गुरुवार, 26 अगस्त 2010

उर्दू बेहाल..................

अनिल अनूप

उर्दू गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक उर्दू को हम सभी एक मीठी जुबान के नाम से भी जानते हैं। उर्दू भाषा में जितनी अदब और तहजीब है, उतनी ही ये बोलने और समझने में भी आसान है। उर्दू मूल रूप से एक भारतीय भाषा है। उर्दू ज़ुबान मुगलकाल में आर्मी कैम्प में वजूद में आई। भाषाई तौर पर उर्दू कई देशी-विदेशी भाषाओं का संगम है। उर्दू में हिन्दी, अंग्रेजी, लातीनी, तुर्की, संस्कृत, अरबी और फारसी जैसी भाषाओं के अल्फाज़ शामिल हैं।
उर्दू भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग हर जगह समझी जाने वाली जुबान है। उर्दू ने अपनी इस खासीयत की वजह से न सिर्फ क्षेत्रिय व्यापार को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है, बल्कि देश को एकता के सूत्र में पिरोने में भी अहम योगदान दिया है। दक्षिण के राज्यों में जहां एक तरफ हिन्दी की मुख़ाल्फत खुलेआम होती है। वहीं इन राज्यों में रहने वाले मुसलमानों का उर्दू प्रेम देखते ही बनता है। उर्दू और हिन्दी लिखने और पढऩे में भले ही अलग-अलग हो, लेकिन इन दोनों जुबानों को बोलने वाले एक दूसरे को बआसानी समझ लेते हैं। लिहाजा उर्दू के सहारे हिन्दी भी दक्षिण के राज्यों में आसानी से समझी जाती है।
इतना ही नहीं अगर बात हिन्दी फिल्मों की जाए तो उर्दू के बगैर हिन्दी फिल्मों का सपना भी डरावना लगता है। बोलचाल की भाषा में भी हम जाने अनजाने ज्यादातर उर्दू अल्फाज का ही इस्तेमाल करते हंै। एक बार मैंने अपने कुछ दोस्तों से पूछा की आप कौन सी भाषा बोलते हैं। जवाब में सभी ने कहा हिन्दी। मैंने कहा कि अगर मैं ये साबित कर दूं कि आप उर्दू बोल रहे हैं तो... इसपर सबने कहा तुम साबित ही नहीं कर सकते हो। इस पर मैंने कहा चलों तुम अपने शरीर के दस अंगों के नाम बताओ... तो उन्होंने गिनाना शुरू कर दिया। सिर, बाल, नाक, कान, आंख, दांत, जबान, होठ, गला, हाथ और पैर । फिर मैंने पूछा कि बताओ इनमें से कितनी हिन्दी है? सबने कहा, सभी हिन्दी है। मैंने कहा ये सभी उर्दू है। इस पर सभी बोले कैसे? मैने कहा ज़बान की हिन्दी है जीभा। कान को हिन्दी में कहते हैं कर्ण और आंख को नेत्र । इतना कहना था कि बाकी बचे शब्दों की हिन्दी वे ख़ुद बताने लगे और बोले यार तू तो सही कह रहा है। हम तो बस लिखते हिन्दी हैं लेकिन जब बोलने की बारी आती है तो बेधड़क उर्दू अल्फाज का इस्तेमाल करते हैं। यानी जाने अनजाने में ही सही हम इस हिन्दुस्तानी ज़ुबान उर्दू को अपने गले से लगाकर रखे हुए हैं। हालात ये है कि जीवित रहने के लिए जिन तीन बुनियादी चीज़ों- रोटी, कपड़ा और मकान का जो नारा आय दिन लगाते है, वे भी उर्दू के अल्फाज हैं। इतना ही नहीं इस दुनिया से रुखसती के वक्त जो एक चीज़ हम अपने साथ लेकर जाते है। वो कफन भी उर्दू लफ्ज है।
अकबर इलाहाबादी ने सफल संवाद की विशेषता बताते हुए लिखा था कि..
