बुधवार, 30 दिसंबर 2009

इस्लाम के प्रति ग्लोबल मीडिया में घृणा


अब्दुल्ला
एडवर्ड सईद ने ''कवरिंग इस्लाम''(1997) में विस्तार से भूमंडलीय माध्यमों की इस्लाम एवं मुसलमान संबंधी प्रस्तुतियों का विश्लेषण किया है।सईद का मानना है कि भूमंडलीय माध्यम ज्यादातर समय इस्लामिक समाज का विवेचन करते समय सिर्फ इस्लाम धर्म पर केन्द्रित कार्यक्रम ही पेश करते हैं।इनमें धर्म और संस्कृति का फ़र्क नजर नहीं आता। भूमंडलीय माध्यमों की प्रस्तुतियों से लगता है कि इस्लामिक समाज में संस्कृति का कहीं पर भी अस्तित्व ही नहीं है।इस्लाम बर्बर धर्म है।इस तरह का दृष्टिकोण पश्चिमी देशों के बारे में नहीं मिलेगा।ब्रिटेन और अमरीका के बारे में यह नहीं कहा जाता कि ये ईसाई देश हैं।इनके समाज को ईसाई समाज नहीं कहा जाता।जबकि इन दोनों देशों की अधिकांश जनता ईसाई मतानुयायी है।
भूमंडलीय माध्यम निरंतर यह प्रचार करते रहते हैं कि इस्लाम धर्म ,पश्चिम का विरोधी है।ईसाईयत का विरोधी है।अमरीका का विरोधी है।सभी मुसलमान पश्चिम के विचारों से घृणा करते हैं।सच्चाई इसके विपरीत है।मध्य-पूर्व के देशों का अमरीका विरोध बुनियादी तौर पर अमरीका-इजरायल की विस्तारवादी एवं आतंकवादी मध्य-पूर्व नीति के गर्भ से उपजा है।अमरीका के विरोध के राजनीतिक कारण हैं न कि धार्मिक कारण।
एडवर्ड सईद का मानना है कि 'इस्लामिक जगत' जैसी कोटि निर्मित नहीं की जा सकती।मध्य-पूर्व के देशों की सार्वभौम राष्ट्र के रुप में पहचान है।प्रत्येक राष्ट्र की समस्याएं और प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं।यहाँ तक कि जातीय ,सांस्कृतिक और भाषायी परंपराएं अलग-अलग हैं।अत: सिर्फ इस्लाम का मतानुयायी होने के कारण इन्हें 'इस्लामिक जगत' जैसी किसी कोटि में 'पश्चिमी जगत' की तर्ज पर वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण देखें तो पाएंगे कि भूमंडलीय माध्यमों का मध्य-पूर्व एवं मुस्लिम जगत की खबरों की ओर सन् 1960 के बाद ध्यान गया।इसी दौर में अरब-इजरायल संघर्ष शुरु हुआ।अमरीकी हितों को खतरा पैदा हुआ।तेल उत्पादक देशों के संगठन'ओपेक' ने कवश्व राजनीति में अपनी विशिष्ट पहचान बनानी शुरु की।तेल उत्पादक देश अपनी ताकत का एहसास कराना चाहते थे वहीं पर दूसरी ओर विश्व स्तर पर तेल संकट पैदा हुआ।ऐसी स्थिति में अमरीका का मध्य-पूर्व में हस्तक्षेप शुरु हुआ।अमरीकी हस्तक्षेप की वैधता बनाए रखने और मध्य-पूर्व के संकट को 'सतत संकट' के रुप में यहीबनाए रखने के उद्देश्य से भूमंडलीय माध्यमों का इस्तेमाल किया गया।यही वह दौर है जब भूमंडलीय माध्यमों से इस्लाम धर्म और मुसलमानों के खिलाफ घृणा भरा प्रचार अभियान शुरु किया गया।माध्यमों से यह स्थापित करने की कोशिश की गई कि मध्य-पूर्व के संकट के जनक मुसलमान हैं।जबकि सच्चाई यह है कि मध्य-पूर्व का संकट इजरायल की विस्तारवादी-आतंकवादी गतिविधियों एवं अमरीका की मध्य-पूर्व नीति का परिणाम है।इसे भूमंडलीय माध्यमों द्वारा इस्लाम एवं मुसलमान विरोधी प्रचार अभियान का प्रथम चरण कहा जा सकता है।इसी दौर में अमरीकी एवं इजरायली इस्लामवेत्ताओं के इस्लाम संबंधी दर्जनों महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित हुए।जिनमें इस्लाम एव मुसलमानों के बारे में बेसिर-पैर की बातें लिखी हैं। कालान्तर में ये ही पुस्तकें इस्लाम विरोधी प्रचार अभियान का हिस्सा बन गयी।इन पुस्तकों के अधिकांश लेखक अरबी भाषा नहीं जानते थे और न कभी अरब देशों को उन्हें करीब से जानने का मौका मिला।ऐसी तमाम पुस्तकों की एडवर्ड सईद ने अपनी पुस्तक में विस्तृत आलोचना की है।
