देहव्यापार के बदलते स्वरुप और बिलखती घुंघरू महानगरीय संस्कृति एवं ग्लैमर ने आज देह व्यापार के मायने ही बदल दिए हैं.
काफी हाई टेक हो गया है यह व्यापार,
देश में आज कुल ग्यारह सौ सत्तर रेड लाइट एरिया हैं.
इसमें ब्यापारिक दृष्टिकोण से सबसे ज्यादा धंधा वाला एरिया है कोलकता और मुंबई .
कडोडो रूपये का साप्ताहिक आंकडा है अकेले रेडलाईट एरिया मुम्बई का है.
राजस्थान,
उत्तर प्रदेश और ओडीसा एक ऐसा छेत्र है जहाँ देह व्यापार की प्रथा का इतिहास है या यूँ कहें की यह एरिया देहव्यापार का इतिहास लिए अपनी खासियत छुपाये रक्खी है.
चलिए हम यहाँ इतिहास नहीं वर्तमान की चर्चा करते हैं.
जयपुर चम्पा मछरों की भांति विराट रूप सवारियों के खेल में काफी तरक्की कर रहा है.
अपने निकटवर्ती इलाकों में भी जयपुर राजस्थान का एक ऐसा सवारियों वाला मण्डी बनता जा रहा है जिससे गरम गोश्त के सौदाईओं की बांछे खिलती जा रही है.
प्रशाशन या राज्य शाशन ने इस ओर इसलिए भी अपनी आँखें बंद कर रक्खी हैं क्योंकि उनका इससे करीबी ताल्लुक है.
आखिर नेता और अधिकारियों का मौज मस्ती का भी तो सवाल है!
राजस्थान का कोई भी शहर इस गरम गोश्त के कारोबार से अछूता नहीं हैं.
इन इलाकों में ज्यादा तर सवारियों का धंधा होता है.
या यूँ कहें की इधर इस व्यापार की खास क्वालिटी है जिसका नाम सवारी का दिया गया है.
यानी वो औरतें जिन्हें इस शहर से उस शहर में जिस्म के भिखारियों के आगे भेजा जाता है उस माल को सवारी और जिस माल(
औरत)
का इस्तेमाल स्थानीय स्तर पर ही किया जाता है उसे गाडी कहा जाता है.
है न दिलचस्प तथ्य?
राजस्थान में जहाँ सवारियों का ज्यादा कम होता है वो इलाके हैं जयपुर,
कोटा,
अलवर,
डूंगरपुर,
किशनगढ़,
जोधपुर और गंगानगर,
नागौर,
जैसलमेर और सीकर,
बाकी इलाकों में गाडियाँ और सवारियां दोनों का कारोबार होते हैं.
यह तथ्य अभी हाल में देश के तमाम रेड लाइट एरियाओं में विगत सात सालों से शोधरत पत्रकार लेखक मोहम्मद जावेद अनवर सिद्दीकी के ताजा तरीन शोध आंकडों से प्राप्त हुए हैं.
सवारियों और गाड़ियों के इस नायब कारोबार से विश्वा विख्यात अजमेर शहर भी अब अछूता नहीं रहा है.
बुजुर्गों के इस नैसर्गिक स्थल पर इन गर्म गोश्त के कारोबारी भी अपनी सवारियों और गाड़ियों के लिए मन्नतें मांगने आने लगे हैं क्योंकि यहाँ हर की मुरादें पूरी होती हैं.
उक्त नायाब कारोबार में पिछले चार सालों से अख्तरी बेगम (
परिवर्तित नाम)
सवारियों को लाने और उसे यात्रा पर भेजने तक का सारा कारोबार करती है,
इसके पास दल्ले और भरवे मॉल लाकर बेचते हैं और ज्यादातर यह प्रशिक्छित सवारियों की डीलिंग करती है.
अख्तर का कहना है की इस कारोबार में काहिल और बीमार हों,
तब भी औरतें सवारी पर जाती हैं,
और गाड़ियों का काम प्रायः शौकिया और पार्ट टाइम कमानेवाली औरतों के लिए है.
लेकिन धंधा चाहे सवारी का हो या गाडी का एक बार जो इस राह पर आ जाती हैं उसका अंत उम्र ढल जाने के बाद या तो फुट पाथ पर पागलों की शकल में या कहीं दल्ले भरवों के साथ कमीशनखोर के स्तर पर जा कर होता है.
यह न तो माँ रह पाती है न बीवी ,
न बेटी न बहन,
यानी अस्तित्वहीन औरत कैसी बिडम्बना है यह?
अजमेर और जयपुर में अधिकतर सवारियों को विदेश भेजा जाता है.
बिदेशों से आने वाले जिन्हें यहाँ का गरम गोश्त भा जाता है वो अपने वतन से हमारे हिंदुस्तान से अपनी रातें रंगीन करने का सामान मंगाना ज्यादा पसंद करते हैं.
जाहिर है इस कारोबार का रुतबा भी कम आकर्षक नहीं होगा,
इसमें अच्छी और खूब मोटी कमाई तो होती ही है ज्यादा खतरा भी नहीं होता.
बस अच्छी सवारियों को इकठा करना और उन्हें विदेशी भूखों के हवाले कर देना बाकी वो जाने और उसका काम.
उसे तो बस हवाई जहाज तक की जिम्मेदारी निभानी होती है.
एक सवारी से जो बिजनेस का ग्राफ बनता है जरा उस पर भी गौर करें,
अमूमन देश के विभिन्न इलाकों से १२ से २१ साल की उम्र की बालिकाओं को सवारी के लिए चुनकर लाया जाता है.
आम तौर पर विदेशी गरम गोश्त के ग्राहक हिन्दुस्तानी सौदागरों को अपनी पसंद और बजट भेजते हैं और उन्हें उनकी पसंद की सवारियां उपलब्ध करा दी जाती हैं.
उन सवारियों को बिदेशों में काम के बहाने भेजा जाता है.
कुछ सवारियों जो पहली बार इस फेरे में आती हैं उन्हें सिर्फ विदेश जाकर मोटी कमाई की लालच इस धंधे की गर्त में उतार देती है.
बस एक बार क्या विदेश गई सब कुछ या तो लुट जाता है या फिर मिजाज ही ऐसा बन जाता है की चाहत ही नहीं होती इस धंधे से बाहर आने के.
जब तक हुस्न का जलवा रहता है सवारियां उड़न छू होती रहती हैं फिर उम्र ढलने तक इतनी परिपक्वता उनमें आ जाती हैं कि उन्हें सब कुछ इस कारोबार की जानकारी हो जाती है और वो या तो इस कारोबार की रानी बन जाती है या अपना जीवन अलग-
थलग काटने को बिवश हो जाती हैं.
सवारी यानि देह व्यापार के लिए विशेषकर खाड़ी देशों में जाने वाली औरतें.
बताते चलें कि राजस्थान से जो सवारियां जाती हैं वो काफी सेक्सी और कम उम्र पहाडी गठीली बालाएं होती हैं जो सजती संवारती हैं तो सचमुच बेहोश कर देती हैं.
