पूरन चंद्र जोशी की पुस्तक ‘यादों से रची यात्रा एक विकल्प की तलाश‘ किसी तपती गर्मी, उमस और बेचैनी के समय में ठंडी फुहार की तरह सचमुच एकबारगी मन को हरा कर गयी। विचारों और चिंताओं से भरी इस किताब को दो दिन में पूरी पढ़ गयी। बहुत दिनों बाद मुक्तिबोध की कविता की पंक्तियां फिर कानों में गूंज उठी–जड़ीभूत ढ़ांचों से जरूर लड़ेगें हमचाहे प्रतिनिधि तुमचाहे प्रतिनिधि हम।यह एक ईमानदार समाजशास्त्री और एक न्यायपूर्ण समाज को धरती पर देखने को आतुर संवेदनशील बुद्धिजीवी का अपने अतीत, वर्तमान और आनेवाले कल से वाद–विवाद और संवाद है। जनता के संघर्षों और उसकी जिजीविषा में अटूट आस्था रखने वाला व्यक्ति जिस तरह हमेशा एक नयी सुबह का सपना संजोए रखता है और यह विश्वास करता है–‘ऐसा जमाना हमेशा नहीं रहेगा। एक समय आयेगा, जब हम फिर अपनी जमीन से जुड़ेगें, और फिर से हमारे जीवन में वसंत आयेगा (इसी पुस्तक से) , जोशी जी न सिर्फ अपने समय से ही साक्षात्कार करते हैं बल्कि उससे दो–दो हाथ करते हुए चरैवेति–चरैवेति के संकल्प के साथ , ‘वैंक्विश्ड टुडे बट नाट फारएवर, टुमारो वी शैल राइज विद ग्रेटर विजडम एडं डिसिप्लिन‘ (लेखक की पुस्तक से उद्धृत) के विश्वास के साथ यह कहते हैं कि आम आदमी के लिये कोई पैराडाइस लॉस्ट , स्वर्ग का लोप नहीं है और नहीं उसके लिये कोई ‘दॅ एण्ड ऑफ सिविलाइजेशन‘, सभ्यता का अंत है।जोशी जी की यह पुस्तक हमेशा बेहतर की तलाश की मनुष्य की सतत चेष्टा और इस चेष्टा के तहत उसकी निर्मितियों, उनकी कमियों, कमजोरियों और उनसे उबरकर एक नये विकल्प की खोज की यात्रा है।उनकी यह यात्रा वैकल्पिक सभ्यता की जन्मभूमि रूस से शुरू होती है। जोशी जी लिखते हैं–‘‘ रूसी क्रांति की सबसे महत भूमिका यही थी कि उसने व्यापक जनसाधारण को इतिहास के हाशिए से इतिहास की मुख्य प्रेरक शक्ति, मुख्यकर्ता के रूप में इतिहास के केंद्र में प्रतिष्ठित किया। रूसी क्रांति मुख्य रूप से हमेशा इसीलिये याद की जायेगी, अमर रहेगी कि उसने श्रमिक जनता में आत्मसम्मान जगाया और अदम्य आत्मविश्वास पैदा किया और उसकी सर्जनात्मक ऊर्जा, उसमें निहित रचनात्मक अंत:शक्ति को नये समाज, नए अर्थतंत्र, नई राजव्यवस्था, नई संस्कृति के निर्माण का माध्यम बनाया।’’ जोशी जी रूसी क्रांति की इस महान भूमिका के बारे में गांधी, रवींद्रनाथ और जवाहरलाल नेहरू की स्वीकारोक्तियों का स्मरण करते हैं और यह सवाल उठाते हैं कि आज अभिजात वर्गों द्वारा उस महान स्मृति को मिटाने का जो अभियान चलाया जा रहा है, उसके पीछे वाशिंगटन समझौते के तहत चलायी जा रही नवउदारवादी संस्कृति की तो भूमिका है ही, इसके साथ ही क्या स्वयं रूस के अंदर की सोवियत व्यवस्था के विघटन के बाद की घटनाएं इसका प्रमाण नहीं है कि श्रमिक और जनसाधारण आज फिर से अपनी मानवीय स्थिति और नियति के मूक निष्क्रिय दर्शक बना दिये गये हैं और आज रूस में भी ‘एक देश दो राष्ट्र‘ वाला अमीर गरीब का विभाजन और अलगाव पैदा हो गया है।
