बुधवार, 17 मार्च 2010

कौन देता है तबाही फैलाने की इजाजत ?
मन अंदर ही अंदर मुझे कचोट रहा है। एक अरसे से। संभालने की कोशिश की एक आम आदमी की तरह। एक आम हिंदुस्तानी की तरह मगर रोक न सका खुद को। चाहे जयपुर धमाका हो या अहमदाबाद, यूपी के तमाम शहरों में बम फटे हों या दिल्ली को तबाह करने की नापाक कोशिश की गई हो हर बार दिल से एक आह जरूर निकली। एक पत्रकार होने के नाते भले ही रोया नहीं लेकिन इंसान होने के नाते आंखें नहीं मानीं। बेगुनाह लोगों को निशाना बनाने उनहें मारने और तबाही फैलाने का हक कोई भी धर्म किसी को नहीं देता। इस्लाम भी नहीं। इस बात को समझना होगा।
इंडियन मुजाहिददीन के नेटवर्क के खुलासे ने सबको चौंका दिया है। इस आतंकी फौज में जितने भी सदस्य शामिल हैं वह 16 से 30 साल के हैं। सब पढे लिखे और सभ्य परिवारों से हैं। इनके परिवार का कोई भी सदस्य अपराधी पृष्ठभूमि से नहीं। यह युवक भी पढे लिखे हैं और इनमें से कई उच्च शिक्षा हासिल कर रहे थे और सबसे अहम बात यह कि अब तक जीतने भी युवक पकडे गए हैं वह सभी मुसलमान हैं। और जो नाम सामने आ रहे हैं वह भी मुस्लिम ही हैं।
मैं खुद मुसलमान हूं और इस खुलासे से आहत हूं। मेरा मानना है कि अब वाकई में इस्लाम खतरे में है और इसे बचाने के लिए जेहाद की जरूरत है। वह कौन लोग हैं जो आपके बच्चों को बरगला कर आतंक की राह पर पहुंचा रहे है। क्या वजह है कि पढा लिखा मुसलमान इंसानियत का फर्ज भूलकर तबाही की राह पकड रहा है। वह कौन है जो इस्लाम को नेस्तानाबूद रने पर तूला है। जरूरत है तो अपने बच्चों को सही तालिम देने की। उन्हें समझाने की और इंसानियत का पाठ पढाने की ताकि हमारी अगली पीढी किसी नापाक हाथ की कठपुतली न बन सके। देश भर के मुसलमान भाईयों को अब जेहाद छेडनी होगी तभी इस्लाम को बचाया जा सकेगा तभी इंसानियत को बचाया जा सकेगा।
यह एक लंबी लडाई है। लेकिन इसकी शुरुआत आज से ही हो जानी चाहिए। अगर इस्लाम को बचाना है तो हमे अपनी अगली पीढी को सही राह दिखानी होगी। वह राह जो दिन की राह है। और यह जिम्मेदारी हमारे धर्म गुरुओं की है। जरूरत है कि वह आगे आएं और लोगों से इस बात कि अपील करें उन्हें सही राह दिखाएं।आतंकवाद के खिलाफ उलेमा आगे आए हैं लेकिन इस बात को एक सिस्टम के तहत लाना होगा। उन्हें धर्म का सही मकसद और इंसानियत का पाठ पढाने के लिए एक व्यवस्था बनानी होगी। आखिर यह इस्लाम के वजूद का मामला है। इंसानियत के वजूद का मामला है - अब्दुल्ला

कैसे रुकूँ समझ नहीं आता

मन अंदर ही अंदर मुझे कचोट रहा है। एक अरसे से। संभालने की कोशिश की एक आम आदमी की तरह। एक आम हिंदुस्तानी की तरह मगर रोक न सका खुद को। चाहे जयपुर धमाका हो या अहमदाबाद, यूपी के तमाम शहरों में बम फटे हों या दिल्ली को तबाह करने की नापाक कोशिश की गई हो हर बार दिल से एक आह जरूर निकली। एक पत्रकार होने के नाते भले ही रोया नहीं लेकिन इंसान होने के नाते आंखें नहीं मानीं। बेगुनाह लोगों को निशाना बनाने उनहें मारने और तबाही फैलाने का हक कोई भी धर्म किसी को नहीं देता। इस्लाम भी नहीं। इस बात को समझना होगा।
इंडियन मुजाहिददीन के नेटवर्क के खुलासे ने सबको चौंका दिया है। इस आतंकी फौज में जितने भी सदस्य शामिल हैं वह 16 से 30 साल के हैं। सब पढे लिखे और सभ्य परिवारों से हैं। इनके परिवार का कोई भी सदस्य अपराधी पृष्ठभूमि से नहीं। यह युवक भी पढे लिखे हैं और इनमें से कई उच्च शिक्षा हासिल कर रहे थे और सबसे अहम बात यह कि अब तक जीतने भी युवक पकडे गए हैं वह सभी मुसलमान हैं। और जो नाम सामने आ रहे हैं वह भी मुस्लिम ही हैं।
मैं खुद मुसलमान हूं और इस खुलासे से आहत हूं। मेरा मानना है कि अब वाकई में इस्लाम खतरे में है और इसे बचाने के लिए जेहाद की जरूरत है। वह कौन लोग हैं जो आपके बच्चों को बरगला कर आतंक की राह पर पहुंचा रहे है। क्या वजह है कि पढा लिखा मुसलमान इंसानियत का फर्ज भूलकर तबाही की राह पकड रहा है। वह कौन है जो इस्लाम को नेस्तानाबूद करने पर तूला है। जरूरत है तो अपने बच्चों को सही तालिम देने की। उन्हें समझाने की और इंसानियत का पाठ पढाने की ताकि हमारी अगली पीढी किसी नापाक हाथ की कठपुतली न बन सके। देश भर के मुसलमान भाईयों को अब जेहाद छेडनी होगी तभी इस्लाम को बचाया जा सकेगा तभी इंसानियत को बचाया जा सकेगा।
यह एक लंबी लडाई है। लेकिन इसकी शुरुआत आज से ही हो जानी चाहिए। अगर इस्लाम को बचाना है तो हमे अपनी अगली पीढी को सही राह दिखानी होगी। वह राह जो दिन की राह है। और यह जिम्मेदारी हमारे धर्म गुरुओं की है। जरूरत है कि वह आगे आएं और लोगों से इस बात कि अपील करें उन्हें सही राह दिखाएं।आतंकवाद के खिलाफ उलेमा आगे आए हैं लेकिन इस बात को एक सिस्टम के तहत लाना होगा। उन्हें धर्म का सही मकसद और इंसानियत का पाठ पढाने के लिए एक व्यवस्था बनानी होगी। आखिर यह इस्लाम के वजूद का मामला है। इंसानियत के वजूद का मामला है।

मशहूर ओ मारुफ़ शायर वसीम बरेलवी

शराफत और सादगी के साथ अदबनवाज़ी का अगर कोई नाम हो सकता है तो आप वसीम बरेलवी को जानिये। आज के दौर के मशहूरो-मारुफ शायरों में आपका शुमार होता है। आपकी शायरी ने सुनने और पढ़ने वालों को अहसासों की एक ऐसी सौगात दी है जिसकी जगह उनके दिलों में हैं। अपनी शायरी में जबान की सादगी और सोच में जिन्दगी के आम मसलों और सरोकारों से गजल को जोड़ कर वसीम साहब पेश किया है। आज हमारे दौर को जिस शायरी की जरूरत है, वसीम साहब ने अपने कलाम में उसी आवाज को बुलन्द किया हैं। आपके बारे में मशहूर शायर ‘फिराक’ गोरखपुरी ने कहा था कि- मेरा महबूब शाइर ‘वसीम बरेलवी’ है। मैं उससे और उसके कलाम दोनों से मुहब्बत करता हूं। ‘वसीम’ के अशआर से मालूम होता है कि ये महबूब की परस्तिश में भी मुब्तिला रह चुके हैं। वसीम के खयालात भौंचाल की कैफियत रखते हैं। वसीम के कलाम में आगही और शऊर की तहों का जायजा है और ऐसा शऊर और आगही कैफो-सुरूर का गुलदस्ता है। यह अकसर बातचीत से बुलन्द होकर काइनात का रंगीनियों और दिलकशियों से लुत्फ हासिल करते हैं। दरअसल शाइरी भी वही है, जो अपने वुजूद में हमें जिन्दगी की नजदीकतर चीजों का एहसास दिलाती है। ‘वसीम’ की शाइरी दर्द की शाइरी है।
आज उर्दू शाइरों में वसीम बरेलवीं का नाम आज बुलन्दीयों पर है। आपके बिना उर्दू मुशाइरों में एक अधुरापन सा रहता है। आपने अपनी शाइरी में नये-नये प्रतीको और बिम्बों के जरीये से मौजूदा हालात की परेशानीयों पर बहुत ही सहज और सरल ढंग से लिखा है। आपकी गजलों अनेक गायक गा चुके हैं और आपके अशआर लोगों को जबानी याद हैं।
मंसूर उस्मानी साहब ने एक बार वसीम साहब के बारे में कहा था कि- कभी-कभी ऐसा लगता है कि ये शायरी शब्द और एहसास का ही रिश्ता न होकर हमारे आँसुओं की एक लकीर है जो थोड़े-थोड़े अर्से के बाह हर युग में झिलमिला उठती है और इस झिलमिलाहट में जब-तब देखा गया है कि किसी बड़े शायर का चेहरा उभर आता है। इस चमक का नाम कभी फैज था, कभी फिराक था, कोई चेहरा दुष्यन्त के नाम से पहचाना गया, किसी को जिगर कहा गया। हमारे आज के दौर में आँसुओं की ये लकीर जहाँ दमकी है, वहीं वसीम बरेलवी का चेहरा उभरा है। इन्होंने अपने शायरी में जिस तरह दिल की धड़कन और दिमाग की करवटों को शब्दों के परिधान दिये गये हैं वह अपने आप में एक अनूठी मिसाल है। आँसू को दामन तक, जज्बातों को एहसास तक और ख्वाबों के ताबीर तक पहुँचाने में जितना वक्त लगता है उससे भी कम समय में वसीम साहब की गजलें वक्त के माथे की तहरीर बन जाती हैं।
पिछले दिनों आपको प्रथम फिराक गोरखपुरी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया है। जिसमें 51,000 रुपए का नकद पुरस्कार और एक प्रशस्ती पत्र प्रदान किया। पुरस्कार ग्रहण करने के बाद वसीम साहब ने कहा कि हमारे समाज को पाश्चात्य संस्कृति से लगातार खतरा बना हुआ है। भविष्य की लड़ाइयां जमीन या इलाके के लिए नहीं, बल्कि सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए लड़ी जाएंगी। गालिब, मीर और नजीर के शहर ने उन्हें महान सम्मान से नवाजा है। यह पुरस्कार मेरे लिए इम्तिहान हैं।
आजकल आप बरेलवी रूहेलखंड विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के प्रमुख हैं और वह कला संकाय के डीन भी रह चुके हैं। आपकी उर्दू शायरी पर आधा दर्जन से ज्यादा किताबे आ चूकी हैं और कई फिल्मों और टीवी धारवाहिकों में उनके गीत लिए गए हैं।
(इरशादनामा से साभार )

