शनिवार, 13 मार्च 2010

समाज



यौन और मानसिक शोषण में पिसता बचपन
-अब्दुल्ला


हमारे समाज का ताना बाना वयस्कों, खासकर मर्दों की सुख-सुविधाओं, जरुरतों, रुचियों और अधिकारों को ध्यान में रखकर बना है। इसी के इर्द गिर्द घूमती है, हमारी राजनीति, कानून, पढ़ाई, चिकित्सा और यहां तक कि आमदनी और स्रोतों के बंटवारे भी। स्वाभाविक तौर पर न तो हम बच्चों के अधिकारों के बारे में जानना चाहते हैं और न ही उनकी सुरक्षा और सम्मान के बारे में पर्याप्त उपक्रम करते हैं। हां उन्हें नासमझ, कमजोर, लाचार आदि मानकर करुणा या दया का भाव जरुर रखते हैं। आवागमन के साधनों, वाहनों, सार्वजनिक शौचालयों, रेस्टोरेन्टों, सभागृहों, सड़कों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों और यहां तक कि स्कूलों व अस्पतालों, का निर्माण बच्चों की सुविधा और सुरक्षाओं को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता क्योंकि हम बच्चों का अपना कोई वजूद नहीं समझते।
फिर से हमारा सिर शर्म से झुका देने वाली गंभीर जानकारी, एक सरकारी रिपोर्ट के माध्यम से जग जाहिर हुई है। दुर्भाग्य से मीडिया के लिए यह कोई बड़ी खबर नहीं बनी, किंतु बच्चों के यौन उत्पीड़न के बारे में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट हमारे आर्थिक विकास तथा सभ्यता व संस्कृति की डींगों की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है। नारी रक्षा की महान परंपराओं की दुहाई देने वाले भारत में हर 155वें मिनट में किसी न किसी नाबालिग बच्ची के साथ दुष्कर्म होता है। सरकारी रिपोर्ट यह भी बता रही है कि दुनिया में सबसे ज्यादा यौन उत्पीड़न के शिकार बच्चे हमारे देश में ही बसते हैं।
बचपन के प्रति उदासीनता भरी सामाजिक मानसिकता, गैर जिम्मेदाराना रवैया तथा चारों ओर पसरी संवेदनशून्यता इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति के बडे़ कारण हैं। इसलिए यह लाजमी है कि बच्चों के प्रति व्याप्त किसी भी प्रकार की हिंसा, असुरक्षा व उनकी जिन्दगी के जोखिमों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझा जाये साथ ही सर्वांगीण समाधान भी ढूंढा जाय।
विगत 1 मई को लोकसभा में जब सरकार इस रिपोर्ट का जिक्र कर रही थी तब संसद भवन से चंद मील दूर चौथी कक्षा में पढ़ने वाली 9 साल की एक बच्ची के साथ उसी का योग प्रिशक्षक मुंह काला करने में जुटा था। इसी प्रकार के तीन मामले दिल्ली पुलिस ने दर्ज किये। राजधानी के स्वरुप नगर इलाके में पांच वर्षीय बालक के साथ उसके पड़ोसी ने जबर्दस्ती की, जब वह अपने घर के बाहर नगर निगम के पार्क में खेल रहा था। इसी क्षेत्र में एक चौदह साल की बच्ची के साथ उसी के 24 वर्षीय पड़ोसी ने बलात्कार किया। तीसरी घटना तो और भी ज्यादा घृणित है जब लोगों की जान माल और इज्जत की सुरक्षा में तैनात एक 40 वर्षीय पुलिसकर्मी ने प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्रियों, न्यायाधीशों आदि के घरों से चंद कदमों की दूरी पर तुगलक रोड पर एक बच्ची के साथ दिन दहाड़े मुंह काला किया। रोज ब रोज घटने वाले ऐसे शर्मनाक हादसों की कोई कमी नहीं है। जब यह स्थिति दिल्ली की है तो देश के दूर दराज इलाकों में तो हमारे बच्चे कितनी असुरक्षापूर्ण जिन्दगी जी रहे हैं, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