जुबां ऐसी कि सब समझे,
बयां ऐसी कि दिल मानें।
उर्दू इस शेर के अर्थ पर पूरी तरह खरी उतरती है। उर्दू जुबान की मीडिया जगत में अपनी अलग ही पहचान है। भारतीय मीडिया के लिए सफल संवाद स्थापित करने में उर्दू ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हिन्दी अख़बार, रेडियो और टीवी चैनलों में तो उर्दू के बिना सब कुछ अधा-अधूरा लगता है। हेडलाइन बनाने की बात हो या मामला स्क्रिप्ट को दिलकश अंदाज में पेश करने की। उर्दू के बिना कही भी निखार नहीं आता है। रेडियो और टीवी चैनलों में इस्तेमाल होने वाली भाषा तो निहायत ही सरल, सहज और आम बोल-चाल की उर्दू प्रधान भाषा होती है। न तो ये पूरी तरह से हिन्दी होती है और न ही उर्दू। इसलिए रेडियो और टीवी की भाषा को हिन्दी या उर्दू न कह कर हिंदुस्तानी जुबान कहा जाता है।
उर्दू की इस उपयोगिता के बावजूद भी आज उर्दू को वो सम्मान नहीं मिला जो उसे मिलना चाहिए। दरअसल देश के विभाजन के बाद उर्दू को पाकिस्तान में राष्ट्र भाषा के तौर पर पहचान मिली। बस क्या था। सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहे लोगों ने पाकिस्तान के साथ ही उर्दू को भी सांप्रादायिक रंग दे दिया। इसके बाद देखते ही देखते भारतीय सरजमीन पर वजूद में आई ये जुबान भारतीयों के लिए ही पराई हो गई। पाकिस्तान में उर्दू को भले ही राष्ट्र भाषा का दर्जा मिल गया हो लेकिन आज भी वहां की बहुसंख्यक आबादी पंजाबी बोलती है। इतना जरूर है कि भारत ही तरह पाकिस्तान में भी लगभग सभी जगह उर्दू समझी जाती है।

देश की आजादी में अहम भूमिका निभाने वाली इस जुबान को अलग थलग करने ने में सरकारी पॉलिसी भी एक हद तक जिम्मेदार है। देश की आजादी के साथ ही उर्दू, रोजगार परक और सरकारी दफ्तरों में इस्तेमाल में आने वाली जुबीन न रहकर देश के अल्पसंख्यकों की जुबान बन कर रह गई। ग़ुलामी की प्रतीक अंग्रेजी को जहां सरकारी काम काज की भाषा के तौर पर स्वीकार किया गया। वहीं उर्दू को मदरसों और उर्दू अखबारों के भरोसे छोड़ दिया गया। आम बोल चाल और देश की दूसरी बहुसंख्यक की मादरी जुबान होने की वजह से स्कूलों और कालेजों में इसे मादरी दुबान के तौर पर पढ़ाने का फैसला हुआ। वहीं सरकारी दफ्तरों में उर्दू ट्रांस्लेटर रखने का प्रावधान भी किया गया। लेकिन देश के ज्यादातर राज्यों में ये नियम कानून सिर्फ कागज का गठ्ठा बन कर ही रह गया है। इस पर न तो सरकारें अमल करती हंै और न ही उर्दू के ठेकेदारों को इसकी चिंता है। देश के ज्यादातर प्राइमरी, हाई स्कूल और इण्टर कालेज में उर्दू के पठन-पाठन का कोई इंतजाम नहीं है। सरकारों ने उर्दू अकादमी खोल कर कुछ लोगों को उर्दू के नाम पर पेट पालने का जरिया जरूर दे दिया है। जो साल में एक बार उर्दू दिवस के मौके पर कोई मुशाइरा कराना ही अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। इनका इस ओर बिल्कुल ही ध्यान नहीं है कि उर्दू को कैसे ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल की भाषा बनाई जाए। इन्हें इस बात की भी फिक्र नहीं है कि उर्दू का फरोग़ कैसे हो । इसके साथ ही उर्दू अकादमियों के तरफ से उर्दू को जदीद टेक्नोलॉजी और रोजगार से जोडऩे के प्रयास भी नदारद है। उर्दू में शोध कार्य तो बहुत ही दूर की बात है। इस ओर तो शायद उर्दू अकादमी के लोग सोच भी नहीं पाते हैं।