मंगलवार, 16 मार्च 2010

पत्रकारों अपनी औकात पहचानो

अब्दुल्ला
इंडिया टुडे ग्रुप की पत्रिका ‘रीडर डाइजेस्ट’ की ओर से कराया यह गया सर्वे चौंकानेवाला है। यह सर्वे चीख-ची कर कह रहा है कि –ऐ पत्रकारो!अपनी औकात पहचानो, जानों की समाज की नजरों में तुम कहां खड़े हो। लोगों का विश्वास तुम पर से उठ गया है। तुमसे ज्यादा विश्वसनीय तो समाज को नाई, बस ड्राइवर, ट्रेन ड्राइवर और प्लंबर हैं। पत्रिका रीडर डाइजेस्ट ने यह आनलाइन सर्वे कराया है। इसमें 40 पेशों से जुड़े लोगों के बारे में सर्वे कराया गया है जिसमें पत्रकारों को 100 में से 30 वां स्थान मिला है। इस सर्वे से खुद पत्रिका रीडर डाइजेस्ट के संपादक मोहन शिवानंद तक खुश नहीं हैं। जो खुद मानते हैं कि पत्रकारिता को उत्कृष्ट और दार्शनिकता भरा काम मानते थे लेकिन अफसोस कि पत्रकारों को 40 पेशेवरों में से 30वें नंबर की निचली पायदान पर पाया गया।
इस सर्वे ने पत्रकारों को आईना दिखा दिया है कि सन्मार्ग, सत्पथ से विमुख होकर कितनी बदरंग हो चुकी है उनकी सूरत (हालांकि कहना यह चाहिए कि इनमें से कुछ का जमीर भी बिक चुका है)। इस सर्वे ने अगर पत्रकारिता के पुनीत कार्य पर शक किया है, उस पर से उठते विश्वास का सवाल उठाया है तो इसके लिए पत्रकार भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। उनके धत् कर्मों ने लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की विश्वसनीयता को ठेस पहुंचायी है। पेड न्यूज के जघन्य पापकर्म में लिप्त कुछ पत्रकार (?) और पत्र समूहों ने पत्रकारिता जैसे दायित्वशील व पुनीत कार्य को पंकमय, कलुषित और दूषित कर दिया है। पत्रिका का सर्वे शायद ऐसे धत्कर्मियों की करतूतों की सजा पूरी पत्रकार बिरादरी को दे बैठा है। इसमें पत्रकारों की विश्वसनीयता का ग्राफ बहुत नीचे बताया गया है। उनसे ज्यादा विश्वास तो समाज नाइयों, बस ड्राइवरों और प्लंबरों पर करता है। जिन वर्गों को पत्रकारों से ज्यादा विश्वसनीय बताया गया है उनकी समाज के प्रति सेवा और सहयोग अनन्य और अनुपम है। उनको हम पूरा सम्मान देते हैं। जहां तक विश्वास का सवाल है तो इस वर्ग का व्यवसाय या कार्य ही विश्वास पर आधारित है।
वापस उस लानत पर आते हैं जो रीडर डाइजेस्ट के सर्वे ने पत्रकारों पर उछाली है। इसमें पूर्व राष्ट्पति एपीजे अब्दुल कलाम को नंबर एक और रतन टाटा को नंबर दो पर पाया गया है और मायावती को नंबर 100 पर पाया गया है। पत्रकार इस बात पर संतोष कर सकते हैं कि उनको मायावती से ज्यादा नंबर मिले हैं। पत्रकारों को इस तरह से नंबर दिये गये हैं-कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण (9), डा. प्रणव राय (28), स्वामिनाथन अय्यर (37), एन राम (43), जयदीप बोस (46), प्रभु चावला (54), पी साईंनाथ (59), राजदीप सरदेसाई (61), बरखा दत्त (65), तरुण तेजपाल (85), पत्रकार से राजनेता बने अरुण शौरी को 79 वां नंबर मिला है।
पहले तो इस सर्वे की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठते हैं कि यह सर्वे किस तरह से कराया गया है। देश के 30 शहरों के जिन 761 लोगों ने इस सर्वे में अपनी राय दी है वे किस वर्ग से आते हैं? उनकी पत्रकारिता, पत्रकारों के बारे में जानकारी कितनी है?क्या 30 शहरों के 761 लोगों का अर्थ पूरे देश की राय होती है? 761 लोग पत्रकारों को इतनी बड़ी
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बिरादरी को अविश्वासी करार देंगे और उनके फैसले को ही आखिरी मान लिया जायेगा?माना कि पत्रकार भी समाज का अंग हैं, इसके बीच से ही आते हैं लेकिन क्या उनकी विश्वसनीयता को मापने का यही पैमाना है?यह कैसा सर्वेक्षण है जो प्रभु चावला (जिनके ग्रुप ने यह सर्वेक्षण कराया है) को तरुण तेजपाल जैसे धाकड़ और जुझारू पत्रकार से बहुत-बहुत आगे बताता है।
माना कि कभी स्वाधीनता आंदोलन का सजग-सशक्त हिस्सा रही पत्रकारिता अब चंद दिशाहीन, कमाऊ-खाऊ, चंद सिक्कों के लिए अपना जमीर बेचनेवाले पत्रकारों (?) के चलते पंक में डूब गयी है। समाज में इसका अब वह आदर नहीं रहा, जो पहले था लेकिन अनास्था, अविश्वास के इस पंक में आज भी कुछ पंकज खिले हैं। उन्हें आदर भले न दीजिए पर उन्हें लानत तो न भेजिए। अगर आज भी सत्ता पूरी तरह निरंकुश नहीं हो पायी, देश का एक वर्ग समाचार पत्रों और पत्रकारों को आदर देता है तो इसका श्रेय उन पत्रकारों को जाता है जिनका जमीर बिकाऊ नहीं है। जो राजसत्ता या किसी और ताकत के सामने झुकने को तैयार नहीं हैं। वे सच को बिना लाग-लपेट सीना तान (और ठोक कर भी) कहने से पीछे नहीं हटते। यह और बात है कि उन्हें कभी-कभी उस सत्ता या व्यक्ति का कोपभाजन बनना पड़ता है जिसे यह सच चुभता है या उसके धत्कर्मों पर चोट करता है। वे अपने पुनीत कर्म , सन्मार्ग और समाज के प्रति अपने दायित्व से विमुख नहीं होते। कलम के ऐसे सिपाहियों को शतशत नमन।
रीडर डाइजेस्ट के जिस सर्वे का यहां जिक्र हो रहा है उसे मैंने exchange4media.comमें देखा। यह नहीं पता कि यह सर्वे किस मकसद से कराया गया है पर सर्वे करानेवालों को यह नहीं भूलना चाहिए चांद पर थूका अपने ही सिर पड़ता है। सर्वे करानेवालों, आपने जिन पत्रकारों को अविश्वासी साबित कराया है, उस बिरादरी का आप भी तो एक हिस्सा हैं। यह गाली तो आप पर भी पड़ी।
अफसोस इस बात का है कि अपने ही कुछ भाइयों की करतूतों के चलते सारे पत्रकारों पर ‘अविश्वासी’होने की गाली पड़ रही है। न वे बिकते न समाज का पत्रकारों से विश्वास उठता। अब वक्त आ गया है कि सभी पत्रकार बंधु जिनका जमीर जिंदा है, वे आगे आयें और इस मुद्दे पर व्यापक बहस में हिस्सा लें। इस प्रश्न पर गहन पड़ताल और आत्मालोचन करें कि क्या वाकई भारतीय पत्रकारिता पर से समाज का विश्वास उठ गया है। क्या पत्रकारिता अपने धर्म अपने लक्ष्य से भ्रष्ट और इतनी पतित हो गयी है कि इस पर उंगली उठने लगे। ये और ऐसे ही कई मुद्दों पर सोचने की जरूरत है। जरूरी है कि इस पर बहस का एक सिलसिला शुरू हो। अगर पत्रकारों पर से समाज का विश्वास वाकई उठ गया है तो यह न सिर्फ भारतीय पत्रकारिता अपितु समाज के लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है। जनवाणी को उठाने सत्ता के शिखर तक को सचेत आगाह करने वाला माध्यम ही अगर अपनी विश्वसनीयता खो देगा तो लोकतंत्र ही खतरे में पड़ जायेगा। अभी भी वक्त है हमें सोचना चाहिए कि-हम क्या थे क्या हो गये, और क्या होंगे अभी, आओ विचारें बैठ कर ये समस्याएं सभी।