उनका भाव भी सबसे ज्यादा और हमारे मुल्क में आने जाने वाले खाड़ीदेशी गरमगोश्त के भूखे देखते ही कुछ भी लुटाने को तैयार हो जाते हैं.
जब पैसा होता है तो रुतबा भी बदल ही जाता है.
उसमें भी विदेशी पैसे का हिन्दुस्तान में कुछ बात ही अलग है.
सवारियों में कुआंरियों का होना ही जरूरी नहीं,
इसमें शादी शुदा भी सवार हो जाती हैं जिनके मर्द इस बात से अनजान नहीं होते हैं कि उनकी पटरानी किसी गैरों की रात रंगीन करने विदेश यात्रा पर जा रही हैं .
यानि शौहरों की पूरी रजामंदी होती हैं .
रही बात बीजा की तो इसमें भी कोई मुश्किल नहीं होती है.
औरतों को इन अंधी गलियों में धकेलने वाले कई देशों में फैले अंतर राष्ट्रीय गिरोह के लोगों के द्वारा इनकी सभी जरूरतों पूरी कर देते हैं.
आखिर कैसे खुली इस धंधे की डगर ?
चांदी(
बदला हुआ नाम)
उसका नाम है और अभी अभी सवारी से वापस आई है,
बताती है "
एक ट्रक ड्राइवर से प्यार हो गया ,
बहुत बड़े बड़े ख्वाब दिखाए थे उसने और उसी से मोहित होकर भाग आई अपने बंगाल देश से अजमेर.
माँ बाप भाई बहन सब थे मगर क्या हुआ कि दुनिया को रंगीन दिखाकर उस ट्रक ड्राईवर के साथ भाग आई.
पति था तो लेकिन मनमौजी.
कही काम धाम ठीक ठाक करता नहीं त६ह और ऊपर से उसे मारता पीटता था सो अलग और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उस मर्द से देह सुख भी उसे नहीं मिलता था.
उसकी सखी सहेली थी जो उसे अपने पति की बातें बताती रहती थी तो बेचारी चांदी सिसक कर रह जाती थी अपने भाग्य पर.
शायद इसी कमजोरी को भाँप गया था वो ड्राईवर और उसके मोहजाल ने फांस लिया उसे.
ट्रक ड्राईवर ने उसे खूब जी भर के भोग और उसी दौरान चांदी को मिल गई रजिया.
रजिया सवारियों को खडी देशों में भेजने की ठेकेदार थी.
उसने उसे सारी बातें खूब समझा समझा कर बताई जिसे सुनकर चांदी की समझ में बस इतनी बात आई कि अगर एक बार वो सवारी बन गई तो बस जिन्दगी भर मौज से काटेगी ,
फिर तो अपनी बाप भाई को भी वो तार देगी उसकी बदौलत उसके पीहर की गरीबी सब छू मंतर हो जायेगी.
उसने कबूल कर लिया सवारी बन जाना और चली गयी दुबई.
बंगाल से दिल्ली,
दिल्ली से जयपुर,
और जयपुर से अजमेर,
इन तमाम जगहों पर उसे खूब भोगा लोगों ने और फिर उड़न छू हो गई दुबई को जहाँ उसके साथ पहली बार दुबई जानेवाली एक और औरत थी.
उस औरत के बारे में बताया कि वो अब तक अपने ही देश में जो बिदेशी लोग आते हैं उनको खुश करने होटलों में जाती रही है.
सो उसे उन लोगों के साथ रात बिताने का पूरा नालेज है.
उसके साथ चांदी को दुबई में एक होटल में ठहराया गया था.
रोज सुबह उसी होटल में एक गाडी आ जाती थी जो उसे लेकर शेखों की हरम उसने कबूल कर लिया सवारी बन जाना और चली गयी दुबई.
बंगाल से दिल्ली,
दिल्ली से जयपुर,
और जयपुर से अजमेर इन तमाम जगहों पर उसे खूब भोग ओगों ने और फिर उड़न छू हो गई दुबई को जहाँ उसके साथ पहली बार दुबई जानेवाली एक और औरत थी.
उस औरत के बारे में बताया कि वो अब तक अपने ही देश में जो बिदेशी लोग आते हैं उनको खुश करने होटलों में जाती रही है.
सो उसे उन लोगों के साथ रात बिताने का पूरा नालेज है.
उसके साथ चांदी को दुबई में एक होटल में ठहराया गया था.
रोज सुबह उसी होटल में एक गाडी आ जाती थी जो उसे लेकर शेखों की हरम तक पहुंचा आती थी.
शेख लोग रात भर उसे खूब नूंच खसोटकर सुबह तक लगभग बेहोशी की हालत में छोड़ दिया करते थे.
फिर वही गाडी आती थी जो उसे होटल में छोड़ आती थी.
होटल में आकर जब उसे कुछ आफियत आती तो अपने ही आंटी में से पैसे जो उसे रात को शेख से मिलते थे (
ईनाम में )
होटल और गाडी वाले को देने होते थे.
खा पीकर कुछ देर आराम करती और तब तक फिर से दूसरी रात के लिए बुकिंग आ जाती थी.
इस तरह बीत गए पूरे एक साल और जमा कर लिया उन्नीस हजार रेयाल बस.
कुछ और पैसों की लालच में बेचारी ने संपर्क किया अपने एजेंटों से तो उसने उसे बीजा के लिए किसी के बारे में बताया लेकिन फिर क्या हुआ उसे पता ही नहीं क्योंकि उसे जब उस रात शेख ने नोचने की शुरुआत की तो वह इतना वहशियाना था कि बेचारी बेहोश हो गई और जब होश में आई तो हवाई जहाज में थी.
फिर दिल्ली में आ गिरी.
अब ऐसा काम नहीं करेगी इतना सोचते बाहर आई एयर पोर्ट से तो एक गाडी खरी थी जिसमें उसे उसके एजेंट के आदमी बिठा ले गए .
बेचारी कुछ सोच पाती उससे पहले उसके सपनों ने दम तोड़ दिया.
यह कहानी किसी एक चांदी की ही नहीं बल्कि ऐसे सैकडों चांदी के सपने जो कभी उसने एक हिन्दुस्तानी मान,
बहन,
बेटी,
या बीबी के देखे थे चूड़ -
चूड़ हो कर रह गए.
अब हम जानते हैं इस नायाब ब्यापार से जुडी कुछ अबूझ पहेली के बारे में.
हमने चर्चा शुरू की थी राजस्थान में फ़ैल रहे सवारियों और गाड़ियों के बारे में तहकीकी जायजा.
देखते हैं शोध के बाद राजस्थान में पैर पसार रहे देहव्यापार से जुड़े हुए आंकडों को.
"
हिंदुस्तान के प्रमुख देहव्यापार और उसके बदलते परिद्रिश्य"
विषय पर व्यापक शोधरत मोहम्मद जावेद अनवर सिद्दीकी ने जयपुर,
अलवर,
कोटा,
नागौर,
गंगानगर,
जोधपुर,
बीकानेर,
अजमेर,
सीकर,
बारमेर,
चित्तौर,
भीलवारा,
टोंक,
हनु मानगढ़ और भरतपुर ,
बूंदी ,
बांसवाडा इलाके में जाकर सभी घोषित और अघोषित ईलाकों में जाकर गहन छानबीन की.