उर्दू के नाम पर राजनीति तो खूब होती है, लेकिन अगर कुछ नहीं बदलती है तो वह है उर्दू की हालत। पिछले दिनों ससंसद में एक बार फिर उर्दू की बदहाली पर लग-भग सभी राजनीतिक दलों के नेता घरियाली आसूं बहाते नजऱ आए। लेकिन उर्दू के विकास के नाम पर जो कुछ करने की बात कही गई, वह थी उर्दू अखबारों को प्रोत्साहन पैकेज की बात। किसी नहीं ये सुझाव नहीं दिया कि उर्दू को किस तरह रोजग़ार परक ज़बान बनाई जाए। यूं तो सरकार ने पहले से ही उर्दू के वकिास के लिए एक उर्दू चैनल भी खोल रखा है। देश में एक उर्दू यूनिर्वसिटी भी खोल दी है, ताकि उर्दू प्रेमी अपनी आला तालीम यहां से हासिल कर सकें, लेकिन सवाल पैदा ये होता है कि उर्दू पढऩे के बाद जब रोजगार ही नहीं मिलेगा तो कोई उर्दू पढऩे क्यों जाएगा? लिहाज़ा उर्दू को जीवित रखने के लिए ये निहायत ही जरूरी है कि उर्दू पढऩे वाले को रोजगार दिया जाए। दूसरी बात ये कि जब प्राइमरी और मिडिल लेवल पर ही उर्दू नदारद है तो आला तालीम के लिए उर्दू के छात्र कहां से आएंगे। अगर सरकारें वाकई उर्दू के प्रती संजीदा है तो सबसे पहले प्राइमरी और मिडिल लेवल पर शिक्षकों की भर्ती की जानी चाहिए। इस से एक ओर हज़ारों उर्दूदां को रोजगार मिलेगा। वहीं दूसरी ओर छात्र-छात्राओं के लिए उर्दू पढऩा आसान हो जाएगा । जो लोग शिक्षक की कमी की वजह से चाह कर भी उर्दू नहीं पढ़ पाते हैं। उनके अधिकारों की रक्षा भी होगी

आज देशभर में उर्दू की हालत निहायत ही बदतरीन है। हालात ये है कि सरकारी दफ्तरों के बाहर लगे बोर्डो को भी अब उर्दू में लिखने की ज़रूरत नहीं समझी जा रही है। जहां कही उर्दू में लिखा भी होता है तो वह भी ग़लत लिखा होता है। यही वजह है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इस पर अपनी चिंता जताने के साथ ही उर्दू दाम से इन बोर्डों को दुरुस्त करने में सहयोग की अपील कर चुकी है।

विविधताओं से भरे भारत में एक कहावत आम है कि कोस-कोस पर पानी बदले तीन कोस पर बोली लेकिन इस विविधतचा में एक बात खास है कि ये सभी बोलियां एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं। लिहाजा देश की एकता और अखण्डता को बरकरार रखने के लिए विविधता का सम्मान जरूरी है।

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

कैसी है ये आजादी..?

- अनिल अनूप
हजारों लाखों बलिदानी शहीदों की कुरबानियों ने हमें परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कर स्वच्छंद वातावरण में सांस लेने की आजादी दी। बरसों की गुलामी के बाद हमने आजादी पायी। हमारी वाणी आजाद हुई, हमारे विचारों पर से संगीनों के पहरे हट गये। वंदे मातरम् कहने पर हम गर्व महसूस करने लगे और फिरंगी जुल्म का साया हमारी जिंदगी से हट गया। हम आजाद हुए तो देश भी बौद्धिक और आर्थिक विकास की दिशा में आगे बढ़ा। शुरू-शुरू में देश के कर्णधारों ने परतंत्रता की बेड़ियों से बरसों जकड़े रहे जनमानस में सुरक्षा और आत्मविश्वास के भाव जगाये। देश को अपने ढंग से संवारने और विकसित करने में उन्होंने पूरा ध्यान लगाया लेकिन आजादी अपने साथ एक बुराई भी लेती आयी। धीरे-धीरे शासक वर्ग और दूसरे लोगों ने आजादी का अर्थ कुछ और ही लगा लिया। सत्ता से जुड़े कुछ लोग निरंकुश हो गये और स्वजन पोषण और भ्रष्टाचार में लिप्त हो गये। इससे दूसरे