सोमवार, 15 मार्च 2010

समाज

हाय रे बचपन .....पढ़ने की उम्र में चोरी के गुर
पढ़ने लिखने की उम्र में तमाम बच्चे रेलवे स्टेशन पर चोरी के गुर सीख रहे हैं। इन्हें अपराधी बनाने के लिए पहले नशे की गर्त में डाला जाता है और उसके बाद उन्हें चोरी के धंधे में लगाया जाता है। रात होते ही रेलवे स्टेशन के आसपास पसरे सन्नाटे में बाल अपाराधियों की आमद होने लगती है। खास बात यह है कि बाल अपराध में कम उम्र की लड़कियां भी शामिल हैं, जिन्हें देर रात रिक्शों में स्टेशन के आसपास की सैर कराई जाती है।
पुलिस व जीआरपी ने इस तरफ से नजर फेर रखी है। बताया तो यह भी जा रहा है कि बाल अपराधियों के गुरुओं से पुलिस व जीआरपी हफ्ता वसूली करती है, जिसके चलते उन्हें टोका नहीं जाता। शहर में लगातार बढ़ रही चोरी की वारदातों के पीछे कहीं बाल अपराधियों का हाथ तो नहीं है। इस पर कोई भी बोलने को तैयार नहीं है, लेकिन रेलवे स्टेशन पर उग रही बाल अपराधियों की नर्सरी पर पुलिस का कहना है कि समय-समय पर स्टेशन के इर्द-गिर्द उनके सफाए का अभियान जरूर चलाया जाता है। ट्रेनिंग देने वाले वे लोग हैं, जो चलती ट्रेन से मुसाफिरों के आंखों के सामने से उनका सामान चोरी कर लेते हैं।
बताया जाता है कि रेलवे स्टेशन के आसपास झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले परिवार के बच्चों को पैसों का लालच देकर इस धंधे में उतारा जा रहा है। अपराधी बनाने से पहले उन्हें नशे की लत लगाई जाती है। रात को रिक्शा में शहर की सैर कराई जाती है। जो बच्चा विरोध करता है तो उसकी पिटाई भी होती है। हाल ही में जीआरपी ने रेलवे स्टेशन से सामान चोरी करने वाले बाल अपराधियों को रात के समय रंग हाथ पकड़ लिया था, लेकिन बाद में उन्हें छोड़ दिया गया।
खास बात यह है कि अपराध की दुनिया में कम उम्र की युवतियों को भी उतारा जा रहा है। इनसे ट्रेन में भीख मांगने की आड़ में सामान चोरी के लिए इस्तेमाल किया जाता है। पिछले दिनों ट्रेन में चोरी करते युवतियों के झुंड को लोगों न पकड़ लिया था, लेकिन बाद में जीआरपी ने कोर्ट कचहरी का वास्ता देकर मामले को रफा दफा कर दिया। रेलवे स्टेशन पर उग रही बाल अपराधियों के बारे में दुकानदारों का कहना है कि कई शातिर किस्म के चोर उन्हें ट्रेनिंग दे रहे हैं, जो जीआरपी व पुलिस को हफ्ता देते हैं। इसलिए पुलिस वाले मामला दर्ज करने के बजाय पीड़ित को इधर-उधर के चक्कर कटवाते हैं। बाल अपराधी उन्हीं लोगों को अपना शिकार बनाते हैं, जो बाहर से यहां आते हैं।
जीआरपी व पुलिस के पास स्टेशन पर यात्रियों के सामान पर हाथ साफ करने वाले बाल अपराधियों का आंकड़ा न हो पर स्थानीय दुकानदारों का कहना है कि कोई सा ऐसा दिन होता होगा, जब बाल अपराधी पकड़े न जाते हों। पुलिस कुछ भी कहे पर लगातार स्टेशन परिसर के आसपास बढ़ रही चोरी की वारदातें इस बात की गवाह हैं कि स्टेशन पर बाल अपराधियों की नर्सरी तैयार की जा रही अब्दुल्ला /ई.एम्.एस। में

रविवार, 14 मार्च 2010

एक संचिप्त भेंट


व्यथित हैं स्वामियों के काले कारनामों से स्वामी अग्निवेश - एक संचिप्त भेंट
किसी भी चीज पर धर्म का लेबल लगा देने से उसे तर्क से परे नहीं माना जा सकता - स्वामी अग्निवेश
धर्म के नाम पर लोगों को धन इकठ्ठा करना आज बहुत ही आसन कम लगता है शार्टकट तरीकों से इन्सान आज न तो दह्र्मात्मा बन पता है और न ही प्रतिष्ठित धर्म के स्वघोषित ठेकेदार लोगों के अंधविश्वास का जम कर फायदा उठाने से गुरेज नहीं कर रहे हैं इन चतुर फरेबी लोगों ने एक विशालतम आश्रम खरे कर रखे हैं मंदिर,मजार,और भक्ति साधना के नाम पर ये लोगों से खूब ही धन इकठा करते हैं जबकी परदे के पीछे इनका काम कुछ और ही होता है दरअसल भीमानंद और नित्यानंद जैसे लोग आज संतों की खल ओढ़े हुए छिपे हुए भेदिये से कम नहीं बहुत लम्बी लिस्ट है ऐसे भेडियों की जो धर्म की आर में नशीले पदार्थों, सेक्स रैकेट,अवैध हथियार,क़त्ल,अपहरण और ठगी जैसे कारोबार को बेधरक अंजाम देते रहते हैं गाहे बगाहे ऐसे लोगों को बेनकाब होते देर नहीं लगती लेकिन जेल की चाहर्दीवारों में जाकर वे कितना पश्चात्ताप कर पाते हैं यह अभी कानून की परतों में ढका छिपा हुआ है
स्वामी ज्ञान्चैतन्य जिनपर अपनी महिला भक्त के साथ यौनाचार (Sexual Herrasment) का आरोप है स्वामी अम्रीताचैतन्य पर बलात्कार,ड्रग्स और एस्माग्लिंग के कई आरोप लगे केरल के इस बाबा को इंटरपोल ने बहरीन में गिरफ्तार किया स्वामी सदाचारी देश के सर्वोच्च नेताओं के संग कभी दिखनेवाला सदाचारी वेश्यालय चलने के आरोप में गिरफ्तार हो चूका है स्वामी परमानद तिरुची आश्रम में तेरह हत्या और बलात्कार के आरोप्शुदा हैं स्वामी रामपाल रोहतक हरयाणा में करोरों रूपये की सरकारी जमीन हड़पने का आरोपी है पुलिस पर अवैध हथियारों से यह फायरिंग के बाद गिरफ्तार हो पाया है जेल में है अभी सबसे बड़े भ्रष्टाचार के मामले में लिप्त इंसानी शक्ल में भेदिया बना साधू स्वामी नित्यानंद दक्षिण भारत के तमिल हेरोईन के साथ सेक्स टेप टी.वी.चैनलों पर प्रसारित होने बाद लोग दांतों उंगलियाँ चबाने को बाध्य हो गए हैं इसने इंसानियत की सारी सीमायों को लाँघ कर आज के कलियुगी शैतान की अपनी शक्ल उजागर अवश्य की है लेकिन की होगा अब धर्म का और कौन कहलायेग धर्मात्मा? इस यक्ष प्रश्न का उत्तर तलाशने कौमी फरमान की और से अब्दुल्ला ने देश के प्रमुख समाज सुधारक स्वामी अग्निवेश जी से अभी बातचीत की जिसे अब्दुल्ला के द्वारा ही हम यहान अपने सजग और बुद्धिमान पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं - )
अब्दुल्ला - स्वामी जी आज आप देश में स्वामियों की कारनामों से वाकिफ होंगे बताइए इनकी करतूतों से आखिर कैसे इनपर यकीन किया जा सकता है ?
स्वामी - देखिये आज हमको सबसे पहले चमत्कार और रूढ़ीवाद की हथकड़ी को काटना होगा जैसे बहुत से आर्यसमाजी भी आज इसके चपेट में हैं कुछ को तो पता ही नहीं हैं कि " स्वामी दयानंद की जय " बोलकर वो वैदिक निर्देशों का कितना बार मजाक और उल्लंघन कर देते हैं और कुछ तो इसे ही वैदिक आधार मानकर करते चले आ रहे हैं बहुत बरी गलती है यह सत्यार्थ प्रकाश में स्वयम स्वामी दयानंद ने कहा है कि " अपना स्वयं तुम स्वयं तलाश करो मुझे सत्यप्रकाश में के माध्यम प्रकाश मिला यानि अर्थ की प्राप्ति हुई उसे ही मैंने सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से दिया है " उन्होंने बरी ही विनाम्रतापुर्वाक कहा है कि, "यदि इसमें मुझसे कुछ भूल हो गई हो तियो विद्वानों का यह नैतिक कर्तब्य है कि आपस में मिलकर मंथन के बाद उसमें संशोधन कर दें " आज इसी परंपरा की सख्त आवश्यकता है
हमारी नजरों में अब समय है कि धर्म की परिभाषा बदली जाये हम चाँद धर्माचार्यों द्वारा परोसे जा रहे धर्म को ही सत्य और अंतिम धर्म नहीं मान लें क्योंकि धर्म तो उसे कहते हैं जो आम आदमी की जीवन में सदाचार के द्वारा चल रहा होता है
अब्दुल्ला - आज जियो धर्म के आर में धोखा चल प्रपंच और अपराध की शीर्षस्थ घटनाएं अंजाम पाती अ रही हैं आपकी नजरों में क्यों है यह सब....?
स्वामी - हमारा माहौल आजन इतना दुष्टात्माओं की चंगुल में फंसता चला गया है कि असत्य को हमारे बीच सत्य का नकाब ओढकर आना परता है असली सोने की तरह पीलेपन का लबादा ओढ़कर ही तो बाजारों में नकली सोना आ रहा है , यह असत्य और बुराई की ताकत नहीं बल्कि उसकी कम्जर्फी और कमजोरी ही है, समझे न आप मेरी बात ...!
अब्दुल्ला - बाबाओं के दोहन शोषण के बारे में क्या ख्याल है आपका ?
स्वामी - इस परिप्रेख्स्य में अगर कास तौर से भारतीय समाज की बात करें तो आप देखेंगे कि यहाँ सामाजिक सुरख्षा पर किसी का ध्यान नहीं है चाहे वो समज हो या कोई एनी तंत्र बाबा लोग अपने पास आनेवालों भक्तों को भगवान का रास्ता तो दिखा नहीं सकते क्योंकि उन्होंने भगवान को तो कभी भूले से भी नहीं अपना बनाया इसीलिए उन्हें वो गुमराही के अन्धकार में धकेल देने के सिवाय और कुछ भी नहीं कर पाते हांलांकि इस प्रकार के शोषण दोहन का प्रतिकार न हो सकता है ऐसा भी नहीं है इसके लिए ब्यापक पैमाने पर परिचर्चाएं हों और उससे प्राप्त निदानार्थ रास्तों को अमल में लाया जावे बस देखिये स्वामी दयानंद और वैदिक आदर्शों से परिपूर्ण समाज पलभर में स्थापित हो जाएगा
अब्दुल्ला - तो क्या हो आधार और सामान्य Criteria आज कल बाबाओं और धर्म गुरुओं पर यकीन करने का या कि लोग इन सब पर से यकीन ही ख़तम कर लें...?
स्वामी - सबसे बरी बात है कि आप अपने ऊपर पहले यकीन करना सीख लीजीये भगवान की प्राप्ति हो जायेगे और ऐसा अगर होता है तो भले आत्माओं को तो सीधे भगवान,गाड या अल्लाह स्वयं रास्ता जो उज्जवल,स्वाच और सत्पथ की और उद्यत होता है पर अपको चलाया करेगा बुराइयां आपसे अनायास ही कोसों दूर भागने लगेगी अब आपने जो बाबाओं पर विश्वास की बात पूछी है तो अपने विवेक को जाग्रत करने की भी आवश्यकता है अंधविश्वास को दूर करने उसे विश्वास की कसौटी पर परख कर धर्म की तर्कसंगत धारणाएं और धर्म के नैतिकता के ऊपर आचरण आदि बैटन का ख्याल ही इस प्रकार के विश्वासों में ज्यादा सहायक होता है यही एक मात्र रास्ता है इन धोंग्बाजों को समाप्त कर धर्म के नाम पर इन सबों के द्वारा फैलाए जा रहे अनैतिकताओं को मानवीय सम्बेद्नाओं से जोरकर सीधा इसका प्रतिकार किया जाये मेरा व्यक्तिगत विचार है कि आज थ्री दी दूत देबत और आवश्यकता हो तो डीसेंट को अपने जीवन में उतारना परेगा तो इस वैज्ञानिक युग में सत्य का सम्मान स्वाभाविक रूप से बढेगा
अब्दुल्ला - आप सुनते रहते होंगे कि आज कथित धर्म गुरुओं के सीधे तार आतंकवादी संगठनों से भी जुरने लगे हैं, इसे कितना खतरनाक मानते हैं आप इस सूरतेहाल में क्या आज इन धर्म के ठेकेदारों को आत्म्शुधीकरण की आवश्यकता की गुजाइश बाकी रह गई है ?
स्वामी - बहुत दुखद है ये समाचार जब पढता सुनता हूँ तो आत्मा व्यथित हो उठता है लेकिन इसपर सरकार को थोरी कठोरता का अनुसरण करना होगा उसे अपने नियमों को निहारना चाहिए उसमें वंचित सुधर और उप्नियमिओन का समावेश करनी चाहिए रही जो बात आपने आत्म्शुधीकरण की की है ऐसा हो नहीं सकता दरअसल आम जनताओं को जाग्रत करना संतों का काम है जो सच्चे संत हों वही इस काम को बखूबी अंजाम दे सकते हैं और सच्चे संतों को हमें अपने विवेक और सद्बुधी से ही पहचानना होगा
अब्दुल्ला - और भी कुछ अंत में कहना चाहेंगे हमारे पाठकों के लिए .....?
स्वामी - सबसे पहले आपको लक्झ लाख साधुवाद जो " मुस्लिम समाज का प्रतिबिम्ब कौमी फरमान" लेकर मेरे पास आये , किसी भी चीज पर धर्म का लेबल लगा देने से उसे तर्क से परे नहीं माना जा सकता है यह मेरी समझ है , विज्ञान की जो कसौटियां हैं उससे परे नहीं मान्यता बनानी चाहिए, हमें सबों पर शक,बहस और आवश्यकतानुसार प्रतिकार अवश्य करनी चाहिये

