-अ.अनूप -
पत्रकारिता का मतलब विजुअल मीडिया की दस्तक के बाद पूरी तरह से बदल दिया गया है । समाज सेवा, त्याग, मिशन और शोषितों की आवाज की जगह चकाचौंध और ग्लेमर ने अपना मुकाम ले लिया है । देश में तमाम न्यूज़ चैनलों का बाज़ार चल रहा है । इधर यका एक नौजवानों में खास कर नवयुवतियों में पत्रकार बनने का एक ऐसा जूनून देखा जा रहा है । पत्रकारों की बढ़ती खपत को देखते हुए कई न्यूज़ चैनलों ने अपने यहाँ ही पत्रकारिता प्रशिक्षण केन्द्र खोल लिया हैं । इन में एक साल डिप्लोमा कोर्स की फीस एमबीबीएस की तीन साल के बराबर की फीस बैठती है । यानि कि डेढ़ से दो लाख रुपया लेकर चैनलों के मीडिया इंस्टी० अपने यहाँ बच्चों को पत्रकार बनने की ट्रेनिंग देते है । इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार बंधु माफ़ करना....... ।
साधारणतः इन स्कूलों की तरफ़ से जो डिप्लोमा छात्रों को थम्हाया जाता है वह किसी भी विश्वविद्यालय की तरफ़ से मान्यता प्राप्त नहीं होता । अब अगर इन संसथानों की पढाई की ओर गौर किया जाए तो वहां पढाई के नाम पर जो कुछ बताया जाता है वह कहीं से भी पत्रकारिता के कोर्स के तहत आता ही नहीं। साल भर में छात्रों को बता दिया जाता है कि चैनल कैसे कार्य करता है । लगभग पचानवे फीसदी प्राध्यापक भी चैनलों में काम करनेवाले ही होते हैं जो थ्योरी के नाम पर कुछ नहीं बताते केवल अपने अनुभवों को ही बांचते हैं। छात्रों को पूरे साल इस बात का इन्तजार रहता है कि कैसे उनका साल ख़त्म हो और कैसे उन्हें कोर्स के पाठ्यक्रम के तहत सम्मिलित करने का मौका मिले। एक साल का वक्त कैसे गुजर जाता है , पता ही नही चल पाता है। साल भर के बाद जब छात्रों को दो से तीन महीने तक के लिए इटरनशिप करने हेतु मौका दिया जाता है । इस वक्त उन्हें अपना सपना पुरा होने का पर्याप्त भरोसा हो जाता है । इस दौरान अधिकतर छात्र टेपों के प्री वीएउ और बाईट लाक करने के काम में ही लगे रह जाते हें अलबत्ता जो छात्र थोड़ा बहुत चतुर से होते हैं वो पैकेज कटवाने के काम में लग जाते हैं। इस दौरान उन्हें वीओ से लेकर फुटेज और रन डाउन से लेकर पी सी आर तक के बारे में पता चल जाताहै। बीच-बीच में छात्र रिपोर्टिंग पर जाने के लिए शिफ्ट इंचार्ज से खुशामद करते हैं लेकिन कोई परिणाम नहीं निकलता है। तीन महीने की इंटर्नशिप के बाद छात्रो को एक डिप्लोमा प्रमाण पत्र थमाकर दफा कर दिया जाता है कि जा और बाहर की दुनियामें अपना मुस्तकबिल को तलाश। नौकरी खोज खोज कर बेचारे थक थका कर सिवाए पश्चात्ताप करने के अलावा और कुछ नहीं होता है उनके पास।
अपने हसीन सपनों में मस्त छात्र छात्राओं को बहुत जल्द ही समझ में आ जाता है कि उनके सारे सपने और माता पिता की गाद्गी कमाई और एक साल का कीमती समय उनका बेकार का गुजर गया। मीडिया के अनुभव के नाम पर उन्हें मात्र इस बात का पता होता है कि उनहोंने जिस संस्थान से कोर्स किया है वह देश के एक जाने माने चैनल के रूप में प्रसिद्द है और उन्हें वहां इन्टर्नशिप करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है। लिहाजा नौकरी तो पक्की है। मगर साल भर धुन्धने के बाद भी नौकरी नही मिलती है पत्रकारिता की पढाई जो करनी थी वह तो हुई नही बस ग्लैमर में खोये रहे । बेचारे लड़के इस मामले में बहुत दुर्भाग्यशाली रहते हैं। हाँ कुछ चंचल चपल युवतियों को अवश्य नौकरी मिल जाती है लेकिन वह कैसे और किस आधार पर यह कोई समझाने का विषय नहीं है ।
मीडिया इन्स्तीचयूत के परेशा बहुत से छात्र छात्राओं से इन पंक्तियों के लेखक ने मुलाक़ात भी की जिन्होंने बार-बार यही कहा कि किसी भी तरह इस बोगस काम करने वालों पर लगाम कसी जाए जिससे मीडिया के प्रतिष्ठित परिवेश को दाग न लगे । लेकिन शायद ही किसी का ध्यान इस ओर जा रहा है , हर कोई मीडिया का ग्लैमर दिखाकर लोगों को बेवकूफ बनाने के काम में बेलाग लपेट लगे भिरे हैं ।
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aap kee rachna padhee hai