वर्ग को भी भ्रष्टाचार में लिप्त होने का प्रोत्साहन मिला। आज कुछ अपवादों को छोड़ दें तो सत्ता में हो या दूसरे क्षेत्र में निचले स्तर से लेकर शीर्ष तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। सच कहें तो भ्रष्टाचार शीर्ष से ही निचले स्तर तक आता है। निचले स्तर के कर्मचारी तभी भ्रष्टाचार में लिप्त होने का साहस जुटा पाते हैं जब वे अपने से बड़ो को ऐसा करते देखते हैं। आज आप का कहीं भी किसी मुहकमे में काम पड़े, आप पायेंगे कि आपकी फाइल इतनी भारी हो गयी है कि वह बिना पत्रम्-पुष्पम् डाले आगे बढ़ ही नहीं पाती। हम यह नहीं कहते कि सारे अधिकारी या शासक भ्रष्ट हैं लेकिन कुछ तो हैं जो भ्रष्टाचार के पंक में आकंठ डूबे हैं। जो भ्रष्ट नहीं हैं उनका इन लोगों के बीच रहना मुश्किल हो जाता है। उन्हें या तो उनके रंग में रंगना पड़ता है या फिर खामोशी से अनीति को पनपते देखना पड़ता है। हमें इस भ्रष्टाचार अनाचार की आजादी जरूर मिल गयी है। स्थिति यहां तक पहुंची कि सरकारी स्तर के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए लोकायुक्त तक की नियुक्ति करनी पड़ी। वक्त गवाह है कि लोकायुक्त ने सरकार के कई भ्रष्ट अधिकारियों की कलई खोली और उनका सच उजागर हो गया। ये वे मामले हैं जो सामने आये ऐसा न जाने भ्रष्टाचार के और कितने मामले हैं जो दब गये या इरादतन दबा दिये गये। आजादी के बाद हमने यह प्रगति जरूर की है कि राष्ट्रीय संपत्ति और आम आदमी की संपत्ति की जम कर लूट हो रही है। अंग्रेजों के शासन काल में ऐसे भ्रष्टार की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। उन दिनों इतना कड़ा शासन था कि कोई भ्र्ष्टाचार करने की सोच भी नहीं सकता था। आज तो प्रशासन के ऊंचे स्तर को साध लो फिर जो चाहे करो। हम यह लिखते वक्त यह अवश्य जोड़ेंगे कि आज भी ईमानदार अधिकारियों की कमी नहीं लेकिन वे कितने हैं और उनकी कितनी चलती है यह किसी से छिपा नहीं। ऐसे में आम आदमी और उस आदमी का भगवान ही मालिक है जिसकी पहुंच किसी असरदार व्यक्ति नहीं है।
ऐसा नहीं कि भारत में भ्रष्टाचार नया है इसकी फसल तो आजादी मिलने के कुछ अरसे बाद ही उग आयी थी। 1937 में कांग्रेस के कुछ भ्रष्ट मंत्रियों को देख महात्मा गांधी इतना दुखी हुए थे कि 1939 के एक बयान में उन्होंने यहां तक कह डाला था कि-‘मैं कांग्रेस में भ्रष्टाचार को सहने के बजाय इस दल को सम्मान के सहित दफना देना ज्यादा पसंद करूगा।’ उन दिनों गांधी जी की पूरी तरह से उपेक्षा की गयी और उन दिनों भ्रष्टाचार का जो बीज बोया गया आज वह विशाल वटवृक्ष का रूप ले चुका है और उसकी शाखा-प्रशाखाएं दिन पर दिन पूरे देश को अपनी गिरफ्त में लेती जा रही हैं। करोड़ो अरबों के घोटाले के मामले जब इस देश में सुनने में आते हैं तो लगता है जैसे किसी ने देश की गरीब जनता के मुंह पर तमाचा जड़ दिया है, उसकी अस्मिता पर चोट की है, उसके हिस्से की रोटी छीन ली है। यह है हमारे देश में आजादी के मायने।
कई सर्वेक्षणों तक से यह बात सामने आयी है कि भारत में राजनीतिक भ्रष्टाचार सीमाएं लांघ चुका है। कई राज्यों में सत्ता के शीर्ष तक में रहे नेताओं पर सीबीआई के मामले चल रहे हैं। यहां घोटाला, वहां हवाला देश की आज यही तसवीर बन कर रह गयी है। ऐसे में यह सवाल तो वाजिब है कि –आजादी यह कैसी आजादी!