एक मुलाकात तारो ताजी

एक मुलाकात पत्रकार लेखक अब्दुल्ला से फोन पर पेंटर मकबूल फ़िदा हुसैन के साथ

(भारत के हुसैन अब यहाँ के नागरिक नहीं रहकर विदेश यानि क़तर के नागरिक हो गए हैं हुसैन के इस कदम की आहात विदेशों में कितनी खारकी या तो दुनियां जानती है लेकिन जिस देश न हुसैन को पाला पोसा उसने इस और पोजीटिव की बजाय निगेटिव चूँ-चपड़ ज्यादा ही की बेचारे अनाप शनाप सुन-सुन कर पहले ही आहत हो कर इस मुद्दे पर एकदम से चुप हो जाना ज्यादा बेहतर समझे और गालिबन क़तर की नागरिकता के पेपर पर साईन करने के एक पखवारे तक इन्होने कोई टीका टिप्पणी नहीं कर्ण अपने लिए बेहतर समझा चुप्पी का उनका यह दौर ज्यादा लम्बा नहीं चला और अखबार नाबीसों और अखबारों ने उनका मुहं खुलवा ही लिया
बेहद गरीब मुस्लमान घर में पैदा हुए हुसैन की शख्सियत काफी गर्दिशों से और संघर्षों की भयंकर लपट में झुलस-झुलस कर निखारा है दो साल के थे तो वालिदा (मां)का साया सर से उठ गया पिता ने दूसरी शादी कर ली तो महरूमी के इस शदीद एहसासातों के जलते अनगरों ने ही एक मदरसे से मामूली तालीमयाफ्ता और मामूली पेशेवर कातिब हुसैन को कलाकार के रूप में पुरी दुनियां में मकबूलियत अता फरमाई क्या इंस्पिरेशन के लिए हुसैन के इस मुका की आवश्यकता प्रगतिशीलता के लिए जरुरी नहीं है ? घर में परी चाँद किताबों को कबारी के हाथों बेच कर रंग ब्रश खरीदा और घर से एक जोड़ी कपडे में लिप्त यह "गुदरी का लाल" भाग कर मुम्बई आया गरीबी ने कभी पैरों में चप्पलें नहीं लगने दी , और नंगे पैर चलने का उन्हें शौक नही जिन्दगी का एक ऐसा चैप्टर जिसे वो हमेशा याद रखना और अपनी अतीत को हमेशा याद रखना चाह रहे होते हैं यही वजह उन्हें आज भी नंगे पाऊँ रहने को विवश करती है मुंबई में रातों को फुटपाथ पर सोना और पूरे दिन फिल्मों का पोस्टर बनाने से उन्होंने दुनियां का सर्वोत्तम नामची हस्तियों में शुमार होने का ख्वाब देखा था, खुदा ने उनकी नीयत को काबुल कर लिया और आज हुसैन के बारे में कुछ भी विशेष बताने आवश्यकता ही समाप्त हो गई है है ये है हुसैन की जिन्दागे का एक अहम् और अनछुआ पहलू
अभी कुछ दिनों पहले यानि पिछले हफ्ते जनाब हुसैन साहब से अचानक फोन पर एक व्यक्तिगत मुलाकात हुई तब मीडिया से सख्त परहेज की पीरियड में चल रहे थे हुसैन साहब बारे ही मान मनौवल के बाद जब उन्होंने यह वादा लिया कि अभी कोई इंटरव्यू कहीं मरी जानिब से प्रकाशित नहीं होगा तब कहीं जाकर उन्होंने बातें कीं आज विदेशों के कई मीडिया खास कर इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने उनका इंटरव्यू प्रसारित करना शुरू किया तो मुझे भी अपने इस वार्तालापों को आप से छुपाये रखने का संवरण नहीं बाकी रह सका आईये आप खुद ही इस खास बातचीत को पढ़ लें जिसमें आम मीडिया से कुछ हटकर ख़ास बातों का अनायास ही समावेश हो गया है अब्दुल्ला इसे पहलीबार खास कर कौमी फरमान के पाठकों के लिए पहलीबार पेश कर रहे हैं )

