गुरुवार, 11 मार्च 2010

क्यों बेचैन हैं हम हुसैन की नागरिकता को लेकर

अब्दुल्ला
क़तर की नागरिकता स्वीकार करते ही मशहूर चित्रकार एमएफ़ हुसैन के समर्थकों के बीच बेचैनी है। उनका मानना है कि हुसैन को मज़बूरी में ये फैसला करना पड़ा। वे हिंदू कट्टरपंथियों और भारत सरकार की अकर्मण्यता को इसके लिए ज़िम्मेदार मानते हैं। कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन चुका है कि एक तरफ़ धार्मिक कट्टरपंथी है जो एक कलाकार की आज़ादी को बर्दाश्त नहीं कर सकते, दूसरी ओर हुसैन के ऐसे समर्थक हैं जो उनकी महानता के गीत गाते नहीं थकते। भारतीय लोकतंत्र के लिए इसे शर्मनाक बता रहे हैं। पूरा विमर्श कमोबेस इन्हीं दो धुरियों के बीच घूम रहा है। ऐसे में एक कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़े होते हुए भी इस बात की पड़ताल करनी ज़रूरी है कि क्या हुसैन हमारे समाज के लिए सचमुच इतने ज़रूरी हैं कि उनकी कला के बिना भारत की आम जनता को एक बड़े कलाकार के अपने आस-पास ना होने का अभाव खलेगा।
आम तौर पर हमारे देश में किसी इंसान को अगर महान बना दिया जाता है कि उसे हम इंसान से थोड़ा बड़ा, देवता या ख़ुदा जैसा कुछ समझने लगते हैं। उसके बारे में किसी भी तरह की आलोचना सुनना भी हम मंजूर नहीं कर पाते। अगर हुसैन की कला की बात की जाए तो इसमें कोई शक नहीं कि उनकी चित्रों में जो विविधता है, वो बहुत कम चित्रकारों में देखने की मिलती है। उनकी सृजनात्मकता की रेंज बहुत व्यापक है। उनके घोड़े तो मशहूर हैं ही उन्होंने मदर टेरेसा, सुनील गावस्कर, लता मंगेशकर और इंदिरा गांधी के भी चित्र बनाए हैं। हुसैन ने मिथकों के साथ ही आधुनिक भारतीय अनुभव को भी अपने चित्रों में जगह दी है। ड्राइविंग कार को पेंट करना इसका एक उदाहरण है। उनकी लाइंस, चटख रंग और स्ट्रोक्स कला प्रेमियों के बीच काफी़ मशहूर हैं। इसके अलावा हुसैन एक कवि, लेखक और फिल्मकार भी हैं। यही बात उन्हें बाक़ी भारतीय और यूरोपीय पेंटरों की तुलना में कुछ विशेष बनाती है। हुसैन अगर गंगा का चित्र बनाते हैं तो वो उनके लिए सिर्फ़ एक नदी नहीं है। मिथक और स्मृति मिलकर यहां एक कलात्मक यथार्थ गढ़ते हैं। हुसैन के बारे में ये तथ्य जग ज़ाहिर है कि उनकी ज़िंदगी बहुत संघर्षों में बीती है। आजा़दी से पहले वे मुंबई में फिल्मों के होर्डिंग्स भी पेंट किया करते थे। एक दौर में वो फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा के साथ प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के संस्थापक सदस्यों में भी रहे हैं। लेकिन ये तस्वीर का सिर्फ़ एक पहलू है। इसलिए उनके संघर्ष वाले दौर की पेंटिंग्स और उनके करोड़पति होने के बाद की पेंटिग्स की जांच करना ज़रूरी है।
क्या हुसैन इसलिए महान है कि उनकी पेंटिग्स करोड़ों रुपये में बिकती हैं। बाज़ार ने उन्हें एक महंगे और महान चित्रकार के तौर पर स्थापित किया है। ऐसे में एक कलाकार के तौर पर हुसैन से क्यों न पूछा जाए कि पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? फोर्ब्स जैसी अमीरों की पत्रिका उन्हें भारत का पिकासो घोषित करती है। लेकिन पिकासो की गुएर्निका या वैन गॉग के पोटेटो ईटर जैसी कितनी पेंटिग्स हैं जो हुसैन के वैचारिक मान्यताओं को दुनिया के सामने रखती हैं। जो युद्ध, भुखमरी या गैरबराबरी के ख़िलाफ़ हों। ये हमारे समाज की दिक़्क़त है कि जिसकी पेंटिग के दाम जितने ज़्यादा मिलें उसे उतना ही बड़ा पेंटर मान लिया जाता है। इस तरह के बड़े पेंटर कही पर एक दस्तख़त भी कर देते हैं या कैनवस पर दो लाइनें भी खींच देते हैं। तो उन्हें सहेज कर रखा जाता है। बाज़ार में उनकी नीलामी भी करोड़ों में हो सकती है। ऐसे में कला के सामाजिक सरोकार बिल्कुल ग़ायब होकर रह जाते हैं।
