शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

एक मात्र परमेश्वर को पूजा करना

तौहीद
एक मात्र परमेश्वर को पूजा करना और एक ही को पूजने के लायक समझना ही तौहीद है.हम उसी को अल्लाह कहें भगवान कहें आस्था एक ही को सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी आहुर सब कुछ करने वाला समझना ही तौहीद बनाम एकेश्वरवाद कहलाता है. अल्लाह के साइवा किसी और को यहाँ तक की अल्लाह के रासूलों और पैगंबरों को भी यह हक नहीं दिया गया की वे उसकी पूजा करें या उसके एक मात्र परमेश्वर को पूजा करना और एक ही को पूजने के लायक समझना ही तौहीद है.हम उसी को अल्लाह कहें भगवान कहें हमारी आस्था एक ही को सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी और सब कुछ करने वाला समझना ही तौहीद बनाम एकेश्वरवाद कहलाता है. अल्लाह के सिवा किसी और को यहाँ तक कि अल्लाह के रसूलों और पैगंबरों को भी यह हक नहीं दिया गया कि वे उसकी पूजा करें या उसके आगे सर झुकाएँ. ईश्वर से वास्ता रखने के लिए भी किसी बिचौलिए की भी कोई भूमिका नहीं है, यानी हमारे और ईश्वर के बीच कोई भी माध्यम की ज़रूरत नहीं.ईश्वर तो हर बन्दों की फरियाद खुद सुनता है और किसी प्रकार के वास्तों को पसंद नहीं करता. हमारा यह विश्वास होना चाहिए कि ईश्वर ही वास्तविक स्वामी पैदा करनेवाला है और उसका कोई साथी नहीं वही हम सबको रोज़ी देता और उसी के बस् मे हमारी जान है वही पैदा करने वाला है और वही मौत भी देगा हमें अनंत जीवन को देनेवाला भी वही है.सारे कामों का संचालन भी वही करता है दुनिया की सारी बागडोर उसी के हाथों मे है सातों ज़मीन आसमान की हर चीज़ उसीका गुलाम है और उसके अधीन है मगर अकीदे (विश्वास) के साथ साथ वे चूँकि ईश्वर के बीच वास्तों और वासीलों को मानने वालों के लिए अल्लाह ने पवित्र क़ुरान में कहा है - "यदि किसी को इस बारे में संदेह है कि ईमान नहीं रखते तो फिर उनके लिए क़ुरान में तर्क और दलीलें मौजूद हैं. वे अल्लाह पर पूरा ईमान रखते थे केवल बीच में उन्होने कुछ वास्ते (माध्यम) और वसीले बना रखे थे." अल्लाह हमें कहता है " नबी सल्ळ0 इनसे पूछो तुम्हें ज़मीन आसमान से रिजक कौन पंहुचता है आँखो और कानों का मालिक कौन है? यानी किसने इसे बनाया है?कौन जिंदे को मुर्दा करता है और कौन है जिसने माँ के पेट में हमें बनाया? दुनिया के कारोबार किसकी इजाज़त् से चल रहें हैं, वे फ़ौरन कहेंगें की यह सब कुछ तो अल्लाह के ही अधिकार में है. नबी इनसे पूछो यदि मामला ऐसा ही है तो फिर तुम डरते क्यों नहीं? उसे छोड़कर गैरों से अपनी मुरादें क्यों माँगते हो? और उसे छोड़कर दूसरों के वास्ते और वसीले क्यों तलाश करते हो? (सूर:यूनुस:31-32)
