शनिवार, 10 अप्रैल 2010

मुलाकात चलते चलते पीयूष मिश्र से ---अब्दुल्ला अनूप

पीयूष मिश्रा से मेरी मुलाकात अनुराग कश्यप की वजह से हुई। पृथ्वी थियेटर पर अनुराग निर्मित पहला नाटक ‘स्केलेटन वुमन’ था और पीयूष वहीं बाहर दिख गए। मैंने थोड़ा जोश में आकर पूछ लिया कि
आपका इंटरव्यू कर सकता हूं एक हिंदी ब्लॉग के लिए – साहित्य, राजनीति और संगीत पर बातें होंगी।
उन्होंने ज़्यादा सोचे बिना कहा – परसों आ जाओ, यहीं, मानव (कौल) का प्ले है, उससे पहले मिल लो। बातचीत बहुत लंबी नहीं हुई पर पीयूष जितना तेज़ बोलते हैं, उस हिसाब से बहुत छोटी भी नहीं रही। उनके गीतों का रेस्टलेसनेस उनके लहज़े में भी दिखा और उनके लफ्ज़ों में भी। ये तो नहीं कहा जा सकता कि वो पूरे इंटरव्यू में ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ रहे पर कुछ जगहों पर कोशिश ज़रूर नज़र आयी। पर बातचीत का अंतिम चरण आते आते उन्होंने खुद को बह जाने दिया और थियेटर-वाले पाले से भी बात की, जबकि बाकी के ज़्यादातर सवालों में वो यही यकीन दिलाते दिखे कि अब पाला बदल चुका है।
लिखित इंटरव्यू में वीडियो रिकार्डेड बातचीत के ज़रूरी सवालों का जोड़ है, पर पूरा सुनना हो तो वीडियो ही देखें। पृथ्वी थियेटर की बाकी टेबलों पर चल रही बहस और बगल में पाव-भाजी बनाते भाई साब की बदौलत कुछ जगहों पर आवाज़ साफ नहीं है। ऐसे ‘गुम’ हो गए शब्दों का अंदाज़न एवज दे दिया है, या खाली डॉट्स लगा दिए हैं। मैं थोड़ा नरवस था, और कुछ जगहों पर शायद सवालों को सही माप में पूछ भी नहीं पाया, पर शुक्रिया पीयूष भाई का कि उन्होंने भाव भी समझा और विस्तार में जवाब भी दिया।
आपका अब भी लेफ्ट विचारधारा से जुड़ाव है?
(लेफ्टिस्ट होने का मतलब ये नहीं कि) परिवार के लिए कम्प्लीटली गैर-ज़िम्मेदार हो जाओ।
लेफ्ट बहुत अच्छा है एक उमर तक… उसके बाद में लेफ्ट आपको… या तो आप लेफ्टिस्ट हो जाओ… लेफ्टिस्ट वाली पार्टी में मिल जाओ… तब आप बहुत सुखी… (तब) लेफ्ट आपके जीवन का ज़रिया बन सकता है।
और अगर आप लेफ्ट आइडियॉलजी के मारे हो… तो प्रॉब्लम यह है कि आप देखिए कि आप किसका भला कर रहे हो? सोसाइटी का भला नहीं कर सकते, एक हद से आगे। सोसाइटी को हमारी ज़रूरत नहीं है। कभी भी नहीं थी। आज मैं पीछे मुड़ के देखता हूं तो लगता है कि (लेफ्ट के शुरुआती दिनों में भी) ज़िंदा रहने के लिए, फ्रेश बने रहने के लिए, एक्टिव रहने के लिए (ही) किया था तब… बोलते तब भी थे की ज़माने के लिए सोसाइटी के लिए किया है।
तो अब पॉलिटिक्स से आपका उतना लेना देना नहीं है?
पॉलिटिक्स से लेना देना मेरा… तब भी अंडरस्टैंडिंग इतनी ही थी। मैं एक आम आदमी हूं, एक पॉलिटिकल कॉमेंटेटर नहीं हूं कि आज (…..) आई विल बी ए फूल टू से दैट आई नो सम थिंग! पहले भी यही था… हां लेकिन यह था कि जागरूक थे। एज़ पीयूष मिश्रा, एज़ अन आर्टिस्ट उतना ही कल था जितना कि आज हूं। (अचानक से जोड़ते हैं) पॉलिटिक्स है तो गुलाल में!
