मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

भिखारियों का कोई देश नहीं

अब्दुल्ला
भिखारियों का कोई देश नहीं होता। सुबह से शाम तक उनका जुगाड़ पेट भरने तक का रहता है। बाकी शारीरिक ज़रूरतें भी वे पूरी करते हैं। नशा भी करते हैं।
लेकिन देश, दुनिया, समाज जैसी कोई जगह उनके मन के नक्शे पर नहीं होती। यह सच है, इसके लिए किसी सर्वे या प्रमाण की जरूरत नहीं है। लेकिन इस सच के लिए भी किसी प्रमाण या पासपोर्ट की ज़रूरत नहीं है कि उनका जन्म भारत-भूमि पर ही हुआ है। जितने भी भिखारी भारत की ज़मीन पर पैदा हुए हैं, वे इस देश के नागरिक हैं। ये सारी दुनिया का तकाज़ा है। इसलिए जिसे भी हम देश कहते और मानते हैं, वह इस हकीकत से मुंह नहीं चुरा सकता/सकती।
लेकिन अपनी भारत सरकार के पास तो ये आंकड़ा तक नहीं है कि देश में कुल कितने भिखारी हैं। करीब ढाई साल पहले एक सांसद ने लोकसभा में इस बाबत सवाल पूछा तो सामाजिक न्यायमंत्री मीरा कुमार ने बताया कि भारत सरकार के पास देश में भिखारियों की संख्या के बारे में कोई विश्वसनीय अनुमान नहीं है। सांसद ने पूछा कि क्या केंद्र सरकार भीख मांगने के खिलाफ कोई कानून लाने की सोच रही है तो जगजीवन राम की पुत्री ने कहा – नहीं, श्रीमान। यह मसला राज्य सरकारों और संघशासित क्षेत्रों के प्रशासन के अधीन आता है और वे ही इस बारे में कोई कायदा-कानून बना सकते हैं।
आज मैं, भारत का एक आम नागिरक, अपनी केंद्र सरकार से पूछता हूं कि फिर आप टैक्स किस बात का लेते हो। देश के तकरीबन 3.25 करोड़ लोगों ने इस साल आपको 1,18,320 करोड़ रुपए का आयकर दिया है, जबकि इस मद में तय रकम 98,774 करोड़ रुपए ही थी। आज जो भी महीने में 25-30 हज़ार रुपए कमा रहा है, वह मोटामोटा एक-सवा महीने की तनख्वाह सरकार को टैक्स में दे ही देता है। वह इस पैसे में ढाई हज़ार रुपए महीना की पगार पर साल भर के लिए घर की नौकरानी रख सकता है। लेकिन सरकार को ये रुपए देकर उसे क्या मिलता है? कानून-व्यवस्था, संसद की कार्यवाही, नेताओं के भाषण। इसके अलावा सड़क, रेल यातायात, बिजली, टेलिफोन आदि-इत्यादि जैसी बुनियादी सेवाएं। लेकिन इसके लिए तो हम पूरा पैसा देते हैं।
इस साल देश के अवाम ने सरकार को आयकर व कॉरपोरेट कर समेत तीन लाख करोड़ रुपए का प्रत्यक्ष कर दिया है। इसके अलावा एक्साइज, कस्टम और सर्विस टैक्स के रूप में 2.80 लाख करोड़ रुपए का अप्रत्यक्ष कर दिया है, जो एक तरह का उपभोग कर है जिसे भिखारी से लेकर किसान और उद्योगपति तक देता है। बाज़ार से जो भी चीज़ हम खरीदते हैं, उसका 8-10 फीसदी हिस्सा सरकारी खजाने में अप्रत्यक्ष कर के रूप में चला जाता है। हमसे टैक्स लेने के कारण ही सरकार बाध्य है कि वह सारे देश का इंतज़ाम करे। जो असहाय हैं, उनके लिए मानवोचित जीवन की गारंटी करे।
भिखारियों के लिए रैनबसेरों का इंतज़ाम करना सरकार का काम है। उन्हें इस धंधे से निकालना सरकार का काम है। उनके बच्चों की पढ़ाई का इंतज़ाम करना सरकार का काम है। इन सारे कामों के लिए हमें जो देना है, वो हम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर के रूप में सरकार को दे चुके हैं। अब सरकार अगर कुछ नहीं कर रही, तो उसकी गरदन पकड़ने की ज़रूरत है, न कि अपराध-बोध में डूबने की कि हम सूटबूट में डंटे कार से एसी में चल रहे हैं और देखो वो औरत भरी दुपहरी में बीमार बच्चे को पकड़े पापी पेट के लिए हाथ फैला रही है। वैसे तो, राज्य सरकारों ने दिखाने को भिखारियों के कल्याण के उपाय किए हैं, भीख मांगने के धंधे को खत्म करने के कानून भी बनाए हैं। लेकिन भिखारियों के रैनबसेरों में बलात्कार होते हैं और भीख के धंधे पर माफिया पलते हैं। सरकार का साया इन्हीं पर है। बाकी सब तो माया है। इनकी जिंदगी में कोई फर्क नहीं आता. इनके लिए सावन भादौं की हरियाली या फिर जेठ की दोपहरी में क्या कोई फर्क है?

1 टिप्पणी:

aap kee rachna padhee hai