हर रोज कहीं न कहीं से स्कूल, पड़ोस, अस्पतालों, मनोरंजन केन्द्रों, धर्मस्थलों, पुलिस अथवा दूसरे सरकारी महकमों द्वारा, अपने कोमल शरीर, पवित्र आत्मा और निष्कलंक सम्मान को मिट्टी में मिलाकर, खून का घूंट पीकर या सिसकते सुबकते अनगिनत बच्चे घर लौटते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिनको यह भी नसीब नहीं है कि वे जीवित लौट सकें। फैक्ट्रियों, खदानों, ईंट के भट्ठों में कोमल अंग गलाते-गलाते कभी नि:शब्द, कभी करुण क्रंदन करते वहीं अपना दम तोड़ने के लिए अभिशप्त हैं। बहुत से कुपोषण, भूख और बीमारी की वजह से मौत के मुंह में पहुंच जाते हैं। कईयों को सड़कों पर ही ट्रक, बसें, कारें कुचल डालती हैं, तो दूसरे कई खटारा बसों या नशाखोर अथवा नौसिखिए ड्राइवरों की कृपा से दुर्घटनाओं में चल बसते हैं। स्पष्ट तौर पर हमारे समाज में बच्चों की हिफाजत करने के बोध, तैयारी और ईमानदार कोशिशों का घोर अभाव है।
कथित किशोर सुधारगृहों की भी पूरी दुर्गति है। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे गृहों के शत प्रतिशत बच्चे उसे बच्चों की जेल ही मानते है। वहां भी आधे बच्चे वयस्कों द्वारा होने वाली किसी न किसी प्रकार की हिंसा के शिकार होकर दीवारें तक फांदकर भागने के लिए विवश हैं। वहां के 80 प्रतिशत कर्मचारियों और अधिकारियों को बाल अधिकारों की कभी कोई जानकारी ही नही दी गई। नतीजा साफ है कि दूर दराज की बात छोड़िये देश की राजधानी दिल्ली में ही पिछले 10 महीनों में सरकार द्वारा चलाये जा रहे इन कथित सुधारगृहों में कम से कम 12 बच्चों की मौत हो गई। इससे पहले दो वर्षों में क्रमश: 16 और 21 बच्चे मौत का शिकार हुए थे। बाल श्रम को रोकने के लिए नियुक्त किये गये श्रम निरीक्षकों और अफसरों की बच्चों के प्रति संवेदनशीलता व उनके अधिकारों और सम्मान को ध्यान में रखते हुए पूछताछ करने के तरीकों पर कोई प्रशिक्षण हमारे देश में नहीं होता। पुलिस की हालत तो इससे भी बुरी है, किसी भी जुल्म से पीड़ित बच्चों से पुलिसिया पूछताछ का तरीका निहायत ही भद्दा, अपमानजनक और अक्सर बचपन विरोधी होता है। सिपाहियों और थानेदारों को इस तरह बच्चों से दोस्ताना व्यवहार करना सिखाने के लिए कोई सरकारी प्रशिक्षण नहीं होता। दुर्भाग्य से न्यायालयों तक की भी यही स्थिति है।
नाम सोनिया. उम्र 10 साल. लाल गाउन में लिपटी वह अपने मेकअप रूप में मेकअप कर रही है. होठों पर सुर्ख लाली. गालों पर सुर्खी और भी ऐसे ही न जाने कौन-कौन से रंग रोगन उसके चेहरे पर पुत रहे हैं. वह अपनी उम्र से काफी आगे धकेल दी गयी लगती है. ऐसा क्यों किया जा रहा है उसके साथ? वह मुंबई एक टैलैण्ट हण्ट शो में भाग लेने पहुंची है. शो में बेहतर प्रदर्शन के लिए वह केवल मेक-अप पर ही ध्यान नहीं देती. वह रोज घण्टो रियाज करती है. उसे हमेशा यह चिंता रहती है कि रियाज और लुक दोनों ही मामलों में उसे आगे रहना है. सोनिया का भाई भारत भूषण अपनी छोटी बहन की मेहनत से बहुत खुश है. भूषण को उम्मीद है कि एक बार उसकी बहन स्टार बन गयी तो सारी दुनिया उसके कदमों में होगी.
