दुनिया में बहुत बड़ी संख्या में बच्चे बाल-ब्यापार के शिकार हैं यह सर्व विदित है.देश में बाल व्यापार कानून की जद में वेश्याव्रित्त और यौन शोषण ही है , यह सत्य है की भारत के मौजूदा कानून बाल ब्यापार पर लगाम लगाने में समर्थ नहीं है शायद इसीलिये नए कानून की आवश्यकता है. दुनिया के विभीन्न हिस्सों में तो मासूमों ओ जानवरों से भी कम कीमत पर खरीदफरोख्त होता है. यानी बच्चों को एक चीज बना दिया गया है.विगत दो सालों में ट्राफिकिंग कर लाये गए करीब पौने दो हजार बच्चों को बचपन बचाओ आन्दोलन के तहत अलग अलग उद्योगों की मजदूरी से मुक्त कराया गया है. इन बाल बाल व्यापार का बढ़ता कारोबार के शिकार बच्चों को सरकार पलायित मान रही है. बाल ब्यापार में बच्चन के मान बा को थोडा बहुत पैसा देकर इस अंधकार में धकेल दिए जाने की खबर भी इन दिनों आम सुनने को मिलती रहती है. अपहरण और चोरी छुपे भागे हुए बच्चों, फुट पाथ और कोठे पर पैदा हुए बच्चों को तो जैसे भाग्य में ही शोषण लिखा हुआ समझा जाता है। अगर ये कोठों की अंधियारी में बिना बाप के अस्तित्व वाले बच्चे जीवन में कुछ और करने की कभी तमन्ना भे करते हैं तो बेचारी मान की दमित और कालकवलित हुई भाग्य इन्हें या तो अपनी मान या बहन की खातिर उसके गरम गोश्त के भूखों की तलाश कर जीवन यापन करने को मजबूर होना पड़ता है.
ब्यापार की आड़ में बच्चों से वेश्याव्रीत्ति भी करवाई जाते है. दर हकीकत ऐसे बच्चों को जबरन मजदूर कहना कतई मुनासिब नहीं होगा. इन्हें अगर हम समकालीन दासता के शिकार कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं. गैर सरकारी आंकडों के अनुसार दुनिआं में हर साल बहत्तर लाख बच्चे बाल दासता के शिकार होए हैं. इसमें एक तिहाई बच्चे दक्षिण एशियाई देशों से होते हैं. भारत में सही तौर पर बाल ब्यापार में दकेले जा रहे बच्चों की कोई तःकीकी संख्या उपलब्ध नहीं है, जबकि भारत सबसे बड़ा केंद्र है बाल ब्यापार का बस यहाँ तो नेताओं की भाषणों में ही कभी कभार किसी एन जी ओ के सेमिनारों में तालियाँ और पुरस्कार की लिए आकर्षक आंकड़े दर्शाए जाते हैं. बाल ब्यापार के क्षेत्र में भारत श्रोत , गंतब्य और पारगमन केंद्र के रूप में काम कर रहा है. नेपाल और बंगला देश से बच्चे यहाँ लाये जाते हैं. यहाँ से बड़ी तायादात में बच्चे अरब देशों में ले जाए जाते हैं. अरब देशों में कम उम्रकी लड़कियां भी सप्लाई की जाती हैं जिनका शोषण ईय्यास और कामुक दौलतमंद शेखों के द्बारा किये जाते हैं. इनमें मुस्लिम लड़कियों की संख्या ज्यादा ओती हैं और जो मुस्लिम नहीं भी होती हैं उन्हें भी मस्लिम बनाकर पारगमन कराया जाता है. हमारी सारी सीमा सुरक्षा और देश की गरिमा कही दूर तक नहीं दीख पाती है इस आयात निर्यात को. इसके अलावा अन्य देशों में घरेलु मजदूर और जानवरों की चरवाही के लिए मासूम बच्चों को ले जाया जाता है.