......ट्रिन...ट्रिन.....ट्रिन.....(मुझे हुसैन के फोन की इस घंटी ने पहला इस्तेकबाल किया )
हुसैन - हेल्लो [ हेल्लो कहने का यह हुसैन का खास अंदाज है] कौन...?
अद्बुल्ला - अस्स्लामोअलाय्कुम ; जनाब दिल्ली से अब्दुल्ला पत्रकार बोल रहा हूँ ....
हुसैन - [ कुछ पल कुछ याद करने के बाद ] वालेकुम अस्सलाम.....कहो भाई कैसे हैं.........?
अब्दुल्ला - जी ठीक हूँ , आप कैसे हैं ?
हुसैन _ क्यूँ ! सारी दुनियां जान रही है कैसा हूँ मैं तुम्हें पता नहीं ?
अब्दुल्ला - पता है [ बीच में ही टपक से बोल पड़ते हैं...]
हुसैन - चलो....चलो ठीक है बताओ क्या हो रहा है...कैसे फोन किया ?
अब्दुल्ला - बस जी में आया कुछ बात करूँ आपसे....
हुसैन - भाई आज कल तो अखबारों से बातें करनी बंद कर रखी है लेकिन तुम्हें अगर सिर्फ बातें ही करनी हो तो फिर उठने दो फोन का मीटर वरना आइन्दा कुछ कहना होगा तो अपना नंबर छोड़ दो मैं फोन कर लूँगा ....
अब्दुल्ला - जी........
हुसैन - कहीं कुछ छापना वापना तो अही है ?
अब्दुल्ला - फ़िलहाल ऐसा इरादा तो नहीं है लेकिन हो भी जाये तो कुछ कह नेहे सकता...
हुसैन - अभी मत कहीं कुछ छापना....
अब्दुल्ला - चलिए ये तो बताइये कि कुछ ही दिनों पहले आपने चलते चलत बताया था कि आपके तमन्ना जल्द से जल्द भारत वापसी का है मगर अचानक क्याकातर ने जादू कर दिया ?
हुसैन - हाँ भाई तुम भी ऐसे हे पूछोगे न जानते हो न कि अब बुध हो चूका हूँ और काम अभी भी बहुत सारे करने बाकी रह गए हैं भारत में क्या कुछ नहीं उया मेर साथ सभी तो वाकिफ हैं ! अब तो थोड़ी सी चैन ओ सुकून मिले जिससे कि अधुरा कम वाम जो है वो पूरा कर सकूँ जो कुछ भी अपने फेन के मुंसलिक ख्वाब मैंने देख रखे हैं उसे मुझे हर हल में पूरा करने हैं भाई....वक़्त भी बहुत कम रह गया ही !
अबदुल्ला - वक़्त की कमी से क्या मतलब है आपका ?
हुसैन - मतलब साफ है कि सौ साल का होने में पांच ही साल तो बाकी रह गए हैं सहयाद मेरा खुदा अभी मेरे जरिये किये गए कामों से तसल्लीजादा नहीं हो पाया है इसलिए उसने उम्रे अजीम के कुछ पल और दे रखे हैं उस्स्की रजामंदी के लिए तो करना ही पड़ेगा न ?
अब्दुल्ला - लेकिन अचानक इस उम्रे अजीम के बाकी पल को गुजरने को आपको अपने वतन से छोड़ने का फैसला क्या मुनासिब लगा ?
हुसैन - आप नहीं जानते हैं कि जो काम मुझेकारने हैं जैसे कि भारतीय सिनेमा के सौ साल , भारतीय सभ्यता का इतिहास और अन्य दूसरी सभ्यताओं का इतिहास आदि जैसे टापिकों पर काम करने क वास्ते मुझे प्रायोजकों की जरुरत है जो हिंदुस्तान में नहीं मिला मुझे क़तर के शेख मोजः ने दूसरी सभ्यताओं पर प्रयोजकत्व स्वीकार कर मुझे कम करने के लिए बुलाया, और ऐसा करने के लिए मुझे वहां के आय कर ढांचे के तहत एनाराई बनना पड़ा
बहुत सारी बातें हैं लेकिन अब मैं सिर्फ अपने कामों पर तवज्जो दे रहा हूँ और ऐसा ही करता रहूँगा , सच तो आज भी मेरे दिल में यही है कि " हिंदी हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा (हिन्दोस्तान हमारा) " भाई पैदाइशी तो हिन्दुस्तानी ही हूँ, था और इंशाल्लाह रहूँगा इससे कोई क्या मैं खुद भी इंकार नहीं कर सकता न !
अब्दुल्ला - लेकिन हिन्दुस्तानी सरकार के बारे में अब क्या ख्याल है आपका ?
हुसैन - सही बात तो यह है कि हिंदुस्तान सरकार मेरे सुरक्षा कर नहीं सकी उसे मी कामों की परवाह नहीं, लेकिन चलो कोई बात नही अब उम्र भी नहीं रहे कि मिस्मानाजिज्म से टकरा जाऊं !
पहले तो वे मेरी जानो माल की हिफाजत करने में विफल रहे और अब जब कि मैं सुरक्शुइत हूँ तो कह रहे हैं कि वापस आ जाओ ...क्या है ये सब क्यों मेरी आनो शान की पीछे हाथ धो कर पद गए हैं ? बताओ ...?
अब्दुल्ला - तो कही कुछ राज या धोखा महसूस कर रहे हैं या करने लगे हैं?
हुसैन - नहीं रत्ती बराबर भी मेरे दिल में ऐसी बात नहीं है मई ऐसा न तो कह सकता हूँ और न ही कहूँगा
अब्दुल्ला - तो बातें आपकी जाहिर करती है कि आप भारत से ज्यादा क़तर में बा हिफाजत हैं ?
हुसैन - देखिये अब्दुल्ला जी ऐसा नहीं है सरकार अपनी दायरे में अपनी सीमाओं के तहत काम कर रही है और मेरा अपना दायरा और सीमा है जिसमे अपनी जिन्दगी को अपने हिसाब से अपनी मनचाही जगह पर करने का अधिकार इसलिए है कि खुदा ने दुनिया एक ही बनाई एक ही जमीन और आसमान हम सब आलमे इंसानों के लिए है चाहे जिस जगह रहोगे रहोगे तो उसी की दुनिया में ! लेकिन सवाल रहा मेरे अपने वतन भारत का तो कभी भी मई वापस वतन लौटने का फैसला कर सकता हूँ बस जरा काम पूरा हो जाये फिर इस बारे में सोचेंगे अगर खुदा ने चाह तो सब ठीक हो जायेगा आपको अभी मैंने बताया न कि मैं चाहे कही भी दुनिया के किसी कोने में रहूँ रहूँगा तो भारतीय पेंटर ही मैं एक आजाद नागरिक हूँ सो तो आप मानेंगें....?
अब्दुल्ला - क्यों नहीं.....
हुसैन - बस तो फिर मैंने कोई खून तो नहीं किया है अभीव्याक्तियाँ व्यक्त की हैं मैंने जिसे कुछ लोग नहीं समझ सके हैं जिससे आज के हालत पैदा हो गए है बस यही बात है
अब्दुल्ला - कहा तो यहाँ तक जा रहा है कि भारत सरकार की उपेख्शापूर्ण नीतियों से आपने व्यथित होकर ऐसा कदम उठाया है ?
हुसैन - बेकार की बातें हैं ये सब ऐसा मत बोलिए आप अगर आज मुझे कोई मुहब्बत से खुलूस से अपने यहाँ मुझे बुलेये और दूसरा नहीं चाहता कि मैं वहां जून तो क्या किसी की मोहब्बत को तर कर दूँ? ये इंसानी एखलाक तो नहीं है ? मैं उसे बहुत मुहब्बत करता हूँ जो मुझे मुहब्बत करता है खुइदा का हुक्म भी तो यही है कि अपने से प्यार करने वालों को उससे कहीं ज्यादा प्यार करो खुदा की रजा भी इसी में मिलती है
अब्दुल्ला - लेकिन आपके चाहने वाले प्यार करने वाले हिन्दुस्तानीयों की जो भावना आहत हुई हैं सो...?
हुसैन - ठीक है लेकिन जो कुछ भी हुआ मेरे चाहने वालों को उसकी भी खबर है वो जानते हैं कि क्या गलत क्या सही हुआ उनका प्यार मेरे कलिए अगर है तो वो भी मेरे सलामती ही चाहेंगे हाँ दुखद है ऐसा होना जो मेरे साथ हुआ मैं मानता हूँ लेकिन चाँद लोगों के कारण ऐसा हुआ इसलिए पूरे देश को और लोकतान्त्रिक प्रशाशन जिसकी एक सीमाएं हैं काम करने की उससे शिकायत या उसकी कमी बताना भी एक अपराध है मैं ऐसा नहीं कर सकता
अब्दुल्ला - क़तर को कर्मभूमि चुना और लोकतंत्र की ओर इतनी आस्था क्या है ? ये क़तर तो अलोकतांत्रिक देश है कैसे सम्हाल पाएंगे अपनी मानसिकता को जो इतनी आजाद परिंदे की तरह आज तक उर्ती रहती आई है ?
हुसैन - सारी बातें बताने की की जरुरत है ?
अब्दुल्ला - सही बात है लेकिन जिस सवाल का जवाब आपके पास है उसे जाहिर करने में हर्ज क्या है ?
अब्दुल्ला - सही बात है लेकिन जिस सवाल का जवाब आपके पास है उसे जाहिर करने में हर्ज क्या है ?
हुसैन - आप जानते होंगे कि हमेशा से मैं मुफ्तालिफ शहरों में रहता आया हूँ जब जहाँ जैसा मौका लगता मेरी आदत है वहीं वैसा कैनवास लगा लेता हूँ मैं तो प्यार का कायल और भूखा हूँ सबसे बरी बात है आप के सवाल का जवाब तो यही कहूँगा " हमें तो भेजा गया है भवर से लड़ने को / हमारी उम्र किनारे नहीं लगती" बस इतना से ही निकल लीजीये अपने सस्वालों का जवाब.....
अब्दुल्ला - आपकी सुरक्षा के मुताल्लिक गृह मंत्री महोदय ने भी कुछ कहा तो था जहाँ तक मुझे याद आ रही है उन्होंने इससे सम्बंधित कुछ वायदे भी तो आपसे किये थे फिर कहीं आप जो अपनी असुरक्षा की बाबत जो कुछ कह रहे हैं उसमें कुछ और मतलब तो नहीं?
हुसैन - आपने शायद बाजिद होकर सोच लिया है कि जो आप चाहेंगे उसका और उस् मुताबिक मुझसे जवाब तलब करेंगे ...?
अबदूला - देखिये ऐसी बात नहीं है में तो आपकी अंतर्वेदना की सच्चाई लोगों को बताने को प्रयास कर रहा हूँ अब आप पर है आप उसे चाहे जिस अंदाज में लें लेकिन अगर मुनासिब मुद्दों की शक ओ शुबहा लोगों का दूर हो तो घुमा फिराकर फायदा आपको और हम सबको ही तो है ?--
हुसैन - इन बातों की जदीद तफसील मैं नहीं करना चाहता आप नहीं मानते तो इतना ही कहूँगा कि आप गृह मंत्री साहेब को मत दिसतुरब करें उनकी अपनी रूटीन है चलने दीजीये उन्हें अपने रस्ते पर मुझे भी भारत अभे मेरे कम करने के ऐतबार से ज्यादा मुनासिब नहीं है इसलिए मुझे कहीं न कहीं काम की जगह तो चाहिए ही इसकी बहुत सारे वसायल हैं गृह मंत्री जी को मैं तो जानता ही हूँ आप भी तो जानते होंगे !
अब्दुल्ला - चलिए एक अलग सी बात आपके ज़ुबानी सुनना चाहता हूँ कि आखिर " हुसैन के पाँव नंगे होने का राज क्या है ?
हुसैन - किसी के नंगे पैर चलने पर आखिर क्यों सवाल चाहे वो हुसैन हो या सुकरात बुध हो या और कोई ! मुझे बस इसकी आजादी चाहिए मेरे लाईफ की एक ऐसी ट्रेजेडी है जिसकी याद इन नंगे पैरों से मैं जिन्दा रखना चाहता हूँ

