शनिवार, 10 अप्रैल 2010

ये आरक्षण .....? अब्दुल्ला



ये जुमला सुनकर कई पाठक जरूर मुझे लालू, मुलायम और मायावती का समर्थक मान सकते हैं, मुझे पिछड़ा कह सकते हैं, मेरे लेख को सियासी लेख कह सकते हैं, लेकिन आज मुझे परवाह नहीं. भले ही मीडिया और ब्लाग के 'मार्शल्स' मुझे संसद के विरोधियों की तरह धकिया दें...मेरी बात को शायद कलावती जैसी ही समझेगी, जिसकी हंडिया में आरक्षण आचार से ज्यादा कुछ नहीं होगा- एक ऐसी 'चटक चीज' है जिससे पेट कतई नहीं भरने वाला, हर चटकारे के साथ भोजन की जरूर भूख बढाएगा. लेकिन हंडिया में होगा क्या- तो सिर्फ आचार, खाने का एक दाना नहीं. 'महिला आरक्षण पर इतिहास रचने' के सामूहिक स्लोगन पर जाने क्यों याद आ गई कलावती. विदर्भ की वही विधवा कलावती, जिसका हवाला देकर 'कांग्रेस के युवराज' ने संसद में देश की महिलाओं की हालत बखान की थी. महिलाओं के प्रति अपनी (और अपनी पार्टी) की संवेदनशीलता जताई थी. राहुल गांधी के हवाले के बाद वो कलावती भी सपना देखने लगी. राजनीति के जरिए अपनी और अपनी जैसी महिलाओं की दशा सुधारने की. राजनीति के जरिए विदर्भ की हालत बयां करने की. जाहिर है इसके लिए उसे चुनाव में उतरना होता. उसकी इच्छा रही होगी कि वो उसी राहुल की पार्टी से चुनाव में उतरे, जिसने उसका नाम पूरे देश में ऊंचा किया. उसने चुनाव लड़ने का ऐलान भी कर दिया. राहुल गांधी, कांग्रेस को भी ये बात पता चली. लेकिन टिकट कांग्रेस ने नहीं दिया, वो विदर्भ जनआंदोलन समिति के टिकट पर वानी विधान के मैदान में उतरी. राहुल अगर 'कलावती' के चिंतक होते, चुनाव में सियासी समकीरण के मारे नहीं होते, तो दौड़कर जाते कलावती का सपना पूरा करने, लेकिन नहीं...अब देखिए सियासत, इस बार राहुल भूल गए थे कलावती का हवाला. इस बार कांग्रेस कलावती से डर रही थी. आखिर सियासी 'पंजे' का इस्तेमाल कर कांग्रेस ने कलावती को बीच चुनाव में बैठने पर मजबूर कर दिया. जिन सज्जन ने कलावती को चुनाव की जगह समाज सेवा का पाठ पढ़ाया था, वो पुराने 'कांग्रेसमिजाजी' और सुलभ इंटरनेशनल के मुखिया बिन्देश्वर पाठक थे. पाठक जी ने कलावती को कुछ इन शब्दो में समझाया (जो कुछ अखबारों में छपा था)'मैं कलावती को कहना चाहूंगा, वो राजनीति की दीवार में सिर न भिड़ाए, वो अगर विदर्भ के लोगों की हालत हाईलाइट करना चाहती है, तो ये समाज सेवा के जरिए भी किया जा सकता है.'यानी तुम करो समाज सेवा, हम मारेंगे मलाई! पाठक जी की 'सलाह' का असर ये हुआ कि कलावती बीच चुनाव में बैठ गई. सियासी दबाव के आगे उसने विधान सभा में पहुंचकर अपनी बात रखने का सपना छोड़ दिया. अगर ऐसा है कलावती जैसियों के सपने का हश्र, तो महिला आरक्षण का क्या फायदा होगा? जैसा कि मीडिया एक सुर में चिल्ला रहा है.