हमें आजाद हुए बरसों हो गये लेकिन देश में आज भी किसान गरीबी और कर्ज के मार से आत्महत्या कर रहे हैं। कई जगह भुखमरी से बेहाल माताएं दिल पर पत्थर रख अपनी संतानों को बेचने को मजबूर हो रही हैं। जाहिर है कि यह किसी भी देश के लिए गर्व की बात तो नहीं हो सकती। हमारे यहां गरीबी का यह हाल है कि हमारे बिहार, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल और झारखंड को लेकर 8 राज्यों में इतनी गरीबी है जितनी अफ्रीकी देशों में भी नहीं है। आक्सफोर्ड पावर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इंशिएटिव के मल्टीडाइमेन्शनल पावर्टी इंडेक्स (एमपीआई) से किये सर्वे से यह साफ हुआ है कि बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, ओड़ीशा, राजस्थान , उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की अधिकांश जनता गरीब है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। हम गर्व कर सकते हैं कि हमारे यहां रईसों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है (अगर यह गर्व करने लायक बात हो एक गरीब देश में तो) और गरीब और भी गरीब होते जा रहे हैं। सरकारी बैंकों और निजी बैंकों से ऋण दिये जाने की चाहे जितनी भी बात की जाती हो लेकिन किसान और गरीब आज भी महाजनों से दुगने-तिगुने ब्याज दर पर कर्ज लेने को मजबूर हैं और कर्ज न चुका पाने पर उन्हें आत्महत्या तक करनी पड़ती है। इन लोगों को आजादी ने क्या दिया। हमें गर्व है कि दुनिया के रईसों में हमारे देश के भी लोगों के नाम फोर्ब्स पत्रिका में आते हैं लेकिन आजादी के सच्चे मायने और गर्व तो तब करना उचित होगा जब यह खबर आये कि भारत से गरीबी मिट गयी, समता आ गयी। जो आज के इस भ्रष्ट तंत्र (कोई भी दल सत्ता में हो किसी एक दल की बात नहीं) में दिवास्वप्न के समान है। आजादी के इतने बरसों बाद देश का हासिल यही है कि गरीब आज भी रोटी-रोटी को मुंहताज है और अमीरों की आबादी बढ़ती जाती है। आज जो लखपति है उसे अरबपति बनने में देर नहीं लगती लेकिन विकास के सारे नारे, सभी दावे गरीब की दहलीज तक जाकर ठहर जाते हैं। उसकी तकदीर नहीं बदलती।
हमने प्रगति की है। कहते हैं पहले हम सुई तक विदेश से मंगाते थे आज विमान भी बनाने लगे हैं। आणविक शक्ति बन गये हैं लेकिन जो प्रगति, जो विकास सीमांत किसानों या देश के गरीब का हित न करता हो वह बेमानी है। आप गांवों में जाइए वहां आज भी सामान्य स्वास्थ्य सुविधाएं, पीने का पानी तक नहीं है। बिजली भले ही शहरों में बाबुओं के घरों को ठंडा रखती हों लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश व ऐसे ही अन्य कई राज्यों के लोगों से पूछिए कि बिजली का कितना सुख वे भोग पाते हैं। वहां दिन में मुश्किल से तीन-चार घंटे को बिजली आती है ऐसे में न तो कृषि कार्य में इसका उपयोग हो पाता है और न ही कल-कारखाने ही सुचारू रूप से चल पाते हैं। गरमी के दिनों में इन प्रदेशों के लोगों की बेचैनी वही जान सकता है जिसने वह दुख उनके साथ भोगा हो दिल्ली में बैठे वे शासक या अधिकारी नहीं जिन्हें 24 घंटे एयरकंडीशंड माहौल में रहने की आदत पड़ गयी है। वाकई व्यवस्था यह होनी चाहिए कि ये लोग भी जनता का दुख जानने के लिए कभी उनकी स स्थितियों को जीयें ताकि इन्हें पता चल सके कि देश की कितने प्रतिशत जनता खुशहाल है। अक्सर होता यह है कि गरीबों का हाल या तो सत्ता तक पहुंचता नहीं या फिर अधिकारी अपने आकाओं को खुश करने के लिए गलत आंकड़े देकर विकास का ऐसा नक्शा खींच देते हैं कि देश खुशहाल और तरक्की करता नजर आता है।