भूमंडलीय माध्यमों के इस्लाम धर्म विरोधी अभियान का दूसरा चरण 1975से शुरु होता है। इस दौर में 'ईरान क्रांति' और अफगानिस्तान की घटनाओं ने इस मुहिम को और भी तेज कर दिया।सन् 1975 से भूमंडलीय माध्यमों के एजेण्डे पर ईरान आ गया। बाद में 1979 में अफगानिस्तान में कम्युनिस्टों के सत्तारुढ़ होने के बाद सोवियत सैन्य हस्तक्षेप हुआ और भूमंडलीय माध्यमों ने इस्लाम विरोधी मुहिम में एक नया तत्व जोड़ा वह था तत्ववाद और आतंकवाद।अब तेजी से विभिन्न किस्म के सोवियत विरोधी आतंकवादी एवं तत्ववादी गुटों को अमरीकी साम्राज्यवाद की तरफ से खुली आर्थिक,सामरिक,राजनीतिक एवं मीडिया मदद मुहैया करायी गयी।अमरीकी साम्राज्यवाद ने पाकिस्तान के साथ मिलकर मुजाहिदीन सेना का गठन किया। इसके लिए अमरीकी सीनेट ने तीन विलियन डॉलर की आर्थिक मदद भी की। ध्यान देने वाली बात यह है कि सन् 1970 के बाद से अनेक मुस्लिम बहुल देशों में संकट आए किन्तु किसी में भी भूमंडलीय माध्यमों ने रुचि नहीं ली। मसलन इसी दौर में इथोपिया और सोमालिया में गृहयुध्द चल रहा था।अल्जीरिया और मोरक्को में दक्षिणी सहारा को लेकर झगड़ा हो गया।पाकिस्तान में राष्ट्रपति को हटा दिया गया,मुकदमा चलाया गया,फौजी तानाशाही स्थापित हुई।ईरान-ईराक में युध्द छिड़ गया।हम्मास और हिजबुल्ला जैसे संगठनों का उदय हुआ।अल्जीरिया में इस्लामपंथियों एवं प्रतिष्ठाहीन सरकार के बीच गृहयुध्द शुरु हो गया। इन सब घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने और इनकी नियमित रिपोर्टिंग करने में भूमंडलीय माध्यम असमर्थ रहे।
एडवर्ड सईद ने लिखा कि इस दौर में पश्चिम के माध्यम ऐसी सामग्री परोस रहे थे जिसका संकटग्रस्त क्षेत्र की वास्तविकता से कोई संबंध नहीं था।इसके विपरीत यह सामग्री ज्यादा से ज्यादा भ्रम की सृष्टि करती थी। असल में भूमंडलीय माध्यम 'क्लासिकल इस्लाम' की धारणाओं के आधार पर आधुनिकयुगीन घटनाओं और इस्लाम का विश्लेषण करते रहे हैं।इसका अर्थ यह भी है कि पश्चिमी विशेषज्ञों की नजर में इस्लामिक जगत में कोई बदलाव नहीं आया है।सईद ने लिखा कि पश्चिमी जगत की अज्ञानता का आदर्श नमूना था 'ईरान क्रांति' का पूर्वानुमान न कर पाना।
सईद ने लिखा कि पश्चिमी जगत में इस्लाम के बारे में सही ढ़ंग़ से बताने वाले नहीं मिलेंगे।अकादमिक एवं माध्यम जगत में इस्लामिक समाज के बारे में बताने वालों का अभाव है।यही वजह थी कि ईरानी समाज में हो रहे परिवर्तनों को पश्चिमी जगत सही ढ़ंग से देख नहीं पाया।ईरान देशों में ऐसी ताकतें भी हैं जो अमरीकीकरण या आधुनिकीकरण की विरोधी हैं।इनमें कई तरह के ग्रुप हैं।