(खासकर हिंदी मीडिया) देश में महिलाओं की हालत के आंकड़े भला मीडिया से भी छिपे हैं क्या? वो नहीं जानते आज की तारीख में महिलाओं के लिए आरक्षण से ज्यादा सुरक्षा, घरेलू हिंसा, दहेज, शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्याएं बड़ी हैं? इन समस्याओं की आधी आबादी का कितना प्रतिशत तबाह हो रहा है, कितनी औरतों को इन समस्याओं के आगे देश क्या, अपने समाज की दशा और दिशा समझने की सुध नहीं रहती? अगर मीडिया वाले ये समझते हैं कि सियासत में उतरने से महिलाएं महिलाओं का कल्याण करेंगी, तो उनके सामने मायावती, राबड़ी देवी, जयललिता, उमा भारती, वसुंधरा राजे जैसियों के उदाहरण नहीं है. महिलाओं के लिए क्या खास किया है इन देवियों ने अपने राज में? कौन सा कल्याणकारी कार्य कर दिया इन्होंने? राजस्थान में, कि यूपी में, कि बिहार में, कि मध्य प्रदेश में, कि तमिलनाडु में, कहां सुधरी है महिलाओं की हालत? इनमें से कई देवियां तो घोटाले में मर्दों के भी कान काटने वाली हैं. क्या ये आंकड़े मीडिया की पहुंच के बाहर हैं? महिला कल्याण के मोर्चे पर कलावती का उदाहरण इन पार्टियों की फितरत समझने के लिए काफी नहीं? फिर ये भ्रम क्यों फैलाया जा रहा है कि महिला आरक्षण से 'सब कुछ' सुधर जाएगा?अगर मीडिया ये समझता है, कि महिला आरक्षण बिल के कानून बन जाने से पार्टियां महिलाओं को 33 फीसदी टिकट बांटने लगेंगी, तो क्या मीडिया का आकलन इतना घटिया हो गया है? जैसी इन पार्टियों की फितरत रही है, वो महिलाओं को किस अनुपात में प्रतिनिधित्व देंगें? अरे जो बीजेपी, जो कांग्रेस, जो लेफ्ट, आज तक अपनी नीयत या ईमानदारी किसी महिला को टिकट नहीं थमाया, महिलाओं को 'आधी आबादी; क्या, 'आबादी के दसवे हिस्से' का भी दर्जा नहीं दिया, वो अचानक महिलाओं के कल्याण के लिए सुर में सुर क्यों मिलाने लगीं?संसद में इतनी बड़ी नौटंकी क्यों. दागी और अपराधियों को टिकट देने के लिए यही पार्टियां कैसे कैसे बहाने देती हैं, कानूनी 'छेदों और परिच्छेदों' का बहाना देती हैं, कभी मिल जुलकर एकजुट होने और कानून बनाने की बात कह दो तो साफ कहते हैं- दागियों के खिलाफ एकजुटता मुमकिन नहीं, फिर आरक्षण पर इतने एकजुट कैसे हो गए? ऐसा लगता है जैसे महिलाओं को सीट देने में कोई कानूनी अड़चन आ रही थी, संसद में उसी बाधा को दूर करने के लिए एकजुट हो रहे हों. इसी एकजुटता से लालू और मुलायम के सवाल में सच्चाई नजर आती है- ये 33 फीसदी आरक्षण सीट हथियाने का हथकंडा हैलेकिन हैरत होती है मीडिया को देखकर (एक बार फिर कहना चाहूंगा खासकर हिंदी मीडिया) पार्टियों को छोड़िए, कि इनके सुर में ऐसे एकसुर हो गया मीडिया, कि कान तक नहीं दिया आरजेडी, एसपी, बीएसपी और दूसरे विरोधियों की दलीलों को. (अंग्रेजी में तो फिर भी बहस हुई, हिंदी में तो इतिहास रचने के सिवा कुछ स्लग ही नहीं सूझा) ये ठीक है, इनके आकाओं का खुद मुंह नहीं है महिला कल्याण का नारा देने का, न लालू की नीयत ठीक है, न मुलायम की, और मायावती की तो और भी नहीं, लेकिन इनके इशारों को बहस के बीच ही न घसीटा जाए, ऐसा भी तो नहीं होना चाहिए. संसद में नहीं हुआ, शायद विरोधियों का संख्या बल नहीं था, लेकिन मीडिया के मंच पर ऐसा क्यों, कि सबकी पट्टी एक हो गई- राज्यसभा ने रच दिया इतिहास!

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