शनिवार, 10 अप्रैल 2010

मरकटिया मच्छर- हंस लो धीरे धीरे - अनूप

कुत्ते नाहक ही बदनाम है अपनी टेढ़ी दुम को लेकर, इन मच्छरों की तो जात ही टेढ़ी है. जाने इन्हें कान के आस पास काटने में क्या मजा आता है. हर बार यहीं मार खाते हैं, हर बार यहीं मसले जाते हैं, लेकिन कान पर काटने से बाज नहीं आते.जाने न्यूज रुम में कहां से आ गए हैं इतने सारे लंबी टांगों वाले मरकटिया मच्छर- बेकार में ड्यूटी बढ़ाने! पेज कारे करने' के साथ हाथ भी लाल करने पड़ते हैं. क्या करें- ससुरे इतना भी नहीं समझते, आदमी के 'अंदर का शोर बाहर निकालने वाली' मशीन पर अपना राग अलापना कितना जानलेवा होता है. भगाने से भी नहीं भागते ढीठ कहीं के...घूम फिर कर कान पर मंडराने लगते हैं. समझते नहीं, एक तो 'विदाउट ब्रेक काम करो, बीच-बीच में ताली पीटते रहो. सुबह तक ढेर लग जाता है डेस्क पर. जिस दिन हाफ सेंचुरी लगाने की फुरसत नहीं लगी, उस दिन भी 20-25 मच्छरों की लाशें 'एक शिफ्ट में हुई हिंसा' का सबूत पेश कर रही होती है. उखमज कहीं के, जैसे पैदा होते हैं, वैसे ही मारे जाते हैं. लेकिन बेकार में प्रोड्यूसर को पापी बना जाते हैं. डेस्क पर खून के धब्बे देखकर मैनेजमेंट तो यही कहेगा! सफाई वाले नहीं समझ पाते, डेस्क पर इतने करीने से क्यों रखी हुई हैं मच्छरों की लाशें. इस लिहाज से कितने मूर्ख लगते हैं न्यूज रुम के मच्छर. भुक्खड़ इतने कि न सामने वाले की संवेदना का एहसास, न रीझ का, न खीझ का. इनकी चतुराई का अंदाजा इसी बात से लगाइए, कि निकलते हैं 'चिकने चुपड़े डेस्क के अंदर जमी गर्द' से, लेकिन पांव पर बैठना तक गवारा नहीं. जैसे इनकी तौहीन हो जाएगी. जान की बाजी लगाकर काटने दौड़ते हैं कान पर. एक तो जाने क्यों दफ्तर में घुसते ही कान लाल-भभूका हो जाता है (डॉक्टर बेहतर बताएंगे क्यों) दूसरे ये लगते हैं उसी पर मुंह मारने. जरा भी 'सेंस' होता, तो समझ लेते 'रिसते जख्म में सींक डालना' इंसानियत नहीं होती. खून पीना है तो 'मोटी चमड़ी वाली जगह' का पी लो यार. ये कान की जगह का पीने की कैसी लत?. ये ठीक है कि तुम्हारे पास भी 'शीशाबंद शीतल हॉल' में एक बार घुसने के बाद निकलने का चारा नहीं बचता. लेकिन ये तो समझो, तुम न्यूज रुम के मच्छर हो, किसी गंदी नाली के नहीं, तुम्हारी 'सेंसिबलिटी' तो हमसे मैच करनी चाहिए!

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