शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

खास बात

ये कुछ पंक्तियाँ अमृता प्रीतम के मशहूर उपन्यास रसीदी टिकट से ली गयी हैं। मेरी पसंद के कुछ उपन्यासों में से एक है और इसे पढ़कर आप भी पूरा उपन्यास पढने की कोशिश करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है................

परछाइयां बहुत बड़ी हक़ीकत होती हैं। चेहरे भी हक़ीकत होते हैं। पर कितनी देर ? परछाइयां, जितनी देर तक आप चाहें.....चाहें तो सारी उम्र। बरस आते हैं, गुज़र जाते हैं, रुकते नहीं, पर कई परछाइयां, जहां कभी रुकती हैं, वहीं रुकी रहती हैं.......जब घर में तो नहीं, पर रसोई में नानी का राज होता था। सबसे पहला विद्रोह मैंने उसके राज में किया था। देखा करती थी कि रसोई की एक परछत्ती पर तीन गिलास, अन्य बरतनों से हटाए हुए, सदा एक कोने में पड़े रहते थे। ये गिलास सिर्फ़ तब परछत्ती से उतारे जाते थे जब पिताजी के मुसलमान दोस्त आते थे और उन्हें चाय या लस्सी पिलानी होती थी और उसके बाद मांज-धोकर फिर वहीं रख दिए जाते थे। सो, उन तीन गिलासों के साथ मैं भी एक चौथे गिलास की तरह रिल-मिल गई और हम चारों नानी से लड़ पड़े। वे गिलास भी बाकी बरतनों को नहीं छू सकते थे, मैंने भी ज़िद पकड़ ली और किसी बरतन में न पानी पीऊंगी, न दूध। नानी उन गिलासों को खाली रख सकती थी, लेकिन मुझे भूखा या प्यासा नहीं रख सकती थी, सो बात पिताजी तक पहुंच गई। पिताजी को इससे पहले पता नहीं था कि कुछ गिलास इस तरह अलग रखे जाते हैं। उन्हें मालूम हुआ, तो मेरा विद्रोह सफल हो गया। फिर न कोई बरतन हिन्दू रहा, न मुसलमान। उस पल न नानी जानती थी, न मैं कि बड़े होकर ज़िन्दगी के कई बरस जिससे मैं इश्क़ करूंगी वह उसी मज़हब का होगा, जिस मज़हब के लोगों के लिए घर के बरतन भी अलग रख दिए जाते थे। होनी का मुंह अभी देखा नहीं था, पर सोचती हूं, उस पल कौन जाने उसकी ही परछाई थी, जो बचपन में देखी थी.........

प्रस्तुति साभार

पति की फिल्म से ब़डे पर्दे पर उतरीं पाखी

यदि फिल्मोद्योग में अपनी जगह बनानी है तो किसी निर्देशक की पत्नी बनना कारगर हो सकता है।
नवोदित अभिनेत्री पाखी ने अपने निर्देशक पति अब्बास टायरवाला की फिल्म "झूठा ही सही" से अपने अभिनय की शुरूआत की है। फिल्म में पाखी का किरदार 30 मिनट से ज्यादा अर्से के बाद प्रवेश करता है। पाखी को लगा कि इस तरह वह लोगों को बहुत देर से पर्दे पर दिखेंगी। अब वह टायरवाला के इस सुझाव से सहमत हैं कि दर्शक उन्हें एक ऎसे गीत में देखें जो उनके किरदार के पर्दे पर आने से काफी पहले ही कहानी में शामिल होगा।
पाखी कहती हैं, ""ऎसा नहीं है कि नए गीत को केवल मुझे पर्दे पर उतारने के लिए कहानी में शामिल किया गया है। पहले से ही इस गीत की योजना थी। बस इतना हुआ है कि पहले फिल्म में किसी और स्थान पर यह गीत आना था और अब यह पहले ही आ जाएगा।""
पाखी ने कहा, ""मैं फिल्म में धीमी गति में नहीं दिखती न ही मैंने प्रत्येक दृश्य में बार-बार पोशाकें बदली हैं। मैंने एक सामान्य ल़डकी की भूमिका निभाई है। मैं "झूठा ही सही" में केंद्रीय किरदार नहीं हूं। इस कहानी में जॉन अब्राहम का किरदार केंद्रीय है। मुझे यह समझना चाहिए। पटकथा मैंने ही लिखी है।""
पाखी उनकी लिखी हर पटकथा में खुद को ही पेश करना नहीं चाहतीं। वह कहती हैं कि उनकी अगली पटकथा के लिए अभिनेत्री प्रियंका चोप़डा एकदम सही हैं। उन्होंने कहा कि वह सिर्फ अपने लिए ही पटकथाएं नहीं लिखेंगी। उन्हें लगता है कि "झूठा ही सही" में उनके काम पर ध्यान दिया जाएगा और अन्य पटकथा लेखक व निर्देशक भी उनकी फिल्मों में उन्हें लेने के लिए उनसे सम्पर्क करेंगे।
पाखी कहती हैं कि उन्होंने केवल जॉन के साथ अभिनय करने के लिए ही "झूठा ही सही" की पटकथा लिखी थी। जॉन कॉलेज में पाखी के साथी थे और वह उनके प्रति बहुत आकर्षित थीं।