हुसैन एक बड़े चित्रकार है। ठीक उसी तरह जैसे भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हुसैन की महानता भी भारतीय लोकतंत्र की तरह ही महान है। जिसमें दिखाने के लिए अभिव्यक्ति की स्वत्रंता, समता पर आधारित समाज जैसी बड़ी-बड़ी बातें हैं लेकिन हक़ीक़त जग जाहिर है। इस महानता का प्रचार कॉर्पोरेट पूंजी कर रही है। हुसैन की कला के लिए भी क्रिस्टी जैसे नीलामघर ना होते तो वो दुनियाभर में मशहूर या आम आदमी से इतने बड़े कैसे हो जाते।
आधुनिक भारतीय चित्रकला की एक आलोचना ये है कि वो राजा रवि वर्मा से बहुत आगे नहीं पढ़ पायी है। सामाजिक सरोकार उसमें ज़्यादा नहीं दिखते। सोमनाथ होड़, ज़ैनुल आबीदीन और चित्तप्रसाद को छोड़ दिया जाए तो भारतीय चित्रकला या तो बने बनाए ख़ांचों में फिट होती रही है या फिर समाज से कटे मनमाने प्रयोग करते करते हैं। उसमें बेहतर समाज के लिए चलने वाली लड़ाइयां तलाशने से भी नहीं मिलती है। इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि चित्रकार किसी राजनीतिक पार्टी के पोस्टर बनाने में लगे रहें। लेकिन इस बात की पड़ताल ज़रूरी है कि उसकी पूरी कला समाज के किसी हिस्से के पक्ष में जाती है। वरना फिर कला, कला के लिए का नारा बुलंद करने के लिए तो लोग आज़ाद हैं ही और फाइव स्टार होटलों में महंगी पेंटिंग्स तो टगेंगी ही।
कतर की नागरिता के लेने के बाद एडीटीवी की बरखा दत्त ने जब हुसैन से पूछा कि आपको भारत की नागरिकता को छोड़ने का कितना दर्द है। हुसैन बोले कि दर्द मुझे कम, भारतीय मीडिया को ज़्यादा हो रहा है। कतर की राजशाही के भीतर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बरकरार रख पाने के सवाल पर हुसैन के पास कोई सही जवाब नहीं था। सबसे हैरान करने वाली बात ये थी कि हुसैन के मुताबिक वो छोटी-छोटी चीज़ों से ऊपर उठ चुके हैं। पिचानबे साल की उम्र में वो अब कुछ बचे हुए कामों को पूरा करना चाहते हैं। एक काम वो मोहनजोदड़ो से मनमोहन सिंह तक की सभ्यता के विकास पर कर रहे हैं तो दूसरा अरब सभ्यता पर कर रहे हैं। तीसरा काम भारतीय सिनेमा के सौ साल पूरे होने पर वो पेंटिंग्स की सीरीज सामने लाना चाहते हैं। इसके अलावा फिलहाल वे कुछ भी नहीं सोचना चाहते। इन सभी कामों के लिए उन्हें फाइनेंसर मिल गए हैं। उन्होंने ये भी कहा कि उनके भारत आने पर बेकार की मुश्किलों का तो सामना करना ही पड़ेगा यहां टैक्स बगैरह की बहुत दिक़्क़त है। कतर में रहने से उनपर टैक्स की मार नहीं पड़ेगी और वो अपने फिनांसर के लिए इन प्रोजेक्ट्स को वक़्त पर पूरा कर पाएंगे। हुसैन साहब की इन योजनओं से पता चलता है कि हुसैन साहब की वरीयताओं में कौन सी बात है। भारत उनके लिए मिथकों और विकास की चमक-दमक से घिरे एक देश का नाम है। मुंबईया सिनेमा के बाज़ारू चरित्र उन्हें लुभाते हैं। ऐसा लगता है कि धार्मिक आस्था उन्हें अरब का संधान कराने ले गई हैं। देश-दुनिया में चल रहे ज़िंदगी के संघर्षों से वे ऊपर उठ चुके हैं। इसलिए उम्र के इस पड़ाव में कतर के राजा की प्रजा बनकर सुखी हो रहे हैं।

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