हां लेकिन जो लोग ‘एक्ट वन’ को जानते हैं, उनका भी यह कहना है कि ‘एक्ट वन’ में जितना उग्र-वामपंथ निकल के सामने आता था, ‘एक्ट वन’ की एक फिलॉसफी रहती थी कि थियेटर और पॉलिटिक्स अलग नहीं हैं, दोनों एक ही चीज़ का ज़रिया हैं।
ठीक है, वो ‘एक्ट वन’ हो गया। ‘एक्ट वन’ ने बहुत कुछ सिखाया। ‘एक्ट वन’ (की) ‘सो कॉल्ड’ उग्र-वामपंथी पॉलिसी ने बहुत कुछ दिया है मुझको। (लेकिन) उससे मन का चैन चला गया। ‘एक्ट वन’ ने (जीना) सिखाया… ‘एक्ट वन’ की जो ‘सो-कॉल्ड’ उग्र-वामपंथी पॉलिटिक्स है, यह, मेरा ऐसा मानना है की इनमें से अधिकतर लोग जो हैं तले के नीचे मखमल के गद्दे लगाकर पैदा होते हैं। वही लोग जो हैं वामपंथ में बहुत आगे बढ़ते हैं। अदरवाइज़ कोई, कभी कभार, कुछ नशे के दौर में आ गया। (कोई) मारा गया सिवान में! अब सिवान कहां पर है, लोगों से पूछ रहे हैं… सफ़दर हाशमी मारा जाता है, तहलका मच जाता है, ट्रस्ट बन जाते हैं, न मालूम कौन कौन, (जो) जानता नहीं है सफ़दर को, वो जुड़ जाता है और वहाँ पर मंडी हाउस में… फोटो छप रहे हैं, यह है, वो है… सहमत! चंद्रशेखर को याद करने के लिए पहले तो नक़्शे में सिवान को देखना पड़ेगा, है कहां सिवान? कौन सा सिवान? कैसा सिवान? कौन सा चंद्रशेखर? सफ़दर के नाम से जुड़ने के लिए ऐसे लोग आ जाते हैं, जो जानते नहीं थे सफ़दर को… सफ़दर का काम, सफ़दर का काम… क्या है सफदर का काम? मैं उनकी (सफ़दर की) इन्सल्ट नहीं कर रहा… ऐसे ऐसे काम कर के गए हैं कि कुछ कहने की… खामोशी की मौत मरे हैं। मैं खामोशी की मौत नहीं मरना चाहता! थियेटर वाले की जवानी बहुत खूबसूरत हो सकती है, थियेटर वाले का बुढ़ापा, हिन्दुस्तान में कम से कम, मैं नहीं समझता कि कोई अच्छी संभावना है।
अधिकतर लोग सीनाइल (सठिया) हो जाते हैं। अचीवमेंट के तौर पर क्या? कुछ तारीखें, कुछ बहुत बढ़िया इश्यूस भी आ गये… कर तो लिया यार… अब कब तक जाओगे चाटोगे उसको? चार साल पहले जब मैं दिल्ली जाया करता था तो मेरा मोह छूटता नहीं था, मैं जाया करता था वहां पर जहां मैं रिहर्सल करता था… शक्ति स्कूल या विवेकानंद। ज़िंदगी बदल गयी यार, दैट टाइम इज़ गॉन! अच्छा टाइम था, बहुत कुछ सिखाया है, बहुत कुछ दिया है, इस तरह मोह नहीं पालना चाहिए।
एनके शर्मा जी अभी भी वहीं हैं, उनके साथ के लोग एक-एक कर के यहां आते रहे… मनोज बाजपाई, दीपक डोबरियाल। उनका क्या व्यू है? थियेटर से निकलकर आप लोग सिनिमा में आ रहे हैं?
एनके शर्मा जी का व्यू अब आप एनके शर्मा से ही पूछो। उनका ना तो मैं स्पोक्स मैन हूं… उनसे ही पूछो!
बॉम्बे में एक ऑरा है उनको लेकर… वो लोगों (एक्टर्स) को बनाते हैं।
टॉक टू हिम… टॉक टू हिम!
आप खुद को पहले कवि मानते हैं या एक्टर?
ऐसा कुछ नहीं है।
बॉम्बे में आप खुद को आउट-साइडर मानते हैं?
कैसे मानूंगा? मेरी जगह है यह। मेरा बच्चा यहां पैदा हुआ है। कैसे मानूंगा मैं?
