बुधवार, 30 दिसंबर 2009

इस्लाम के प्रति ग्लोबल मीडिया में घृणा


अब्दुल्ला
एडवर्ड सईद ने ''कवरिंग इस्लाम''(1997) में विस्तार से भूमंडलीय माध्यमों की इस्लाम एवं मुसलमान संबंधी प्रस्तुतियों का विश्लेषण किया है।सईद का मानना है कि भूमंडलीय माध्यम ज्यादातर समय इस्लामिक समाज का विवेचन करते समय सिर्फ इस्लाम धर्म पर केन्द्रित कार्यक्रम ही पेश करते हैं।इनमें धर्म और संस्कृति का फ़र्क नजर नहीं आता। भूमंडलीय माध्यमों की प्रस्तुतियों से लगता है कि इस्लामिक समाज में संस्कृति का कहीं पर भी अस्तित्व ही नहीं है।इस्लाम बर्बर धर्म है।इस तरह का दृष्टिकोण पश्चिमी देशों के बारे में नहीं मिलेगा।ब्रिटेन और अमरीका के बारे में यह नहीं कहा जाता कि ये ईसाई देश हैं।इनके समाज को ईसाई समाज नहीं कहा जाता।जबकि इन दोनों देशों की अधिकांश जनता ईसाई मतानुयायी है।
भूमंडलीय माध्यम निरंतर यह प्रचार करते रहते हैं कि इस्लाम धर्म ,पश्चिम का विरोधी है।ईसाईयत का विरोधी है।अमरीका का विरोधी है।सभी मुसलमान पश्चिम के विचारों से घृणा करते हैं।सच्चाई इसके विपरीत है।मध्य-पूर्व के देशों का अमरीका विरोध बुनियादी तौर पर अमरीका-इजरायल की विस्तारवादी एवं आतंकवादी मध्य-पूर्व नीति के गर्भ से उपजा है।अमरीका के विरोध के राजनीतिक कारण हैं न कि धार्मिक कारण।
एडवर्ड सईद का मानना है कि 'इस्लामिक जगत' जैसी कोटि निर्मित नहीं की जा सकती।मध्य-पूर्व के देशों की सार्वभौम राष्ट्र के रुप में पहचान है।प्रत्येक राष्ट्र की समस्याएं और प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं।यहाँ तक कि जातीय ,सांस्कृतिक और भाषायी परंपराएं अलग-अलग हैं।अत: सिर्फ इस्लाम का मतानुयायी होने के कारण इन्हें 'इस्लामिक जगत' जैसी किसी कोटि में 'पश्चिमी जगत' की तर्ज पर वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण देखें तो पाएंगे कि भूमंडलीय माध्यमों का मध्य-पूर्व एवं मुस्लिम जगत की खबरों की ओर सन् 1960 के बाद ध्यान गया।इसी दौर में अरब-इजरायल संघर्ष शुरु हुआ।अमरीकी हितों को खतरा पैदा हुआ।तेल उत्पादक देशों के संगठन'ओपेक' ने कवश्व राजनीति में अपनी विशिष्ट पहचान बनानी शुरु की।तेल उत्पादक देश अपनी ताकत का एहसास कराना चाहते थे वहीं पर दूसरी ओर विश्व स्तर पर तेल संकट पैदा हुआ।ऐसी स्थिति में अमरीका का मध्य-पूर्व में हस्तक्षेप शुरु हुआ।अमरीकी हस्तक्षेप की वैधता बनाए रखने और मध्य-पूर्व के संकट को 'सतत संकट' के रुप में यहीबनाए रखने के उद्देश्य से भूमंडलीय माध्यमों का इस्तेमाल किया गया।यही वह दौर है जब भूमंडलीय माध्यमों से इस्लाम धर्म और मुसलमानों के खिलाफ घृणा भरा प्रचार अभियान शुरु किया गया।माध्यमों से यह स्थापित करने की कोशिश की गई कि मध्य-पूर्व के संकट के जनक मुसलमान हैं।जबकि सच्चाई यह है कि मध्य-पूर्व का संकट इजरायल की विस्तारवादी-आतंकवादी गतिविधियों एवं अमरीका की मध्य-पूर्व नीति का परिणाम है।इसे भूमंडलीय माध्यमों द्वारा इस्लाम एवं मुसलमान विरोधी प्रचार अभियान का प्रथम चरण कहा जा सकता है।इसी दौर में अमरीकी एवं इजरायली इस्लामवेत्ताओं के इस्लाम संबंधी दर्जनों महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित हुए।जिनमें इस्लाम एव मुसलमानों के बारे में बेसिर-पैर की बातें लिखी हैं। कालान्तर में ये ही पुस्तकें इस्लाम विरोधी प्रचार अभियान का हिस्सा बन गयी।इन पुस्तकों के अधिकांश लेखक अरबी भाषा नहीं जानते थे और न कभी अरब देशों को उन्हें करीब से जानने का मौका मिला।ऐसी तमाम पुस्तकों की एडवर्ड सईद ने अपनी पुस्तक में विस्तृत आलोचना की है।