उस शोध के बाद जो प्रमुख तथ्य सामने आये हैं उसके मुताबिक पूरे देश में राजस्थान तीसरा प्रमुख राज्य है जहाँ से देश के बहार सवारियां भेजने का कारोबार होता है.
चाहे प्रशाशन हो या पुलिस,
खुफिया बिभाग हो या देश के कर्णधार नेते और समाज सुधारक सब इस बात से अनजान नहीं हैं लेकिन उनमें से किसी के पास इस सामाजिक कोढ़ से निजात पाने के लिए कोई योजना या उपाय तलाश कर सकने की हिम्मत नहीं है.
सच मुच चौंका देने वाली बात है कि अगर सरकार देहव्यापार की मंडियों से टैक्स वसूल करने लगे तो अकेला यह व्यापार देश की तमाम पंचवर्षीय योजना को निष्पादित करने के लिए काफी है.
जी हाँ सरकार ने इसपर कभी कानून भी बनाये थे लेकिन उसके विरोध में रेड लाईट एरिया और इसके मठाधीश कारोबारिओं के प्रभाव ने इसका सही उपयोग नहीं होने दिया और कानून बस्ते में धरा का धरा रहगया.
देह व्यापार की दल दल में फंसी भारत की नारियों की फिकर के वास्ते देश में आज से १५-
१६ साल पूर्व कुल जमा तीन चार स्वयंसेवी संस्थाएं कायम हुई थी.
उसने अलग अलग तरीकों से इस ओर ध्यान दिलाना चाहा तो सवाल यह पैदा हुआ कि आखिर इन नारियों का भला कैसे किया जा सकता ?
इन्हें अगर धंधे की गर्त से बहार निकालने का काम किया जाये तो क्या समाज इन्हें स्वीकार करेगा?
इन्हें समाज की प्रमुख धाराओं के साये में जीने का माहौल दिलाया जा सकेगा?
नहीं .
यही उत्तर इन संस्थाओं को मिला था.
फिर इन महिलाओं को इस धंधे से निजात नहीं दिलाने की बजाय इन्हें लाइसेंस दिए जाने की युगत सामने प्रर्दशित किया गया इनको मान्यताप्राप्त सेक्स वर्कर की उपाधि दी गई जिससे उन्हें देह्जीवाओं का भी लकब मिला.
और इस प्रकार आज देश में कुकुरमुत्तों की तरह भारतीय वेश्याओं के हित में सेवा करने वाली स्वयं सेवी संस्थाओं का उदय होने लगा .
कुछ देश और विदेश से इस सामाजिक यज्ञ को अंजाम देने हेतु फंड एकत्रित करते हैं तो कुछ सरकार से योजनाओं के लिए पैसे उगाही का काम करने लगे.
आज अनगिनत संस्थाएं इन अस्तित्व विहीन महिलाओं की कथित सेवाओं में बड़ी बड़ी प्रोजेक्टों की फाइलें और सेवाओं की रूप रेखा दर्शाने भर की खिदमत कर रातों रात मालामाल अलग होते गए और बेचारी ये बदकिस्मत भारतीय नारी आज भी बदस्तूर देह बेचने को मजबूर है .
समाज उन्हें आज भी पतिता और कुलटा के सिवा कुछ भी मानने से कतरा रहा है.
हमारा महान भारत जिस महिलाओं के लिए न जाने कैसी कैसी आदर्शों को जगजाहिर करता आ रहा है वहां आज वो स्वयं अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु दिन के उजाले से लेकर रात की अंधियारी में रोज खो जाती है और हर नई सुबह उसे फिर से एक दिवा स्वप्न देखने को मजबूर कर दिया जाता रहा है.
आज महिलाओं की उद्धार की बाबत सरकार से अरबों रुपये स्वयमसेवी संस्थानों द्वारा उगाही जाती है बरी बरी बैटन में दबती कुचलती हमारी संस्कृति और जगत जननी कोठों पर सुर ताल और घुघरू की चीख पुकार में अपनी अस्मिता को तर बतर कर एक ऐसी मदहोशी को पाकर खोती रहती है जिसमें उसे अपना अस्तित्व ही नजर न आय.
खुद से शर्मा गई है आज हमारी जगत जननी.
आइये अब हम जानें कुछ हकीकत को झांकती कहानियो को ,
कोटा राजस्थान की पढी लिखी दो सहेलियां रूबी और सविता (
परिवर्तित नाम)
पिछले पांच सालों से जिस्म फरोशी का धंधा कर रही है.
अब वे पश्चात्ताप नहीं कर रही हैं बल्कि कहती है इतनी रईसी क्या बहार मिलेगी?
बनारस से धंधे की शुरुआत करते हुए इन दोनों ने अब तक तीन बार सवारी का सेक्सी सफ़र पूरा कर लिया है.
अब तो बस अपने ही मुल्क में रहकर इस धंधे को अंजाम दे रही है.
खुद का काम है अब तो..!
खुश है बेचारी.
तीन बार पुलिस के हाथों भी चढी है लेकिन अब उस खतरे से भी निबट लेने का फार्मूला समझ चुकी है सो कोई डर कहे का.
राजस्थान में सवारी "
को-
आर्डीनेटर"
की हैसियत है इन दोनों का.
राजस्थान के सामजिक पेंचोंख़म पर विश्लेषण करते हुए शोधकर्ता सिद्दीकी ने जो परिणाम उजागर किये हैं वह सचमुच कम चौउकानेवाले नहीं हैं.
जिस्म के खरीद फरोख्त का कम अब बदनाम बस्तियों,
सार्वजनिक अस्थानों से होते हुए राज्य के ग्रामीण इलाकों में घडों की चौखट तक को पार कर गया है.
माहौल ऐसा बन गया है कि लोग बैग अपनी पत्नी,
सौतेली या कमजोर बहन,
भांजी और अन्य रिश्तों को गरम गोश्त की गलियों में स्वच्छा से भेजते हैं जिसके एवज में बैठे बिठाए बेहतर आमदनी हो जाती है.
अपने आधुनिकतम शौकों को पूरा करने की ललक में एक ओर जहाँ अच्छी फेमिली की माडर्न युवतियां इस राह पार आने लगी हैं वहीं दूसरी ओर गरीबी और प्रतार्नाओं से ग्रसित कमसिन युवती और महिलाएं इस पेशे को अपना लेने को मजबूर होती हैं.
जनम जनम तक साथ निभाने की क़समें खाने और सुरक्छाकी आजीवन गारंटी देनेवाला पति ही पत्नी का दलाल बनाकर खुद उसके जिस्म का खरीदार तलाश करता है,
यह सच्चाई भी हमारे समाज को आधुनिकता की अंधी दौर में कितनी पछाडें दे रहा है यह अनुमान भी कम चकित कर देनेवाला नहीं है.
कहीं कहीं नौकरी की जरुरत ने भी कमसिन नादानियों को जिस्म की तस्करी में फंसा देती है.