शनिवार, 13 मार्च 2010

समाज



यौन और मानसिक शोषण में पिसता बचपन
-अब्दुल्ला


हमारे समाज का ताना बाना वयस्कों, खासकर मर्दों की सुख-सुविधाओं, जरुरतों, रुचियों और अधिकारों को ध्यान में रखकर बना है। इसी के इर्द गिर्द घूमती है, हमारी राजनीति, कानून, पढ़ाई, चिकित्सा और यहां तक कि आमदनी और स्रोतों के बंटवारे भी। स्वाभाविक तौर पर न तो हम बच्चों के अधिकारों के बारे में जानना चाहते हैं और न ही उनकी सुरक्षा और सम्मान के बारे में पर्याप्त उपक्रम करते हैं। हां उन्हें नासमझ, कमजोर, लाचार आदि मानकर करुणा या दया का भाव जरुर रखते हैं। आवागमन के साधनों, वाहनों, सार्वजनिक शौचालयों, रेस्टोरेन्टों, सभागृहों, सड़कों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों और यहां तक कि स्कूलों व अस्पतालों, का निर्माण बच्चों की सुविधा और सुरक्षाओं को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता क्योंकि हम बच्चों का अपना कोई वजूद नहीं समझते।
फिर से हमारा सिर शर्म से झुका देने वाली गंभीर जानकारी, एक सरकारी रिपोर्ट के माध्यम से जग जाहिर हुई है। दुर्भाग्य से मीडिया के लिए यह कोई बड़ी खबर नहीं बनी, किंतु बच्चों के यौन उत्पीड़न के बारे में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट हमारे आर्थिक विकास तथा सभ्यता व संस्कृति की डींगों की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है। नारी रक्षा की महान परंपराओं की दुहाई देने वाले भारत में हर 155वें मिनट में किसी न किसी नाबालिग बच्ची के साथ दुष्कर्म होता है। सरकारी रिपोर्ट यह भी बता रही है कि दुनिया में सबसे ज्यादा यौन उत्पीड़न के शिकार बच्चे हमारे देश में ही बसते हैं।
बचपन के प्रति उदासीनता भरी सामाजिक मानसिकता, गैर जिम्मेदाराना रवैया तथा चारों ओर पसरी संवेदनशून्यता इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति के बडे़ कारण हैं। इसलिए यह लाजमी है कि बच्चों के प्रति व्याप्त किसी भी प्रकार की हिंसा, असुरक्षा व उनकी जिन्दगी के जोखिमों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझा जाये साथ ही सर्वांगीण समाधान भी ढूंढा जाय।
विगत 1 मई को लोकसभा में जब सरकार इस रिपोर्ट का जिक्र कर रही थी तब संसद भवन से चंद मील दूर चौथी कक्षा में पढ़ने वाली 9 साल की एक बच्ची के साथ उसी का योग प्रिशक्षक मुंह काला करने में जुटा था। इसी प्रकार के तीन मामले दिल्ली पुलिस ने दर्ज किये। राजधानी के स्वरुप नगर इलाके में पांच वर्षीय बालक के साथ उसके पड़ोसी ने जबर्दस्ती की, जब वह अपने घर के बाहर नगर निगम के पार्क में खेल रहा था। इसी क्षेत्र में एक चौदह साल की बच्ची के साथ उसी के 24 वर्षीय पड़ोसी ने बलात्कार किया। तीसरी घटना तो और भी ज्यादा घृणित है जब लोगों की जान माल और इज्जत की सुरक्षा में तैनात एक 40 वर्षीय पुलिसकर्मी ने प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्रियों, न्यायाधीशों आदि के घरों से चंद कदमों की दूरी पर तुगलक रोड पर एक बच्ची के साथ दिन दहाड़े मुंह काला किया। रोज ब रोज घटने वाले ऐसे शर्मनाक हादसों की कोई कमी नहीं है। जब यह स्थिति दिल्ली की है तो देश के दूर दराज इलाकों में तो हमारे बच्चे कितनी असुरक्षापूर्ण जिन्दगी जी रहे हैं, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
हर रोज कहीं न कहीं से स्कूल, पड़ोस, अस्पतालों, मनोरंजन केन्द्रों, धर्मस्थलों, पुलिस अथवा दूसरे सरकारी महकमों द्वारा, अपने कोमल शरीर, पवित्र आत्मा और निष्कलंक सम्मान को मिट्टी में मिलाकर, खून का घूंट पीकर या सिसकते सुबकते अनगिनत बच्चे घर लौटते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिनको यह भी नसीब नहीं है कि वे जीवित लौट सकें। फैक्ट्रियों, खदानों, ईंट के भट्ठों में कोमल अंग गलाते-गलाते कभी नि:शब्द, कभी करुण क्रंदन करते वहीं अपना दम तोड़ने के लिए अभिशप्त हैं। बहुत से कुपोषण, भूख और बीमारी की वजह से मौत के मुंह में पहुंच जाते हैं। कईयों को सड़कों पर ही ट्रक, बसें, कारें कुचल डालती हैं, तो दूसरे कई खटारा बसों या नशाखोर अथवा नौसिखिए ड्राइवरों की कृपा से दुर्घटनाओं में चल बसते हैं। स्पष्ट तौर पर हमारे समाज में बच्चों की हिफाजत करने के बोध, तैयारी और ईमानदार कोशिशों का घोर अभाव है।
कथित किशोर सुधारगृहों की भी पूरी दुर्गति है। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे गृहों के शत प्रतिशत बच्चे उसे बच्चों की जेल ही मानते है। वहां भी आधे बच्चे वयस्कों द्वारा होने वाली किसी न किसी प्रकार की हिंसा के शिकार होकर दीवारें तक फांदकर भागने के लिए विवश हैं। वहां के 80 प्रतिशत कर्मचारियों और अधिकारियों को बाल अधिकारों की कभी कोई जानकारी ही नही दी गई। नतीजा साफ है कि दूर दराज की बात छोड़िये देश की राजधानी दिल्ली में ही पिछले 10 महीनों में सरकार द्वारा चलाये जा रहे इन कथित सुधारगृहों में कम से कम 12 बच्चों की मौत हो गई। इससे पहले दो वर्षों में क्रमश: 16 और 21 बच्चे मौत का शिकार हुए थे। बाल श्रम को रोकने के लिए नियुक्त किये गये श्रम निरीक्षकों और अफसरों की बच्चों के प्रति संवेदनशीलता व उनके अधिकारों और सम्मान को ध्यान में रखते हुए पूछताछ करने के तरीकों पर कोई प्रशिक्षण हमारे देश में नहीं होता। पुलिस की हालत तो इससे भी बुरी है, किसी भी जुल्म से पीड़ित बच्चों से पुलिसिया पूछताछ का तरीका निहायत ही भद्दा, अपमानजनक और अक्सर बचपन विरोधी होता है। सिपाहियों और थानेदारों को इस तरह बच्चों से दोस्ताना व्यवहार करना सिखाने के लिए कोई सरकारी प्रशिक्षण नहीं होता। दुर्भाग्य से न्यायालयों तक की भी यही स्थिति है।
नाम सोनिया. उम्र 10 साल. लाल गाउन में लिपटी वह अपने मेकअप रूप में मेकअप कर रही है. होठों पर सुर्ख लाली. गालों पर सुर्खी और भी ऐसे ही न जाने कौन-कौन से रंग रोगन उसके चेहरे पर पुत रहे हैं. वह अपनी उम्र से काफी आगे धकेल दी गयी लगती है. ऐसा क्यों किया जा रहा है उसके साथ? वह मुंबई एक टैलैण्ट हण्ट शो में भाग लेने पहुंची है. शो में बेहतर प्रदर्शन के लिए वह केवल मेक-अप पर ही ध्यान नहीं देती. वह रोज घण्टो रियाज करती है. उसे हमेशा यह चिंता रहती है कि रियाज और लुक दोनों ही मामलों में उसे आगे रहना है. सोनिया का भाई भारत भूषण अपनी छोटी बहन की मेहनत से बहुत खुश है. भूषण को उम्मीद है कि एक बार उसकी बहन स्टार बन गयी तो सारी दुनिया उसके कदमों में होगी.
सोनिया और भूषण अकेले बच्चे नहीं है जो इस तरह के ख्वाबों के साथ जी रहे हैं. देश का 30 करोड़ बच्चे और किशोर इस सपने में उसके साझीदार है जिनकी उम्र 15 साल से कम है. टीवी के रियलिटी और डांस शो ने बच्चों को सपनों से भर दिया है. छोटी उम्र में खोखली ख्वाहिंशों का अंतहीन सिलसिला. इसके लिए जरूरत से ज्यादा समय वे सिंगिंग, डांसिग और टैलैण्ट हण्ट शो के नाम पर जिन्दगी निछावर कर रहे हैं. टीवी कंपनियां इसे टैलेण्ट हण्ट शो या कला प्रदर्शन का जरिया इसलिए बनाने में लगी है क्योंकि यह 180 करोड़ का विज्ञापन बाजार है और सालाना 20 प्रतिशत की दर से बच्चों का यह बाजार बढ़ रहा है.
पांच मिनट की एक परफार्मेंश के लिए बच्चों को हफ्तों दिन-रात कड़ी मेहनत करनी होती है. बच्चे पढ़ाई-लिखाई तो छोड़ते ही हैं बचपन से भी मरहूम हो जाते हैं. मनोविद कहते हैं कि अच्छी तैयारी के बाद जब बच्चा हारता है तो वह गहरे अवसाद में चला जाता है जिसे उस अवसाद से निकालना बहुत मुश्किल होता है. इसका असर उसके पूरे जीवन पर होता है. बाजार द्वारा शायद यह बच्चों का व्यवस्थित शोषण है. इसके खिलाफ आवाज उठाने की बात कौन करे मां-बाप और अध्यापक भी इस लालच में बच्चों पर दबाल डालते हैं कि अगर वह कहीं पहुंचता है इसी बहाने उनका भी थोड़ा नाम हो जाता है .ऐसे में बच्चों को नचाने से लेकर दौड़ाने तक का हर काम होगा ही. विज्ञापनों और बाजार का प्रभाव ऐसा भीषण है कि आज हर मां-बाप अपने बच्चे को टैलेण्ट हण्ट शो का हिस्सा बनाना चाहता है. बाजार के प्रभाव में जो मां-बाप हैं वे अपने बच्चे का एकेडिमक कैरियर वगैरह नहीं चाहते. वे यही चाहते हैं या तो बच्चा क्रिकेट खेले नहीं तो फिर नाचे-गाये. यह समझना भूल होगी कि बच्चे अपनी मर्जी से इन टैलेण्ट शो में हिस्सा ले रहे हैं. ज्यादातर केसों में मां-बाप के दबाव में बच्चे टैलैण्ट हण्ट शो का हिस्सा बनते हैं. बच्चों के जरिए मां-बाप भी सुपरस्टार के मां-बाप का सुख भोगना चाहते हैं.यौन शोषण के साथ ही इस मानसिक शोषण को क्योंकर नजरअंदाज कर दिया जाता है? शायद इसलिए कि अपने बच्चों के द्वारा हम अपने नामची होने का सुख भोग सकेंगें.
हमारा समाज और सरकार जब तक बच्चों की कही-अनकही जरुरतों, उनके हकों तथा उनकी शारीरिक या मानसिक उम्र का ख्याल रखते हुए उनको विशेष सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराता, बच्चों से संबंधित कानूनों, न्यायालयों के निर्देशों, योजनाओं आदि के क्रियान्वयन के लिए नियुक्त किये गये व्यक्तियों को कानूनी तौर पर जवाबदेह नहीं ठहराता, जब तक हम बच्चों से दोस्ताना व्यवहार की एक संस्कृति विकसित नहीं कर लेते और जब तक हम उनकी हिफाजत के लिए एक व्यापक सामाजिक व मानसिक सुरक्षा कवच निर्मित नही करते, तब तक इस तरह के बचपन विरोधी गम्भीर अपराधों को महज हादसा या रोजमर्रा की घटनायें ही माना जाता रहेगा. कभी न्याय अथवा राहत में देरी तो कभी चन्द लोगों की दरिन्दगी के बहाने बनाकर आखिर कब तक, हम हमारे बच्चों को मरने, जलने, अपाहिज होने और बलात्कार व हिंसा का शिकार होने के लिए अभिशप्त रखेंगे?
बचपन के प्रति उदासीनता भरी सामाजिक मानसिकता, गैर जिम्मेदाराना रवैया तथा चारों ओर पसरी संवेदनशून्यता इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति के बडे़ कारण हैं। इसलिए यह लाजमी है कि बच्चों के प्रति व्याप्त किसी भी प्रकार की हिंसा, असुरक्षा व उनकी जिन्दगी के जोखिमों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझा जाये साथ ही सर्वांगीण समाधान भी ढूंढा जाय।मनोविद कहते हैं कि इस तरह बच्चों का दबाव में रहना और कम उम्र में कैरियर की बातें सोचना उन्हें भावनात्मक रूप से कमजोर कर देता है. इतना दबाव तो शायद कोअब इस तरह के कानून बनाने की बात हो रही है कि बच्चों को खेत में काम करने से रोका जाए. घर में काम करने से रोका जाए. होटल और अन्य श्रमशोषण स्थानों के बारे में कानून बने और बच्चों का बचपन वापस लौटे यह तो समझ में आता है लेकिन इस तरह के पागलपन वाली परिभाषाओं का क्या मतलब है? क्या अब हमें क्या खाना चाहिए, कैसे सोना चाहिए, अपने बच्चों को कैसे पालना चाहिए, उन्हें क्या पढ़ना चाहिए और क्या सीखना चाहिए यह सब कानून से तय होगा? ऐसे तो वह बचपन ही मर जाएगा जिसकी नैसर्गिकता के कारण ही वह बचपन है।