अपने लेख ‘स्तालिन के आखिरी मुलाकाती‘ में जोशीजी भारत के भूतपूर्व विदेश सचिव तथा बाद में मास्को में भारत सरकार के राजदूत श्री के.पी.एस. मेनन और भारतीय पुलिस के एक बड़े अधिकारी तथा रूस के इतिहास में विशेष दिलचस्पी रखने वाले श्री निगमेंद्र सेन के अध्ययन तथा जवाहरलाल नेहरू की यात्रा के हवाले से सोवियत संध के पूरे घटनाचक, स्तालिन की भूमिका को समझने की कोशिश करते हैं।
वे सोवियत संध, यानी विश्व का पहला समाजवादी देश जिसके सामने अभूतपूर्व चुनौतियां थी, जहां बाहर और भीतर समाजवाद के दुश्मन इस नवनिर्मित देश को मिटाने पर तुले हुए थे, उस समय मार्क्स की धारणा के विपरीत एक अंत्यंत पिछड़े हुए राष्ट्र में संपन्न हुई समाजवादी क्रांति को बचाने और देश को विकसित करने का गुरु दायित्व किस तरह संभाला गया, इस पर गंभीरता से विचार करते हैं। वे फ्रांसीसी इतिहासकार मार्क ब्लाक की इस बात को याद करते हैं कि ‘‘जहां तक महान ऐतिहासिक विभूतियों का सवाल है उनके बारे में तुरंत फैसला देना आसान है। लेकिन उन्हें समझना और उनके साथ न्याय करना अत्यंत कठिन।‘‘ जोशी जी का कहना है कि स्तालिन के व्यक्तित्व का मूल्यांकन भी एक इतिहासकार के लिये गंभीर चुनौती भरा काम है। वे स्तालिन के बारे में लेनिन की एक टिप्पणी का हवाला भी देते हैं जिसमें लेनिन यह कहते हैं कि जनरल सेक्रटरी बनने के बाद स्तालिन ने अपने हाथ में अपार शक्ति केंद्रित कर ली है और मुझे इस बात का विश्वास नहीं होता कि वे इस शक्ति का प्रयोग एहतियात के साथ करना जानते हैं। इसके साथ ही वे स्तालिन को सनकी और स्वेच्छाचारी भी बताते हैं।जोशी जी एक समाज वैज्ञानिक के नाते जहां पूरी निष्ठा के साथ उस पूरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझने की कोशिश करते हैं जिसने स्तालिन की इन सब कमजोरियों के बावजूद उन्हें देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचा दिया, वहीं वे गंभीरता के साथ यह भी संधान करते हैं कि क्या स्तालिनवाद के बीज रूस की विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज नहीं थे? जोशी जी इतिहासकार ई.एच. कार की पुस्तक, ‘द बोल्शेविक रिवोल्यूशन‘ तथा पत्रकार मौरिस हिंडस की चर्चित पुस्तक ‘मदर रशा‘ के हवाले से बताते हैं कि रूस के इतिहास में दो तरह की प्रवृतियां रही है, एक यूरोप के साथ जुड़ने और खुलेपन की प्रवृति थी जिसका प्रतिनिधित्व पीटर द ग्रेट ने किया था और लेनिन भी इसी परंपरा को जीवित रखने के लिये प्रयत्नशील थे और दूसरी परंपरा रूस के गैर यूरोपीय चरित्र को प्राथमिकता देने की और उसे यूरोप के मुकाबले एक महाशक्ति के रूप में सुदृढ़ करने की प्रवृति थी। ई.