लेकिन आउटसाइडर इन द सेन्स, मैं प्रोफेशनली आउटसाइडर की बात कर रहा हूं। जिसमें थियेटर वालों को हमेशा थोड़ा सा सौतेला व्यवहार दिया जाता है यहां पर।
नहीं नहीं। उल्टा है भाई! थियेटर वालों को बल्कि…
स्टार सिस्टम ने कभी थियेटर वालों को वो इज़्ज़त नहीं दी…
हां… स्टार सिस्टम है। स्टार सिस्टम की ज़रूरत है। थियेटर वालों को मालूम ही नहीं कि बुनियादी ढांचा कैसे होता है। मैं तो बड़ा सोचता रहा कि खूबसूरत बंदे क्यूं थियेटर पैदा नहीं कर पाया। मैं समझ ही नहीं पाया आज तक! थियेटर वाले होते हैं, मेरे जैसी शकल सूरत होती है उनकी टेढ़ी-मेढ़ी सी।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं है… आज… नसीर हैं, ओम पुरी हैं… दे आर रेकग्नाइज़्ड। अनुपम खेर हैं…
नहीं, वह बात है कि उनको इज़्ज़त ज़रूर मिलती है लेकिन उनको इज़्ज़त दे कर पेडेस्टल पे रख दिया जाता है, लेकिन उससे आगे बढ़ने की कभी भी शायद…
आगे बढ़ने की सबकी अपनी अपनी क़ाबिलियत है। और जितना आगे बढ़ना था, जितना सोच के नहीं आये थे, उससे आगे बढ़े ये लोग। पैसे से लेकर नाम तक। इससे बेहतर क्या लोगे आप।
पुराने दिनों के बारे में, ख़ास कर के ‘एन ईवनिंग विद पीयूष मिश्रा’ होता था…
तीन प्लेज़ थे एक-एक घंटे के। पहला ’दूसरी दुनिया’ था निर्मल वर्मा साब का, दूसरा ’वॉटेवर हैपंड टू बेट्टी लेमन’ (अरनॉल्ड वास्कर का), तीसरा विजयदान देथा का ‘दुविधा’। तब पैसे नहीं थे, प्लेटफॉर्म था नहीं… आउट ऑफ रेस्टलेसनेस किया था। वह फॉर्म बन गया भई कि नया फॉर्म बनाया है। फॉर्म-वार्म कुछ नहीं था। ‘एक्ट वन’ मैंने जब छोड़ा था ‘95 में, ऑलमोस्ट मुझे लगा था की मैं ख़तम हो गया। ‘एक्ट वन’ वाज़ मोर लाइक ए फैमिली। और वहां से निकलने के बाद यह नयी चीज़ आयी।
(असली सवाल पर आते हुए) मेरे लिए ज़्यादा फैसिनेटिंग यह था कि उसकी ब्रान्डिंग, सेलिंग पॉइंट था आपका नाम। 1996 में दिल्ली में आपके नाम से प्ले चल रहा था, कहानियों के नाम से या लेखक के नाम से या नाटक के नाम से नहीं, आपके नाम से परफॉर्मेन्स हो रही थी। बॉम्बे ने अब जा कर रेकग्नाइज़ किया है…
‘झूम बराबर झूम’ में काम किया, वो चल नहीं पायी। ‘मक़बूल’ में काम किया, उसका ज़्यादा श्रेय पंकज कपूर और इरफ़ान को मिला… वो भी अच्छे एक्टर हैं… पर पता नहीं कुछ कारणों से, ‘मक़बूल’ में बहुत तारीफ़ के बावजूद रेकग्निशन नहीं मिला। ‘आजा नच ले’ में काम किया, उसका लास्ट का ओपेरा लिखा… ऐसा हुआ कि बस यह फिल्म (गुलाल) बड़ी ब्लेसिंग बन कर आयी मुझ पर। जितना काम था, सब एक साथ निकालो। लोग रेस्पेक्ट करते थे… जानते थे भाई यह हैं पीयूष मिश्रा। लेकिन ऐसा कुछ हो जाएगा, यह नहीं सोचा था।
गुलाल की बात करें तो… उसमें यह दुनिया अगर मिल भी जाए है, बिस्मिल की नज़्म है, कुछ पुराने गानों में भी री-इंटरप्रेटेशन किया है. इस सब के बीच आप मौलिकता किसे मानते हैं?