सोनिया और भूषण अकेले बच्चे नहीं है जो इस तरह के ख्वाबों के साथ जी रहे हैं. देश का 30 करोड़ बच्चे और किशोर इस सपने में उसके साझीदार है जिनकी उम्र 15 साल से कम है. टीवी के रियलिटी और डांस शो ने बच्चों को सपनों से भर दिया है. छोटी उम्र में खोखली ख्वाहिंशों का अंतहीन सिलसिला. इसके लिए जरूरत से ज्यादा समय वे सिंगिंग, डांसिग और टैलैण्ट हण्ट शो के नाम पर जिन्दगी निछावर कर रहे हैं. टीवी कंपनियां इसे टैलेण्ट हण्ट शो या कला प्रदर्शन का जरिया इसलिए बनाने में लगी है क्योंकि यह 180 करोड़ का विज्ञापन बाजार है और सालाना 20 प्रतिशत की दर से बच्चों का यह बाजार बढ़ रहा है.
पांच मिनट की एक परफार्मेंश के लिए बच्चों को हफ्तों दिन-रात कड़ी मेहनत करनी होती है. बच्चे पढ़ाई-लिखाई तो छोड़ते ही हैं बचपन से भी मरहूम हो जाते हैं. मनोविद कहते हैं कि अच्छी तैयारी के बाद जब बच्चा हारता है तो वह गहरे अवसाद में चला जाता है जिसे उस अवसाद से निकालना बहुत मुश्किल होता है. इसका असर उसके पूरे जीवन पर होता है. बाजार द्वारा शायद यह बच्चों का व्यवस्थित शोषण है. इसके खिलाफ आवाज उठाने की बात कौन करे मां-बाप और अध्यापक भी इस लालच में बच्चों पर दबाल डालते हैं कि अगर वह कहीं पहुंचता है इसी बहाने उनका भी थोड़ा नाम हो जाता है .ऐसे में बच्चों को नचाने से लेकर दौड़ाने तक का हर काम होगा ही. विज्ञापनों और बाजार का प्रभाव ऐसा भीषण है कि आज हर मां-बाप अपने बच्चे को टैलेण्ट हण्ट शो का हिस्सा बनाना चाहता है. बाजार के प्रभाव में जो मां-बाप हैं वे अपने बच्चे का एकेडिमक कैरियर वगैरह नहीं चाहते. वे यही चाहते हैं या तो बच्चा क्रिकेट खेले नहीं तो फिर नाचे-गाये. यह समझना भूल होगी कि बच्चे अपनी मर्जी से इन टैलेण्ट शो में हिस्सा ले रहे हैं. ज्यादातर केसों में मां-बाप के दबाव में बच्चे टैलैण्ट हण्ट शो का हिस्सा बनते हैं. बच्चों के जरिए मां-बाप भी सुपरस्टार के मां-बाप का सुख भोगना चाहते हैं.यौन शोषण के साथ ही इस मानसिक शोषण को क्योंकर नजरअंदाज कर दिया जाता है? शायद इसलिए कि अपने बच्चों के द्वारा हम अपने नामची होने का सुख भोग सकेंगें.
