जमैतुल उलेमा-ए-हिंद, तबलीगी जमात और हैदराबाद स्थित तामीरेमिल्लत भी शामिल हैं जिन्होंने यहां मदरसे खोले हैं और मस्जिदें स्थापित की हैं. जिन गांवों में ऐसा हुआ है वहां इस समुदाय के लोग अब खुद को पूरी तरह से मुसलमान बताने लगे हैं. हिंदू संगठनों के साथ टकराव और प्रशासन की सख्ती के बावजूद पिछले दो दशक के दौरान इस्लाम अपनाने वाले इस समुदाय के लोगों की संख्या उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है.
मगर इस सब के बावजूद चीता-मेरात काफी कुछ पहले जैसे ही हैं. हों भी क्यों नहीं, आखिर पीढियों पुरानी परंपराओं से पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता. समुदाय के एक बुजुर्ग बुलंद खान कहते हैं, हमारा दर्शन है जियो और जीने दो. लोगों को ये आजादी होनी जाहिए कि वो जिस तरह से चाहें भगवान की पूजा करें. खान मानते हैं कि उनमें से कुछ अपनी पहचान को लेकर शर्म महसूस करते हैं. वो कहते हैं, लोग हमें ये कहकर चिढ़ाते हैं कि हम एक ही वक्त में दो नावों पर सवार हैं. मगर मुझे लगता है कि हम सही हैं. हम मिलजुलकर साथ-साथ रहते हैं. हम साथ-साथ खाते हैं और आपस में शादियां करते हैं. धर्म एक निजी मामला है और इससे हमारे संबंधों पर असर नहीं पड़ता.
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aap kee rachna padhee hai