शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

लेख

अमेरिका व मुस्लिम जगत के मध्य संदेह

अब्दुल्ला
इस्लाम व ईसाईयत के मध्य सभ्यताओं के संघर्ष की जो अवधारणा गत् कई दशकों से दुनिया में महसूस की जाने लगी थी तथा कुछ लेखकों, चिंतकों तथा विशेषज्ञों द्वारा बार-बार यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जा रहा था, ऐसी सभी निरर्थक कही जा सकने वाली अवधारणाओं पर तो दरअसल तभी विराम लग गया था जबकि अमेरिकी जनता ने एक अफ्रीकी अमेरिकी मुस्लिम मूल के व्यक्ति बराक हुसैन ओबामा को अपना राष्ट्रपति चुन लिया था। इसमें कोई शक नहीं कि अमेरिका व मुस्लिम जगत के मध्य संदेह व नफरत की खाई और गहरी होने का श्रेय जहां अनेक अमेरिकी नीतियों को जाता है, वहीं इस्लाम तथा जेहाद के नाम पर दुनिया में आतंक फैलाने वाले लोग भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। परन्तु इसके बावजूद यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि इस्लाम व ईसाईयत के मध्य संदेह के जिस बीज को अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश प्रथम ने रोपा था, उसका भरपूर पोषण जॉर्ज बुश द्वितीय के दोहरे शासनकाल में बखूबी किया गया। 9/11 के बाद जॉर्ज बुश के नेतृत्व में उठाए जाने वाले अहंकारपूर्ण एवं प्रतिशोधात्मक कदमों से तो एक बार पूरी दुनिया को यह महसूस भी होने लगा था कि दुनिया का एक बडा भाग वास्तव में इस समय सभ्यता के संघर्ष से रू-ब-रू है। परन्तु हकीकत यह है कि ऐसा विश्ा*ेषण, ऐसी अवधारणा तथा इस प्रकार की कयास आराइयां सब कुछ बेबुनियाद थीं।

पिछले दिनों मिस्र की राजधानी काहिरा में काहिरा विश्वविद्यालय में मुस्लिम जगत को संबोधित करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अस्सलाम-अलेकुम कहकर जब अपने भाषण की शुरुआत की तो पूरा मुस्लिम जगत भाव विह्वल हो उठा। अपने पूरे भाषण में ओबामा ने इजराईल-फिलिस्तीन, इराक, अफगानिस्तान, ईरान जैसे विवादित राजनैतिक मुद्दों पर जहां संक्षेप में रौशनी डाली तथा इन विषयों पर अमेरिकी पक्ष रखने के साथ-साथ इनके हल के लिए मुस्लिम जगत से सहयोग देने की अपील की, वहीं अपने भाषण के दौरान कुरान शरीफ की आयतों का प्रयोग कर ओबामा ने यह साबित करने की भी भरपूर कोशिश की कि अमेरिका व ईसाईयत सभी इस्लाम का आदर करते हैं तथा इस्लाम को एक सहिष्णुशील धर्म के रूप में स्वीकार करते हैं। काहिरा पहुंचने से पूर्व राष्ट्रपति ओबामा सऊदी अरब गए तथा वहां शेख अबदुल्ला से गले मिलकर मुस्लिम जगत की ओर दोस्ती का हाथ बढाने की शुरुआत की।
हालांकि दुनिया में ओबामा की विश्व शांति स्थापित करने की इन कोशिशों की कुछ लोग आलोचना भी कर रहे हैं। परन्तु वास्तव में दुनिया के अमन पसंद देशों ने तथा शांतिप्रिय नेताओं ने ओबामा द्वारा शांति की दिशा में उठाए जाने वाले इस कदम का स्वागत भी किया है। आलोचना का पहला स्वर तो अमेरिका में ही ओबामा के राजनैतिक विरोधियों के हवाले से सुनने को मिला। कुछ ओबामा विरोधियों का कहना था कि काहिरा में दिए गए राष्ट्रपति के भाषण से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कि वे पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की नीतियों के लिए माफी मांग रहे हों। जबकि वास्तव में अपने भाषण के माध्यम से ओबामा दुनिया को यह संदेश देना चाहते थे कि अमेरिका इस्लाम व इस्लामी दुनिया का दुश्मन नहीं है। उन्होंने अपने पूरे भाषण के दौरान अमेरिका व मुस्लिम देशों के मध्य दशकों से चले आ रहे सन्देहों व मतभेदों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने अपने सम्बोधन में हालांकि यह स्वीकार किया कि दोनों पक्षों के मध्य काफी लंबे समय से अविश्वास का ही माहौल रहा है। परन्तु भविष्य के लिए उनका कहना था कि अब अमेरिका व इस्लामी जगत दोनों पक्षों को ही एक दूसरे का आदर व सम्मान करने के साथ-साथ आपसी समझ विकसित करने के निरंतर प्रयास करने चाहिए। ओबामा ने इसीलिए अपने सम्बोधन के आरम्भ में ही स्पष्ट रूप से यह कहा कि- ‘मैं यहां अमेरिका तथा मुस्लिम देशों के मध्य नई शुरुआत करने आया हूं। जो आपसी हितों व एक दूसरे के सम्मान पर आधारित होगी।’