हम फिर यह कहेंगे कि सभी अधिकारी और शासक ऐसे नहीं लेकिन क्या करें यह हमारा दुर्भाग्य है कि देश में कहीं तो कुछ गड़बड़ है वरना आज महंगाई सिर चढ़ कर नहीं बोल रही होती। जो चीजें आयात होती हैं उनकी कीमतें बढ़ना तो लाजिमी है लेकिन देश में उत्पादित या पैदा होने वाली वस्तुओं की कीमतों का आकाश छूना अजीब ही नहीं बेमानी लगता है।
स्वाधीनता दिवस के पावन पर्व में हम अपनी वीर शहीदों को नमन करते हैं और उनकी शहादत के उस जज्बे को सलाम करते हैं जिसके चलते आजादी के लिए उन्होंने अपनी कुरबानी दी। हमें दुख है कि जिस भारत का सपना उन्होंने देखा था वह पूरा नहीं हो सका और देश न जाने किस राह में भटक गया। हम यह नहीं कहते कि सब कुछ अशुभ ही अशुभ है शुभता देश में झलक रही है। हम प्रगति कर रहे हैं लेकिन सच यह भी है कि हमें देश और देश के बाहर भी न जाने कितने-कितने दुश्मनों से लोहा लेना पड़ रहा है। हम चाहते हैं कि देश में आजादी को सच्चे अर्थों में लिया जाये जिसका अर्थ हो देश के गरीब से गरीब तबके तक विकास का लाभ पहुंचाना। उस तक सत्ता की सीधी पहुंच और सही तौर से उसकी उन्नति के प्रयास। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक स्थिति बड़ी दयनीय होगी और जाने-माने मशहूर संवाद लेखक स्वर्गीय ब्रजेद्र गौड़ की कविता की ये पंक्तियां हमें और हमारे शासकों को धिक्कारती रहेंगी-‘साम्यवाद के जीवित शव पर मानवता रोती है, किसी देश में क्या ऐसी ही आजादी होती है।’उम्मीद पर दुनिया कायम है और हमें भी इंतजार है जब देश का हर नागरिक खुशहाल होगा, किसान आत्महत्या को मजबूर नहीं होंगे, आतंकवाद से तेश मुक्त होगा, सबमें भाईचारा होगा और देश सभी को प्यारा होगा। हमें इंतजार है-वह सुबह कभी तो आयेगी। आप भी यही कामना कीजिए। जय जवान, जय किसान, जय हिंदुस्तान।
धर्म इस्लाम
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अनिल अनूप
खबर है कि फ्लोरिडा के एक चर्च में ११ सितंबर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुरान को जलाने (इंटरनेशनल बर्न ए कुरान डे) के दिवस के तौर पर मनाया जाएगा।न्यूयॉर्क के समाचार पत्रों के अनुसार ११ सिंतबर २००१ को हुए आतंकी हमले की घटना की नौवीं बरसी पर चर्च ने यह कदम उठाने का फै सला लिया है। फ्लोरिडा के 'द डोव वल्र्ड आउटरीच सेंटरÓ में ९/११ की बरसी पर एक शोक सभा आयोजित की जाएगी। जिसके तहत इस्लाम को कपटी और बुरे लोगों का धर्म बताकर कुरान को जलाया जाएगा।संसद में उछला मुद्दाचर्च द्वारा कुरान की प्रतियां जलाने के बारे में अमरीकी चर्च की घोषणा के मुद्दे को ९ अगस्त सोमवार को लोकसभा में उठाते हुए इस पर चर्चा कराए जाने की मांग की गई। बसपा डॉ. शफीकुर रहमान बर्क ने इस मुद्दे को उठाया।