एच. कार के अनुसार रूस के बुद्धिजीवी भी दो खेमों में बंटे हुए थे। स्तालिन इसी दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व करते थे। जोशी जी का कहना है कि स्तालिन लेनिन की तरह मार्क्सवाद के मूल प्रेरणास्रोत, विवेकवाद और प्रबुद्धवाद के कठिन रास्ते से मार्क्सवाद तक नहीं पहुंचे थे। वे एक छलांग में धार्मिक ‘प्रीस्ट‘ से मार्क्सवादी ‘प्रीस्ट‘ में तब्दील हो गये थे और उन्होंने मार्क्सवाद को भी एक धार्मिक पंथ या संप्रदाय के रूप में ढ़ाल दिया। इसके चलते रूस अपने इतिहास की विवेकवाद और प्रबुद्धवाद की परंपरा से कट गया और रूस की आयरन कर्टेन से घेराबंदी कर स्तालिन का रूस पीटर द ग्रेट के रूस की मानसिक खिड़कियां और दरवाजे खोलने की परंपरा से भी कट गया। आश्चर्य होता है कि जब श्री मेनन स्तालिन को रूसी इतिहास में ‘इवान द टेरिबल‘ के समकक्ष रखते हैं तो जोशी जी ही उनकी बात का खंडन करते हुए यह कहते हैं कि रूस के आधुनिकीकरण में स्तालिन की महत भूमिका को देखते हुए उनका स्थान रूसी आधुनिकीकरण के प्रथम महानायक ‘पीटर द ग्रेट’ के समकक्ष क्यों नहीं ! मार्क्सवाद हमें बताता है कि ‘‘मानव–जन अपना इतिहास स्वयं बनाते हैं, पर अपने मनचाहे ढ़ग से नहीं। वे उसे अपनी मनचाही परिस्थितियों में नहीं, अपितु ऐसी परिस्थितियों में बनाते हैं, जो उन्हें अतीत से प्राप्त और अतीत द्वारा सम्प्रेषित होती है और जिनका उन्हें सीधे–सीधे सामना करना पड़ता है।‘‘ स्तालिन के गुण–दोष को भी हमें उस काल–विशेष के संदर्भ में ही देखना पड़ेगा। लेकिन फिर भी प्रश्न तो स्वाभाविक रूप में मनुष्य के विवेक के सामने खड़े होते ही हैं। रवीन्द्रनाथ ने कहा था–लेकिन सभ्यता का एक बुद्धिरूप भी होता है जो अन्न रूप से बड़ा है। जो सभ्यता जनता के मनरूपी खेत का कर्षण करके उसमें फल उत्पन्न कर पाती है वही महान होती है। इस कर्षण का अभाव जरूर कहीं तो रहा होगा।
अपने आलेख ‘महायुद्ध के बाद का रूस : भारतीय मूल्यांकन‘ में जोशी जी प्रोफेसर आशाराम, जो इलाहबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विभाग के प्रोफेसर थे और कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे तथा प्रसिद्ध समाजशास्त्री और बंगला साहित्यकार धूर्जटी प्रसाद मुखर्जी की रूस यात्राओं के जरिये यह बताने की कोशिश की है कि किस प्रकार क्रांति के बाद का रूस मेहनतकश जनता का ही नहीं प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का भी मक्का सा बन गया था। यानी जैसे ‘किगडम ऑफ गाड आन अर्थ‘ ईसाई धर्म के लोगों के लिये आस्था जागृत करता है, आलोचनात्मक विवेक नहीं उसी प्रकार रूस भी विश्वासी कम्युनिस्टों का आदर्श स्वप्न लोक बन गया था। जोशी जी के अनुसार आशाराम जी ने सोवियत समाज के अन्तर्विरोधों को देखा था और उसे अभिव्यक्त भी किया था लेकिन बंधे अंध–विश्वासी कम्युनिस्टों ने उसे स्वीकार नहीं किया, उल्टे आशाराम जी की प्रतिबद्धता पर ही सवाल उठा कर उनकी भर्त्सना की। धूर्जटी बाबू की रूस यात्रा के अनुभवों का जिक्र करते हुए जोशी जी कहते हैं कि उन्होंने रूस को खुली आंखों से देखा था और उसके सकारात्मक पक्षों की सराहना करते हुए जहां उसे बच्चों, युवाओं, महिलाओं, वृद्धों और शिक्षकों का स्वर्ग बताया, वहीं उन्होंने इस बात पर आशंका भी जाहिर की थी कि महायुद्ध के बाद रूस को एक नयी दिशा देने में रूसी नेतृत्व कितना सफल और सक्षम होगा यह नहीं कहा जा सकता। उनके अनुसार इसके लिये रूस