बचपन में मैं अक्सर एक सपना देखा करता था कभी सोयी आँखों से तो कभी जगी आँखों से.मैं सपने में देखता कि मेरे घर के दक्षिण से गुजरनेवाली नहर रेलवे लाइन में बदल गई है और उस पर से छुक-छुक करती ट्रेन गुजर रहीं है.हालांकि न तो अब तक नहर से होकर रेलगाड़ी गुजरी है और न ही निकट-भविष्य में गुजरनेवाली है लेकिन आज भी मैं जब भी रेलयात्रा करता हूँ तो अभिभूत हो जाता हूँ.मूंगफली से लेकर चाय बेचनेवाले तक की मिली-जुली आवाज से उभरता प्यारा-सा शोर.कहीं ताश का आनंद लेते लोग तो कहीं गंभीर बहस में भाग लेते सभासद.कभी-कभी तो इन बहसों का स्तर इतना ऊंचा हो जाता है कि लोकसभा और राज्यसभा भी इस मामले में कहीं पीछे रह जाए.कभी-कभी तो बहस की तीक्ष्णता इतनी ज्यादा हो जाती है कि लगता है कि बहस करने वाले लोग यात्री नहीं देश के भाग्य विधाता हैं और अब देश का भाग्य बदलने ही वाला है.रेलगाड़ियाँ सिर्फ पैसेंजर को ही नहीं ढोतीं हैं ढूधवालों के दूध को, घासवालों की घांस को और सब्जीवालों की सब्जियों को भी ढोतीं हैं और साथ ही ढोतीं हैं इनके घरवालों के सपनों को.आराम के मामले में यातायात का कोई भी दूसरा साधन इसकी बराबरी नहीं कर सकता.पैखाना या पेशाब लगा हो तो बसयात्रियों की तरह घबराने की कोई जरूरत नहीं है सारी सुविधाएँ आपकी बोगी में ही मौजूद जो हैं.जब हमारे ईलाके में पहली बार रेलगाड़ियों का आगमन हुआ तो गंगा पर के लोग रेलयात्रा कर चुके लोगों से अक्सर पूछते कि रेलगाड़ी कैसी होती है?एक बार हुआ यह कि एक ग्रामीण ने दूसरे को पूछने पर बताया कि रेलगाड़ी काली होती है और जब वह चलती है तो ऊपर से धुआं और नीचे से पानी निकलता रहता है.वह बेचारा लोगों से पूछता-पूछता जा पहुंचा पूरे परिवारसहित पास के रेलवे स्टेशन पर.टिकट ले लिया और लगा इंतजार करने.तभी एक कूली जो गहरे काले रंग का था बीड़ी पीते हुए आया और पास की झाड़ी की तरफ मुंह करके पेशाब करने लगा.ग्रामीण ने देखा कि यह काला भी है और ऊपर से धुआं और नीचे से पानी उत्सर्जित भी कर रहा है.बस फ़िर क्या था छलांग लगाकर चढ़ गया कूली के कंधे पर और परिवार के दूसरे सदस्यों को चढ़ने को कहने लगा.बेचारे कूली की जान तभी छूटी जब असली ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आ गई.खैर अब ऐसी घटना होने की सम्भावना नहीं रही क्योंकि अब भाप ईंजनों का चलना हमारे ईलाके में बंद हो चुका है जहाँ भाप ईंजन होगा वहां भले ही ऐसी घटनाएँ घटती हों.लेकिन हमें इतना सुख देनेवाली ट्रेनों के साथ हम कैसा व्यवहार कर रहे हैं?हम बिना टिकट लिए ट्रेन में चढ़ जाते हैं जबकि इसका भाड़ा सुविधाओं की तुलना में काफी कम होता है.खिडकियों में साईकिल से लेकर खाट तक लाद देते हैं. और सबसे बड़ी ज्यादती तो करते हैं मिनट-मिनट पर चेनपुल और वैकम करके.ऐसा करते समय हम यह नहीं सोंचते कि बांकी के यात्रियों को हमारे इस स्वार्थपूर्ण रवैय्ये से कितनी परेशानी होती होगी.अंत में मैं वैसे लोगों को जो भारतीय समाज को नजदीक से देखना चाहते हों को सलाह दूंगा कि वे रेलगाड़ी से यात्रा करें. इससे आपको दो फायदे होंगे.एक तो आपका ज्ञान बढेगा और दूसरा यह कि आपका सामाजिक सरोकार बढेगा जान-पहचान बढ़ेगी क्योंकि आप रेलयात्रा के दौरान कटे-कटे से नहीं रह सकते.इसलिए मैंने बच्चनजी की पंक्तियों में कुछ बदलाव कर दिया है-भेद कराते बस और टेम्पो मेल कराती रेलगाड़ी.
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aap kee rachna padhee hai