उन्होंने कहा कि भारत सरकार को अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के समक्ष इस मसले को रखना चाहिए। भारत और दुनिया के मुसलमान अपने पवित्र धर्मग्रंथ के किसी भी तरह के अपमान को बर्दाश्त नहीं कर सकते। नोट:- इस महाशय ने कभी-भी उस वक्त आपत्ति दर्ज नहीं कराई, जब मुस्लिमों द्वारा कई बार बीच सड़क पर भारत के राष्ट्रीय ध्वज जलाए। लगता है ये देश का अपमान बर्दाश्त कर सकते हैं... साथ ही इन्हें दूर देश में क्या हो रहा है इस बात की तो चिंता रहती है, लेकिन अपने देश में सांप्रदायिक ताकतें क्या गुल खिला रही हैं यह नहीं दिखता।कुरान-इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब थे। इनका जन्म अरब देश के मक्का शहर में सऩ ५७० ई में हुआ था। अपनी कट्टर सोच के कारण इन्हें अपनी जान बचाने के लिए मक्का से भागना पड़ा। इस्लाम के मूल हैं-कुरान, सुन्नत और हदीस। कुरान वह ग्रंथ है जिसमें मुहम्मद साहब के पास ईश्वर के द्वारा भेजे गए संदेश संकलित हैं। कुरान का अर्थ उच्चरित अथवा पठित वस्तु है। कहते हैं कुरान में संकलित पद (आयतें) उस वक्त मुहम्मद साहब के मुख से निकले, जब वे सीधी भगवत्प्रेरणा की अवस्था में थे।मुहम्मद साहब २३ वर्षों तक इन आयतों को तालपत्रों, चमड़े के टुकड़ों अथवा लकडिय़ों पर लिखकर रखते गए। उनके मरने के बाद जब अबूबक्र पहले खलीफा हुए तब उन्होंने इन सारी लिखावटों का सम्पादन करके कुरान की पोथी तैयार की, जो सबसे अधिक प्रामाणिक मानी जाती है।ईसाइयों से विरोधकुरान सबसे अधिक जोर इस बात पर देती है कि ईश्वर एक है। उसके सिवा किसी और की पूजा नहीं की जानी चाहिए। हिन्दुओं से तो इस्लाम का सदियों से सीधा विरोधहै। हिन्दू गौ-पालक और गौ-भक्त हैं तो मुस्लिम गौ-भक्षक, हिन्दू मूर्ति पूजा में विश्वास करते हैं तो इस्लाम इसका कट्टर विरोधी है। ईसाइयों से भी उसका इस बात को लेकर कड़ा मतभेद है कि ईसाई ईसा मसीह को ईश्वर का पुत्र कहते हैं। कुरान का कहना है कि ईसा मसीह ईश्वर के पुत्र कतई नहीं हो सकते,क्योंकि ईश्वर में पुत्र उत्पन्न करने वाले गुण को जोडऩा उसे मनुष्य की कोटि में लाना है। दोनों से भला हिन्दुत्वकुछ लोगों को हिन्दुत्व से बड़ी आपत्ति है, लेकिन मैं भगवान का शुक्रिया अदा करता हूं कि मैं हिन्दू जन्मा। हिंदू होने के नाते मुझे सभी धर्मों का आदर करने की शिक्षा मिली है। मैं मंदिर जा सकता हूं, मस्जिद और दरगाह पर श्रद्धा से शीश झुका सकता हूं और चर्च में प्रार्थना भी कर सकता हूं। जिस तरह से एक आतंककारी घटना से ईसाइयों में इस्लाम के प्रति इतना क्रोध है कि कुरान को चर्च में जलाने का निर्णय ले लिया। इससे तो हिन्दू भले हैं। हिन्दुओं ने तो मुगलों के अनगिनत आक्रमण और आंतकी हमले झेले हैं, लेकिन कभीभी कुरान जैसे ग्रंथ को जलाने का निर्णय नहीं लिया। भले ही इस देश के मुसलमान सड़कों पर यदाकदा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को जलाते रहे हों या फिर राष्ट्रगीत वन्देमातरम् के गाने पर एतराज जताते हों। असल में इस्लाम और ईसाई दोनों ही धर्म अति कट्टर हैं। वे अपने से इतर किसी अन्य धर्म की शिक्षाओं को न तो ठीक मानते हैं और न उनकाआदर करते हैं। एक ने अपने धर्म का विस्तार तलवार की नोक पर किया तो दूसरे ने लालच, धोखे और षडय़ंत्र से भोले-मानुषों को ठगा। खैर चर्च में कुरानजलाने का मसला तूल पकड़ेगा। इसके विरोध में पहली प्रतिक्रिया भारतीय संसद में हो चुकी है।