को वैचारिक पूर्वाग्रहों से मुक्त, नई दिशा के चिंतन में समर्थ स्वतंत्र बुद्धिजीवी समुदाय की जरूरत थी जिसकी उपस्थिति लगातार क्षीण होती जा रही थी और स्तालिन के नेतृत्व काल में तो बुद्धिजीवियों पर शासक वर्ग का सर्वसत्तावादी वर्चस्व कायम हो गया और रूस का स्वतंत्र बुद्धिजीवी वर्ग एक कैप्टिव बुद्धिजीवी वर्ग में तब्दील हो गया, वह सिर्फ शासक वर्ग का व्याख्याता और टीकाकार बन कर रह गया। इसके बाद ही जोशी जी धूर्जटी बाबू और कामरेड पी.सी. जोशी के बीच हुई एक दिलचस्प बातचीत का हवाला देते हैं जहां इन दोनों में इस बात पर बहस होती है कि एक बुद्धिजीवी की पार्टी में क्या कोई जगह होती है, क्या वह सिर्फ मंच की शोभा बढ़ाने की चीज भर है। धूर्जटी बाबू कहते हैं कि कम्युनिस्ट आंदोलन में तो बुद्धिजीवी पार्टी का बंदी है या महज पार्टी लाइन का व्याख्याता, प्रवचनकार, टीकाकार या प्रचारक। इन सबमें बुद्धिजीवी की जगह कहां है? धूर्जटी बाबू की इस बात के जवाब में पी.सी. जोशी कहते हैं कि एंटी–इंटैलेक्चुएलिज्म का जवाब एंटी–पोलिटीकल होकर तो नहीं दिया जा सकता। सच तो यह है कि राजनैतिक आंदोलन, राजनैतिक पार्टी, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं से अलग होकर तो बुद्धिजीवी लोकतंत्र में कोई सक्रिय और सार्थक भूमिका नहीं निभा सकता।...राजनीतिक क्षेत्र में बुद्धिजीवियों का प्रवेश और हस्तक्षेप ही राजनीति के अंदर ‘एंटी–इंटैलेक्चुएलिज्म की कड़ी दीवार को तोड़ सकता है। धूर्जटी बाबू पलटकर सवाल करते हैं कि : क्या बुद्धिजीवी के राजनीति में प्रवेश और हस्तक्षेप की यह जरूरी शर्त है कि वह किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य बने और उसका अनुशासन स्वीकार करे। ...अनुभव बताता है कि पार्टीबद्ध, अनुशासनबद्ध बुद्धिजीवी अंत में एक स्वतंत्र बुद्धिजीवी नहीं पार्टी का प्रवचनकार और व्याख्याता बनकर बुद्धिजीवी के रूप में समाप्त हो जाता है।‘‘ जोशी जी भी धूर्जटी बाबू की इस बात को स्वीकारते हुए कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी जब सत्ता में आ जाती है तो उसका संगठन रेडिकल चेतना और चिंतन क्रिटिकल सोच का प्रतिरोधी बन जाता है। जोशी जी के अनुसार कम्युनिस्ट आंदोलन ने दुनिया भर में प्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों को जितना अपनी ओर आकर्षित किया उतना और किसी आंदोलन ने नहीं, लेकिन इसके साथ ही जितने बड़े पैमाने पर उनके बुद्धिजीवी चरित्र पर कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन और अनुशासन ने आघात कर उन्हें स्वायत्त चिंतन में असमर्थ बनाया, उसकी भी कोई मिसाल नहीं है। ‘‘हम सामान्यतया उस ‘स्वतंत्रता‘‘ को पसंद नहीं करते, जो केवल बहुवचन के लिये सार्थक है। इंग्लैंड हमें इस बात का बड़े ऐतिहासिक पैमाने पर प्रमाण प्रस्तुत करता है कि ‘‘ स्वतंत्रताओं‘‘ का संकुचित क्षितिज स्वतंत्रता के लिये कितना खतरनाक है।‘‘स्वतंत्रताओं की, विशेषाधिकारों की बात,‘‘ वोल्तेयर कहते हैं, ‘‘मातहती की पूर्वकल्पना करती है। स्वतंत्रताएं सामान्य दासता में अपवाद का द्योतक है।‘‘ ( मार्क्स : पत्र–पत्रिकाओ की स्वतंत्रता पर वाद–विवाद)