भूमंडलीय माध्यमों के इस्लाम धर्म विरोधी अभियान का दूसरा चरण 1975से शुरु होता है। इस दौर में 'ईरान क्रांति' और अफगानिस्तान की घटनाओं ने इस मुहिम को और भी तेज कर दिया।सन् 1975 से भूमंडलीय माध्यमों के एजेण्डे पर ईरान आ गया। बाद में 1979 में अफगानिस्तान में कम्युनिस्टों के सत्तारुढ़ होने के बाद सोवियत सैन्य हस्तक्षेप हुआ और भूमंडलीय माध्यमों ने इस्लाम विरोधी मुहिम में एक नया तत्व जोड़ा वह था तत्ववाद और आतंकवाद।अब तेजी से विभिन्न किस्म के सोवियत विरोधी आतंकवादी एवं तत्ववादी गुटों को अमरीकी साम्राज्यवाद की तरफ से खुली आर्थिक,सामरिक,राजनीतिक एवं मीडिया मदद मुहैया करायी गयी।अमरीकी साम्राज्यवाद ने पाकिस्तान के साथ मिलकर मुजाहिदीन सेना का गठन किया। इसके लिए अमरीकी सीनेट ने तीन विलियन डॉलर की आर्थिक मदद भी की। ध्यान देने वाली बात यह है कि सन् 1970 के बाद से अनेक मुस्लिम बहुल देशों में संकट आए किन्तु किसी में भी भूमंडलीय माध्यमों ने रुचि नहीं ली। मसलन इसी दौर में इथोपिया और सोमालिया में गृहयुध्द चल रहा था।अल्जीरिया और मोरक्को में दक्षिणी सहारा को लेकर झगड़ा हो गया।पाकिस्तान में राष्ट्रपति को हटा दिया गया,मुकदमा चलाया गया,फौजी तानाशाही स्थापित हुई।ईरान-ईराक में युध्द छिड़ गया।हम्मास और हिजबुल्ला जैसे संगठनों का उदय हुआ।अल्जीरिया में इस्लामपंथियों एवं प्रतिष्ठाहीन सरकार के बीच गृहयुध्द शुरु हो गया। इन सब घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने और इनकी नियमित रिपोर्टिंग करने में भूमंडलीय माध्यम असमर्थ रहे।
एडवर्ड सईद ने लिखा कि इस दौर में पश्चिम के माध्यम ऐसी सामग्री परोस रहे थे जिसका संकटग्रस्त क्षेत्र की वास्तविकता से कोई संबंध नहीं था।इसके विपरीत यह सामग्री ज्यादा से ज्यादा भ्रम की सृष्टि करती थी। असल में भूमंडलीय माध्यम 'क्लासिकल इस्लाम' की धारणाओं के आधार पर आधुनिकयुगीन घटनाओं और इस्लाम का विश्लेषण करते रहे हैं।इसका अर्थ यह भी है कि पश्चिमी विशेषज्ञों की नजर में इस्लामिक जगत में कोई बदलाव नहीं आया है।सईद ने लिखा कि पश्चिमी जगत की अज्ञानता का आदर्श नमूना था 'ईरान क्रांति' का पूर्वानुमान न कर पाना।
सईद ने लिखा कि पश्चिमी जगत में इस्लाम के बारे में सही ढ़ंग़ से बताने वाले नहीं मिलेंगे।अकादमिक एवं माध्यम जगत में इस्लामिक समाज के बारे में बताने वालों का अभाव है।यही वजह थी कि ईरानी समाज में हो रहे परिवर्तनों को पश्चिमी जगत सही ढ़ंग से देख नहीं पाया।ईरान देशों में ऐसी ताकतें भी हैं जो अमरीकीकरण या आधुनिकीकरण की विरोधी हैं।इनमें कई तरह के ग्रुप हैं।