22 अक्टूबर को रिलीज होगी झूठा ही सही

मुम्बई। बॉलीवुड अभिनेता जॉन अब्राहम की फिल्म झूठा ही सही शुक्रवार को सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो रही है। जॉन को निर्देशक अब्बास टायरवाला की फिल्म झूठा ही सही से काफी उम्मीदें हैं।
इस फिल्म में उन्होंने एक बुक स्टोर में काम करने वाले सामान्य से ल़डके की भूमिका निभाई है।
झूठा ही सही में टायलवाला की पत्नी व फिल्म की पटकथा लेखिका पाखी ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
जॉन का मानना है कि इस फिल्म को उनके प्रशंसक जरूर पसंद करेंगे। जॉन ने कहा, मेरी कद-काठी पर बहुत ध्यान दिया जाता है। इससे मेरा अभिनय छुप जाता है। जब मैं कोई रोमांस से भरी अच्छी भूमिका करता हूं तो लोग उसे किसी और तरह परिभाषित करते हैं। मैं जैसा दिखता हूं उसके लिए मुझे कोई अफसोस नहीं है लेकिन इसकी वजह से मेरा अभिनय छुप जाता है और लोग मेरी कद-काठी पर ही ध्यान देते हैं। उन्होंने कहा कि वह चाहते हैं कि उनके अभिनय पर भी ध्यान दिया जाए क्योंकि वह इसके लिए वास्तव में क़डी मेहनत करते हैं।> उन्होंने बताया कि जब टायरवाला ने उन्हें किरदार के विषय में बताया तो उन्हें इस बात का डर नहीं था कि वह कैसे दिखेंगे बल्कि इस बात की चिंता थी कि क्या वह इस भूमिका के साथ न्याय कर सकेंगे। उन्होंने कहा, जब मैंने फिल्म देखी तो मुझे अपने किरदार से प्यार हो गया क्योंकि सिर्फ यही फिल्म मेरी अपनी है जहां पहले तीन मिनट में तो पर्दे पर जॉन अब्राहम दिखता है और उसके बाद मैं भूल जाता हूं कि मैं जॉन हूं और मैं सिर्फ सिड (किरदार) पर ध्यान देता हूं और यही इस किरदार और निर्देशक की जीत है |

एक्शन सस्पेंस से भरपूर है आक्रोश

निर्माता: कुमार मंगल पाठक
निर्देशक: प्रियदर्शन


कलाकार: अजय देव

गन, बिपाशा बसु, अक्षय खन्ना, परेश रावल, रीमा सेन, अमिता पाठक

अगर आप एक्शन या सस्पेंस फिल्मों के दीवाने है तो आक्रोश आपको जरूर पसंद आएंगी। आक्रोश ऑनर किलिंग (जिसमें अपनी जाति से बाहर शादी करने वाले लडके या लडकी की हत्या कर दी जाती है) पर बनी फिल्म है, लेकिन फिल्म में सामाजिक समस्या कम और मारधाड वाले सीन ज्यादा प्रभावशाली तरीके से फिल्मित हुए है। फिल्म हॉलीवुड फिल्म मिसिसिपी बर्निग से प्रेरित है।