मार्क्स के उपरोक्त कथन के संदर्भ में हम बुद्धिजीवी की स्वतंत्रता को समझने की कोशिश करें तो नि:संदेह हमें यह समझते देर नहीं लगती कि बुद्धिजीवी की स्वतंत्रता और बुद्धिजीवी की स्वायत्तता भी अपने आप में एक मिथक ही है। वर्गों में विभाजित और शोषण पर टिके समाज में सिर्फ पूंजी ही स्वायत्त होती है। लेकिन इसके बावजूद यह भी सच है कि पूंजी की स्वतंत्रता और मनुष्य की गुलामी का यह द्वंद्व ही मनुष्य की स्वतंत्रता का वह मूल्य भी पैदा करता है, जो अंतत: मनुष्य की गुलामी को खत्म करने में एक सहायक की भूमिका अदा करता है। जहां तक कम्युनिस्ट पार्टी में बुद्धिजीवी की परजीवी भूमिका का प्रश्न है यह सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी का ही दोष नहीं है। कोई भी संगठन, समाज और दर्शन यदि अपने भीतरी लोकतांत्रिक स्वरूप को खो देता है, तो वह न सिर्फ सत्य के संधान के अपने रास्ते को ही अवरुद्ध कर देता है बल्कि अपने मूल उद्देश्य से ही भटक कर कितनी ही विकृतियों और अंतत: अपने विनाश का भी कारक बन जाता है। इसलिये सवाल सिर्फ बुद्धिजीवी की स्वतंत्रता का नहीं है बल्कि जैसा कि मार्क्स ने कहा, बहुवचन की स्वतंत्रता का है। बहुवचन की इस स्वतंत्रता का प्रश्न हमारे मन को सालता रहे और हम मुक्तिबोध की तरह खुद से यह पूछते रहें तो एक बुद्धिजीवी की भूमिका का शायद कुछ हद तक निर्वहन कर सकेंगे :
अब तक क्या किया जीवन क्या जियाअपने ही कीचड़ में धंस गयेविवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल मेंआदर्श खा गयेबहुत बहुत ज्यादा लिया और दिया बहुत बहुत कममर गया देश अरे जीवित रह गये तुम।
अपने आलेख ‘‘स्तालिन के बाद का रूस : साहित्य की भूमिका‘‘ में जोशी जी ने चुप्पी के उस काल का जीवंत चि़त्रण रूसी कवियों की जानदार कविताओं से किया है। इसके साथ ही उन्होंने अपने कुछ जीवंत अनुभवों का भी जिक्र करते हुए यह बताया है कि किस तरह वैचारिक सेमिनारों में भी रूसी प्रतिनिधि मंडल हमेशा एक ही स्वर में बोलते थे, जबकि निजी बातचीत में उनके विचार अलग होते थे। जोशी जी की पुस्तक में ही उद्धरित त्वारद्वास्की की पंक्तिया बहुत कुछ कह देती है, जो इस प्रकार हैं:
‘‘जो कुछ रह गया था अनकहाफर्ज कहता है कि हम आज वह सब कहें ‘‘
और अपने फर्ज के मानवीय बोध की यह चेतना ही है जो हर अंधेरे को तोड़ कर उजाले का रास्ता प्रशस्त कर देती है। इसीलिये खुद जोशी जी भी इस बात को स्वीकारते हैं कि पूरा परिदृश्य अंधकारमय नहीं है। वे लिखते हैं–बाद की सोवियत यूनियन की अन्य यात्राओं के उपरांत सोवियत व्यवस्था की गहराती समस्याओं का अहसास और बोध मन में गहरा संशय पैदा करता था कि यह व्यवस्था अपने अंतर्विरोधों से मुक्त होने और संकटग्रस्त होने की तरफ जाने से क्या बचने में समर्थ हो पायेगी? दूसरी ओर संशय से जूझता हुआ अंतर्मन का एक विश्वास भी बना रहा जो तर्क और बुद्धि से परे था, लेकिन मन में आशा जगाए हुए था – समाजवाद निश्चय ही अपनी समस्याओं से जूझने में उसी प्रकार सफल होगा जैसे बीते दौर के संकटों पर विजयी हुआ है। ‘‘सलाम लेनिनग्राद‘‘ में उन्होंने फासीवाद पर सोवियत संघ की लाल फौज और उस देश की जनता की वीरता और कुर्बानियों का बेहद सजीव चित्रण किया है। रूसी कवियत्री अन्ना अख्मातोवा की कविताएं अत्यंत मार्मिक है, एक बानगी देखिये ‘‘हिम्मत‘‘ कविता की–