दरअसल मुस्लिम जगत विशेषकर अरब देशों व अमेरिका के मध्य संदेह व नफरत की बुनियाद अमेरिका द्वारा इजराईल को आंख मूंद कर दिए जाने वाले समर्थन को लेकर पडी थी। यह संदेह विश्वास की दिशा में तब चल पडा जबकि सत्तर के दशक में अमेरिका द्वारा ईरान-इराक युद्घ के दौरान इराक को समर्थन देकर इन दो बडे मुस्लिम देशों को कमजोर करने का काम शुरु किया गया। उसके पश्चात अफगानिस्तान में सोवियत संघ की फौजों पर लगाम लगाने हेतु अमेरिका ने तालिबान जैसी हिंसा व अमानवीय विचारों को धारण करने वाली संस्था को अपना समर्थन दिया। तत्पश्चात 199॰ में सद्दाम हुसैन द्वारा कुवैत पर अवैध कब्जा जमाने के बाद जिस प्रकार सुनियोजित षड्यन्त्र के रूप में अमेरिका ने कुवैत की धरती पर अपने पांव जमाए तथा वहां अपनी सैन्य छावनी स्थापित की, वह भी मुस्लिम जगत के गले से नहीं उतरा। उधर ईरान में आई इस्लामी क्रांति के पश्चात ईरान में पैदा हुए अमेरिका विरोधी वातावरण ने मुस्लिम जगत में अमेरिका को काफी रुसवा किया। रही सही कसर 9/11 को अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमले के बाद अमेरिका विशेषकर तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश द्वारा अफगानिस्तान व इराक में की गई सैन्य कार्रवाईयों के बाद पूरी हो गई। इराक व अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य हस्ताक्षेप के पश्चात मारे गए लाखों आम नागरिकों की मौत ने तथा खंडहर का रूप ले चुके इन दोनों देशों के बिगडे भूगोल ने तो गोया अमेरिका व इस्लामी देशों के मध्य नफरत व संदेह के साथ-साथ सभ्यता के संघर्ष का प्रमाणपत्र ही जारी कर दिया।
निश्चित रूप से ओबामा ने काहिरा विश्वविद्यालय में दिए गए अपने भाषण में ठीक ही स्वीकार किया है कि वर्षों से चला आ रहा अविश्वास केवल मेरे भाषण मात्र से समाप्त नहीं हो सकता। परन्तु उन्होंने इस बात पर पूरा जोर दिया कि दुनिया में अमन लाने की खातिर संदेह विवाद तथा मतभेदों का यह सिलसिला अब खत्म भी हो जाना चाहिए। ओबामा ने इजराईल को यह सलाह दी कि उसे फिलिस्तीन के अस्तित्व को स्वीकार करना चाहिए तथा पश्चिमी तट पर निर्माणाधीन इजराईली बस्तियों के निर्माण पर रोक लगाने की भी उन्होंने हिदायत दी। ओबामा ने मुस्लिम जगत को यह विश्वास दिलाया कि इराक की प्रत्येक सम्पदा इराकवासियों की ही है तथा अमेरिका का उस पर अधिकार जमाने का कोई इरादा नहीं है। उन्होंने पुनः दोहराया कि अमेरिकी सेना अपनी निर्धारित समय सीमा 2॰12 तक इराक को इराकवासियों के हवाले कर वापस लौट जाएगी। हां अफगनिस्तान के विषय में ओबामा ने यह जरूर कहा कि हम वहां से भी अपने सभी सैनिक खुशी-खुशी वापस बुला लेंगे यदि उन्हें यह विश्वास हो जाए कि अफगानिस्तान व पाकिस्तान में अब उस प्रकार के हिंसक चरमपंथी नहीं बाकी रह गए हैं जोकि अधिक से अधिक अमेरिकी लोगों को मारना चाहते हैं। ईरान के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम पर भी ओबामा ने स्पष्ट किया कि हालांकि किसी भी देश को यह अधिकार नहीं है कि वह यह निर्धारित करे कि किस देश के पास परमाणु हथियार होने चाहिए। परन्तु उन्होंने यह भी साफ किया कि मध्य पूर्व में परमाणु हथियारों की होड नहीं होनी चहिए
ओबामा के मुस्लिम जगत को किए गए सम्बोधन को लेकर आलोचना के कितने ही स्वर क्यों न बुलंद हो रहे हों परन्तु वास्तव में दुनिया का अमन पसंद आम मुसलमान चाहे वह किसी भी देश का नागरिक क्यों न हो, ओबामा के इन सकारात्मक प्रयासों से न केवल खुश है बल्कि आशान्वित भी है। अब यह मुस्लिम देशों का दायित्व है कि वे ओबामा द्वारा बढाए गए शांति व अमन के हाथों को संदेह का हाथ समझने के बजाए विश्वास का हाथ समझें तथा दुनिया के जिन-जिन इस्लामी देशों में हिंसा फैलाने वाली चरमपंथी शक्तियां संगठित हैं, उनका मुकाबला वह देश स्वयं अपने स्तर पर करें ताकि अमेरिका को दखल देने की जरूरत ही न महसूस हो। हां ओबामा को भी इस दिशा में और रचनात्मक कदम उठाते हुए न केवल उचित व निर्धारित समय पर इराक व अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं वापस बुला लेनी चाहिए बल्कि दुनिया के अन्य तमाम देशों में भी जहां-जहां अमेरिकी सेना अकारण अपना डेरा डाले हुए है, उन सभी अमेरिकी सैन्य ठिकानों को समाप्त कर देना चाहिए। ओबामा यदि सकारात्मक भाषण के साथ-साथ रचनात्मक रूप से भी सकारात्मक कदम उठाते हैं तो वास्तव में इतिहास उन्हें विश्व शांति के एक नए दूत के रूप मे मान्यता प्रदान करेगा।

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