कहानी: आक्रोश की पृष्ठभूमि बिहार है। दिल्ली के मेडिकल कॉलेज में पढने वाले तीन लडके बिहार जाते है। इनमें एक दीनू नाम का लडका बिहार का ही है। वह दलित है लेकिन ऊंची जाति की लडकी से प्यार करता है। तीनों लडकों का बिहार में अपहरण हो जाता है और उसके बाद उनके गायब होने का मामला सीबीआई को सौंपा जाता है। सीबीआई के अफसर सिद्वांत चतुर्वेदी (अक्षय खन्ना) और फौज के अधिकारी प्रताप कुमार (अजय देवगन) जॉच करने के लिए झॉझर आते हैं, लेकिन उनके लिए यह कार्य आसान नही रहता। प्रताप बिहार का ही निवासी है और अच्छी तरह जानता है कि जातिवाद की ज़डे झांजर जैसे गांव में कितनी गहरी हैं। प्रताप अपनी चतुराई से मामले की जांच करता है जबकि सिद्धांत कॉपीबुक तरीके से सीधे काम करने में यकीन रखता है। इस कारण दोनों के बीच टकराहट भी होती है। (परेश रावल) एक भ्रष्ट पुलिस अधिकारी की भूमिका में है जो झांझर में अपनी एक शूल सेना का मुखिया भी हैं जो समाज के ठेकेदार होने के नाते ऑनर किलिंग कर मासूम लोगों को मौत के घाट उतार देते है। गॉव की पुलिस, नेता और प्रभावशाली लोग आपस में मिले हुए है और इस बारे में कोई बोलने को तैयार नहीं है। सिद्वांत और प्रताप पीछे नहीं हटते और तमाम मुश्किलों के बावजूद मामले की तह तक जाते हैं।
फिल्म में चुस्ती और तेजी है। अक्सर सामाजिक समस्या पर केंद्रित फिल्म ढीली और भाषणबाजी से भरी होती है। आक्रोश के साथ ऎसी बात नहीं है। ये एक हालात के उतार चढाव की उत्तेजना देने वाली फिल्म है। अजय देवगन एक अपराधी का पीछा करने वाला और फिर जंगल से गुजरने वाला दृश्य तो बहुत रोचक है। हालांकि अक्षय खन्ना भी जमें है, लेकिन अजय देवगन के एक्शन के लिए फिल्म में ज्यादा गुंजाइश रखी गई है।
भाषा का बिहारी लहजा भी खासा रोचक है। परेश रावल हंसोड खलनायक की भूमिका में है। अजय के बाद फिल्म में सबसे प्रभावशाली चरित्र परेश का ही है। फिल्म में गीता की भूमिका निभाने वाली बिपाशा बसु से अच्छा अभिनय रीमा सैन ने किया है। समीरा रेड्डी ने आइटम नंबर करके बाजी मार ली। लेकिन इन पक्षों को छोड दें तो आक्रोश कुछ मायनों में निराश भी करती है।
जांच के लिए किसी सीबीआई ऑफिसर का जाना तो समझ में आता है लेकिन उसके सहयोगी के रूप में फौजी अधिकारी का जाना समझ में नहीं आता है।



क्या क्या होता है भाई .....

