मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

इसकी कोई पहचान नहीं है – जब आप अपनी बेटी का रिश्ता तय करने जाते हैं और जैसे ही आपने यहां का नाम बताया – आपका काम वहीं खत्म। पहचान सिर्फ कमाई से नहीं बनती है, रहन-सहन भी कोई चीज है, यहां के लोगों का रहन-सहन ठीक नहीं है।” इस इलाके का एक बुजुर्ग जितनी ईमानदारी और आसानी से दिल्ली के हिस्से के बारे में बात करता है, दिल्ली में बहुत कम ही लोग और बहुत कम ही ऐसे इलाके होंगे, जहां ऐसी बातें की जाती है। दिल्ली के लोग अपने उन मोहल्ले को भी इलाके की सबसे पाश कॉलोनी बताते हैं, जहां पहुंचने के लिए फोर व्हीलर डेढ़ किलोमीटर पहले ही छोड़ देनी पड़ती है, जहां के लोगों की आधी गृहस्थी सड़कों पर तैरती है और जहां पूरा का पूरा परिवार एक बेपर्द जिंदगी जीता है। ऐसे में एक ईमानदार जुबान से दिल्ली के बारे में सुनना कुछ और ही किस्से बयान करता है। रवीश कुमार और उनके कैमरापर्सन की नजर से देखी गयी इस दिल्ली में काफी हद तक बयान की ये ईमानदारी बरकरार रहती है।
शुरुआत में नाम से ऐसा लगता है कि पॉपुलरिटी के चक्कर में इसे चैनल ने शरद जोशी के उपन्यास और सबटीवी पर दिखाये जानेवाले सीरियल लापतागंज का कॉन्सेप्ट मारकर कुछ अलग बनाने की कोशिश की है। लेकिन रिपोर्ट को देखते हुए ये भ्रम टूटता है कि ये सबटीवी का लापतागंज नहीं है बल्कि एनडीटीवी का अपना बनाया और खोजा गया लापतागंज है। इसमें कुछ-कुछ, कहीं-कहीं समान है तो वो है रवीश कुमार की स्क्रिप्ट में शरद जोशी का वो अंदाज, जो व्यंग्य और बिडंबना के बीच से होकर शहर को समझना चाहता है। जो दिल्ली की ब्रांडिंग के नाम पर सरकारी उछल-कूद पर हंसता है और मनमोहन सिंह की ब्रांड इंडिया स्ट्रैटजी से कहीं ज्यादा आम नागरिकों के जुगाड़तंत्र से इम्प्रैस होता है। एनडीटीवी इंडिया पर दिल्ली का लापतागंज नाम से रवीश कुमार की ये स्पेशल स्टोरी पहाड़गंज की उस कहानी को बयान करती है, जिसे देखते हुए दिल्ली की सारी परिभाषाएं एक-दूसरे से गड्डमड्ड होने लगती है। ऐसा लगता है कि दिल्ली की चमक को ग्लोबल स्तर पर स्टैब्लिश करने में लाखों के खर्चे पर लगाये कीऑस्क का कोई भी असर यहां नहीं है। इसका इतिहास अभी भी फटे हुए पोस्टर की तरह जहां-तहां से फड़फड़ा रहा है। ये दिल्ली के नाम पर बहुत ही ढीठ किस्म का इलाका है, जो कि इस शहर की परिभाषा को बदलने के लिए अपनी ढिठाई लिये पेश आता है। सालों से चाकू की धार लगानेवाले शख्स की तस्वीर लेकर रोज पचासों विदेशी उसे ग्लोबल कर जाते हैं लेकिन वो आज दिन तक कनॉट प्लेस से आगे तक नहीं गया।
इस रिपोर्ट में पहाड़गंज को समझने के लिए रवीश कुमार ने तीन फोकल प्वाइंट तय किये हैं। एक है सिटी स्पेस के तहत पहाड़गंज का लोकेशन, दूसरा टूरिज्म, बाजार और विदेशी सैलानियों का पैश्टिच बनता ये इलाका और तीसरा इस इलाके में जीनेवाले लोगों की अपनी आदतों को उनके घरों में घुसकर जानने की कोशिश। पूरी रिपोर्ट इन्हीं तीन फोकल प्वाइंट के बीच घूमती है और इन तीनों स्तरों पर ये अपार्टमेंट और मॉल में जीनेवाली दिल्ली, कॉमनवेल्थ को लेकर नाज करनेवाली दिल्ली, आधी जिंदगी सड़कों और गाड़ियों में एफएम की बड़बड़ाहट के बीच पस्त होती दिल्ली और दुनिया के बेहतरीन शहरों में इसे शामिल करनेवाले लोगों से व्यस्त दिल्ली से अपने को कैसे अलग करती है, उसे समझने की कोशिश करती है। इस पहाड़गंज में ग्लोबल और अर्बन कहलाने के लिए बेचैन दिल्ली से अलग उन चिन्हों को खोजने की कोशिश की गयी है, जिसके भीतर आज भी मोहल्ला कहलाने की फितरत मौजूद है। इसे न तो सरकार से किसी अलग मार्का लगवाने की जरूरत महसूस होती है और न ही किसी नये चमकते शब्दों से खुद को पुकारे जाने की ललक। लेकिन एक ठसक है कि दुनिया उसके पास आती है। शायद यही वजह है कि अपनी शक्ल-सूरत में ये जितना लोकल है, अपनी शर्तों पर उतना ग्लोबल भी। रिपोर्ट ये सारी बातें विस्तार से बताती है।