गुजरे वर्ष दिल्ली पुलिस ने नौकरी का झांसा दे देकर जिस्मफरोशी के जाल फांस कर ग्रामीण महिलाओं और वयस्क होती जारही कमसिन बालिकाओं को अरब देशों में निर्यात करने वाले एक गिरोह का पर्दा फाश किया जिसमें अस्सी प्रतिशत राजस्थान की युवतियां थीं जो अपने घर बार की गरीबी,
भूखमरी से जूझते लाचार माँ बाप और कुपोषण की शिकार भाई बहनों की खातिर बहार नौकरी करने को घर से बाहर निकल गई थीं .
दिल्ली में पकडे गए गरम गोश्त के सौदाइयों ने जाहिर किया कि वे राजस्थान के जयपुर,
अजमेर,
ब्यावर और अलवर से ग्रामीण बालाओं और महिलाओं के नौकरी का झांसा देकर अपनी जाल में लपेट लिया था.
इन अबलाओं को दिल्ली में सबसे पहले इस गहरी अंधेर नगरी से रु ब रु कराया जाता है फिर इसका कुछ खास गुड बताते हुए शारीरिक और मानसिक रूप से पेशे में उतार लिया जाता है.
कभी एक एक दाने को मोहताज जयपुर बाज़ार की तंगदस्त मोहल्ले के जर्जर मकान में रहनेवाली शायरा(
बदला हुआ नाम)
ने अभी हाल में ही चालीस लाख रूपये में एक मकान खरीदकर लोगों को अचंभित कर दिया.
मेल की खबर पुलिस को भी मिली तो उसने फ़ौरन ही शायर को दबोच लिया और उसके बाद यह राज खुली कि शायरा सवारियों की परिपक्व कारोबारियों में से एक है.
जयपुर और अजमेर से शायरा महिला डांस मयूजिकल ग्रुप की शकल में गाओं से लाई गई बेबस लाचार युवतियों को बिदेश भेजने का काम करती थी.
किराये के गुंडे मवालियों के बल पार शायरा एक सुगठित सवारी की ब्यापारी बन गई थी,
अब जब पुलिस के हाथ लगी तो कहीं जाकर इसकी हकीकत का पर्दा फाश हुआ.
आज डांस स्कूल और मयूजिकल ग्रुप की आड़ में चलनेवाली जिस्मफरोशी का काम राजस्थान के कई इलाकों में चल रहा है.
हकीकत यह है कि अजमेर इन दिनों इस धंधे का खास मण्डी बना हुआ है.
मास्टर माइंड और सबसे बड़ा रेगिस्तानी कारोबारी के रूप में सलाम उर्फ़ टोपीबाज का नाम सामने आया है.
टोपीबाज खुद तो मुम्बई में रहता है लेकिन जयपुर और अजमेर में इसके तीन प्रमुख एजेंट काम सम्हालते हैं.
इन एजेंटो के साथ उनके ख़ास सेक्रेटरी की हैसियत से एक एक महिला भी साथ रहती है.
इनको एरिया में घूम रहे दल्ले भरवे और सड़क छाप गुंडों के जरिये माल मिलता है .
बताते हैं कि सलाम का नेटवर्क बिगत दस बारह सालों से चल रहा है इसपर हाथ क्या नजर तक उठाने के लिए स्थानीय पुलिस को कई बार सोचना पड़ता है.
चाहे सलाम मुम्बई में रहे या अजमेर जयपुर में उसका नेटवर्क अब इतना ब्यवस्थित और सुगठित हो गया है कि किसी भी प्रकार की अड़चनें इसके कारोबार को डिस्टर्ब नहीं कर सकती है.
अब तो सलाम ने अपना कारोबार कम्पुतेराईज कर लिया है.
बस इन्टरनेट या मोबाईल पर ही सारा काम चाहे मुंबई से हो या राजस्थान से पुलिस के थानों से हो या हिरासत से,
आराम से निबटा लिया जाता है.
जिस्म के सौदागरों की कार्यप्रणाली भी कुछ अजीब सी है.
ये पहले देहात से लाई गई लड़कियों को डांस की ट्रेनिंग देते हैं अपने ही कब्जे में इन बालाओं को रखते हुए ये उसकी जिस्मों को भी प्रथमतया तिरछी नजर पर रखते हैं.
उनके घरवालों को कहा जाता है कि वो उनकी लाडली को बिदेश में काम करने को ले जा रहे हैं जहाँ ये बहुत सारा रुपया कम सकेगी.
इस आधार पर मनन बाप ईजाजत देने से गुरेज नहीं करते फिर उन्हें हाथ के हाथ बीस पच्चीस हजार रुपये का रोकडा भी थम्हा दिया जाता है जो गरीबी की अंधेर में किसी चाँद से कम नहीं लगता उन्हें.
उन बदनसीब माँ बाप को यह भी कहा जाता है कि उनकी बेटी बिदेश से उन्हें नियमित मोटी मोटी रकम भेजती रहेगी.
जब ये मासूम डांस की कुछ ट्रेनिंग लेकर अरब की सर जमीन पर उतार दी जाती हैं तब जाकर इन्हें पता चलता है ki
इनकी मासूमियत को यहाँ शेखों की अईयास बांहों में कुचला मसला जायेगा.
नियति को यही मानकर बेचारी सब कुछ स्वीकार कर लेती है.
और इस अंतहीन सिलसिला को झेलकर सलाम जैसे कलाबाजों की रावण नगरी को चार चाँद लगाती इन सवारियों की जीवन काल कवलित होकर रह जाती है.प्रश्न
यह उठता है कि इस कहानी की प्रीष्ठ्भूमि में क्या कहीं भी हम अपने आप को दोषी मान सकते हैं?
