गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

वाह क्या खूब है साधू-साधू का खेल .......

अनिल अनूप
जिम्मेदारियों से भाग खड़े होने का सबसे अच्छा तरीका है साधु बन जाना। स्वर्ग सा गृहस्थ जीवन छोड़कर पहले साधु बनते हैं, फिर समाधि छोड़कर संभोग की तरफ आते हैं, और जन्म देते हैं सेक्स स्केंडल को।स्वामी नित्यानंद जी आजकल सेक्स स्केंडल के कारण ही तो चर्चाओं में हैं। आज तक तो उनके बारे में कभी सुना नहीं था, लेकिन वो सेक्स स्केंडल के कारण चर्चा में आए, और हमारे ज्ञान में बढ़ोतरी कर दी कि कोई नित्यानंद नामक स्वामी दक्षिण में भी हुए हैं। शायद आपको याद होगा कि सिरसा स्थित डेरा सच्चा सौदा के संत गुरमति राम रहीम सिंह भी इस कारण चर्चा में आए थे। उन पर भी छेड़छाड़, बलात्कार जैसे आरोप लगे हैं। जब भी सेक्स स्केंडल में किसी संत महात्मा को लिप्त देखता हूँ तो सोचता हूँ कि हमारी सोच पर पड़ा हुआ पर्दा कब हटेगा? हम बाहरी पहनावे पर कब तक यकीन करते रहेंगे? गिद्दड़ शेर की खाल पहनने से शहर तो नहीं हो जाता, और कोई भगवा पहन लेने से साधु तो नहीं हो जाता? कोई दो तीन अच्छे प्रवचन देने से भगवान तो नहीं हो जाता? लेकिन क्या करें, हम सब आसानी से चाहते हैं। जब नित्यानंद जैसे मामले सामने आते हैं तो हम आहत होते हैं। मुझे लगता है हम कभी आहत नहीं होंगे, अगर हम गुरू को भी मिट्टी के बने घड़े की तरह ठोक बजाकर देखें, लेकिन हम व्यक्ति को भगवान मानते वक्त कभी भी उसका निरीक्षण करना पसंद नहीं करते? अगर निरीक्षण करने का समय होता तो आत्मनिरीक्षण न कर लेते।लुधियाना के पास स्थित एक श्री गुरूद्वारा साहिब की घटना। वहाँ हर रोज सुबह चार बजे गुरुबाणी का उच्चारण होता है, सभी श्री गुरूद्वारा साहिबों की तरह। एक सुबह एक गाँव वाले की निगाह श्री गुरू ग्रंथ साहिब के बीचोबीच पड़े मोबाइल पर पड़ गई, और उस मोबाइल में अश्लील वीडियो चल रहा था। यह सिलसिला कब से चल रहा था, इसका तो पता नहीं, लेकिन जब पकड़ा गया तो गाँवों ने ग्रंथी की खूब धुनाई की। ऐसी घटनाएं मजिस्दों, मंदिरों, गुरूद्वारों, चर्चाओं एवं डेरों में आम मिल जाएंगी। फिर भी कोई नहीं सोचता आखिर ऐसा क्यों होता? ऐसा इसलिए होता है कि हम बाहरी तौर से कुछ भी अपना लेते हैं, लेकिन भीतर तक जा ही नहीं पाते। कपड़ों की तरह हम भगवान बदलते रहते हैं। जिस संत की हवा हुई, हम उसकी के द्वार पर खड़े होने लगते हैं, नफा मिले तो ठीक, नहीं तो नेक्सट।एक और घटना याद आ रही है, जो ओशो की किताब में पढ़ी थी, एक जगह ओशो ध्यान पर भाषण दे रहे थे, उनके पास एक व्यक्ति आया और बोला मैं सेक्स को त्यागना चाहता हूँ, तो ओशो ने कहा, जब आज से कुछ साल पहले मैं सेक्स पर बोल रहा था, तो तुम भाग खड़े हुए थे, और आज मैं ध्यान पर बोल रहा हूँ तो सेक्स से निजात पाने की विधि पूछने आए हो। इस वार्तालाप से मुझे तो एक बात ही समझ में आती है कि आप जितना जिस चीज से भागोगे, वो उतना ही तुम्हारे करीब आएगी। उतना ही ज्यादा तुम्हें बेचैन करेगी।जब भयानक भूख सेक्स स्केंडल के रूप में सामने आती है तो केस दर्ज होते हैं। उम्र भर की कमाई हुई इज्जत मिट्टी में मिल जाती हैं। दूध का दूध पानी का पानी हो जाता है। कितनी हैरानी की बात है कि जन्म मृत्यु के चक्कर मुक्त करने वाले खुद मौत से कितना डरते हैं। उनका कोर्ट में पेश न होना बताता है। अगर वो जन्म मृत्यु के चक्कर से मुक्त हैं तो कोर्ट में खड़े क्यों नहीं हो जाते, सच को हँसकर गले क्यों नहीं लगाते। इसलिए मैं कहता हूँ कि मखमली लिबास ओढ़कर भाषण देना बहुत आसान है। मंसूर की तरह अल्लाह का सच्चा आशिक होना बेहद मुश्किल है।असल में सृष्टि सेक्स की देन है, लेकिन केवल मनुष्य ने सेक्स को भूख बना लिया। वो इस भूख से निजात पाने के लिए सन्यास जैसे रास्ते तैयार करता है और एक दिन उस व्यक्ति की तरह उस भूख को मिटाने के लिए कुछ भी खा जाता है, जो घर छोड़कर रेगिस्तान में इसलिए चला गया कि वो भूख से निजात पा सके। जब उसे घर से गए हुए काफी दिन हो गए तो पत्नि ने कहा, हाल चाल तो पूछ लूँ कहाँ हैं? कैसे हैं? उसने एक चिट्ठी और कुछ फूल भेजे। कुछ दिनों बाद पति का जवाब आया, "मैं बढ़िया हूँ, और तुम्हारे भेजे हुए फूल बेहद स्वादिष्ट थे"। ज्यादातर साधु सन्यासी ऐसे ही हैं, जो सेक्स की भूख से निजात पाने के लिए औरत से दूर भागते हैं, लेकिन वो भूल जाते हैं कि वो भूख को भयानक रूप दे रहे हैं।

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