सत्तर के दशक में ईरान में जो परिवर्तन हुए उससे आधुनिकीकरण की अमरीकी सैध्दान्तिकी धराशायी हो गयी।ईरान की क्रांति न तो कम्युनिस्ट समर्थक थी और न अमरीकी शैली के आधुनिकीकरण की समर्थक थी।ईरान की क्रांति से यह निष्कर्ष निकला कि अमरीकी तर्ज के आधुनिकीकरण से ईरान के शाह को कोई लाभ नहीं पहँचा।अमरीकी विशेषज्ञों की राय थी कि सैन्य-सुरक्षा के आधुनिक तंत्र के जरिए आधुनिक शासन व्यवस्था का निर्माण हो सकता है,इस धारणा का खंडन हुआ।इसके विपरीत हुआ यह कि ईरान क्रांति ने सभी किस्म के पश्चिमी विचारों के प्रति घृणा पैदा कर दी।यहाँ तक कि विवेकवाद को भी खोमैनी समर्थक स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।एडवर्ड सईद ने लिखा कि इस तरह की भावना सुचिंतित एवं सुनियोजित ढ़ंग से पैदा नहीं हुई अपितु स्वत:स्फूर्त्त ढ़ंग से पैदा हुई।इसका प्रधान कारण यह था कि ईरानी लोग इस्लाम से जुड़े थे और इस्लाम ईरान से जुड़ा था।इस संबंध को पागलपन और मूर्खता की हद तक निभाया गया।यह सत्ता का प्रतिगामी ताकतों के सामने आत्मसमर्पण था।किन्तु यह स्थिति सिर्फ ईरान की ही नहीं थी अपितु इजरायल की भी थी।वहाँ पर शासकों ने धार्मिक सत्ता के सामने पूरी तरह आत्मसमर्पण कर दिया।किन्तु इजरायल के घटनाक्रम को माध्यमों ने छिपा लिया और ईरान के खोमैनी समर्थकों पर हल्ला बोल दिया।
ईरान क्रांति के बाद भूमंडलीय माध्यमों ने इस्लामिक जगत की प्रत्येक घटना को इस्लाम से जोड़ा।यही वह संदर्भ है जब आतंकवाद और इस्लाम के अन्त:सम्बन्ध पर जोर दिया गया।इस संबंध के बड़े पैमाने पर स्टारियोटाइप विभिन्न माध्यमों के जरिए प्रचारित किए गए।इसके विपरीत पश्चिमी देशों में होने वाली घटनाओं को कभी भी ईसाइयत से नहीं जोड़ा गया और न 'पश्चिमी सभ्यता' या 'अमरीकी जीवन शैली' से जोड़ा गया।इसी तरह शीतयुध्दीय राजनीति से प्रेरित होकर इस्लाम और भ्रष्टाचार के अन्त:संबंध को खूब उछाला गया।
भूमंडलीय माध्यमों के इस्लाम विरोध की यह पराकाष्ठा है कि जो मुस्लिम राष्ट्र अमरीका समर्थक हैं उन्हें भी ये माध्यम पश्चिमी देशों की जमात में शामिल नहीं करते।यहाँ तक कि ईरान के शाह रजा पहलवी को जो घनघोर कम्युनिस्ट विरोधी था और अमरीकापरस्त था,बुर्जुआ संस्कार एवं जीवन शैली का प्रतीक था,उसे भी पश्चिम ने अपनी जमात में शामिल नहीं किया।इसके विपरीत अरब-इजरायल विवाद में इजरायल को हमेशा पश्चिमी जमात का अंग माना गया और अमरीकी दृष्टिकोण व्यक्त करने वाले राष्ट्र के रुप में प्रस्तुत किया गया।आमतौर पर इजरायल के धार्मिक चरित्र को छिपाया गया।जबकि इजरायल में धार्मिक तत्ववाद की जड़ें अरब देशों से ज्यादा गहरी हैं।इजरायल का धार्मिक तत्ववाद ज्यादा कट्टर और हिंसक है।आमतौर पर लोग यह भूल जाते हैं कि गाजापट्टी के कब्जा किए गए इलाकों में उन्हीं लोगों को बसाया गया जो धार्मिक तौर पर यहूदी कट्टरपंथी हैं।इन कट्टरपंथियों को अरबों की जमीन पर बसाने का काम इजरायल की लेबर सरकार ने किया, जिसका 'धर्मनिरपेक्ष' चरित्र था।इतने बड़े घटनाक्रम के बाद भी भूमंडलीय प्रेस यह प्रचार करता रहा कि मध्य-पूर्व में किसी भी देश में जनतंत्र कहीं है तो सिर्फ इजरायल में है।मध्य-पूर्व में पश्चिमी देश इजरायल की सुरक्षा को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित हैं।अन्य किसी राष्ट्र की सुरक्षा को लेकर वे चिंतित नहीं हैं।अरब देशों की सुरक्षा या फिलिस्तीनियों की सुरक्षा को लेकर उनमें चिंता का अभाव है।इसके विपरीत फिलिस्तीनियों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना के लिए संघर्षरत फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को अमरीका ने आतंकवादी घोषित किया हुआ है।