बीते दो महीने से पूरे उत्तर प्रदेश के माध्यमिक शिक्षकों का वेतन नहीं मिला है। पता यह चला है माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने एक केस में शिक्षा निदेशक या प्रिंसिपल सेक्रेटरी के खिलाफ अवमानना का नोटिस इश्यु कर दिया। जिसमे पूरे उत्तर प्रदेश के सभी कालेजो में सिर्जित पदों का ब्यौरा माँगा गया था। साहब लोग ब्यौरा उपलब्ध कराने में तो नाकाम रहे। उलटे ये आदेश पारित कर दिया कि जब तक सभी जिलों के जिला विद्यालय निरीक्षक द्वारा , माँगा गया ब्यौरा उपलब्ध नहीं करा दिया जाता तब तक किसी भी शिक्षक और कर्मचारी का वेतन नहीं दिया जायेगा।चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर प्रिंसिपल और प्रिंसिपल से लेकर जिला विद्यालय निरीक्षक तक सभी इस ब्योरे को उपलब्ध कराने में लग गए। एक महीना निकल गया। जून के महीने में शिक्षक और कर्मचारी बच्चों को कहीं घुमाने ले जाने के बजाये दो जून की रोटी को तरस गए। अब दो महीने निकल गए और वेतन का कोई पुरसानेहाल नहीं है। विद्यालय खुलते ही पुराने बूढ़े हो चुके शेरो ने गर्जना की। पूरे ताम-झाम के साथ बरेली में संयुक्त शिक्षा निदेशक के दफ्तर पर हल्ला बोला गया। जिसमे शिक्षक विधायक ने भी हिस्सा लिया। कीचड- पानी में जिले भर ही नहीं बल्कि पूरे मंडल के शिक्षक- शिक्षिकाएं उपस्थित हुए, लेकिन उस धरने में अफ़सोस इस बात का रहा कि मीडिया ने कोई बहुत बेहतर रुख नहीं अपनाया। सुबह जब उठकर समाचार पत्र देखा तो बहुत मामूली सी खबर.........जैसे दो महीने का वेतन नहीं मिला तो कोई बात ही नहीं। गलतियां अधिकारी की भुगते कर्मचारी।अरे भाई! जुलाई में बच्चों के दाखिले कराना हैं, कॉपी- किताबें दिलाना हैं, ड्रेस दिलानी है, फीस जमा करनी है। लेकिन इन सबसे किसी को कोई मतलब ही नहीं। सेवानिवृत्त हो चुके शिक्षकों के पेंशन का काम अभी तक अधूरा पड़ा है। जब तक बाबुओं की जेब गरम नहीं होगी वोह कोई काम क्यूँ करने लगे।सभी के मुंह से सुन लो " अरे यार! ज़माना बहुत खराब है।" ख़राब खुद कर रखा है दोष दूसरों पर। 'रंग दे बसंती' फिल्म आई थी, देखकर ऐसा लगा शायद इसके बाद कोई क्रांति आएगी, फिर बाद में लगा भाई कोई क्रांति-व्रांति नहीं आने वाली। जो हो रहा है होने दो, लोग पिसते हैं तो पिसने दो, रिश्वत ली जा रही है लेने दो, देने वाले को देने दो। कोई रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाता है और रिश्वत देकर ही छूट जाता है। कहते हो तो कहते रहो, लिखते हो तो लिखते रहो, किसी पर कोई असर नहीं होने वाला। आखिर कब तक ऐसे जीते रहेंगे या ऐसे जीना ही नियति है।
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हंसी मजाक