मुम्बई ......................................एक ऐसा शहर जहाँ होते हैं सपनों के सौदे और वो भी दिन के उजाले में देखे जाने वाले सपनों का। एक ऐसासपना जो ले जाते हैं तन की तिजारत के उन अंधेरे कोने में जहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ मौत ही मिल पाती है। गर्म गोश्तके कारोबार में जो जिस्म एक बार पहुँचता है वह कब इस दुनिया से जाता है, किसी को पता ही नहीं चलता।
कोई बता सकता है की लोग चंद सिक्कों में जो मासूम देह खरीदते हैं वह आती कहाँ से और कैसे? इस सवाल काजवाब मिलेगा पश्चिम बंगाल के बागानों से, उत्तर पूर्व के पहाडों से, कश्मीर की सुनहरी वादियों से , दक्षिण भारत केसमुद्री घाटों से और नेपाल के गाओं से। मुम्बई कमाठीपुरा, फारस रोड, फाकलैंड रोड और पीलाहॉउस जैसे इलाकोंमें जहाँ हर महीने सैकड़ों नई नाबालिग लड़कियां पहुंचाई जाती हैं। गरीबी की चक्की में पिसती ये भोली भाली दससे बारह साल की मासूम लड़कियों ने सिर्फ़ इतनी ही खता की थी की उसने अपने लिए एक बेहतर जिंदगी कासपना देख लिया था बस यही वजह थी जिसने उसे यहाँ ला खड़ा कर दिया जहाँ से खुशी का जुमला सदा सर्वदा केलिए निकाल दिया जाता है जिंदगी की डिक्शनरी से। कई तो परिवार की सताई हुई होती हैं, कई दुबई जाकर खूबज्यादा पैसा कमाने की तमन्ना लिए होती हैं, कईयों को मुम्बई आकर फिल्मी सितारे से शादी करनी होती है याख़ुद हेरोईन बनने का दिवास्वप्न देख रखी होती हैं। नेपाल सीमा पर लगभग हर थाने और सोनौली तथा भैरवाट्रांजिट कैम्प में ऐसे बोर्ड लगे हैं जिनपर नेपाल से गायब हुई ऐसी तमाम लड़कियों के फोटो चस्पा होती हैं जिन्हें दरहकीकत देह्ब्यापर की भेंट चढा दी गई होती हैं। इन तथाकथित गुमशुदा नाबालिग़ और बालिग़ लड़कियों को कभीबरामद नही किया जा सका सका है यह रिकार्ड आपको उन पुलिस थानों में मिल सकता है। अलबत्ता उन में सेकरीब नब्बे फीसदी लड़कियों के घर वाले जान चुके होते हैं की उनकी लाडली परदेश में कमा रही है। थानों में लगेपुराने फोटो उम्मीदों की तरह धुंधले भी होते जाते हैं। एक बार कोई बाल मन दलालों के चक्रव्यूह में फंस जाए तोवह सीधा देह की दलाली के दल दल में ही गुरता चला जाता है। फ़िर उनकी मुक्ति का कोई मार्ग भी नही होता, अलबत्ता इन बेबसों की नाम पर कई स्वयमसेवी संस्थानों वार न्यारा जरुर हो जाता है। मोईती नेपाल के एकसदस्य (नाम नही छापने का अनुरोध किया है) के पास एक गों का वासी आता है और अपनी पत्नी को किसी लोगोंके द्बारा बहला फुसला कर भगा ले जाने की बाबत शिकायत करता है, उसके बारे में जब तहकीक किया जाता है तोपता चलता है की उसकी बीबी मुम्बई में है और अछे खासी कमा रही है, लिहाजा उसे परेशामं होने की जरुरत नहीहै, इस ख़बर के साथ बेचारे के हाथ में एक हजार रुपये थम्हा दिया जाता है और बताया जाता है की अब हर महीनेउसे उसकी बीबी की और से दो हजार रूपये मिलेंगे सो वह अपनी जुबान बंद ही रखे तो बेहतर। बेचारे को काफीकशमकश में दाल दिया इस हादसे ने॥ उसने अपनी हालत के मद्देनजर सब कुछ सहन कर अपने दुःख को जज्बकर लिया। कुछ दिनों तक तो वह यूं ही खोजता फिरा फ़िर बाद में जब पता लगा की उसकी बीबी पुणे के बुधवारपता स्थित लाल बत्ती ईलाके की एक कोठे पर काजल नामक बाई के पास है तो खाद्वा के थानेपुलिस के साथ चलपड़ा अपनी बीबी को छुडाने को। जुगत काम आई और पुलिस दस्ते ने उसकी बीबी को सुरक्षित बरामद कर लिया।फ़िर वहीं दो बिछडे हुए जीवन साथी का अजीबोगरीब मिलबी न हुआ । पुलिस ने उसकी बीबी के साथ पाँच नेपालीदलालों को भी काबू में लिया।
कुछ गिरोह नेपाल के पहाडों और तराईओं में बसे गाओं की गरीब नाबालिग़ लड़कियों के जत्थे को मुम्बई के देहव्यापार मंडी में झोंक देते हैं। इस दंदर्भ में कोई निश्चित आंकडा भी उपलब्ध नहीं है जिससे पता चले की कितनीलड़कियां हर साल नेपाल की तराईयों से लाकर मुम्बई में बेच दी जाती हैं? लेकिन गौर सरकारी सूत्रों की अगरमानीं तो जाहिर होता है कि चार से पांच हजार लड़कियों को बहला फुसला कर नेपाल के रस्ते इंडिया के सबसे बड़ीदेह मंडी कमाठीपुरा में बेच दिया जाता है. इसमें चालीस प्रतिशत बहला फुसलाकर, तीस प्रतिशत जबरन जिसमेंउनके घर और नातेदारों की सहमती होती है, और तीस प्रतिशत शौकोशान की खातिर इस दल दल में आती हैं।
भारतीय संस्कृति में सेक्स का स्वरुपभारतीय परम्परा में सेक्स के विषय को लेकर खुली चर्चा करने से परहेज किया जाता रहा है, क्योंकि भारतीय समाज इस पूर्वमान्यता से ग्रसित है कि सेक्स एक ऐसा विषय है जो हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों को आघात पहुंचाता है। वस्तुतः भारतीय समाज सेक्स शब्द को ही पाप, अपराध और गंदगी का सूचक मानता है। यदि कोई दुस्साहस करके इस विषय को स्पष्ट करना या समझना चाहता है तो उन दोनो पर ही कामुक और अश्लील और पापी की मोहर लगा दी जाती है, जबकि हकीकत यह है कि सेक्स विषय न तो संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों पर कुठाराघात करता है और न ही समाज की युवा पीढी की दिशा भ्रमित करता है बल्कि सेक्स से संबंधित ज्ञानवर्द्धक विचार-विमर्श और सेक्स शिक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को सुदृढ करने के साथ ही भावी पीढी को नई दिशा प्रदान करते हुए उन्हें अनुचित यौन आचरण करने से रोक सकता है। अतः सेक्स के संबंध में समाज की उक्त पर्वमान्यता पूर्णतया निर्दोष नहीं है, क्योंकि हमारी संस्कृति में यौन व्यहवार को कभी भी अनुचित नहीं ठहराया गया, बल्कि हमारी संस्कृति में यह पूर्ण स्पष्ट है कि व्यक्ति के सर्वागीण विकास में यौन का विशेष महत्त्व है और उसके बिना किसी समग्र व्यक्तित्व की कल्पना निरर्थक साबित होती है। अतः सेक्स शिक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का