हमारा समाज और सरकार जब तक बच्चों की कही-अनकही जरुरतों, उनके हकों तथा उनकी शारीरिक या मानसिक उम्र का ख्याल रखते हुए उनको विशेष सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराता, बच्चों से संबंधित कानूनों, न्यायालयों के निर्देशों, योजनाओं आदि के क्रियान्वयन के लिए नियुक्त किये गये व्यक्तियों को कानूनी तौर पर जवाबदेह नहीं ठहराता, जब तक हम बच्चों से दोस्ताना व्यवहार की एक संस्कृति विकसित नहीं कर लेते और जब तक हम उनकी हिफाजत के लिए एक व्यापक सामाजिक व मानसिक सुरक्षा कवच निर्मित नही करते, तब तक इस तरह के बचपन विरोधी गम्भीर अपराधों को महज हादसा या रोजमर्रा की घटनायें ही माना जाता रहेगा. कभी न्याय अथवा राहत में देरी तो कभी चन्द लोगों की दरिन्दगी के बहाने बनाकर आखिर कब तक, हम हमारे बच्चों को मरने, जलने, अपाहिज होने और बलात्कार व हिंसा का शिकार होने के लिए अभिशप्त रखेंगे?
बचपन के प्रति उदासीनता भरी सामाजिक मानसिकता, गैर जिम्मेदाराना रवैया तथा चारों ओर पसरी संवेदनशून्यता इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति के बडे़ कारण हैं। इसलिए यह लाजमी है कि बच्चों के प्रति व्याप्त किसी भी प्रकार की हिंसा, असुरक्षा व उनकी जिन्दगी के जोखिमों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझा जाये साथ ही सर्वांगीण समाधान भी ढूंढा जाय।मनोविद कहते हैं कि इस तरह बच्चों का दबाव में रहना और कम उम्र में कैरियर की बातें सोचना उन्हें भावनात्मक रूप से कमजोर कर देता है. इतना दबाव तो शायद कोअब इस तरह के कानून बनाने की बात हो रही है कि बच्चों को खेत में काम करने से रोका जाए. घर में काम करने से रोका जाए. होटल और अन्य श्रमशोषण स्थानों के बारे में कानून बने और बच्चों का बचपन वापस लौटे यह तो समझ में आता है लेकिन इस तरह के पागलपन वाली परिभाषाओं का क्या मतलब है? क्या अब हमें क्या खाना चाहिए, कैसे सोना चाहिए, अपने बच्चों को कैसे पालना चाहिए, उन्हें क्या पढ़ना चाहिए और क्या सीखना चाहिए यह सब कानून से तय होगा? ऐसे तो वह बचपन ही मर जाएगा जिसकी नैसर्गिकता के कारण ही वह बचपन है।


फूलों की घाटी की सैर


अब्दुल्ला
फूलों की घाटी" में सैर करने आए फ्रांसीसी पर्यटक ने कुछ वर्ष पहले कहीं कहा था कि फूलों की घाटी जाने का उसका फैसला गलत था । उसे गंदगी से सराबोर पैदल ट्रैक पर रास्ते भर नाक पर रूमाल रखकर जाना पड़ा था । फूलों की घाटी को विश्व धरोहर का दर्जा मिलने के बाद इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के माइकेल ग्रीन ने फूलों की घाटी के रास्ते में पड़ने वाले गांव भ्यूंडार पुलना से पैदल ट्रैक शुरू करते वक्त गोविंदघाट गांव में बनी ईको विकास समितियों का अद्भुत काम देखा । इस काम की प्रेरणा इन ग्रामीणों को नंदादेवी बायोस्फीयर पार्क के वनाधिकारी ए.