फूलों की घाटी की सैर


अब्दुल्ला
फूलों की घाटी" में सैर करने आए फ्रांसीसी पर्यटक ने कुछ वर्ष पहले कहीं कहा था कि फूलों की घाटी जाने का उसका फैसला गलत था । उसे गंदगी से सराबोर पैदल ट्रैक पर रास्ते भर नाक पर रूमाल रखकर जाना पड़ा था । फूलों की घाटी को विश्व धरोहर का दर्जा मिलने के बाद इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के माइकेल ग्रीन ने फूलों की घाटी के रास्ते में पड़ने वाले गांव भ्यूंडार पुलना से पैदल ट्रैक शुरू करते वक्त गोविंदघाट गांव में बनी ईको विकास समितियों का अद्भुत काम देखा । इस काम की प्रेरणा इन ग्रामीणों को नंदादेवी बायोस्फीयर पार्क के वनाधिकारी ए.के. बैनर्जी से मिली । श्री बैनर्जी ने जब २००१ में गोविंदघाट से घांघरियां तक पैदल गए तो उन्हें गंदगी से लबरेज इस रास्ते पर पैदल चलते समय बदबू का सामना करना पड़ा । हेमकुंट जाने वाले सिख श्रद्धालु व फूलों की घाटी जाने वाले देशी व विदेशी सैलानियों को भी बदबू के मारे इस रास्ते पर चलने में भारी दिक्कत होती थी । इस पूरे मार्ग पर क्षेत्र के ग्रामीणों ने छोटे-छोटे झोंपड़े बनाकर उन्हें दुकान के रूप में पंजाब, हरियाणा व नजीबाबाद से आए छोटे-मोटे व्यापारियों को किराए पर दे रखा था जो वन कानूनों के अनुसार पूरी तरह अवैधानिक था । ए.के. बैनर्जी ने क्षेत्र के नवयुवकों से इस बाबत सलाह-मशविरा किया। उन्हें समझाया कि जब तक यह कूड़ा इस पूरे ट्रैक से नहीं उठेगा तब तक पर्यटक आने में कतराएंगे और इससे उनकी रोजी-रोटी पर असर पड़ेगा । यदि थोड़ा योजनागत तरीके से काम किया जाए तो इन दुकानों को भी वानिकी गतिविधि की तरह दर्शाकर उनके इस गैरकानूनी काम को भी कानूनी स्वरूप दिया जा सकता है । इस विचार से वहां के युवा श्री बैनर्जी की ओर आकर्षित हुए । १९९९ में भ्यूंडार पुलना के ग्रामीणों को साथ लेकर एक ईको डेवलेपमेंट कमेटी गठित की जा चुकी थी ।
इस ईको डेवलेपमेंट कमेटी ने गोविंदघाट सहित घांघरियां तक के १३ किमी. लंबे पैदल रास्ते की सफाई के लिए युवक मंगल दल व महिला मंगल दल समेत आम ग्रामीणों की भी मदद ली । अवैध दुकानों को तोड़ा गया, केवल चट्टियों पर ही दुकानें खोलने की रजामंदी हुई । ग्रामीणों को प्रतिपरिवार एक दुकान देने का फैसला लिया गया ।
"फूलों की घाटी" में सैर करने आए फ्रांसीसी पर्यटक ने कुछ वर्ष पहले कहीं कहा था कि फूलों की घाटी जाने का उसका फैसला गलत था । उसे गंदगी से सराबोर पैदल ट्रैक पर रास्ते भर नाक पर रूमाल रखकर जाना पड़ा था । फूलों की घाटी को विश्व धरोहर का दर्जा मिलने के बाद इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के माइकेल ग्रीन ने फूलों की घाटी के रास्ते में पड़ने वाले गांव भ्यूंडार पुलना से पैदल ट्रैक शुरू करते वक्त गोविंदघाट गांव में बनी ईको विकास समितियों का अद्भुत काम देखा । इस काम की प्रेरणा इन ग्रामीणों को नंदादेवी बायोस्फीयर पार्क के वनाधिकारी ए.के. बैनर्जी से मिली । श्री बैनर्जी ने जब २००१ में गोविंदघाट से घांघरियां तक पैदल गए तो उन्हें गंदगी से लबरेज इस रास्ते पर पैदल चलते समय बदबू का सामना करना पड़ा । हेमकुंट जाने वाले सिख श्रद्धालु व फूलों की घाटी जाने वाले देशी व विदेशी सैलानियों को भी बदबू के मारे इस रास्ते पर चलने में भारी दिक्कत होती थी । इस पूरे मार्ग पर क्षेत्र के ग्रामीणों ने छोटे-छोटे झोंपड़े बनाकर उन्हें दुकान के रूप में पंजाब, हरियाणा व नजीबाबाद से आए छोटे-मोटे व्यापारियों को किराए पर दे रखा था जो वन कानूनों के अनुसार पूरी तरह अवैधानिक था । ए.के. बैनर्जी ने क्षेत्र के नवयुवकों से इस बाबत सलाह-मशविरा किया। उन्हें समझाया कि जब तक यह कूड़ा इस पूरे ट्रैक से नहीं उठेगा तब तक पर्यटक आने में कतराएंगे और इससे उनकी रोजी-रोटी पर असर पड़ेगा । यदि थोड़ा योजनागत तरीके से काम किया जाए तो इन दुकानों को भी वानिकी गतिविधि की तरह दर्शाकर उनके इस गैरकानूनी काम को भी कानूनी स्वरूप दिया जा सकता है ।