हृास करने के बजाय उन्हें पुनजीवित करती है जिसकी हम भौतिक और पाश्चात्य सभयता के अंधानुकरण के प्रयास में भूलते जा रहे है। सेक्स या कामेच्छा को पश्चिमी सभ्यता ने अतिमहत्त्व दिया है तो हमारी संस्कृति में भी सेक्स पर अनुचित दबाव नही डाला गया । भारतीय संस्कृति में सेक्स को अनुचित माना गया है। यह संस्कृति विश्लेषण का एकपक्षीय निष्कर्ष है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति की यह मान्यता है कि यौन संबंधों को केवल आवेग के शमन या शारीरिक आकर्षण तक सीमित कर देना मानवत्व की अवमानना है। किसी भी प्रकार की वेश्यावृति और बलात्कार अनैतिक है। किसी के आर्थिक हालात सामाजिक दीनता या शारीरिक कमजोरी का फायदा उठाकर अपनी यौनेच्छा पूरी करना एक प्रकार का शोषण है जो पशुता और मानसिक विकृति का परिचायक है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में सेक्स का विस्तृत स्वरूप अस्वीकृत किया जाता है। पाश्वात्य-सभ्यता जहां सेक्स के पाशविक स्वरूप को ही महत्त्व देते हुए सेक्स को केवल आवेग शमन के जरिए के रूप में जानती हैं वहीं भारतीय विचारधारा की सदैव से ही यह धारणा रही है कि यौन - आचरण केवल दैहिक आवश्यकता पूर्ण करने वाली कि्रया - मात्र बनकर न रहे बल्कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का सृजनात्मक विकास भी करें। पाशविक जीवन और मानव जीवन में मौलिक अन्तर यही है कि पशु जहां सदैव आवेग द्वारा संचालित होते है, वहीं मानव उन आवेगों में भी सौन्दर्यबोध और मूल्यबोध को ढूंढ लेता है, क्योंकि यह सर्जनात्मक सोच ही है जो मनुष्य को जानवर से पृथक करके उसे चेतनाशील मनुष्य होने का सम्मान प्रदान करती है। अतः भारतीय संस्कृति में सेक्स विकृत स्वरूप को अनुचित ठहराने का यह तात्पर्य लगाना कि यौनवृति ही पूर्णतया अनुचित है सर्वथा गलत निष्कर्ष है, क्योंकि भारतीय संस्कृति और दर्शन में सेक्स को एक पृथक मूल्य पृथक मूल्य के रूप में स्वीकार करके यह सिद्व किया गया है कि यहां मानव की काम - वासनाओं की स्वाभाविक वृति को दमित नहीं किया गया बल्कि सेक्स के द्वारा व्यक्ति के व्यवहारिक जीवन मूल्यों की प्राप्ति के साथ साथ पारमार्थिक मूल्य (मोक्ष) की प्राप्ति में भी सेक्स एक सकि्रय सहायक की भूमिका अदा करता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि जहां तक सांस्कृतिक मूल्यों का सवाल है तो सेक्स को भी यहां प्रथक मूल्य का सवाल है तो सेक्स को भी यहां प्रथक मूल्य का मान प्राप्त है जिसे मानव जीवन में अनावश्यक मानने के साथ ही परम मूल्य मोक्ष के सहायतार्थ रूप में भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। भारतीय दार्शनिक और सांस्कृतिक मूल्यों में सिद्वान्त पुरूषार्थचतुष्ट के चारों पुरूषार्थो-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में मोक्ष साध्य मूल्य है और धर्म, अर्थ के साथ साथ काम को भी साघन मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है। इस प्रकार भारतीय दार्शनिक दृष्टि से भोग और मोक्ष अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों को ही मानव जीवन के लिए आवश्यक माना गया है। वास्तव में देखा जाय तो भारतीय दार्शनिक विचारधारा में अन्य तीन पुरूषार्थ मानव जीवन के लिए आवश्यक है, लेकिन काम पुरूषार्थ मानव जाति के अस्तित्व के बिना इसके मनुष्य जाति का अस्तित्व ही नहीं रहता और मानव अस्तित्व के बिना जीवन में मानव मूल्यो की कल्पना नहीं की जा सकती है। इसीलिए भारतीय संस्कृति की यह मान्यता है कि पितृ-ऋृण की मुक्ति के लिए काम को मानना आवश्यक है, क्योंकि पितृ- ऋृण से मुक्ति सन्तानोत्पति द्वारा वंश परम्परा को कायम रखने से ही मिल जाती है जो काम पुरूषार्थ द्वारा ही संभव है। इसलिए भारतीय दर्शन में चार आश्रमों के अन्तर्गत गृहस्थाश्रम में रहकर ही मनुष्य काम पुरूषार्थ द्वारा वंश वृद्धि करके पितृ ऋृण से मुक्त होकर मानवीय अस्तित्व को संरक्षित करता है। काम पुरूषार्थ को स्वीकार करने के पीछे उपरोक्त नैतिक आधार के साथ साथ मनोवैज्ञानिक आधार यह है कि काम तृप्ति के बिना मनुष्य के अनैतिक होने का खतरा रहता है, क्योंकि मानवीय प्रकृति ही कुछ ऐसी होती है कि जिस प्रकार वह भोजन, वस्त्र, और आवास के बिना नहीं रह सकता उसी प्रकार काम तृप्ति के बिना भी वह नहीं रह सकता, लेकिन जैसा की फ्रायड ने माना है कि यह काम शक्ति इतनी अधिक है कि उसे आसानी से वश में नहीं किया जा सकता। इसीलिए कामसूत्र के रचियता वात्स्यायन का मानना है कि यदि मनुष्य अपनी कामात्मक भावना को कलाओं में लगा दे तो उसकी कामात्मक भावना की संतुष्टि होने के साथ ही उसकी कामात्मक भावना की संतुष्टि होने के साथ ही उसका सृजनात्मक विकास भी हो जाता है। इस प्रकार सेक्स को सांस्कृतिक मूल्यों में स्थान देकर भारतीय नीति में स्वतंत्रता को तो स्वीकृति प्रदान की गयी है परन्तु ’स्वेच्छाविहार‘ को नहीं । सेक्स स्वतंत्रता इस रूप में मान्य है कि यह व्यवहारिक जीवन को सुचारू रूप से संचालित करता है इस प्रकार स्वेट्जर और हेलर जैसे पाश्चात्य दार्शनिकों की यह धारणा धूमिल प्रतीत होती है कि भारतीय दर्शन व्यवहारिक जीवन से पलायन का निर्देश कर केवल परमार्थ को ही परमश्रेयस मानते हुए संन्यास और वैराग्य का ही पाठ पढाता है, लेकिन संस्कृति का यह निष्कर्ष निकालते समय पाश्चात्य विद्वान यह भूल जाते है कि भारतीय संस्कृति के आधार भूत ग्रंथ उपनिषदों में संन्यास को अनिवार्य नहीं माना गया । उनकी दृष्टि से एक गृहस्थी भी मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ऐसे अनेक प्राचीन ऋृषियों के उदाहरण मिलते हैं जो सन्यासी नहीं गृहस्थी थे। जैसे याज्ञवल्क्य, उद्दालक, श्वेतकेतु, जनक, अश्वपति, अजातशत्रु और प्रवाहरण