दशहरा फिर आ गया, हर साल आता है, बरसों से आ रहा है, आता रहेगा। शुरू हो जाता है पांच दिन पहले से वही खटराग, मोहल्ले और घर के बच्चों की भागदौड़, लकड़ी लाओ, पेपर लाओ, पटाखे लाओ, रावण बनाओ। हर बार वही दस सिर लिए, उस पर एक गधा विराजे हुए, साथ में कुंभकरण मेघनाद, दस फुट, बीस फुट, पचास फुट, सौ फुट, जाने कितने फुट का रावण। पास जाकर देखो तो पूरा सिर आसमान की तरफ उठाकर देखना पड़ता है रावण के अट्टाहास करते सिर को। इसलिए दूर से देखना ही ठीक है। हर बार की तरह इस बार फिर दशहरे का कव्हरेज। खबर बनानी है भाई, क्या विशेषता रही इस बार के रावण की, सिर पर गधा बनाया कि नहीं, एकाध सिर कम तो नहीं हो गया। सुपुत्र ने इस बार जिद की रावण देखने की। मैंने कहा मुझे ही देख लो, वहां जाने की क्या जरूरत है। पड़ोस में लालू अंकल हैं उसे देखकर संतुष्टि कर लो। नहीं माना बालक, कलयुग में वैसे भी बच्चे लगातार जिद्दी प्रवृत्ति के होते जा रहे हैं। पीछे ही पड़ गया मुनवा। थक हार कर मैंने कहा चल पुत्तर । हाईस्कूल के मैदान में तमाम कारीगर रावण बंधुओं को बनाने में लगे हुए थे। किनारे में एक तरफ रावण के दस सिर वाला हिस्सा रखा हुआ था। मैंने सोचा कि चलो पहले से तैयार मुंडी को ही देख लिया जाए। उसके सामने पहुंचा। रावण के अगल-बगल के नौ सिर तो मुस्कुरा रहे थे, पर बीच वाला मुख्य चेहरा मायूस, दुखी दिखा। मुझसे रहा नहीं गया, रावण की उदासी, दुख मुझसे सहा नहीं गया, पूछ बैठा, हे भूतपूर्व लंकाधिपति, आप दुखी क्यों हैं। जबकि हर साल लोग आपको याद करते हैं। बल्कि साल भर में, देश भर में, किसी न किसी रूप में आपका पुतला जलाया ही जाता है। इतने बार तो आपको लंका से बेघर करने वाले प्रभुजी को भी लोग याद नहीं करते। दुख का क्या कारण है, फिर आपके अन्य सिर तो खुश हैं ?रावण बोला, क्या बताउं, नारद के बिगड़े वंशजों, तुम लोग भी मेरे दुख का कोई ख्याल नहीं करते, मेरे दुखी होने का कारण जानकर भी उसे नहीं छापते, क्योंकि कलयुग के महारावणों ने तुम्हारी बिरादरी की सोच पर कब्जा कर रखा है। मेरी तुलना कलयुग के ऐसे लोगों से की जा रही है, मैं सोच भी नहीं सकता। भाई, मैंने सीताजी का अपहरण किया, राज्य में अपनी सत्ता कायम रखने के लिए जो प्रपंच किए। मेरे राज्य में दुखी तो सिर्फ विभीषण ही था। पर कलयुग में झांको, कैसे-कैसे कुकर्म, बहुमत के बिना जबरिया मुख्यमंत्री बनाने वाले, विधानसभाओं में कुर्सी फंेकने और चप्पल चलाने वाले, जनता की जिंदगियों को प्रदूषण और खतरों के हवाले करने वाले, खरीद-फरोख्त कर सरकार बनाने वाले आदि-आदि क्या क्या गिनाउं। साल में एक बार जलता था तो लगता था कि मैंने जो किया, उसी को भोग रहा हूं, पर साल भर में सैकड़ों बार दूसरे कुन्यातियों के इल्जाम अपने सर लेकर जलना कैसे सहन करूं। एक कागज का टुकड़ा मेरी छाती पर चिपकाया और लिख दिया किसी का भी नाम, पर पुतला तो मेरा ही होता है ना, कुकर्म कोई और करे, भोगूं मैं। ये कहां का इंसाफ है ? तुम्ही बताओ, तुम भी तो पुतला दहन का तरह-तरह के एंगल बनाकर फोटो खींचते हो, अखबार में छापते हो, टीवी में दिखाते हो। इसे क्यों नहीं छापते। मैं ने रावण के दुख में सहमति जताते हुए सिर हिलाया, फिर पूछा, पर हे महापंडित, आपके अन्य सिर तो खुश हैं, मुस्कुरा रहे हैं, क्या लफड़ा है। अरे, लफड़ा कैसा, मैं अन्य कारण से दुखी हूं, और ये लोग खुश होते रहते हैं कि इन्हें साल में सिर्फ एक बार ही जलना पड़ता है और मुझे साल भर में सैकड़ों बार। फिर ये मेरा मजाक भी उड़ाते हैं कि तू चाहे कितने बार भी मर, कितने बार जल, लोग तुझे जिंदा रखेंगे, हर साल मारेंगे, साल भर में सैकड़ों बार जलाएंगे। मैं हर साल बढ़ रहा हूं आतंक और अत्याचार के रूप में, नारी शक्ति पर हो रहे अन्याय के रूप में। तेलगियों और हर्षद मेहताओं के रूप में, मुझे खत्म करके चैन से मरने देना भी लोग नहीं चाहते। दुखी न होउं तो क्या करूं। मैंने हाथ जोड़ लिए, कुछ नहीं कहा। लौट गया रावण का दुखी चेहरा जेहन में लेकर। सुपुत्र ने पूछा, पापा, रावण को हर साल क्यों जलाते हैं। मैंने सिर्फ इतना ही कहा बेटे, क्योंकि यह हर साल जिंदा हो जाता है, रावण तो सदियों से मरा ही नहीं, इसलिए जलाकर इसे मिटाने का प्रयास करते हैं। अगले साल रावण फिर अपने कुनबे के साथ देश भर के मैदानों में जलने के लिए खड़ा दिखेगा, मगर मरेगा नहीं, हर साल बढ़ेगा, हर साल जिंदा हो जाएगा। यह तो जलता-मरता रहेगा, पर मन के एक कोने में छिपे रावण को भी कोई मार सकेगा ?
साभार -खबर एक्सप्रेस