दशहरा फिर आ गया, हर साल आता है, बरसों से आ रहा है, आता रहेगा। शुरू हो जाता है पांच दिन पहले से वही खटराग, मोहल्ले और घर के बच्चों की भागदौड़, लकड़ी लाओ, पेपर लाओ, पटाखे लाओ, रावण बनाओ। हर बार वही दस सिर लिए, उस पर एक गधा विराजे हुए, साथ में कुंभकरण मेघनाद, दस फुट, बीस फुट, पचास फुट, सौ फुट, जाने कितने फुट का रावण। पास जाकर देखो तो पूरा सिर आसमान की तरफ उठाकर देखना पड़ता है रावण के अट्टाहास करते सिर को। इसलिए दूर से देखना ही ठीक है। हर बार की तरह इस बार फिर दशहरे का कव्हरेज। खबर बनानी है भाई, क्या विशेषता रही इस बार के रावण की, सिर पर गधा बनाया कि नहीं, एकाध सिर कम तो नहीं हो गया। सुपुत्र ने इस बार जिद की रावण देखने की। मैंने कहा मुझे ही देख लो, वहां जाने की क्या जरूरत है। पड़ोस में लालू अंकल हैं उसे देखकर संतुष्टि कर लो। नहीं माना बालक, कलयुग में वैसे भी बच्चे लगातार जिद्दी प्रवृत्ति के होते जा रहे हैं। पीछे ही पड़ गया मुनवा। थक हार कर मैंने कहा चल पुत्तर । हाईस्कूल के मैदान में तमाम कारीगर रावण बंधुओं को बनाने में लगे हुए थे। किनारे में एक तरफ रावण के दस सिर वाला हिस्सा रखा हुआ था। मैंने सोचा कि चलो पहले से तैयार मुंडी को ही देख लिया जाए। उसके सामने पहुंचा। रावण के अगल-बगल के नौ सिर तो मुस्कुरा रहे थे, पर बीच वाला मुख्य चेहरा मायूस, दुखी दिखा। मुझसे रहा नहीं गया, रावण की उदासी, दुख मुझसे सहा नहीं गया, पूछ बैठा, हे भूतपूर्व लंकाधिपति, आप दुखी क्यों हैं। जबकि हर साल लोग आपको याद करते हैं। बल्कि साल भर में, देश भर में, किसी न किसी रूप में आपका पुतला जलाया ही जाता है। इतने बार तो आपको लंका से बेघर करने वाले प्रभुजी को भी लोग याद नहीं करते। दुख का क्या कारण है, फिर आपके अन्य सिर तो खुश हैं ?रावण बोला, क्या बताउं, नारद के बिगड़े वंशजों, तुम लोग भी मेरे दुख का कोई ख्याल नहीं करते, मेरे दुखी होने का कारण जानकर भी उसे नहीं छापते, क्योंकि कलयुग के महारावणों ने तुम्हारी बिरादरी की सोच पर कब्जा कर रखा है। मेरी तुलना कलयुग के ऐसे लोगों से की जा रही है, मैं सोच भी नहीं सकता। भाई, मैंने सीताजी का अपहरण किया, राज्य में अपनी सत्ता कायम रखने के लिए जो प्रपंच किए। मेरे राज्य में दुखी तो सिर्फ विभीषण ही था। पर कलयुग में झांको, कैसे-कैसे कुकर्म, बहुमत के बिना जबरिया मुख्यमंत्री बनाने वाले, विधानसभाओं में कुर्सी फंेकने और चप्पल चलाने वाले, जनता की जिंदगियों को प्रदूषण और खतरों के हवाले करने वाले, खरीद-फरोख्त कर सरकार बनाने वाले आदि-आदि क्या क्या गिनाउं। साल में एक बार जलता था तो लगता था कि मैंने जो किया, उसी को भोग रहा हूं, पर साल भर में सैकड़ों बार दूसरे कुन्यातियों के इल्जाम अपने सर लेकर जलना कैसे सहन करूं। एक कागज का टुकड़ा मेरी छाती पर चिपकाया और लिख दिया किसी का भी नाम, पर पुतला तो मेरा ही होता है ना, कुकर्म कोई और करे, भोगूं मैं। ये कहां का इंसाफ है ? तुम्ही बताओ, तुम भी तो पुतला दहन का तरह-तरह के एंगल बनाकर फोटो खींचते हो, अखबार में छापते हो, टीवी में दिखाते हो। इसे क्यों नहीं छापते। मैं ने रावण के दुख में सहमति जताते हुए सिर हिलाया, फिर पूछा, पर हे महापंडित, आपके अन्य सिर तो खुश हैं, मुस्कुरा रहे हैं, क्या लफड़ा है। अरे, लफड़ा कैसा, मैं अन्य कारण से दुखी हूं, और ये लोग खुश होते रहते हैं कि इन्हें साल में सिर्फ एक बार ही जलना पड़ता है और मुझे साल भर में सैकड़ों बार। फिर ये मेरा मजाक भी उड़ाते हैं कि तू चाहे कितने बार भी मर, कितने बार जल, लोग तुझे जिंदा रखेंगे, हर साल मारेंगे, साल भर में सैकड़ों बार जलाएंगे। मैं हर साल बढ़ रहा हूं आतंक और अत्याचार के रूप में, नारी शक्ति पर हो रहे अन्याय के रूप में। तेलगियों और हर्षद मेहताओं के रूप में, मुझे खत्म करके चैन से मरने देना भी लोग नहीं चाहते। दुखी न होउं तो क्या करूं। मैंने हाथ जोड़ लिए, कुछ नहीं कहा। लौट गया रावण का दुखी चेहरा जेहन में लेकर। सुपुत्र ने पूछा, पापा, रावण को हर साल क्यों जलाते हैं। मैंने सिर्फ इतना ही कहा बेटे, क्योंकि यह हर साल जिंदा हो जाता है, रावण तो सदियों से मरा ही नहीं, इसलिए जलाकर इसे मिटाने का प्रयास करते हैं। अगले साल रावण फिर अपने कुनबे के साथ देश भर के मैदानों में जलने के लिए खड़ा दिखेगा, मगर मरेगा नहीं, हर साल बढ़ेगा, हर साल जिंदा हो जाएगा। यह तो जलता-मरता रहेगा, पर मन के एक कोने में छिपे रावण को भी कोई मार सकेगा ?