रिपोर्ट बताती है कि अगर आप बदलते वक्त के साथ दिल्ली को समझना चाहते हैं तो पहाड़गंज के घरों की छतों पर खड़े हो जाइए। एक तरफ जामा मस्जिद, दूसरी तरफ दूर से दिखता राष्ट्रपति भवन का गुंबद और बगल से गुजरती नयी-नवेली मेट्रो। शहर का पूरा नजारा एक लाइव हिस्ट्री की तरह आपके सामने है। लेकिन फिर सवाल भी है कि इस नजारे के बीच खुद पहाड़गंज क्या है? रवीश इसे बचे-खुचे मोहल्ले का नाम देते हैं। जहां के घरों की दीवारें एक-दूसरे से सटी हुई हैं, बिजली के तार इलाके की धमनियों के रूप में बहुत ही उलझे और कॉम्प्लीकेटेड हैं। इन गलियों में अभी भी घोड़े आजाद मन से घूमते नजर आते हैं। ऐसे इलाके में रहने का सबसे दिलचस्प नजारा होता है कि आप एक ही साथ कई गतिविधियों को, कई लोगों को कुछ-कुछ करते हुए देख सकते हैं। अपार्टमेंट कल्चर में जहां प्राइवेसी के नाम पर हम भारी कीमतें चुकाते हैं, वहीं इन इलाकों के बीच पब्लिक एक्टिविटीज के बीच जीना अटपटा नहीं लगता।
रिपोर्ट का दूसरा फोकल प्वाइंट बहुत ही जबरदस्त है। जिस किसी का भी कभी दिल्ली आना हुआ है, उन्हें पता है कि पहाड़गंज इस बात के लिए सबसे ज्यादा मशहूर है कि यहां सस्ते में रहने का ठिकाना मिल जाता है। जिस किसी विदेशी सैलानी को सस्ते में और सबसे करीब से हिंदुस्तान को देखना हो तो उसके लिए पहाड़गंज पहली प्रायॉरिटी होती है। होटल के बगल से ही हिंदुस्तान की सही तस्वीर दिखाई देने लग जाती है। इस इलाके में करीब साढ़े छ सौ होटल हैं और हर होटल पैदा होते ही अपने को इंटरनेशनल कहने लग जाता है। नवरंग होटल के मालिक श्याम विज का मानना है कि बाहर से आनेवाले लोग दो पैग मारकर बड़े आराम से इस शहर को देखने निकल लेते हैं। पचास कमरे के इस होटल का कोई भी कमरा कभी भी खाली नहीं रहता। इसकी वजह सिर्फ इतना भर नहीं है कि यहां मात्र 100 रुपये में कमरा मिल जाता है बल्कि इन कमरों में कइयों के दोस्त पहले यहां रहकर गये होते हैं। दीवारों पर कुछ न कुछ तस्वीरें बनाकर जाया करते हैं, जिसे कि बाद में उसे खोजते हुए लोग वापस आते हैं। इसलिए इसकी दीवारों की पुताई नहीं करायी जाती। इस तरह हर कमरे के साथ एक इंटरनेशनल किस्सा जुड़ा होता है। इन होटलों के बीच एक ग्लोबल स्तर का ‘म्यूजिम फॉर रिमेंबरेंसट’ बनता चला जाता है। नवरंग की छत पर टाइटेनिक की हिरोइन केट वेंसलेट की बनायी बाघ की पेंटिंग है, यहीं स्मोकिंग पार्क की शूटिंग हुई। ये इलाका बिना टस से मस हुए अपने मिजाज से ग्लोबल होता चला जाता है।