इसके अलावा क़ुरान मजीद में असंख्य आयतें मौजूद हैं जो इस बात को बहुत ही साफ साफ पेश करती हैं. जब यह बात तर्क और दलीलों से साबित हो चुकी है की मुश्रिक (एकेश्वर वाद को नहीं मानने वाले) तौहीद को मानते थे अर्थात वे यह समझते थे की अल्लाह के सिवा कोई रब नही है यानी पूजने के लायक नही है, इसके बावजूद अल्लाह ने इनको तौहिदपरस्तो में से नहीं माना. अल्लाह के नबियों ने जिस तौहीद की ओर इन्हें बुलाया था वह तौहीद इबादत से ताल्लुक रखती थी जिसको हमारे जमाने के मुश्रिक आस्था से जोड़ते हैं , जैसे कोई रात और दिन अल्लाह को पुकारते थे क्योंकि वे अल्लाह के करीब हैं और त्याग और तपस्या में (इस्लाह तक्वा में) बहुत आगे हैं और उन्हें इसलिए पुकारते थे ताकि वे अल्लाह के पास इनकी शिफरिश करें या फिर वे कुछ नेक बुजुर्ग लोगों को पुकारते थे जैसे कि उन्होने लूत नामक उस ज़माने के एक नबी को अपना पालनहार पुकारना शुरू कर दिया था. कुछ ने नबियों की पूजा तक करनी शुरू कर दी , जैसा की ईसाइयों ने हज़रत ईसा अल0 को अपनी हर ज़रूरतों को सुनने वाला मान लिया और यह भी मालूम हो गया की नबी हजरत मोहम्मद ने इनसे जंग इसी बात को लेकर के की और इन्हें एक मात्र अल्लाह की इबादत की दावत दी , जैसा अल्लाह ने कुरान में और इससे पहले वेदों में भी फरमाया : अल्लाह (ईश्वर) के साथ किसी और को मत पुकारो "(अल्कसास-82)
कुरान में ही एक और जगह कहा गया है कि : "अल्लाह ही इस बात का अधिकारी है कि उसको पुकारा जाय और जो लोग अल्लाह के सिवा गैरों को पुकारते हैं (वे) इन्हें कुछ भी नहीं दे सकते." इन आयतों से यह बात अछी तरह स्पष्ट हो गई कि नबी हजरत मोहम्मद(सल्.)ने उनसे जंग इसलिए की ताकि हर प्रकार की दुआ अल्लाह से ही की जाए ,नज़र नेयाज ,जिबह ,फरियाद और इस प्रकार की इबादत अल्लाह ही के लिए है उनका केवल इस बात पर एकरार करना कि अल्लाह ही सब चीज़ों को पैदा करनेवाला और स्वामी है .इतना ही नहीं आइये देखें इसलाम की और क्या मान्यता है ? सिर्फ यह कह देना कि हम फरिस्तों,नबीयों और वालियों से केवल सिफारिश चाहते हैं और यह कि वे ही हमें अल्लाह के निकट कर दें इस आस्था को इसलाम ने सिरे से ही खारिज कर दिया है और वैदिक मान्यता तो इसका पहले से ही उपदेशक रहा है कि "एकोहम द्वीतीय नास्ति".यही वह सच्चा तौहीद है जिसे इसलाम ने कायम किया है. इसलाम खुली किताब लेकर हमारे बीच मौजूद है जिसे पढना और समझना हमारे वश में है, रही मानने की बात तो यह समझन के ऊपर निर्भर करता है कि हमने कितना कुछ ईमानदारी से समझा? तो यह तौहीद है जो कि "ला इलाह इलल्ल्लाह " में मौजूद है यानि एक ही माबूद (पूजने लायक)है जिसे हमें माननी चाहिए इसके बर्खिलाफ मुशरिकों का अल्लाह वो है जो उनके स्वार्थ को पूरा करे. वो सिफारिश से संबंध रखता हो या नबी या वली या पीर या कबर या कोई जिन्न हो. उनके निकट इलाह से तात्पर्य पैदा करनेवाला या रिजक देने वाला नहीं बल्कि इस पर तो वो ईमान (आस्था) ले आए हैं कि रिजक देना और पैदा करने का हक तो केवल एक मात्र (ईश्वर) अल्लाह ही का है. वो इलाह के अर्थ से यह तात्पर्य लेते थे जो कि हमारे इस जमाने में मुशरिक (इनकार करने वाले) लेते हैं अर्थात अल्लाह के सिवा भी कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने अंदर हर प्रकार की ताक़त कुदरत रखते हैं.अगर हम इस बात को गौर करें तो क्या हमारे गले उतरने वाली यह बात है?

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