दुल्हनें उजमन नहीं करेंगी इस बार करवा चौथ प़र


इस बार शरद पूणिर्मा की रात विशेष संयोग लिए हुए है। रामराज कौशिक के मुताबिक जिस व्यक्ति की चंद्रमा की महादशा चल रही है या जन्मकुंडली में चंद्रमा अशुभ है, उन्हे इस रात्रि को खीर का सेवन करने के साथ-साथ खीर का दान भी करना चाहिए।इस बार करवाचौथ पर व्रतधारी दुल्हनें उजमन नहीं कर सकेंगी। कारण इस बार करवा चौथ पर तारा अस्त रहेगा। हालांकि करवाचौथ का त्यौहार धूमधाम से ही मनेगा। व्रत भी रखा जाएगा, लेकिन उजमन नहीं हो सकेगा। करवाचौथ 26 अक्टूबर को मनाया जाएगा।
19अक्टूबर से तीन नवंबर तक शुक्र अस्त है अर्थात इन दिनों में तारा डूबा रहेगा। गायत्री ज्योति अनुसंधान केंद्र के संचालक पंडित रामराज कौशिक के मुताबिक जिन दुल्हनों का यह पहला करवा चौथ वह इस बार उजमन नहीं कर सकते। जबकि व्रत,पूजा आदि पूर्ववत ही रहेगा। इस दिन शिव परिवार की पूजा करनी चाहिए। गणोश जी की पूजा, वंदना करके अपने पति की लंबी आयु की काममना करें। इस दिन अपने बड़े बजुर्गो का आशीर्वाद
लेना चाहिए। शरदपूर्णिमा की रात्रि को विशेष रूप से रोगनाशक व शीतलता देने वाली कहा है। इसका आयुर्वेद में खासा महत्व है। आयुर्वेदाचार्य डा. मोहित गुप्ता के मुताबिक शरदपूर्णिमा की रात्रि को चावल, मिश्री, दूध की खीर सोमलता की बेल मिलाकर बनाने चाहिए। हालांकि सोमलता खुद में कई रोगों के दमन के जानी जाती है। इस खीर को शरदपूर्णिमा की चांदनी में रखकर सुबह चार बजे खाने से शरीर की दाह शांत होती है। ब्लड प्रेशर, घबराहट, दिमागी रोग दूर होते हैं। अश्विन शुक्ल पक्ष की पूणिर्मा तिथि शरदपूणिर्मा, को जागर व्रत, महर्षि वाल्मीकी जयंती के नाम से जानी जाती है। 22अकूबर को शरदपूणिर्मा है। शुक्रवार की पूरी रात पूणिर्मा तिथि होने के कारण यह रात्रि और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। पंडित रामराज के मुताबिक मान्यता है कि पूर्णिमा की रात को चंद्रमा की चांदनी में अमृत की बूंदें समाहित होती हैं।
इसलिए इस रात्रि को खीर बनाकर चांद की चांदनी में रखने से इसमें अमृत की वर्षा के कुछ कण आवश्य मिलते है। जो व्यक्ति यह खीर सुबह उठकर खाता है वह निरोग और बलशाली होता है। ज्योतिष के अनुसार चंद्रमा ग्रह हमारे मन, मस्तिस्क का कारक ग्रह है, जिन लोगों को दिल, दिमाग से संबंधित रोग हैं वह भी इस खीर के सेवन करने से ठीक हो जाते हैं।
- अनूप