सत्तर के दशक में ईरान में जो परिवर्तन हुए उससे आधुनिकीकरण की अमरीकी सैध्दान्तिकी धराशायी हो गयी।ईरान की क्रांति न तो कम्युनिस्ट समर्थक थी और न अमरीकी शैली के आधुनिकीकरण की समर्थक थी।ईरान की क्रांति से यह निष्कर्ष निकला कि अमरीकी तर्ज के आधुनिकीकरण से ईरान के शाह को कोई लाभ नहीं पहँचा।अमरीकी विशेषज्ञों की राय थी कि सैन्य-सुरक्षा के आधुनिक तंत्र के जरिए आधुनिक शासन व्यवस्था का निर्माण हो सकता है,इस धारणा का खंडन हुआ।इसके विपरीत हुआ यह कि ईरान क्रांति ने सभी किस्म के पश्चिमी विचारों के प्रति घृणा पैदा कर दी।यहाँ तक कि विवेकवाद को भी खोमैनी समर्थक स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।एडवर्ड सईद ने लिखा कि इस तरह की भावना सुचिंतित एवं सुनियोजित ढ़ंग से पैदा नहीं हुई अपितु स्वत:स्फूर्त्त ढ़ंग से पैदा हुई।इसका प्रधान कारण यह था कि ईरानी लोग इस्लाम से जुड़े थे और इस्लाम ईरान से जुड़ा था।इस संबंध को पागलपन और मूर्खता की हद तक निभाया गया।यह सत्ता का प्रतिगामी ताकतों के सामने आत्मसमर्पण था।किन्तु यह स्थिति सिर्फ ईरान की ही नहीं थी अपितु इजरायल की भी थी।वहाँ पर शासकों ने धार्मिक सत्ता के सामने पूरी तरह आत्मसमर्पण कर दिया।किन्तु इजरायल के घटनाक्रम को माध्यमों ने छिपा लिया और ईरान के खोमैनी समर्थकों पर हल्ला बोल दिया।
ईरान क्रांति के बाद भूमंडलीय माध्यमों ने इस्लामिक जगत की प्रत्येक घटना को इस्लाम से जोड़ा।यही वह संदर्भ है जब आतंकवाद और इस्लाम के अन्त:सम्बन्ध पर जोर दिया गया।इस संबंध के बड़े पैमाने पर स्टारियोटाइप विभिन्न माध्यमों के जरिए प्रचारित किए गए।इसके विपरीत पश्चिमी देशों में होने वाली घटनाओं को कभी भी ईसाइयत से नहीं जोड़ा गया और न 'पश्चिमी सभ्यता' या 'अमरीकी जीवन शैली' से जोड़ा गया।इसी तरह शीतयुध्दीय राजनीति से प्रेरित होकर इस्लाम और भ्रष्टाचार के अन्त:संबंध को खूब उछाला गया।
भूमंडलीय माध्यमों के इस्लाम विरोध की यह पराकाष्ठा है कि जो मुस्लिम राष्ट्र अमरीका समर्थक हैं उन्हें भी ये माध्यम पश्चिमी देशों की जमात में शामिल नहीं करते।यहाँ तक कि ईरान के शाह रजा पहलवी को जो घनघोर कम्युनिस्ट विरोधी था और अमरीकापरस्त था,बुर्जुआ संस्कार एवं जीवन शैली का प्रतीक था,उसे भी पश्चिम ने अपनी जमात में शामिल नहीं किया।इसके विपरीत अरब-इजरायल विवाद में इजरायल को हमेशा पश्चिमी जमात का अंग माना गया और अमरीकी दृष्टिकोण व्यक्त करने वाले राष्ट्र के रुप में प्रस्तुत किया गया।आमतौर पर इजरायल के धार्मिक चरित्र को छिपाया गया।जबकि इजरायल में धार्मिक तत्ववाद की जड़ें अरब देशों से ज्यादा गहरी हैं।इजरायल का धार्मिक तत्ववाद ज्यादा कट्टर और हिंसक है।आमतौर पर लोग यह भूल जाते हैं कि गाजापट्टी के कब्जा किए गए इलाकों में उन्हीं लोगों को बसाया गया जो धार्मिक तौर पर यहूदी कट्टरपंथी हैं।इन कट्टरपंथियों को अरबों की जमीन पर बसाने का काम इजरायल की लेबर सरकार ने किया, जिसका 'धर्मनिरपेक्ष' चरित्र था।इतने बड़े घटनाक्रम के बाद भी भूमंडलीय प्रेस यह प्रचार करता रहा कि मध्य-पूर्व में किसी भी देश में जनतंत्र कहीं है तो सिर्फ इजरायल में है।मध्य-पूर्व में पश्चिमी देश इजरायल की सुरक्षा को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित हैं।अन्य किसी राष्ट्र की सुरक्षा को लेकर वे चिंतित नहीं हैं।अरब देशों की सुरक्षा या फिलिस्तीनियों की सुरक्षा को लेकर उनमें चिंता का अभाव है।इसके विपरीत फिलिस्तीनियों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना के लिए संघर्षरत फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को अमरीका ने आतंकवादी घोषित किया हुआ है।