‘‘मालूम हमें कि क्या गुजरती हम पर इस पल/मालूम नहीं क्या होगा कल सब कुछ तो अनिश्चित इस पल/मगर निश्चित है यह कि न छोड़ेगी हिम्मत हमारा साथ/घड़ी बताती है कि है यही हिम्मत की घड़ी आज/डर नहीं अगर ऊपर से बरसता सीसे का लावा/कोई साया न सिर पर मगर न कोई गिला न पछतावा/हर हालत में रखेगें महफूज तुझे, ओ हमारी शान/हमीं से पहुंचेगी हमारी जुबान हमारे बच्चों के बच्चों तक/आजाद और पाक, इंसानियत के लिये हिम्मत का यह सबक।‘‘ और इस अपराजेय हिम्मत पर मुस्कुराता हुआ लेनिनग्राड मौत को पराजित कर फिर उठ खड़ा होता है। लेखिका लिखती है– ‘‘और यह बिना तारों की/जनवरी की रात/इसकी अनोखी किस्मत से आश्चर्यचकित/मौत की अगाध गहराइयों से वापस लौटा/लेनिनग्राड स्वयं को करता है सलाम।अन्ना अखमातोव की ये कविताएं और उनसे प्रभावित, बल्कि अभिभूत होकर लिखी गई शिशिर दास की मूल बांग्ला कविता, ‘कोथाय छिलाम आमी, कोथाय‘ का अंग्रेजी, रूसी और हिंदी में रूपांतरण और फिर इसका रूसी प्रतिनिधियों के बीच पाठ–आसुंओं की कोई भाषा नहीं होती, विश्व मानवता जैसे एक ही स्वर में बोल रही थी।
‘‘नई राह की खोज‘‘ में लेखक नवउदारवादी चिंतक फ्रांसिस फुकुयामा के चिंतन की आलोचना करता है और यह बताता है कि किस तरह येल्तसिन ने तथाकथित आर्थिक सुधारों को लागू करके प्रगति के जो सपने दिखाये थे, वे सपने पूरा होना तो दूर उसने तो रूसी जनता को उपलब्ध सारी सुविधाओं को ही छीन लिया। अर्थतंत्र से राज्य का वर्चस्व हटाकर सबकुछ बाजार के हाथों सौंप देने के परिणाम सब उल्टे ही साबित हुए। लेखक का कहना है कि सोवियत समाजवादी व्यवस्था की असफलता और नवउदारवाद की असफलता ने एक न्यायसम्मत समाज की मनुष्य की आकांक्षा को पराजित नहीं किया है। उसकी विकल्प की तलाश अभी जारी है। विकल्प की इसी तलाश में लेखक यह सवाल करता है कि क्या जनसाधारण की व्यापक गरीबी और अभाव के बीच अमीरी के ये द्वीप नई सभ्यता के स्थायी प्रतीक हैं या समाज के प्रबुद्ध तत्वों के लिये एक चेतावनी है और विकास के नाम पर हो रहे इस अपविकास को रोकने और विकास का नया मॉडल खोजने के लिए एक चुनौती। लेखक इसी द्वंद्वात्मक सामाजिक संदर्भ में नए वैचारिक क्षितिज, नई राहें खोजने के लिए खुद को प्रतिबद्ध करता है। जोशी जी के विचारों, उनके निष्कर्षों से आप सहमत हों या न हों, लेकिन आप उनकी चिंताओं से खुद को अलग नहीं कर सकते। इस बेहद रोचक विमर्श के लिये जोशी जी को अकूत धन्यवाद।
बुधवार, 14 अप्रैल 2010
यादों के झरोखे से
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aap kee rachna padhee hai