जनगणना २०११

- अनिल अनूप
देश मे हर दशाब्दी मे एक बार जगणना की उपयोगी परम्परा है। इससे योजनाऎ बनाने मे आधारभूत आंकडे मिल जाते है, पर लम्बे चौडे कई राज्यो और केन्द्रित शासित प्रदेशो के इस देश मे जनगणना मे ज्यादा समय लगता है, तो रिपोर्ट बनने और प्रकाशित होने मे भी उतना ही समय लगता है। अब जब इस बार 2011 की जनगणना का सिलसिला शुरू हुआ, तो जातिगत जनगणना का मुद्दा इतना हावी हुआ, कि सरकार को लेने के देने पड गए।
हर छोटे बडे दल ने अपनी जबरदस्त मांग रख दी और फायदे नुकसान गिनाने शुरू कर दिये। सरकार ने भी इस बिना बुलाये आई आफत को मत्रिमंडल की बैठक कर, ऎसे टाला कि जातिगत जनगणना अलग से कराई जायेगी तब जाकर कही विपदा टली। एक तरफ विश्व कुटुम्ब का आदर्श दोहराया जाता है, इन्सान को भाई भाई कहा जाता है, और बसपा की मेडम मायावती एव उनके सभी समर्थक प्राचीन ब्राम्हण, क्षत्रिय, वेश्य, शूद्र की अवधारणा से ही सक्त नफरत करते है, और जातिवाद को जड से मिटाने का आव्हान किया जाता है तो दूसरी तरफ जातिगत जनगणना के क्या दुष्परणिम होगे। हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई ब्राम्हण राजपूत बनिया धोबी मोची कर्मकार चर्मकार जैन अग्रवाल खण्डेलवाल जाट सबको पता लग जायेगा कि हम देश मे कितने है, और हमारी ताकत कितनी है। फिर एक जाति वाला केवल अपनी जाति के ही लोगो परिवारो की मदद करेगे, तो वोट भी अपने जाति वालो को दी देगे।
न्याय पालिका कमजोर पडने लगेगी, और जातिपंचायत का फैसला अंतिम एव निर्णायक होने लगेगा। एक गांव ढाणी मे एक जाति का वर्चस्व होगा और दूसरी जाति वालो को वहां से पलायन भी करना पड सकता है। मुखिया बन जायेगे उन्ही का दबदबा चलेगा। पर आजादी के बाद और खासकर अब खूब अन्तर जातीय प्रेम विवाह हो रहे है, और आज के आधुनिक समाज ने इन्हे मौन स्वीकृति दे रखी है। तब ऎसे मामलो मे पति की जाति लिखी जायेगी या पत्नि की। मान लीजिए दोनो की अलग अगल जाति का ही उल्लेख कर दिया तो उनकी औलादो को किसी जाति के खाते मे डाला जायेगा। हालांकि चुनाव अभी भी जातिवाद के आधार पर ही लडे जाते है। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार मे। पर सरकार यदि जातिगत जनगणना कराती है, तो दुनिया मे क्या छवि उभरेगी, जहा भारतीयो से नस्ल भद कर, झगडा मारपीट हत्या के साथ गालीगलोच भी की जाती है। तब ऎसा लगता है जातिगत जनगणना का सरकारी फैसला टालने और टालते जाने के लिए ही लिया गया है। ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी