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

शनिवार, 14 मार्च 2009


बालपन के नखरे












बालपन के नखरे कभी कभी ऐसे होते हैं की उन्हें संजोना होता है ।

दीवानगी


क्या देखते हो सोचो मत जो होना होगा या जो होना होता है वही होता भी है जिसे हम जाने अन्जाने आमंत्रित करते हैं.................
हिंदुस्तान के वलियों में खुदा के एक दीवाने पिया हाजी अली समंदर में अपने रब को याद करते थे उन्हें रब ने प्यार किया था,वे चाहते भी थे और शायद इसी लिए वे दुनिया से बेजार सारी माया और मोह को त्याग कर अपने रब की खुशनूदी की तलाश में गए इस मद मस्त समंदर की लहरों के बीच... कहते है पीर फकीरों को दुनिया के हर जर्रे में दिखता है तो बस खुदा और उसके रसूल की ,जन्नत के बागों की अलबेली खुशबु से मोअत्तर इस पानी की घुंघरू की सुगन्धित आवाज देखो तो सही कितना गुनगुनाती है अपने रब और उसके दीवानों के आस्तानों के नीचे.......।

यह है पिया हाजीअली के रौजे का वह स्तम्भ
यह है मुम्बई के शाहे समंदर पिया हाजीअली का आस्ताने शरीफ ..पिया जी गए इसी समन्दर की अठखेलियाँ करते लहरों के बीच और मगन हो गए यादे खुदा मेंइस समंदर का एक एक कतरा आज भी यहाँ बारे ही गुमान से हमारे सामने इठलाती हैं भले ही हमें नही मालूम मगर ये लहरें जानती हैं की वह खुदा के प्यारे की पाँव को चूम चूम, कर सचमुच गुमान करने के काबिल हैं भी.....

सच

'पत्रकारिता के पापी'' - एक महिला पत्रकार के संस्मरण

एक सुंदर लड़की। एंकर बनने का सपना। थोड़े से संपर्क और ढेर सारा उत्साह। निकल पड़ी। एक प्रदेश की राजधानी पहुंची। वहां उसकी एंकर सहेली वेट कर रही थी। गले मिली। आगे बढ़ी.......... और अगले एक हफ्ते में ही वो सुंदर लड़की पत्रकारिता की काली कोठरी में कैद हो गई। वहशी संपादकों, रिपोर्टरों, कैमरामैनों के जाल में फंस गई। इन लोगों को चाहिए दारू और देह। इसी को पाने के लिए पत्रकारिता की दुकान सजा रखी थी।

उसकी सहेली पहले से उस दलदल में धंसी हुई थी। निकलने की चाहत में और गहरे धंसे जा रही थी। जब वह एक से दो हुईं तो दुखों का साझा हुआ। एक दिन दोनों ने मुक्ति पाने का इरादा किया। गालियां देते, कोसते वहां से निकल भागीं। पहुंच गईं दूसरे प्रदेश की राजधानी। उम्मीद में कि अब सब बेहतर होगा। जो कुछ वीभत्स, भयानक, घृणित था, वो बीता दिन था। वो दिन गए, वो सब भुगत लिया। भूल जाने की कोशिश करने लगीं।