आदि गृहस्थ और राजकार्य में संलग्न थे। वे गृहत्यागी सन्यासी नहीं थे। बल्कि गृहस्थ जीवन जीते हुए भी इन्होनें सहज बोध और अनुभाव के द्वारा अनेक नैतिक मूल्यों का साक्षात्कार किया । इस प्रकार स्पष्ट है कि यद्यपि मोक्ष यहां मानव-जीवन का परम श्रेयस है तथापित व्यवहारिक जीवन का परम श्रेयस है तथापित व्यवहारिक जीवन यहां उपेक्षित रहा हो ऐसा नहीं है, क्योंकि व्यवहारिक जीवन को भारतीय संस्कृति ने सदैव महत्व दिया है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि सोलह संस्कारों में विवाह संस्कार और गर्भाधाना संस्कार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है और ये दोनों संस्कार सेक्स के महत्त्व को उजागर करते है। इस प्रकार काम को एक मानव मूल्य और संस्कार के रूप में स्वीकार करके भारतीय संस्कृति ने यह सिद्व कर दिया है कि हमारे यहां व्यवहारिक जीवन का कभी निषेध नहीं किया जाता साथ ही केवल व्यवहारिक जीवन में खोकर अपने आत्म-अस्तित्व को खोने का निर्देश भी नही किया जाता बल्कि व्यवहार से परमार्थ प्राप्ति का पथ बताने वाली पथ प्रदर्शक की योग्यता रखने वाली संस्कृति का नाम है-भारतीय संस्कृति। अतः स्पष्ट है कि सेक्स स्वयं जो सांस्कृतिक मूल्यों में परिगणित है वह सांस्कृतिक मूल्यों की अवनति कैसे कर सकता है। तात्पर्य यह कि सेक्स संस्कृति को तोडने वाला औजार नहीं बल्कि जोडने वाला सेतु है। यहां यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि भारतीय संस्कृति में प्राण कहे जाने वाले उपनिषद् भी कामेच्छा के महत्व स्वीकार करके यह सिद्ध करते करते है कि सृष्टि-सर्जना करने वाली प्रभु इच्छा भी कामेच्छा द्वारा ही कि्रयांवित होती है, क्योंकि उपनिषेदेां के कुछ अवतरणों से ऐसा स्पष्ट होता है कि यह सम्पूर्ण सृष्टि काम पुरूषार्थ द्वारा सृजित होती हैं। इसको स्पष्ट करते हुए उपनिषदों में बताया गया है कि सर्वप्रथम ब्रह्म अकेला था, इसलिए उसका मन नहीं लगा। उसने दुसरे की इच्छा की और अपने ही शरीर को दो टुकडो में आपातयत पटक दिया । पटकने के लिए पत शब्द का प्रयोग किया गया है, उसी से पति और पत्नी बने । अब इस पुरूष तत्व और स्त्री तत्व का मेल हुआ और उससे मनुष्य जाति का निर्माण हुआ। अब स्त्री तत्व ने सोचा मुझे अपने शरीर में से ही उत्पन्न करके यहा पुरूष मेरे साथ संभोग करता है, हाय मैं छिप जाऊं। वह लज्जा से छिपकर गौ बन गई, पुरूष तत्व ने वृषभ बनकर उसके साथ संयोग किया जिससे गो जाति का निर्माण हुआ। अब स्त्री तत्व लज्जा में छिपकर कभी घोडी बनी, कभी गर्दभी और कभी बकरी बनी। पुरूष तत्व की तो चूंकि सृष्टि रचनी थी इसलिए वह भी इनके विपरीत लिंग धारण करके संयोग करता गया और इस प्रकार चिउंटी-पर्यन्त जितने भी संसार के जोडे है उन्हें उस प्रथम पुरूष तत्व और स्त्री तत्व ने संभोग करके पैदा किया (वृहदारणय उपनिषद् १/२/३/४) यहां सेक्स के समष्टिगत-स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। इसी प्रकार सेक्स के व्यष्टिगत-स्वरूप को भी उपनिषेदों में स्पष्ट किया गया है। व्यक्ति के वैवाहिक जीवन से संबंध रखने वाला यौन-कर्म सेक्स का व्यष्टिगत स्वरूप है। वैवाहिक जीवन में सेक्स के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए उपनिषेदों में बताया गया है कि - जिस प्रकार महाभूतों का रस पृथ्वी है, उसी प्रकार पुरूष का रस वीर्य है, इसलिए प्रजापति ने ईक्षण किया कि यह वीर्य कितना सामथ्य शाली है, इसे यह पुरूष यों ही न बिगाडे, इसलिए इसकी प्रतिष्ठा बना दूं और उसने स्त्री को रचा। उनका आपस में विवाह होता है। विवाह के अन्तर पत्नि पति को सहयोग न दें तो पति उसे सुन्दर सुन्दर वस्तुएं लाकर दे और उससे कहे कि अपने इन्दि्रय बल से और उससे कहे कि अपने इन्दि्रय बल से और यश से मै तुझे भी यशस्विनी बनाता ह। इस प्रकार पति पत्नी दोनों यशस्विनी हो जाते है। इससे आगे कहा गया है कि अगर पति चाहे कि उसकी पत्नी सन्तानोपति करे, तो उसके साथ अपनी कामेच्छा आौर वाणी का सम् गर्भदान कर-दोनो के एक रूप होने से स्त्री गर्भवती हो जाती है। (वृहदारण्यक उपनिषद ६/४/१,२) लेकिन ऐसा भी नहीं है कि रति कि्रया केवल सन्तान प्राप्ति के जरिये के रूप में ही मान्य ,क्योंकि उपनिषदों में स्पष्ट शब्दों में आया है कि यदि पति पत्नी किसी कारणवश गर्भधान नहीं करना चाहते है ता उसके लिए यौन कर्म करते समय इस मंत्र का जाप करें ’इन्द्रेयेण ते रेतसा रेत आददे (बृहदारण्यक उपनिषद्)‘ ऐसा करने पर पत्नी गर्भवती नहीं होती है। इस प्रकार वर्तमान में पाश्चात्य संस्कृति ने गर्भ निरोध के लिए अनेक तामसिक उपाय बताए गऐ हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति में केवल एक मंत्र के जाप मात्र से ही गर्भनिरोध संभव हो जाता है। आवश्यकता है तो संस्कृति के उस स्वरूप से परिचय करवाने की जिस पर सदैव पर्दा रखा जाता है। इस प्रकार यहां औपनिषिदीक दृष्टि से सेक्स के स्वरूप और महत्व को स्पष्ट किया गया है। वस्तुतः काम को मानव मूल्य के रूप में प्रतिस्थामित करने वाले ऋृषि शायद आज के मनोवैज्ञानिकों से अधिक सजग थे, क्योंकि काम को मानव मूल्य के रूप में स्वीकार करने का उपनिषदीय मनोवैज्ञानिक आधार यही है कि मनुष्य मानवता और पशुता का समिश्रिण है और जब तक उसकी पाशविक वृति की तुष्टि नहीं हो जाती तब तक उसके मनतत्व को नहीं उभारा जा सकता। इसलिए काम को जीवन में अनिवार्य रूप से शामिल किया है, क्योंकि यौन तृप्ति के बिना मनुष्य खालीपन की अनुभूति करता है और इस खालीपन की भरने के लिए वह नैतिकता की सीमा लांघ सकता हैं। इसलिए शायद काम स्वयं तृतीय पुरूषार्थ के रूप में नैतिक मूल्यों में शामिल किया गया है। लेकिन इसका तात्पर्य यह कतई नहीं कि मनुष्य अपने यन आचरण के औचित्य-अनौचित्य पर कोई