नहीं – यह नयी ही पोएट्री है।एक लाइन ली है… एक लाइन के बाद तो हमने सारा का सारा री-क्रिएट किया है। जितनी यह बातें हैं… वो आज की जेनरेशन की ज़ुबान बदल चुकी है। और आप उन्हें दोष भी नहीं दे सकते। अब नहीं है तो नहीं है, क्या करें। लेकिन उसी का सब-टेक्स्ट आज की जेनरेशन को आप कम्‍युनिकेट करना चाहें, कि कहा बिस्मिल ने था… ऐसा कुछ कहा था – कम्‍युनिकेशन के लिए फिर प्यूरिस्ट होने की ज़रूरत नहीं है आपको कि बहुत ऐसी बात करें कि नहीं यार जैसा लिखा गया है वैसा। और ऐसा नहीं है कि उनको मीनिंग दिया गया है।
फिर भी, मौलिकता का जो सवाल है, फिल्म इंडस्ट्री में बार बार उठता है। संगीत को लेकर, कहानियों को लेकर, उस पर आपका क्या टेक है?
मालूम नहीं… इंस्पिरेशन के नाम पर यहाँ पूरा टीप देते हैं. सारा का सारा, पूरा मार लेते हैं.
आपके ही नाटक ‘गगन दमामा बाज्यो’ पर ‘लेजेंड ऑफ भगत सिंह’ बनाया गया। वहां मौलिकता को लेकर दूसरी तरह का डिबेट था।
वहां पर जो है की फिर यू हैव टू बी रियल प्रोफेशनल. बॉम्बे का प्रोफेशनल! कैसे एग्रीमेंट होता है… मुझे उस वक़्त कुछ नहीं मालूम था। उस वक़्त मैं कर लिया करता था। हां भाई, चलो, आपके लिए कर रहे हैं मतलब आपके लिए कर रहे हैं। वहां फिर धंधे का सवाल है।
‘ब्लैक फ्राइडे’ के गाने भी आपके ही थे। उनको उतना रेकग्निशन नहीं मिला जितना गुलाल को मिला।
हूं… हूं… नहीं इंडियन ओशियन का वह गाना तो बहुत हिट है। उनका करियर बेस्ट है अभी तक का गाना। (‘अरे रुक जा रे बंदे’)… लाइव कॉन्सर्ट करते हैं… उन्हीं के हिसाब से, दैट्स देयर ग्रेटेस्ट हिट! लेकिन अगर ‘ब्लैक फ्राइडे’ सुपरहिट हो जाती, मालूम पड़ता पीयूष मिश्रा ने लिखा है गाना तो… सिनेमा के चलने से बहुत बहुत फ़र्क पड़ता है। हम थियेटर वालों को थोड़ी हार मान लेनी चाहिए कि सिनेमा का मुक़ाबला नहीं कर सकते। वो तब तक नहीं होगा जब तक कि यहां (थियेटर की) इंडस्ट्री नहीं होगी। और इंडस्ट्री यहां पर होने का बहुत… यह देश इतना ज़्यादा हिन्दीवादी है ना… गतिशील ही नहीं है। यहां पर ट्रेडिशन ने सारी गति को रोक कर रख दिया है। हिन्दी-प्रयोग! पता नहीं क्या होता है हिन्दी प्रयोग? जो पसंद आ रहा है वो करो ना। हिन्दी नाटक… भाष्य हिन्दी का होना चाहिए, अरे हिन्दी भाष्य में कोई नहीं लिख रहा है नाटक यार। कोई ले दे के एक हिन्दी का नाटक आ जाता है तो लोग-बाग पागल हो जाता है की हिन्दी का नाटक आ गया! अब उन्हें नाटक से अधिक हिन्दी का नाटक चाहिए। लैंग्वेज के प्रति इतने ज़्यादा मुग्ध हैं… मैने जितने प्लेज़ लिखे उनमें से एक हिन्दी का नहीं था, सब हिन्दुस्तानी प्लेज़ थे।
एकेडमीशियन और थिएटर करने वालों में कोई फ़र्क नहीं (रह गया) है। जितने बड़े बड़े थिएटर के नाम हैं, सब एकेडमीशियन हैं। करने वाले बंदे ही अलग हैं। करने वाले बंदों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखा जाता है। “यह नाटक कर रहा है… लेकिन वी नो ऑल अबाउट नाट्य-शास्त्र!” अरे जाओ, पढ़ाओ बच्चों को…
लेकिन आपका मानना है कि बॉम्बे में थियेटर चल रहा है… दिल्ली के मुक़ाबले।
दिल्ली में लुप्त हो गया है। दिल्ली में बाबू-शाही की क्रांति के तहत आया था थिएटर। (नकल उतारते हुए) “नाटक में क्या होना चाहिए – जज़्बा होना चाहिए! जज़्बा कैसा? लेफ्ट का होना चाहिए।” एक्सपेरिमेंटेशन भी पता नहीं कैसा! यहां पर देखो, यह अभी भी चल रहा है – मानव (कौल) ने लिखा है यह प्ले (पार्क)…

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