याद करने लगीं अपने सपने। सपनों को सचमुच में तब्दील होते देखने के लिए निकल पड़ीं मैदान में। जो सोच के इस फील्ड में आई थीं, उसे जीने के लिए खुद को तैयार करने लगीं, उसे पाने के लिए प्रयास करने लगीं। पर इन सहेलियों की देह ने यहां भी पीछा नहीं छोड़ा। जिस मीडिया कंपनी में भर्ती हुईं वहां भी था एक चक्रव्यूह। ऐसा चक्रव्यूह जिसे भेदना किसी लड़की के वश में कभी न रहा। ये लड़कियां भी इसमें फंस गईं। पत्रकारिता में सफल बनने के नुस्खे सिखाते हुए यहां के भी संपादक, रिपोर्टर, कैमरामैन इन लड़कियों के लिए काल बन गए। ये तो पहले वालों से भी ज्यादा घृणित, भयानक और वहशी निकले...................।
''...मैंने आपके कार्यालय का पता किसी से लिया है। जो कुछ बीता है, उसे लिखकर कूरियर से भेज रही हूं। मेल के माध्यम से मैं पहले से आपसे मुखातिब थी। आगे भी रहूंगी। दर्द, घाव, टीस और भी हैं। कुछ मेरे हैं। कुछ मेरी सहेली के। कुछ आंखों देखी बातें हैं जो....और .....में देखा। मात्रा की भूल और मेरी गल्तियों को क्षमा करेंगे। मैं अपना फोटो और फोन नंबर नहीं दे सकती। मेल के जरिए संपर्क में रहूंगी। उम्मीद है जो भेजा है, उसे आप जरूर प्रकाशित करेंगे ताकि कोई लड़की फिर इस दलदल में न फंसे....'' ।

बहुत जल्द, भड़ास4मीडिया पर ...''पत्रकारिता के पापी''... यह शीर्षक खुद उस महिला जर्नलिस्ट ने दिपूर्ण समन्वितया है जिसने उजले चेहरों के कालेपन को भुगता है। महिला जर्नलिस्ट ने संस्मरण के कई पार्ट लिखकर भड़ास4मीडिया के पास भेज दिया है। एक पत्र भी भेजा है, जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं--