देश के विभीन्न थानों में सात हजार के लगभग बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई जाती हैं इन में हर साल करीब तेईस हजार बच्चों का कोई अता पता नहीं चल पाता है जिन्हें अमूमन मृत ही समझा जा सकता है.आज अख़बारों और न्यूज़ चैनलों का न्यूज़सेंस भले ही बच्चों के अपहरण की ख़बरों पर अटका हो लेकिन सच तो यह है कि हर साल बाबन से चौबन हजार बच्चों की अपेक्षा फिरौती के लिए अप्ह्रीत किये जाने वाले बच्चों की संख्या हर साल केवल दो सौ आठ से तीन सौ चवालीस तक सिमटी रहती है. ये आंकड़े २००६ से २००८ के बीच की हैं . काबिल ये गौर है कि इतनी बड़ी संख्या में बच्चों का गम शुदा होना आखिर क्या दर्शाता है। मोटा मोटी जब बिकास की चर्चा होती है तो उस ढाँचे में सस्ते श्रम की भूमिका प्रमुख मानी जाती है, और इसके लिए बच्चों और औरतों की जरूरत महसूस की जाती है। विकास से उपजी कुंठाओं और मानसिक-शारीरिक कुरीतियों के निर्वाह के लिए भी उसे श्रम चाहिए। वह कई रूपों में श्रमिक चाहता है। सामंती काल में बच्चे बलि प्रथा के शिकार होते थे याहमारा इतिहास भी प्रमाणित करता है। कल समय में केवल दमन के रूप बदलते हैं। इस वक्त वह कई रूपों में बदला है। यदि भारत में गुमशुदा बच्चों की थानों में दर्ज संख्या को ही आधार बनाकर चलना हो तो हमें यह विश्लेषण करना चाहिए कि विकास के इस ढांचे के तहत आगे निकलने वाले सभी बच्चों काल का ग्रास में जाने वालों में सबसे आगे क्यों दीखते हैं, यह केवल एक संयोग मात्र है ? कतई नहीं, इसका मतलब है कि योजनाकारों की अनुमानित जरुरत के हिसाब से सब ठीक चल रहा है। मायानगरी मुम्बई में बीते साल सबसे ज्यादा सोलह हजार आठ सौ तेरानवे बच्चे गायब हुए यह तजा आंकडा है. कितना तरक्की कर रहे हैं हम यह मिशाल देखिये. इन गायब बच्चों में से तीन हजार का कोई पता नहीं चला. इससे पहले के आंकडों को देखें तो पता चलता है कि गुशुदा बच्चों की तादात विकास की तेज रफ़्तार के सात कदम से कदम मिलाते हुए सदा आगे की ओर ही उद्यत दीख रहा है. इसी तर्ज पर ऐसे बच्चों की संख्या भी बढ़ रही है जिनके गुमशुदा हो जाने की बाद कोई अत पता चल ही नहीं सका।
बच्चों के विविध उपयोग....
सीमावर्ती राष्ट्रों के अतिरिक्त देश के विभिन्न राज्यों से भी तस्करी के जरिये जिन बच्चों को लाया जाता है उनका कई किस्म से उपयोग किया जाता है. सामाजिक व धार्मिक आधार पर वेश्याव्रीत्ति जैसे देवदासी प्रथा यौन पर्यटन अश्लील फोटो खींचने में, मासूम बच्चियों की सात यौनाचार करने के पीछे एक यह भी माना जाता है कि इस से एड्स या नामर्दगी दूर होती है. जिन परिवार में बच्चे नहीं होते हैं ऐसे परिवारों के हवाले भी मासूम बच्चों की सप्लाई किये जाने के समाचार प्राप्त होते रहते हैं. सर्कस ,नाच मंडलियाँ, बीयर बार में नर्तकियां, घुरदौर या ऊंट दौर के लिए भी बच्चों की आवश्यकता के तहत तस्करी कर इन्हें जीते जी मौत के मुहं में ठेल दिया जाना भी सत्य है. अमेरिका की ट्रेफिकिंग इन पर्सन्स के एक रिपोर्ट में भारत को स्त्री ,पुरुष व बच्चों के श्रम एवं यौन शोषण के लिए अवैध व्यापार किये जाने वाले मुख्य देश के के रूप में चिन्हित किया गया है. इसके मुताबिक भारत में मनुष्यों का अवैध कारोबार करीब ४,३८५ करोड़ रुपये का है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी पिछले सालों के रिपोर्ट में खुलासा किया है कि भारत में प्रतिवर्ष जितने बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज की जाती है उसमें ३८ प्रतिशत बच्चों का कोई अत पता नहीं चल पाता है . इन लापता बच्चों को ही तस्करी के रास्ते अनैतिकता की चरमसीमा की बाहर कर दिया जाता है.
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जवाब देंहटाएंदुखद है .मन भी काँप उठता है ओर क्रोध भी आता है...कानून में इसके लिए कड़े प्रावधान होने चाहिए
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