गुरुवार, 11 मार्च 2010

क्यों बेचैन हैं हम हुसैन की नागरिकता को लेकर

अब्दुल्ला
क़तर की नागरिकता स्वीकार करते ही मशहूर चित्रकार एमएफ़ हुसैन के समर्थकों के बीच बेचैनी है। उनका मानना है कि हुसैन को मज़बूरी में ये फैसला करना पड़ा। वे हिंदू कट्टरपंथियों और भारत सरकार की अकर्मण्यता को इसके लिए ज़िम्मेदार मानते हैं। कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन चुका है कि एक तरफ़ धार्मिक कट्टरपंथी है जो एक कलाकार की आज़ादी को बर्दाश्त नहीं कर सकते, दूसरी ओर हुसैन के ऐसे समर्थक हैं जो उनकी महानता के गीत गाते नहीं थकते। भारतीय लोकतंत्र के लिए इसे शर्मनाक बता रहे हैं। पूरा विमर्श कमोबेस इन्हीं दो धुरियों के बीच घूम रहा है। ऐसे में एक कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़े होते हुए भी इस बात की पड़ताल करनी ज़रूरी है कि क्या हुसैन हमारे समाज के लिए सचमुच इतने ज़रूरी हैं कि उनकी कला के बिना भारत की आम जनता को एक बड़े कलाकार के अपने आस-पास ना होने का अभाव खलेगा।
आम तौर पर हमारे देश में किसी इंसान को अगर महान बना दिया जाता है कि उसे हम इंसान से थोड़ा बड़ा, देवता या ख़ुदा जैसा कुछ समझने लगते हैं। उसके बारे में किसी भी तरह की आलोचना सुनना भी हम मंजूर नहीं कर पाते। अगर हुसैन की कला की बात की जाए तो इसमें कोई शक नहीं कि उनकी चित्रों में जो विविधता है, वो बहुत कम चित्रकारों में देखने की मिलती है। उनकी सृजनात्मकता की रेंज बहुत व्यापक है। उनके घोड़े तो मशहूर हैं ही उन्होंने मदर टेरेसा, सुनील गावस्कर, लता मंगेशकर और इंदिरा गांधी के भी चित्र बनाए हैं। हुसैन ने मिथकों के साथ ही आधुनिक भारतीय अनुभव को भी अपने चित्रों में जगह दी है। ड्राइविंग कार को पेंट करना इसका एक उदाहरण है। उनकी लाइंस, चटख रंग और स्ट्रोक्स कला प्रेमियों के बीच काफी़ मशहूर हैं। इसके अलावा हुसैन एक कवि, लेखक और फिल्मकार भी हैं। यही बात उन्हें बाक़ी भारतीय और यूरोपीय पेंटरों की तुलना में कुछ विशेष बनाती है। हुसैन अगर गंगा का चित्र बनाते हैं तो वो उनके लिए सिर्फ़ एक नदी नहीं है। मिथक और स्मृति मिलकर यहां एक कलात्मक यथार्थ गढ़ते हैं। हुसैन के बारे में ये तथ्य जग ज़ाहिर है कि उनकी ज़िंदगी बहुत संघर्षों में बीती है। आजा़दी से पहले वे मुंबई में फिल्मों के होर्डिंग्स भी पेंट किया करते थे। एक दौर में वो फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा के साथ प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के संस्थापक सदस्यों में भी रहे हैं। लेकिन ये तस्वीर का सिर्फ़ एक पहलू है। इसलिए उनके संघर्ष वाले दौर की पेंटिंग्स और उनके करोड़पति होने के बाद की पेंटिग्स की जांच करना ज़रूरी है।
क्या हुसैन इसलिए महान है कि उनकी पेंटिग्स करोड़ों रुपये में बिकती हैं। बाज़ार ने उन्हें एक महंगे और महान चित्रकार के तौर पर स्थापित किया है। ऐसे में एक कलाकार के तौर पर हुसैन से क्यों न पूछा जाए कि पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? फोर्ब्स जैसी अमीरों की पत्रिका उन्हें भारत का पिकासो घोषित करती है। लेकिन पिकासो की गुएर्निका या वैन गॉग के पोटेटो ईटर जैसी कितनी पेंटिग्स हैं जो हुसैन के वैचारिक मान्यताओं को दुनिया के सामने रखती हैं। जो युद्ध, भुखमरी या गैरबराबरी के ख़िलाफ़ हों। ये हमारे समाज की दिक़्क़त है कि जिसकी पेंटिग के दाम जितने ज़्यादा मिलें उसे उतना ही बड़ा पेंटर मान लिया जाता है। इस तरह के बड़े पेंटर कही पर एक दस्तख़त भी कर देते हैं या कैनवस पर दो लाइनें भी खींच देते हैं। तो उन्हें सहेज कर रखा जाता है। बाज़ार में उनकी नीलामी भी करोड़ों में हो सकती है। ऐसे में कला के सामाजिक सरोकार बिल्कुल ग़ायब होकर रह जाते हैं।
हुसैन एक बड़े चित्रकार है। ठीक उसी तरह जैसे भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हुसैन की महानता भी भारतीय लोकतंत्र की तरह ही महान है। जिसमें दिखाने के लिए अभिव्यक्ति की स्वत्रंता, समता पर आधारित समाज जैसी बड़ी-बड़ी बातें हैं लेकिन हक़ीक़त जग जाहिर है। इस महानता का प्रचार कॉर्पोरेट पूंजी कर रही है। हुसैन की कला के लिए भी क्रिस्टी जैसे नीलामघर ना होते तो वो दुनियाभर में मशहूर या आम आदमी से इतने बड़े कैसे हो जाते।
आधुनिक भारतीय चित्रकला की एक आलोचना ये है कि वो राजा रवि वर्मा से बहुत आगे नहीं पढ़ पायी है। सामाजिक सरोकार उसमें ज़्यादा नहीं दिखते। सोमनाथ होड़, ज़ैनुल आबीदीन और चित्तप्रसाद को छोड़ दिया जाए तो भारतीय चित्रकला या तो बने बनाए ख़ांचों में फिट होती रही है या फिर समाज से कटे मनमाने प्रयोग करते करते हैं। उसमें बेहतर समाज के लिए चलने वाली लड़ाइयां तलाशने से भी नहीं मिलती है। इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि चित्रकार किसी राजनीतिक पार्टी के पोस्टर बनाने में लगे रहें। लेकिन इस बात की पड़ताल ज़रूरी है कि उसकी पूरी कला समाज के किसी हिस्से के पक्ष में जाती है। वरना फिर कला, कला के लिए का नारा बुलंद करने के लिए तो लोग आज़ाद हैं ही और फाइव स्टार होटलों में महंगी पेंटिंग्स तो टगेंगी ही।
कतर की नागरिता के लेने के बाद एडीटीवी की बरखा दत्त ने जब हुसैन से पूछा कि आपको भारत की नागरिकता को छोड़ने का कितना दर्द है। हुसैन बोले कि दर्द मुझे कम, भारतीय मीडिया को ज़्यादा हो रहा है। कतर की राजशाही के भीतर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बरकरार रख पाने के सवाल पर हुसैन के पास कोई सही जवाब नहीं था। सबसे हैरान करने वाली बात ये थी कि हुसैन के मुताबिक वो छोटी-छोटी चीज़ों से ऊपर उठ चुके हैं। पिचानबे साल की उम्र में वो अब कुछ बचे हुए कामों को पूरा करना चाहते हैं। एक काम वो मोहनजोदड़ो से मनमोहन सिंह तक की सभ्यता के विकास पर कर रहे हैं तो दूसरा अरब सभ्यता पर कर रहे हैं। तीसरा काम भारतीय सिनेमा के सौ साल पूरे होने पर वो पेंटिंग्स की सीरीज सामने लाना चाहते हैं। इसके अलावा फिलहाल वे कुछ भी नहीं सोचना चाहते। इन सभी कामों के लिए उन्हें फाइनेंसर मिल गए हैं। उन्होंने ये भी कहा कि उनके भारत आने पर बेकार की मुश्किलों का तो सामना करना ही पड़ेगा यहां टैक्स बगैरह की बहुत दिक़्क़त है। कतर में रहने से उनपर टैक्स की मार नहीं पड़ेगी और वो अपने फिनांसर के लिए इन प्रोजेक्ट्स को वक़्त पर पूरा कर पाएंगे। हुसैन साहब की इन योजनओं से पता चलता है कि हुसैन साहब की वरीयताओं में कौन सी बात है। भारत उनके लिए मिथकों और विकास की चमक-दमक से घिरे एक देश का नाम है। मुंबईया सिनेमा के बाज़ारू चरित्र उन्हें लुभाते हैं। ऐसा लगता है कि धार्मिक आस्था उन्हें अरब का संधान कराने ले गई हैं। देश-दुनिया में चल रहे ज़िंदगी के संघर्षों से वे ऊपर उठ चुके हैं। इसलिए उम्र के इस पड़ाव में कतर के राजा की प्रजा बनकर सुखी हो रहे हैं।

सोमवार, 8 मार्च 2010

हुसैन का विवादित चित्र

अब्दुल्ला




हुसैन की कला के कुच्छ वो क्रीतियाँ जो अभी आपने विवाद में जरुर सुना होगा देखी है कि नहीं ये ओ आप को पता होगा पर अगर नहीं देखी औरत देखना चाहते हैं तो मुझे जरुर ब्लॉग कीजीये