रविवार, 8 मार्च 2009

प्रशिक्षण की आड़ में धूल धूसरित होता पत्रकारिता का मिशन

-अ.अनूप -
इन दिनों पत्रकारिता प्रशिक्षण केन्द्रों की बाढ़ सी आई हुई है। देश में कई विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता का कोर्स चल रहा है , लेकिन उस के मुकाबले निजी संस्थानों वाले खूब चांदी काट रहे हैं इन निजी पत्रकारिता प्रशिक्षण केन्द्र की आड़ में नौजवान तबकों का इस क्षेत्र में आने का जूनून अन्धकार में धकेलने के अलावा और कुछ नही कर रहा है इन जगहों में पढ़नेवाले हर छात्र केवल टी वी चैनलों पर आने का ख्वाब देखता है खास कर प्रिंट मीडिया में कोई युवा वर्ग जल्दी आना नही चाहता है ख़बर क्या होती है, इससे उनका कोई मतलब नही होता है बल्कि उनका कहना है की एक बाईट लो, थोड़े से विजुअल बनाओ और आख़िर में गर्दन थोड़ी-सी मोड़कर लम्बी-सी पीटूसी करो बस हो गई स्टोरी यह सोच देश में चलने वाले अक्सर संस्थानों में पढ़नेवाले छात्रों की है इसमें उनकी कोई गलती नहीं है दरअसल उन्हें बताया ही कुछ इसी तरह जाता है या यूँ कहें कि उन्हें इसी प्रकार की मानसिकता बनाई जाती है
पत्रकारिता का मतलब विजुअल मीडिया की दस्तक के बाद पूरी तरह से बदल दिया गया है समाज सेवा, त्याग, मिशन और शोषितों की आवाज की जगह चकाचौंध और ग्लेमर ने अपना मुकाम ले लिया है देश में तमाम न्यूज़ चैनलों का बाज़ार चल रहा है इधर यका एक नौजवानों में खास कर नवयुवतियों में पत्रकार बनने का एक ऐसा जूनून देखा जा रहा है पत्रकारों की बढ़ती खपत को देखते हुए कई न्यूज़ चैनलों ने अपने यहाँ ही पत्रकारिता प्रशिक्षण केन्द्र खोल लिया हैं इन में एक साल डिप्लोमा कोर्स की फीस एमबीबीएस की तीन साल के बराबर की फीस बैठती है यानि कि डेढ़ से दो लाख रुपया लेकर चैनलों के मीडिया इंस्टी अपने यहाँ बच्चों को पत्रकार बनने की ट्रेनिंग देते है इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार बंधु माफ़ करना.......
साधारणतः इन स्कूलों की तरफ़ से जो डिप्लोमा छात्रों को थम्हाया जाता है वह किसी भी विश्वविद्यालय की तरफ़ से मान्यता प्राप्त नहीं होता अब अगर इन संसथानों की पढाई की ओर गौर किया जाए तो वहां पढाई के नाम पर जो कुछ बताया जाता है वह कहीं से भी पत्रकारिता के कोर्स के तहत आता ही नहीं साल भर में छात्रों को बता दिया जाता है कि चैनल कैसे कार्य करता हैलगभग पचानवे फीसदी प्राध्यापक भी चैनलों में काम करनेवाले ही होते हैं जो थ्योरी के नाम पर कुछ नहीं बताते केवल अपने अनुभवों को ही बांचते हैं छात्रों को पूरे साल इस बात का इन्तजार रहता है कि कैसे उनका साल ख़त्म हो और कैसे उन्हें कोर्स के पाठ्यक्रम के तहत सम्मिलित करने का मौका मिले एक साल का वक्त कैसे गुजर जाता है , पता ही नही चल पाता है साल भर के बाद जब छात्रों को दो से तीन महीने तक के लिए इटरनशिप करने हेतु मौका दिया जाता हैइस वक्त उन्हें अपना सपना पुरा होने का पर्याप्त भरोसा हो जाता है इस दौरान अधिकतर छात्र टेपों के प्री वीएउ और बाईट लाक करने के काम में ही लगे रह जाते हें अलबत्ता जो छात्र थोड़ा बहुत चतुर से होते हैं वो पैकेज कटवाने के काम में लग जाते हैं इस दौरान उन्हें वी से लेकर फुटेज और रन डाउन से लेकर पी सी आर तक के बारे में पता चल जाताहै। बीच-बीच में छात्र रिपोर्टिंग पर जाने के लिए शिफ्ट इंचार्ज से खुशामद करते हैं लेकिन कोई परिणाम नहीं निकलता है। तीन महीने की इंटर्नशिप के बाद छात्रो को एक डिप्लोमा प्रमाण पत्र थमाकर दफा कर दिया जाता है कि जा और बाहर की दुनियामें अपना मुस्तकबिल को तलाश। नौकरी खोज खोज कर बेचारे थक थका कर सिवाए पश्चात्ताप करने के अलावा और कुछ नहीं होता है उनके पास।
अपने हसीन सपनों में मस्त छात्र छात्राओं को बहुत जल्द ही समझ में जाता है कि उनके सारे सपने और माता पिता की गाद्गी कमाई और एक साल का कीमती समय उनका बेकार का गुजर गयामीडिया के अनुभव के नाम पर उन्हें मात्र इस बात का पता होता है कि उनहोंने जिस संस्थान से कोर्स किया है वह देश के एक जाने माने चैनल के रूप में प्रसिद्द है और उन्हें वहां इन्टर्नशिप करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ हैलिहाजा नौकरी तो पक्की हैमगर साल भर धुन्धने के बाद भी नौकरी नही मिलती है पत्रकारिता की पढाई जो करनी थी वह तो हुई नही बस ग्लैमर में खोये रहेबेचारे लड़के इस मामले में बहुत दुर्भाग्यशाली रहते हैंहाँ कुछ चंचल चपल युवतियों को अवश्य नौकरी मिल जाती है लेकिन वह कैसे और किस आधार पर यह कोई समझाने का विषय नहीं है
मीडिया इन्स्तीचयूत के परेशा बहुत से छात्र छात्राओं से इन पंक्तियों के लेखक ने मुलाक़ात भी की जिन्होंने बार-बार यही कहा कि किसी भी तरह इस बोगस काम करने वालों पर लगाम कसी जाए जिससे मीडिया के प्रतिष्ठित परिवेश को दाग लगेलेकिन शायद ही किसी का ध्यान इस ओर जा रहा है , हर कोई मीडिया का ग्लैमर दिखाकर लोगों को बेवकूफ बनाने के काम में बेलाग लपेट लगे भिरे हैं