के. बैनर्जी से मिली । श्री बैनर्जी ने जब २००१ में गोविंदघाट से घांघरियां तक पैदल गए तो उन्हें गंदगी से लबरेज इस रास्ते पर पैदल चलते समय बदबू का सामना करना पड़ा । हेमकुंट जाने वाले सिख श्रद्धालु व फूलों की घाटी जाने वाले देशी व विदेशी सैलानियों को भी बदबू के मारे इस रास्ते पर चलने में भारी दिक्कत होती थी । इस पूरे मार्ग पर क्षेत्र के ग्रामीणों ने छोटे-छोटे झोंपड़े बनाकर उन्हें दुकान के रूप में पंजाब, हरियाणा व नजीबाबाद से आए छोटे-मोटे व्यापारियों को किराए पर दे रखा था जो वन कानूनों के अनुसार पूरी तरह अवैधानिक था । ए.के. बैनर्जी ने क्षेत्र के नवयुवकों से इस बाबत सलाह-मशविरा किया। उन्हें समझाया कि जब तक यह कूड़ा इस पूरे ट्रैक से नहीं उठेगा तब तक पर्यटक आने में कतराएंगे और इससे उनकी रोजी-रोटी पर असर पड़ेगा । यदि थोड़ा योजनागत तरीके से काम किया जाए तो इन दुकानों को भी वानिकी गतिविधि की तरह दर्शाकर उनके इस गैरकानूनी काम को भी कानूनी स्वरूप दिया जा सकता है । इस विचार से वहां के युवा श्री बैनर्जी की ओर आकर्षित हुए । १९९९ में भ्यूंडार पुलना के ग्रामीणों को साथ लेकर एक ईको डेवलेपमेंट कमेटी गठित की जा चुकी थी ।
इस ईको डेवलेपमेंट कमेटी ने गोविंदघाट सहित घांघरियां तक के १३ किमी. लंबे पैदल रास्ते की सफाई के लिए युवक मंगल दल व महिला मंगल दल समेत आम ग्रामीणों की भी मदद ली । अवैध दुकानों को तोड़ा गया, केवल चट्टियों पर ही दुकानें खोलने की रजामंदी हुई । ग्रामीणों को प्रतिपरिवार एक दुकान देने का फैसला लिया गया ।
"फूलों की घाटी" में सैर करने आए फ्रांसीसी पर्यटक ने कुछ वर्ष पहले कहीं कहा था कि फूलों की घाटी जाने का उसका फैसला गलत था । उसे गंदगी से सराबोर पैदल ट्रैक पर रास्ते भर नाक पर रूमाल रखकर जाना पड़ा था । फूलों की घाटी को विश्व धरोहर का दर्जा मिलने के बाद इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के माइकेल ग्रीन ने फूलों की घाटी के रास्ते में पड़ने वाले गांव भ्यूंडार पुलना से पैदल ट्रैक शुरू करते वक्त गोविंदघाट गांव में बनी ईको विकास समितियों का अद्भुत काम देखा । इस काम की प्रेरणा इन ग्रामीणों को नंदादेवी बायोस्फीयर पार्क के वनाधिकारी ए.के. बैनर्जी से मिली । श्री बैनर्जी ने जब २००१ में गोविंदघाट से घांघरियां तक पैदल गए तो उन्हें गंदगी से लबरेज इस रास्ते पर पैदल चलते समय बदबू का सामना करना पड़ा । हेमकुंट जाने वाले सिख श्रद्धालु व फूलों की घाटी जाने वाले देशी व विदेशी सैलानियों को भी बदबू के मारे इस रास्ते पर चलने में भारी दिक्कत होती थी । इस पूरे मार्ग पर क्षेत्र के ग्रामीणों ने छोटे-छोटे झोंपड़े बनाकर उन्हें दुकान के रूप में पंजाब, हरियाणा व नजीबाबाद से आए छोटे-मोटे व्यापारियों को किराए पर दे रखा था जो वन कानूनों के अनुसार पूरी तरह अवैधानिक था । ए.के. बैनर्जी ने क्षेत्र के नवयुवकों से इस बाबत सलाह-मशविरा किया। उन्हें समझाया कि जब तक यह कूड़ा इस पूरे ट्रैक से नहीं उठेगा तब तक पर्यटक आने में कतराएंगे और इससे उनकी रोजी-रोटी पर असर पड़ेगा । यदि थोड़ा योजनागत तरीके से काम किया जाए तो इन दुकानों को भी वानिकी गतिविधि की तरह दर्शाकर उनके इस गैरकानूनी काम को भी कानूनी स्वरूप दिया जा सकता है ।

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