मंगलवार, 20 जुलाई 2010

कौमियत में बाँट दिया धर्म को

अनील अनूप
ढोंग और ढकोंसला को धर्म का नाम दे कर उनको क़ौमियत में तकसीम कर दिया गया है। हिदू धर्म, इस्लाम, धर्म, ईसाई धर्म वगैरह , जब कि धर्म सिर्फ़ एक होता है किसी वस्तु, जीव या व्यक्ति का सद गुण -जैसे काँटे (तराजू) का धर्म (सदगुण) उस की सच्ची तोल, फूल का धर्म खुशबू, साबुन का धर्म साफ़ करना और इंसान का धर्म इंसानियत। इसी धर्म का अरबी पर्याय ईमान है जिस पर इस्लाम ने कब्ज़ा कर लिया है। इस्लाम अभी चौदह सौ साल पहले आया, ईमान और धर्म इंसान की पैदाइश के साथ साथ हजारों सालों से काएम हैं। इंसान इर्तेक़ाइ मरहलों में है,ये रचना-काल समाप्त हो, ढोंग और ढ्कोंसलों का कूड़ा इसकी राह से दूर हो जाए तो ये मानव से महा मानव बन जाएगा। खास कर मुस्लिम समाज जो पाताल में जा रहा है, इस को जगाना ज़रूरी है क्यूँ कि इसी में से मैं वाबिस्ता हूँ और यह ख़ुद अपना दुश्मन है। कोई इसका दोस्त नही । इस को तअस्सुब या जानिब दारी न समझा जाए, बल्कि कमज़ोर की मदद है ये।
हम बहैसियत मुसलमान इस वक्त अपने मुखालिफों के नरगे में हैं, ख्वाह वह रूए ज़मीन का कोई भी टुकडा क्यों न हो, मुस्लिम एक्तेदार में हो, या गैर मुस्लिम एक्तेदार में हो, छोटा सा गाँव हो, कस्बा हो, छोटा या बड़ा शहर हो, हर जगह मुसलमान अपने आप को गैर महफूज़ समझता है, खास कर वह मुसलमान जो वक्त के मुताबक बेहतर और बेदार समाजी ज़िन्दगी जीने का हौसला रखता है. उस के लिए दूर दूर तक खारजी और दाखली दोनों तौर पर रोड़े बिखरे हुए हैं. खारजी तौर पर देखें तो दुन्या इन मुसलमानों के लिए कोई नर्म गोशा इस लिए नहीं रखती की इन का माजी का अईना इन्तेहाई दागदार है,और दाखली सूरते हल ऐसी है कि ख़ुद इनकी ही माहोल्याती तारीकी इन्हें आठवीं सदी में ले जाना चाहती है.हर हस्सास मुसलमान अपने ऊपर मंडराते खतरे को अच्छी तरह महसूस कर रहा है.वह अपने अन्दर छिपी हुई इस की वज़ह को भी अच्छी तरह जानता बूझता है. बहुत से सवाल वह ख़ुद से करता है, अपने को लाजवाब पाता है. ख़ुद से नज़र नहीं मिला पाता, जब कि वह जानता है हल उसके सामने अपनी उंगली थमाने को तय्यार खड़ा है क्यूंकि उसके समाज के बंधन उसके पैर में बेडियाँ डाले हुए हैं. वह शुतुर मुर्ग कि तरह सर छिपाने के हल को क्यूं अपनाए हूए है? वह अपनी बका और फ़ना को किस के हवाले किए हुए है?

हमें चाहिए हम आँखें खोलें, सच्चाइयों का सामना करते हुए उनको तस्लीम कर लें. याद रखें सच्चाई को तस्लीम करना ही सब से बड़ी अन्दर कि बहादुरी है. दीन के नाम पर क़दामातों पर डटे रहना जहालत है. कल की माफौकुल-फितरत बातें और दरोग बाफियाँ आज के साइंस्तिफिक हल २+२=४ कि तरह सच नहीं हैं जदीद तरीन सदाक़तें अपने साथ नई क़द्रें लाई हैं. इन में शहादतें और पाकीज़गी है. वह माजी के मुजरिमों का बदला इनकी नस्लों से नहीं लेतें. वह काफिर की औरतों और बच्चो को मिन जुमला काफिर करार नहीं गरदान्तीं . वह तो काफिर और मोमिन का इम्तियाज़ भी नहीं करतीं. इन में इन्तेक़ाम का कोई खुदाई हुक्म भी नहीं है, न इन का कोई मुन्तक़िम खुदा है. हमें इन जदीद सदाकतों और पाकीज़ा क़दरों को तस्लीम कर लेने की ज़रूरत है. हमें तौबा इन के एहसासात के सामने आकर करना चाहिए और और हम तौबा जाने कहाँ कहाँ करते फिर रहे हैं यह नई सदाकतें, यह यह पाक क़द्रें किसी पैगम्बर की ईजाद नहीं, किसी तबके की नहीं, किसी फिरके की नहीं, किसी खित्ते की नहीं, हजारों सालों से इंसानियत के शजर के फूल की खुशबू से यह वजूद में आई है. बिला शको शुबहा इन को हर्फे-आखीर और आखिरी निज़ाम कहा जा सकता है. ये रोज़ बरोज़ और ख़ुद बखुद सजती और संवारती चली जाएंगी. इन का कोई अल्लाह नहीं होगा, कोई पैगम्बर नहीं होगा, कोई जिब्रील नहीं होगा, न कोई शैतान ये मज़हबे-इंसानियत दुन्या का आखरी मज़हब होगा, आखरी निजाम होगा. अगर सब से पहले मुसलमान इसे कुबूल करें तो इन के लिए सब से बेहतर रास्ता
होगा.

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