अमरीका पाकिस्तान का मोहर

-अनिल अनूप
दुनिया की महाशक्ति अमरीका की स्थिति आज पाकिस्तान जैसे पिद्दी-से देश के आगे मजबूर जैसी नजर आ रही है। कल तक पाकिस्तान को मोहरे के रूप में इस्तेमाल करता रहा अमरीका आज उसी का मोहर बनकर रह गया है। पाकिस्तान आज उसे नचा रहा है, अपने अनुसार चला रहा है, सच्चाइयों को झुठला अपनी हां-में-हां मिलाने को मजबूर कर रहा है। ...और अमरीका को यह सब करना प़ड रहा है। फिलहाल उसे इससे निजात पाने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा है। अमरीका ने सोवियत संघ के विघटन से पूर्व तक रूस-भारत गठजो़ड के खिलाफ पाकिस्तान का खुलकर इस्तेमाल किया। उसे खुलकर आर्थिक और सैन्य सहायता मुहैया कराई। यहां तक कि पाकिस्तान को परमाणु संपन्न देश बनाने में भी चोरी-छिपे मदद की। रूस और भारत के खिलाफ कई आतंकी संगठनों को पनपाया, लेकिन 9/11 के हमले ने उसकी आंखें खोल दी। वह छद्म रूप से अन्य देशों के खिलाफ जिस आतंकवाद के जरिए जंग छे़डे हुए था, अब उसे उसी से रू-ब-रू होना प़ड रहा है। करीब एक दशक से अमरीका और नाटो अफगानिस्तान फंसे हुए हैं। वो तालिबान और अल-कायदा से लोहा ले रहा है, लेकिन सफलता की किरण दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही है। अमरीका की इस मुहिम की नाकामयाबी पाकिस्तान, खास तौर पर उसकी कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई और सेना प्रमुख हैं। वे दो-तरफा रणनीति अपनाए हुए हैं।
दिखावे तौर पर वह अमरीका और नाटो का मददगार है, मगर अंदरूनी रूप से तालिबान और आतंकी संगठनों को पनाह दिए हुए है। उन्हें हथियार, धन और अन्य सुविधाएं मुहैया करा रहा है। अमरीका भी इस बात से अनभिज्ञ नहीं है। नाटो देशों की खुफिया एजेंसियां आईएसआई-सेना-तालिबान गठबंधन का बार-बार खुलासा करती रही हैं। अमरीका कई बार इन तथ्यों को क़डाई से पाकिस्तान के साथ उठा भी चुका है। मगर पाकिस्तान के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। अमरीका जैसी महाशक्ति की चेतावनियों और धमकियों को पाकिस्तान जैसा देश यों ही नजरअंदाज नहीं कर सकता, इसके उसकी पीछे मजबूत रणनीति है। पाकिस्तान जानता है कि अफगानिस्तान जंग उसके बिना नहीं जीता जा सकता। वह अमरीका और नाटो की जरूरत है। अफगानिस्तान में नाटो सैनिकों को लाइफ लाइन पाकिस्तान से जु़डी है। उसकी 80 फीसदी सप्लाई पाकिस्तान के रास्ते होती है। पाकिस्तान ने हाल ही अपनी हैसियत का अहसास अमरीका और नाटो करा भी दिया। उसके क्षेत्र में घुसकर नाटो हेलिकॉप्टरों के हमले के विरोध में पाकिस्तान ने नाटो की सप्लाई लाइन रोक दी। सप्ताहभर में ही अमरीका और नाटो ने घुटने टेक दिए और पाकिस्तान से माफी मांगनी प़ड गई। अमरीका, पाकिस्तान के ऎसे जाल में फंसा है कि उसे उसकी हर जायज-नाजायज मांगों के आगे घुटने टेकने प़ड़ रहे हैं। तालिबान और आतंकियों के सफाए के नाम पर पाकिस्तान ने अमरीका से जमकर धन और हथियार वसूले हैं। कई परियोजनाएं मंजूर कराई हैं। बाढ़ पीç़डतों के नाम पर अमरीका के जरिए अनाप-शनाप धन जमा किया है। सुरक्षा रणनीतिक करार के लिए दबाव बनाए हुए है। इस संबंध में पाक दल वाशिंगटन में जमा हुआ है। कश्मीर मामले पर भारत पर दबाव बनाने के लिए अमरीका को मजबूर कर रहा है। उसमें भी बहाना यही बनाया जा रहा है कि इस मसले का हल हुए बिना आतंकवाद समाप्त होना मुमकिन नहीं है। पाकिस्तान के इस भंवर-जाल से निकलने में अमरीका को एकमात्र ही रास्ता नजर आता है, और वह है भारत। अफगानिस्तान से निकलने में जितनी जरूरत अमरीका को पाकिस्तान की है, उससे कहीं अधिक जरूरत उसे पाकिस्तान के चंगुल से निकलने के लिए भारत की है। अब देखना है कि अमरीका पाकिस्तान के इस जाल से कैसे निकल पाता है।