रिपोर्ट का दिलचस्प पहलू है कि उसने इसके भीतर के बननेवाले बाजार को सही संदर्भों में समझा है। रिपोर्ट के मुताबिक यहां के लोकल दुकानदारों ने विदेशी पर्यटकों की जरूरतों को देश के पर्यटन विभाग से भी ज्यादा बेहतर तरीके से समझा है। जिन गलियों में कभी किराना की दुकानें हुआ करती थी, आज वो पूरा का पूरा हैंडीक्राफ्ट के बाजार में तब्दील हो गया है। मामूली कीमतों पर बिकनेवाली यहां की चीजें भारत में बनी और यहां से खरीदकर ले जाने का एहसास पैदा करती है। यहां अपने तरीके के विज्ञापन जन्म लेते हैं। चमड़े के विदेशी जैकेट पहनने से स्कीन खराब होती है इसलिए – be indian, buy indian. ग्लोबल स्तर के पैश्टिच यहीं से बनने शुरू होते हैं, जहां विदेशी पहले तो यहां की चीजें इस्तेमाल करता है, फिर डमरु बजाकर शिव का भक्त हो जाता है। इनके हाथों और शरीर पर काठ, चाम, जूट, रंगों से बनी देशी चीजें हैं तो दूसरी तरफ माचिस की डिबिया जैसे घरों में रहनेवाले लोग भी तमाम तरह की मल्टीनेशनल कंपनियों की सुविधाओं (प्रोडक्ट के स्तर पर) में जीते हैं।
हम जब से दिल्ली को समझना शुरु करते हैं, गृहस्थी के बारे में सोचना शुरु करते हैं – आंखों में 800-1000 स्क्वायर फीट के फ्लैट का खांचा फिट हो जाता है। उस कार्पेट एरिया में बार्बी डॉल से खेल रही बच्ची होती है और टाटा स्काई प्लस पर सीरियल रिकार्ड करती पत्नी। हम बॉलकनी में आनेवाले कबूतरों को भगा रहे होते हैं। दिल्ली सरकार को गौरैयों को बचाने के लिए हमसे अपील करनी पड़ जाती है कि आप बालकनी में थोड़ा पानी रख दिया करें… लेकिन पहाड़गंज और पुरानी दिल्ली में रहनेवाले लोग इन कबूतरों और गौरेयों को आवाज देकर बुलाते हैं। दिल्ली 6 में इस मस्सकली के बुलाये जाने की संस्कृति पर पूरा का पूरा गाना निसार है। यहां 20 कमरे में पांच सौ लोग रहते हैं। हमें सुन कर हैरानी होती है कि कैसे रह लेते होंगे। लेकिन हमारे ऊपर ही मजाक उड़ाता एक बड़ा सच है कि हम जैसे लोग जिनके बारे में आम मुहावरा है – बाप मर गया एयरकंडीशन से और बेटा खोजे एयरकंडीशन, दिल्ली में रहकर प्रायवेसी चाहते हैं, ग्रीनरी चाहते हैं खुला-खुला चाहते हैं वहीं दिल्ली के आठवीं शताब्दी के शासक तोमरवंश के वंशज इन्‍हीं माचिस की डिबिया माफिक घरों में रहते हैं, इन्हीं दड़बेनुमा घरों में उनके सपने, उनके बच्चे, उनकी गृहस्थी फैलती है और उन्हें दिक्कत नहीं होती, इन सबकी उन्हें आदत पड़ गयी है। अगर थोड़ी-बहुत तकलीफ होती भी है तो इतिहास को अपनी अंटी में खोंसकर चलने के गुरूर के सामने ये फीका पड़ जाता है।
हमें कान के बहरे और अक्ल से पैदल मानकर स्टोरी करनेवाले बाकी चैनलों के कार्यक्रम से ये स्पेशल स्टोरी अलग लगी है। ये ऑडिएंस पर भरोसा करके बनायी गयी स्टोरी है। इसमें हमें एक ही साथ डॉकुमेंटरी, टीवी रिपोर्ट, फीचर का भी मजा मिलता है और टुकड़ो-टुकड़ो में दिल्ली 6, रंग दे बसंती, चांदनी चौक टू चाइना और देव डी जैसी फिल्मों से मिलती-जुलती फुटेज देखने का सुख भी। न्यूज चैनल के ऐसे ही कार्यक्रम से टेलीविजन की भटकी और विक्षिप्त हुई ऑडिएंस एक बार फिर से जुड़ती है और इसी से दूरदर्शन के नास्‍टैल्जिया में फंसे लोगों के आजाद होने की संभावना भी बढ़ती है। लोगों के साथ मोहल्लावाला की हैसियत से रवीश कुमार का बात करने का अंदाज हमें टच करता है, हां ये अलग बात है कि उनकी बाकी की स्टोरी के मुकाबले इसमें प्रजेंटेशन के स्तर पर लिक्विडिटी थोड़ी कम है। बीच-बीच में कुछ अटकने और फंसने का एहसास होता है। तो भी कॉमनवेल्थ के पहले-पहले तक ऐसी स्टोरी दिल्ली के और इलाकों को लेकर बने तो ये नये किस्म का इतिहास होगा। एक ऐसा इतिहास जो कि किताबों की कथा से अलग लोगों की जुबानी और कैमरे की पकड़ के बीच से सहेजी गयी हो।

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