विचार न करें अथवा हर प्रकार की यौन प्रवृति को उचित समझे। वस्तुतः सेक्स अपने सुकृत स्वरूप मेंही भारतीय संस्कृति और दर्शन म मान्य रहा है। उसका विकृत स्वरूप, यहां सदैव से ही अस्वीकार्य रहा है। सेक्स अपने सुकृत-स्वरूप में सत्य , शिव और सुन्दर हैं। अपने इस सत्य , शिव और सुन्दर स्वरूप में सेक्स एक पवित्र यज्ञ है। सेक्स को एक पवित्र यज्ञ के रूप में प्रतिस्थापित करते हुए वृहदारण्यक उपनिषद (६/४/३) में स्पष्ट शब्दों में आया है कि पुरूष एक पत्नी वृत का पालन करते हुए यौन कि्रया केा एक पवित्र यज्ञ के समान समझ कर सम्पन्न करें । इसीलिए भारतीय संस्कृति में यह गृहस्थी का यह आचार धर्म है कि पति अपनी पत्नी से यौन कर्म करते समय अपने मस्तिष्क में यह विचार रखे कि यह एक यज्ञ कर्म के समान है जिसमें पत्नी का जनन स्थान ही यज्ञ की वेदी है, उसकी इस वेदी रूपी जनन स्थान के बाह्म लोम यज्ञ में बिछाने वाले मृग चर्म है और जिस प्रकार यज्ञ कर्म में स्त्रुवा द्वारा घृत है, उसी प्रकार मैथुन-कर्म में पुरूष का लिंग ही स्त्रुवा है जिसके द्वारा स्त्री वेदी रूपी जननी स्थान के अन्दर शुक्र की हवि दी जाती है। इन यौन रूपी पवित्र यज्ञ का फल सन्तान के रूप में मनुष्य को प्राप्त होता है, क्योंकि यज्ञ का कोई न कोई फल सन्तान के रूप में मनुष्य को प्राप्त होता है, क्योंकि यज्ञ का कोई न कोई फल अवश्य मिलता है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में सेक्स को कभी वर्जित नहीं माना गया बल्कि उसको एक पवित्र यज्ञ के समान सम्पन्न करने की शिक्षा प्रदान की जाती है। सेक्स अपने इस शुद्व स्वरूप में ही हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित रखते हुए उन्हें पुनजीवित करने कि क्षमता रखता है। वर्तमान में हमारे समाज का एक बहुत छोटा हिस्सा ही उपरोक्त शास्त्रीय सेक्स से परिचित है। शास्त्रीय अर्थात हमारी संस्कृति के पवित्र शास्त्रों में उल्लेखित मैथुन कर्म। लेकिन समाज का एक बहुत बडा भाग संस्कृति के इस स्वरूप से अपरिचित है और साथ ही वह एक प्रकार के मनोरोग से भी ग्रसित है जिसमें वे यह सोचते है कि हमारे सांस्कृतिक मूल्य और संस्कृति सेक्स के प्रति हेय दृष्टि रखते हैं क्योंकि हमारी संस्कृति में सेक्स के जिस विकृत स्वरूप को वर्जित माना गया है उसका तो हमारे यहां संस्कृति के तथाकथित रखवालों ने खुलकर प्रचार प्रासार किया लेकिन भारतीय संस्कृति में सेक्स का जो शास्त्रीय स्वरूप पूज्य मानाा जाता है उसको मौन रखा गया। जिसका भंयकर और विनाशकारी परिणाम यह है कि आज समाज का एक बहुत बडा भाग यौन रोगों से ग्रसित है। कहने का तात्पर्य यह है कि मैथुन विज्ञान के जिस विकृत स्वरूप को प्राचीन ऋृषियों ने हेय और निकृष्ट बताया है उसको तो हमारे यहां सदैव प्रवचनों के जरिए समाज के समक्ष समय समय पर प्रस्तुत किया जाता रहा है लेकिन सेक्स के सुकृत स्वरूप का ज्ञान व्यक्ति के लिए अनिवार्य माना गया, इसका जिक्र बहुत कम किया जाता है। इसका कारण शायद ज्ञान की कमी हो सकता है, क्योंकि भारतीय विचारधारा में ऐसा स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि काम के विषय से घृणा नहीं करनी चाहिए। अरूण के पुत्र विद्वान उद्दालक और नाक मौद्रल्य तथा कुमारहरीत ऋृषियों ने यहां तक कहा है कि ऐसे व्यक्ति जो निरिन्दि्रय , सुकृतहीन, मैथुन-विज्ञान से अपरिचत होकर भी मैथुन कर्म में आसक्त होते है, उनकी परलोक में दुर्गति होती है। स्पष्ट है कि यौन के विकृत स्वरूप का अनुसरण करना पाप का सूचक है, लेकिन इसके शास्त्रीय स्वरूप से अपरिचित होना इससे भी बडा पाप है, क्योंकि जो सुकृत सेक्स से अपरिचित है वही विकृत सेक्स का अनुसरण करता है । इसलिए भारतीय दृष्टि से सेक्स अपने शास्त्रीय स्वरूप मे एक यज्ञ कर्म के समान पवित्र कि्रया है लेकिन पति यदि अपनी पत्नी को एक यज्ञ के समान नहीं समझता उसे केवल भोग्य वस्तु रूप जानकर उसका उपभोग करता है तो यह अवश्य ही अपनी पत्नी का यौन शोषण है जो अनैतिकता है शायद इसीलिए बर्नाड शॉ जैसे विचारकों ने शादी को जीवन पर्यन्तु कानून सम्मत वेश्यावृति की संज्ञा दी है क्योंकि वेश्यालय में पुरूष एक रात के लिए किसी स्त्री से संभोग का अधिकार खरीदता है लेकिन अपनी धर्म पत्नी से यह हम वह आजीवन के लिए एक साथ खरीद लेता है। पत्नी को धर्म पत्नी तो कहे लेकिन यदि धर्मानुसार यौन कर्म न करें तो यह पाप है । इसलिए भारतीय विचारधारा में सेक्स को सांस्कृतिक मूल्य स्वीकारते हुए उसे यज्ञ के समाना पवित्र कर्म माना है। निष्कर्षतः यह कहा जाता है कि भारतीय विचारधारा में सेक्स के जिस शुद्व स्वरूप को पूजनीय और पवित्र यज्ञ माना गया है। जब तक सेक्स का यह शास्त्रीय स्वरूप समाज के समक्ष खृलकर प्रस्तुत नहीं किया जाएगा तब तक सडक पर पूंछ उठाए मादा के पीछे पीछे भागते और जबरन बल प्रयोग द्वारा मैथुन करते कुत्ते, बकरे और सांड तथा फुटपाथ पर बिकने वाला निम्न कोटि का अश्लील साहित्य ही समाज में सेक्स को समझाने वाले एकमात्र शिक्षक होंगे। सेक्स का यह पाशविक स्वरूप ही युवा पीढी की आंखो के सामने, जाने अनजाने बार बार गुजरता है और उनके मासूम मस्तिष्क पर अंकित जाता है। वे इसे ही सेक्स का शुद्व और सही रूप समझने को बाध्य हो जाते है। इसका भयंकर और विनाशकारी परिणाम यह होता है कि विवाहोपरान्त उनका सेक्स जीवन पाश्विक वृति का बन कर रह जाता है। जिसमें आनन्द मिलने की बजाय पीडा मिलती है। सही जानकारी के अभाव में उनके जीवन में जहर घुल जाता है। लेकिन यदि हमारी संस्कृति में बताए गए सेक्स के शुद्व स्वरूप की शिक्षा प्रदान की जाए तो पीढी का वैवाहिक जीवन अमृतमय बन सकता है। अतः संस्कृति के शास्त्रीय सेक्स की अनुभूति इस धरती पर ही स्वार्गीयनुभूति प्रदान करने वाली साबित होती है।